कालचिड़ी / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
काली चिड़िया सुबह-सवेरे रोज़ चली आती है और बरामदे में लगे आईने पर चोंच मारने लगती है। उड़ा देने पर कुछ देर बाद फिर चली आती है।
शुचिता खीझकर रह जाती। पता नहीं इस चिड़िया को आईने से इतनी चिढ़ क्यों है?
आज उसको देखने के लिए दिल्ली का एक परिवार आ रहा है। लड़का किसी फैक्टरी में इंजीनियर है। उसके मन में गुदगुदी-सी होने लगी। कैसा होगा वह लड़का!
माता-पिता भाई सभी घर सँवारने में लगे थे। पूरे घर में अफरा-तफरी मची थी।
शुचिता का जीवन कितना सुखद रहा है। स्कूल के दिनों में अरोड़ा जी उसके आदर्श शिक्षक थे। थे दुर्वासा रूप पर उसको कभी नहीं डाँटा। कभी ज़रा-सी ठेस नहीं पहुँचाई. जिले-भर में प्रथम आने पर उसको जितनी खुशी हुई थी, उससे कहीं अधिक अरोड़ा जी खुश हुए थे। उनकी आँखों में आँसू छलक आए थे। उसकी पीठ थपथपाकर बोले थे-"मैं जानता था, मेरी बेटी इण्टर में पहला स्थान पाकर मेरा नाम रोशन करेगी।"
कॉलेज में पहुँचने पर प्रो सिंह का भरपूर स्नेह मिला। भाषण एवं लेखन की कई प्रतियोगिताएँ जीतीं। उसकी सहेलियाँ उसे हमेशा ईर्ष्या-भरी दृष्टि से देखा करती थीं।
पिता उसे बड़ा बेटा मानते रहे हैं। लड़की समझकर उसकी कभी उपेक्षा नहीं की। कितने अच्छे लोग हैं सब।
"वे लोग आ गए." खुशी से भरा छोटा भाई हड़बड़ाता हुआ घर में आया। साधारण कद-काठी का अकड़कर चलता हुआ युवक। साथ में नाक-भौं सिकोड़ते माता-पिता। घर में जैसे सन्नाटा छा गया। पूरा परिवार खातिरदारी में जुटा था।
शुचिता, गुड़िया की तरह सज-धजकर हाथों में चाय की ट्रे लेकर आ पहुँची। पिता बोले-"यह है मेरी लड़की शुचिता, पढ़ाई लिखाई में हमेशा फर्स्ट आई है। भाषण और लेखन में विश्वविद्यालय स्तर पर कई पुरस्कार जीते हैं।"
शुचिता के पिता के शब्द हवा में खो गए. तीनों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। सन्नाटा और गहरा हो गया। चाय पीने के बाद जब सब चलने लगे तो
शुचिता के पिता ने पूछा-"आपने क्या सोचा है?"
लड़के के माता-पिता अपनी ही हाँके जा रहे थे। अबकी बार लगभग गिड़गिड़ाते हुए शुचिता के पिताजी ने पूछा-"हमारी बेटी कैसी लगी आपको? आपका बेटा तो बहुत होनहार है।"
"सोचकर बताएँगे।" लड़के के पिता ने कहा।
"हमारे लड़के को खूबसूरत लड़की चाहिए. साँवली लड़की इसे पसंद नहीं।" लड़के की माँ ने उबासी लेते हुए कहा।
दरवाज़े की ओट में खड़ी शुचिता को सुनकर लगा जैसे इसको ऊँची मीनार से नीचे धकेल दिया गया हो।
काली चिड़िया बरामदे में लगे दर्पण पर अब भी चोंच मार रही थी।
शुचिता ने इस बार उसको उड़ाने की चेष्टा नहीं की।
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