कालजयी अवदानी: माधवराव सप्रे / लालचंद गुप्त 'मंगल'
सार्द्धशती पर विशेष।
हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत, स्वाधीनता-स्वभाषा-स्वदेशी के संदेशवाहक, 'राजनीति में उमड़े हुए हृदयों के संचालक , 'साहित्यिज्ञों के प्रेरक और साथी' , गम्भीर विचारक, संवेदनशील लेखक, स्वस्थ आलोचक, प्रखर सम्पादक, कुशल अनुवादक, हिन्दी के प्रथम कहानीकार और अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं के संस्थापक पण्डित माधवराव सप्रे का जन्म 19 जून, 1871 ई. को मध्य प्रदेश राज्य के दमोह ज़िलान्तर्गत पथरिया नामक गाँव में हुआ। पहले बिलासपुर और फिर जबलपुर से मैट्रिक तक की शिक्षा प्राप्त करके आप पीडब्ल्यू॰ डी॰ विभाग में ठेकेदारी करने लगे। पुनः लश्कर (ग्वालियर) और नागपुर में पढ़ना शुरू किया। इस प्रकार, बी.ए. की उपाधि प्राप्त करते-करते, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक से अत्यधिक प्रभावित होने के कारण, अंगरेज़-सरकार की नौकरी करने की अपेक्षा, मराठीभाषी माधवराव सप्रे ने, अपने लक्ष्य और संकल्प-पूर्त्ति की दिशा में कदम बढ़ाने का अन्तिम निर्णय कर लिया। फलस्वरूप जनवरी, 1990 में पेंड्रा से हिन्दी में एक मासिक-पत्र 'छत्तीसगढ मित्र' का संपादन-प्रकाशन आरम्भ किया, जिसके प्रवेशांक में, 'आत्म-परिचय' के अन्तर्गत, आपने इस पत्र के ये तीन उद्देश्य बताए-
1. संप्रति छत्तीसगढ विभाग (क्षेत्र) को छोड़कर ऐसा एक भी प्रांत नहीं है, जहाँ दैनिक, साप्ताहिक, मासिक या त्रैमासिक पत्र प्रकाशित न होता हो। इसमें कुछ संदेह नहीं कि सुसंपादित पत्रों के द्वारा हिन्दी-भाषा की उन्नति हुई है। अतएव यहाँ भी 'छत्तीसगढ मित्र' हिन्दी भाषा की उन्नति करने में विशेष प्रकार से ध्यान देवे। जहाँ तक हो सके, भाषा में अच्छे-अच्छे विषयों का संग्रह करे। आजकल बहुत-सा कूड़ा-कर्कट जमा हो रहा है, वह न होने पावे; इसलिए प्रकाशित ग्रन्थों पर प्रसिद्ध मार्मिक विद्वानों के द्वारा समूह-समालोचना भी कराए।
2. हिन्दी भाषा का साहित्य अतीव संकुचित है और केवल हिन्दी जानने वालों को ग्रंथातरों में भरे हुए रस का स्वाद नहीं मिल सकता। अतएव हिन्दी-वाङ्मय को पुष्ट करने के लिए, अन्यान्य भाषाओं के ग्रन्थों का अनुवाद कर, सर्व-उपयोगी विषयों का संग्रह करना नितांत आवश्यक है। इस हेतु से पदार्थविज्ञान, रसायन, गणित, अर्थशास्त्र, मानसिकशास्त्र, नीतिशास्त्र, आरोग्यशास्त्र, इत्याद्यनेक शास्त्रीय विषय और प्रसिद्ध स्त्री-पुरुषों के जीवन-चरित्र, मनोरंजक कथानक, ज्ञानप्रचुर आख्यान, आबालवृद्ध स्त्री-पुरुषों के पढ़ने योग्य अच्छे हितावह उपन्यास आदि मनोरंजक तथा लाभदायक विषय आंग्ल, महाराष्ट्र, गुर्जर, बंगदेशीय तथा संस्कृत आदि ग्रन्थों से अनुवाद करके हिन्दी के प्रेमियों को अर्पण करने का हमारा विचार है।
3. छत्तीसगढ के ग़रीब विद्यार्थियों को उच्च प्रकार की शिक्षा मिले और इस विभाग (क्षेत्र) में विद्या का प्रसार होकर उद्योग की वृद्धि होवे, एतन्निमित्त 'छत्तीसगढ़ मित्र' की छपाई वगै़रह का ख़र्चा निकालकर जो-कुछ प्राप्ति बचेगी, उसमें से स्कॉलरशिप देने का प्रबन्ध किया जावेगा।
उपर्युक्त उद्देश्य साक्षी हैं कि अपने समाचार-पत्र के संपादन-प्रकाशन सम्बन्धी सप्रे जी की सोच और दिशा एकदम स्पष्ट और सही थी-हिन्दी भाषा की सर्वतोमुखी उन्नति करना, सामाजिक-सांस्कृतिक उत्थान विषयक साहित्यिक सामग्री का उत्तम चयन करना तथा साहित्येतर श्रेण्य ग्रन्थों का अनुवाद करके प्रकाशित करना और छत्तीसगढ-क्षेत्र में शिक्षा-प्रसार सम्बन्धी उद्यम करते हुए नयी पीढ़ी की यथासंभव आर्थिक सहायता करना। निस्संदेह, सप्रे जी की यह अवधारणा आज भी उतनी ही प्रासंगिक है-अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति उनका यह समर्पण अनुकरणीय है। ध्यातव्य है कि प्रारम्भ में 'छत्तीसगढ़ मित्र' में विविधतापूर्ण और गुणवत्तापूर्ण सामग्री प्रकाशित होती थी, लेकिन एक वर्ष के पश्चात् इस पत्र का स्वरूप पूरी तरह से साहित्यिक हो गया। फलस्वरूप, सप्रे जी ने निबन्ध, आलोचना, कहानी, अनुवाद और पुस्तक-समीक्षा आदि के माध्यम से पाठकों का ज्ञानवर्द्धन करना अपना लक्ष्य बना लिया।
आगे बढ़ने से पहले, यहाँ यह बताना अनिवार्य लगता है कि माधवराव सप्रे उन हिन्दीतर-भाषी राष्ट्रसेवकों में अग्रणी थे, जिन्होंने राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए, एक राष्ट्रभाषा के रूप में, हिन्दी को अंगीकार किया और मराठीभाषी होते हुए भी, हिन्दी में 'छत्तीसगढ़ मित्र' का सम्पादन-प्रकाशन करके राष्ट्रभाषा हिन्दी विषयक अपनी अवधारणा को व्यावहारिक स्वरूप प्रदान किया और जीवन-भर इसी प्रतिज्ञा का सुपालन भी किया। देहरादून में आयोजित 'हिन्दी साहित्य सम्मेलन' के पन्द्रहवें अधिवेशन (9 नवम्बर, 1924 ई.) के अध्यक्ष-पद से बोलते समय भी सप्रे जी ने अपने इसी संकल्प को दोहराया था-"इस विशाल देश में एक ऐसी भाषा की आवश्यकता है, जिसे सब प्रान्तों के लोग अपनी राष्ट्रभाषा मानें और वह भाषा हिन्दी को छोड़कर अन्य कोई नहीं है। मैं महाराष्ट्री हूँ, परन्तु हिन्दी के विषय में मुझे उतना ही अभिमान है, जितना किसी हिन्दीभाषी को हो सकता है। मैं चाहता हूँ कि इस राष्ट्रभाषा के सामने भारतवर्ष का प्रत्येक व्यक्ति इस बात को भूल जाए कि मैं महाराष्ट्री हूँ, मैं बंगाली हूँ, मैं गुजराती हूँ या मद्रासी हूँ। मैं राष्ट्रभाषा को अपने जीवन में ही सर्वोच्च आसन पर देखने का अभिलाषी हूँ।"
यह सच है कि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर न हो पाने के कारण 'छत्तीसगढ़ मित्र' तीन वर्ष ही चल पाया, लेकिन इन तीन वर्षों (1900-1902) में उसने जो प्रतिमान स्थापित किये, उनका प्राथमिक और ऐतिहासिक महत्त्व सदैव बना रहेगा। आधुनिक हिन्दी की प्रथम कहानी के रूप में स्वीकृत 'एक टोकरी-भर मिट्टी' सहित, सप्रे जी की छह कहानियाँ तो 'छत्तीसगढ़ मित्र' में छपी हीं, इनके अतिरिक्त छत्तीसगढ़ की धरती पर पत्रकारिता का पौधारोपण, संस्कारी पत्रकारिता का बीजवपन साहित्यिक विधाओं का स्वरूप-निर्धारण, स्वस्थ-तटस्थ आलोचना का मानकीकरण तथा अपने पाठक-समाज और चतुर्दिक् परिवेश का सांस्कृतिक जागरण-उन्नयन आदि ऐसी विशिष्टताएँ हैं, जो, केवल-और-केवल, 'छत्तीसगढ़ मित्र' के खाते में ही दर्ज़ हैं।
'छत्तीसगढ़ मित्र' के अवसान के पश्चात्, सन् 1905 में, सप्रे जी ने, अपनी सक्रियता के लिए, नागपुर को केन्द्र बनाया। प्रारम्भ में उन्होंने कुछ समय तक 'देशसेवक प्रेस' में कार्य किया। तत्पश्चात्, सन् 1906 में, 'हिन्दी ग्रन्थमाला' का शुभारंभ किया, जिसके अन्तर्गत कई उत्तम, स्तरीय एवं उपयोगी हिन्दी-ग्रन्थों का प्रकाशन हुआ इनमें आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी-प्रणीत 'स्वाधीनता और शिक्षा' ग्रन्थ विशेष उल्लेखनीय है। इसी ग्रन्थमाला के अन्तर्गत उन्होंने लगभग 50 पृष्ठों पर आधारित अपना एक विस्तृत आलेख 'स्वदेशी आन्दोलन और बॉयकाट' (1906 ई.) भी प्रकाशित किया था, जो उत्कट देशभक्ति का क्राँतिकारी संदेश प्रसारित करने में सफल हुआ था। इस आलेख की उपयोगिता, प्रासंगिकता और महत्ता इस तथ्य से भी प्रमाणित हो जाती है कि बाद में यह 'देशसेवक प्रेस' से, आठ हज़ार प्रतियों के साथ, पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ।
लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के मराठी-पत्र 'मराठी केसरी' की तर्ज़ पर सप्रे जी ने 13 अप्रैल, 1907 ई. को देशसेवक प्रेस (नागपुर) से एक साप्ताहिक 'हिन्दी केसरी' का सम्पादन-प्रकाशन आरम्भ किया। इस पत्र का उद्देश्य तिलक जी के, मराठी भाषा के माध्यम से व्यक्त किये जा रहे, राष्ट्रवादी विचारों को हिन्दी-समाज तक पहुँचाना तो था ही, साथ ही, ऐसी सामग्री प्रकाशित करना भी था, जिससे भारतमाता को पराधीनता के बेड़ियों से मुक्ति मिल सके। देखते-ही-देखते, अपनी स्वाधीन, राष्ट्रप्रिय, विचारोत्तेक, ओजपूर्ण और क्रांतिकारी भावधारा के कारण, यह पत्र अंगरेज़-सरकार की आँखों का काँटा बन गया। उधर 'मराठी केसरी' के सम्पादक बालगंगाधर तिलक को 'देश निकाला' दिया गया, तो इधर 22 अगस्त, 1908 ई. को 'हिन्दी केसरी' के विरुद्ध कठोरतम कार्यवाही करते हुए, सप्रे जी को देशद्रोह के 'अपराध' में गिरफ्तार कर लिया। फलस्वरूप लगभग डेढ़ वर्ष की जीवन-यात्रा सम्पन्न करके 'हिन्दी केसरी' बन्द हो गया। ध्यातव्य है कि हिन्दी-पत्रकारिता के इतिहास में सप्रे जी ही ऐसे पहले सम्पादक थे, जिन्हें स्वाधीनता-आन्दोलन के दौरान राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार होना पड़ा था।
मराठी से हिन्दी-अनुवाद के क्षेत्र में भी सप्रे जी का बड़ा नाम और बड़ा काम है। सर्वप्रथम आपने समर्थ स्वामी रामदास-कृत बहुचर्चित आध्यात्मिक ग्रन्थ 'दासबोध' का सफल हिन्दी-अनुवाद किया, जो 1913 ई. में प्रकाशित हुआ। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के कालजयी ग्रन्थ 'गीता रहस्य' का उत्कृष्ट भावानुवाद 1916 ई. में 'श्रीमद्भगवद्गीता रहस्य / कर्मयोग शास्त्र' शीर्षक से प्रकाशित हुआ, जिसके अब तक दो दर्ज़न से अधिक संस्मरण निकल चुके हैं। इसी कड़ी में सप्रे जी ने 'महाभारत मीमांसा' , 'शालोपयोगी भारतवर्ष' और 'दत्त-भार्गव संवाद' आदि अनेक मराठी-ग्रन्थों का हिन्दी में कुशल अनुवाद प्रस्तुत किया। इस दृष्टि से सप्रे जी का एक अन्य-महत्त्वपूर्ण अवदान है-नागरी प्रचारिणी सभा, काशी की 'विज्ञानकोश योजना' के अन्तर्गत अर्थशास्त्र की मानक शब्दावली का निर्माण करना। सप्रे जी ने अंगरेज़ी के 1320 शब्दों के लिए हिन्दी के 2115 शब्दों का निर्माण किया, जिन्हें 'हिन्दी विज्ञानकोश' में स्थान मिला। निस्संदेह, इस मौलिक अर्थशास्त्रीय चिन्तन के लिए भी सप्रे जी को याद किया ही जायेगा।
सप्रे जी ने अपनी समकालीन प्रतिष्ठित-पत्रिकाओं में लगभग 150 वैचारिक निबन्ध लिखे, जिनमें उनकी स्वाधीनता, स्वदेशी और स्वभाषा सम्बन्धी त्रिवेणी स्पष्ट प्रवाहित होती दिखायी देती है। 'हमारे सामाजिक हा्रस के कुछ कारणों पर विचार' , 'राष्ट्रीयता की हानि के कारण' , 'भारत की एक राष्ट्रीयता' और 'राष्ट्रीय जागृति की मीमांसा' आदि निबन्धों में उनकी प्रखर राष्ट्रभक्ति और लोकजागरण-दृष्टि अवलोकनीय है। ध्यातव्य है कि सप्रे जी 'सरस्वती' पत्रिका के नियमित लेखक थे, लेकिन उनके शिक्षा सम्बन्धी अधिकतर निबन्ध 'विद्यार्थी' पत्रिका में ही प्रकाशित हुए। बाद में, इन्हीं में से 20 निबन्धों का चयन करके, सप्रे जी ने 'जीवन-संग्राम' में विजय-प्राप्ति के कुछ उपाय' नामक पुस्तक प्रकाशित की, जिसने नयी पीढ़ी को चेतना-सम्पन्न बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।
तत्कालीन स्वाधीनता-आन्दोलन और लोक-जागरण की स्थिति को एक सही दिशा और समुचित धार देने में सप्रे जी का अवदान अतुलनीय है। उन्होंने बड़ी संख्या में, सही सोच वाले, पत्रकारों-साहित्यकारों, स्वाधीनता-सेनानियों, समाज-सेवियों और राजनीतिज्ञों की पहचान की, उनकी प्रतिभाओं को परिष्कृत किया तथा विभिन्न क्षेत्रों में अग्रसर होने के लिए प्रेरित किया। माखनलाल चतुर्वेदी ने सप्रे जी की ही प्रेरणा से सरकारी अध्यापकी का परित्याग करके राष्ट्रीय कार्यों का व्रत लिया था। उनके 'प्रभा' एवं 'कर्मवीर' पत्रों तथा काव्य-साहित्य के अमरत्व से हम सभी सुपरिचित हैं। सप्रे जी द्वारा प्रेरित अन्य प्रतिभाओं में सर्वश्री द्वारकाप्रसाद मिश्र, सेठ गोविन्ददास, पण्डित रविशंकर शुक्ल, सुन्दरलाल शर्मा, लक्ष्मीधर वाजपेयी, लल्लीप्रसाद पाण्डेय और मावलीप्रसाद श्रीवास्तव आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इतना ही नहीं, सन् 1920 में, सप्रे जी ने जबलपुर में 'हिन्दी-मन्दिर' की स्थापना की, जिसने इस क्षेत्र के साहित्यिक-सांस्कृतिक उत्थान में अद्वितीय योगदान दिया। एतद्विषयक उनके अवदान को, उनकी मृत्यूपरान्त, माखनलाल चतुर्वेदी ने अपने 'कर्मवीर' (सितम्बर, 1926) में लिखा था-"मध्यप्रदेश के तो माधवराव जी पिछले 25 वर्षों के इतिहास थे। मध्यप्रदेश का शायद एक भी कर्मण्य राजनीतिज्ञ यह बात नहीं कह सकता कि उनके जीवन के निर्माण, राजनीतिक दिशा के निश्चय, आने वाले संकटों को सुलझाने और संस्थाओं के संचालन में माधवराव सप्रे का हाथ नहीं रहा।"
आज देश में जिस 'नयी शिक्षा-नीति' को लागू करने की योजना बन रही है, उसके आधारभूत सिद्धान्त की परिकल्पना तो सप्रे जी ने, लगभग सौ साल पहले, परतंत्र भारत में ही कर ली थी। यह रही उनकी दूरदृष्टि और वैचारिक प्रांसगिकता-"भारतीय राष्ट्र का भविष्य केवल दो बातों पर अवलम्बित है। एक तो भारतवासी अपने राष्ट्रीय साहित्य का सम्यक् ज्ञान प्राप्त करें और दूसरी बात यह है कि सभी शिक्षालयों तथा विद्यालयों में शिक्षा मातृभाषा के द्वारा दी जाय। यह स्वतंत्र बुद्धि से काम लेने का समय है और यदि इस समय हमने उचित मार्ग पर चलना फिर-से प्रारम्भ कर दिया, तो हमारा भविष्य बहुत ही उज्ज्वल और कल्याणप्रद होगा।"
लगभग 55 वर्षों की जीवन-यात्रा सम्पन्न करके, "सरल, तपस्वी, साधु एवं अत्यन्त परिश्रमी व्यक्ति" (हरदेव बाहरी) , सप्रे जी ने 23 अप्रैल, 1926 ई. को आखिरी साँस ली। परतंत्र भारत में भारतीयता की अलख जगाने और मराठीभाषी होते हुए भी, हिन्दी तथा हिन्दी-समाज को, सम्पूर्ण निष्ठा, एकाग्रता और समर्पणशीलता से आन्दोलित करने वाले सप्रे जी का सर्वतोमुखी-समुचित मूल्यांकन माखनलाल चतुर्वेदी के इस वक्तव्य में निहित है, जो उन्होंने भरतपुर में आयोजित 'हिन्दी-सम्पादक सम्मेलन'
(1927 ई.) के सभापति-आसन से दिया था-"आज के हिन्दी भाषा के युग को पण्डित महावीरप्रसाद द्विवेदी द्वारा निर्मित तथा तेज़ को पण्डित माधवराव सप्रे द्वारा निर्मित कहना चाहिए। " साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित 'माधवराव सप्रे रचना-संचयन' के प्रस्तोता विजयदत्त श्रीधर का भी सुचिन्तित अभिमत है कि माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा किया गया " यह सप्रे जी का सर्वथा सटीक मूल्यांकन है।