कालजयी रचनाएँ / सुषमा गुप्ता

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किसी भी विचार, विसंगति या संदेश को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत कर पाना निःसंदेह एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। कोई भी वक्तव्य, लेख, कहानी, कविता, लघुकथा या अन्य कोई भी विधा, तब ही सुनने अथवा पढ़ने वालों के मन मस्तिष्क पर अपना प्रभाव छोड़ती है जब उसमें शब्दों का समावेश इस तरह किया गया हो कि वह अपना भाव न खोए. हमारे बहुत से वरिष्ठ अपने आलेखों एवं वक्तव्यों के द्वारा ये बात रख चुके हैं कि रचना अपना आकार खुद ही तय करती है। लघुकथा ही लिखनी है, यह पहले से तय कर के लिखना ठीक नहीं। किसी भी रचना में शब्दों का कम या ज़्यादा इस्तेमाल उसके प्रभाव को कम कर देता है। लघुकथा एक ऐसी ही कसी हुई विधा है जिसमें रचना को सार्थक बनाने में एक-एक शब्द अपना महत्त्व रखता है। नपे-तुले शब्दों में रची गई कृति जब प्रभावशाली ढंग से पाठकों के मन मस्तिष्क पर अपनी छाप छोड़ जाती है, वही लघुकथा की सच्ची सार्थकता है।

लघुकथा का इतिहास विस्तृत है। विश्व की लगभग सभी भाषाओं में लघुकथाएँ लिखी गईं हैं, पर पहले की अपेक्षा लघुकथा अब बहुत ज़्यादा प्रचलित हो रही हैं। जहाँ लघुकथा अपने लघु आकार के कारण काम से मिले छोटे अंतराल में भी पाठक को पढ़ने हेतु आकर्षित कर लेती है, वहीं किसी लम्बी कहानी या उपन्यास को पढ़ने हेतु समय और मन दोनों बनाना पड़ता है।

लघुकथा की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि पढ़ने में चंद मिनट लगते हैं; पर आपके मन मस्तिष्क को इस कदर झकझोर देने की क्षमता रखती हैं कि बहुत-सी लघुकथाएँ तो आप आजीवन न भूल पाएँगे।

हमारे वरिष्ठ लघुकथाकार एक से एक कालजयी रचनाएँ देकर लघुकथा को बेहद समृद्ध बना चुके है। डॉ सतीश दुबे सतीशराज पुष्करणा, सुकेश साहनी, श्याम सुंदर अग्रवाल, , डॉ श्याम सुंदर 'दीप्ति' , रामकुमार आत्रेय, रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' , डॉ अशोक भाटिया, , सुभाष नीरव, बलराम अग्रवाल, , , कमलेश भारतीय ऐसे अनेक नाम हैं, जिनका होना लघुकथाओं के इतिहास को गौरवान्वित करता है। जहाँ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खलील ज़िब्रान, ओ. हेनरी, सआदत हसन मंटो ने लघुकथा को ख्याति दिलाई है, वहीं हिन्दी में मुंशी प्रेमचंद, माधवराव सप्रे, विष्णु प्रभाकर सरीखे दिग्गज लघुकथा को नए आयाम दे गए.

लघुकथा।कॉम के 'मेरी पसंद' कॉलम के लिए दो लघुकथाएँ चुनना ऐसा है, जैसे सागर की दो बूँद अंजुरी में लेकर सागर को विस्तृत बताना। मेरे लिए कोई भी रचना जो आपकी संवेदनाओं को झकझोरकर रख दे, वही श्रेष्ठ रचना है।

सुकेश साहनी जी की लघुकथा 'गोश्त की गंध' निःसंदेह एक कालजयी रचना है। जब पहली बार यह रचना पढ़ी थी, तो विस्मय से आँखें फैल गई, रौंगटे खड़े हो गए थे। मन-मस्तिष्क एक अलग ही दुनिया में जाकर ठहर गया था। बहुत समय तक इस अनुपम उत्कृष्ट रचना ने मुझे बेहद बेचैन रखा। यह कितना बड़ा कटु सत्य है कि मध्यमवर्गीय परिवारों में सामाजिक रूढ़ियों की घुसपैठ आज भी इतनी भीतर तक पैठ बना चुकी है कि दामाद और लड़की के ससुराल वालों की आव-भगत में खुद को बेच देने जैसे हालात हो जाते हैं। हमारे समाज में बेटी को एक बार का दहेज देकर ही मुक्ति नहीं मिलती; अपितु लड़की वालों को आजीवन ही ससुराल वालों के नखरे उठाने पड़ते हैं। किसी गरीब परिवार के लिए ससुराल से किसी का भी बिना बताए आ जाना, किसी दहशत से कम नहीं है। लघुकथा किसी चलचित्र—सी मेरे समक्ष चल रही थी और तनाव बढ़ता जा रहा था। लघुकथा के बेहद सार्थक सुंदर अंत ने मेरे होंठों पर बड़ी-सी मुस्कान ला दी। हर लड़की वाला दामाद के रूप में बेटे को ही देखता है, पर बहुत कम ऐसे दामाद हैं जो पत्नी के परिवार को अपना परिवार समझते हों।

इस लघुकथा में दामाद घरवालों की सेहत से और घर की दशा से उनकी माली हालत खूब समझ रहा है। दामाद के आते ही परिवार में सब इस चिंता से घिर जाते हैं कि दामाद के लिए महँगे और लज़ीज़ व्यंजन कैसे तैयार हो। खुद रूखी सूखी दाल-रोटी खाते है; पर दामाद को पनीर की सब्ज़ी परोसते हैं। सहृदय दामाद को ऐसा लगने लगता है जैसे घरवालों ने शाही पनीर में पनीर नहीं, अपने गोश्त के टुकड़े डाले हों। इस लघुकथा में 'गोश्त' बिम्ब है लड़की वालों की माली हालत का। लघुकथा का अंत बेहद सुखद है, जब दामाद कहता है कि उसे भी वे अपना बेटा ही समझें और जो खुद खाते हैं वही उसे भी परोसे। शाही पनीर सरीखे व्यंजन परोसने में खुद को यूँ कष्ट न दे। गोश्त की गंध इंगित करती है उन बदबूदार रूढ़ियों की और जिन्हें अब समाज से अलविदा होना ही चाहिए.

दूसरी रचना जो मेरे हृदय के बेहद करीब है वह है सुभाष नीरव जी की 'तिड़के घड़े'। पहली बार जब ये रचना मैंने पढ़ी थी, तब बहुत देर तक न मन संयत कर पाई न कुछ और काम कर पाई, बस जड़-सी बैठी की बैठी रह गई. जब भी लघुकथा 'गुड़ुप' कहती, मेरी नब्ज़ भी थोड़ा-सा और डूब जाती। सुभाष नीरव जी ने एक कार्यक्रम में जब इस लघुकथा का पाठ किया था, तब सौभाग्य से मैं भी वहाँ थी। लघुकथा के अंत में खुद को फफककर रो पड़ने से मैंने खुद को कैसे रोका, यह मैं ही जानती हूँ। आज भी जब कभी इस रचना को पढ़ती हूँ, तो मेरी आँखें भीग जाती हैं। घर में उपेक्षा सह रहे बुजुर्गों की मनोदशा का जो चित्रण इस लघुकथा के माध्यम से सुभाष जी ने किया है, वह बेहद द्रवित कर देता है। 'तिड़के घड़े' लघुकथा में सास-ससुर खुद को 'तिड़के घड़े' कहते है, जिसमें से दिन पर दिन जल—सा जीवन रीत रहा है। बेटे-बहू को वे बोझ समान लगते हैं। छोटी-छोटी बातों को बहाना बनाकर वे सारा दिन उन्हें उलाहने देते रहते। हर ताना उनके जीवन से ज़िन्दगी थोड़ी और तेज़ गति से निठार रहा है, ज्यों किसी तिड़के घड़े में मारे कंकड़ से जल और शीघ्र रीतने लगे। घर के बुजुर्ग जो सम्मान और प्यार के अतिरिक्त कोई अपेक्षा नहीं रखते, उन्हें पल-पल अपमानित किया जाता है। कथा के आखिर में बुजुर्ग दंपती की आपसी बातचीत मन में बेहद गहरी टीस छोड़ती है और आँखें भीगो जाती हैं। इस लघुकथा में 'गुड़ुप' ध्वन्यात्मक शब्द बुजुर्ग दंपती के शनैः-शनैः डूबती मनोदशा को बेहद मार्मिक रूप में सफलतापूर्वक दर्शाता है।

मुझे पूरा विश्वास है कुछ लोगों ने तो इस लघुकथा को पढ़कर अपने आचरण पर ज़रूर गौर किया होगा।


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लघुकथाएँ

1-गोश्त की गंध-सुकेश साहनी

दरवाजा उसके बारह वर्षीय साले ने खोला और सहसा उसे अपने सामने देखकर वह ऐसे सिकुड़ गया जैसे उसके शरीर से एक मात्र नेकर भी खींच लिया गया हो। दरवाजे की ओट लेकर उसने अपने जीजा के भीतर आने के लिए रास्ता छोड़ दिया। वह अपने साले के इस उम्र में भी पिचके गालों और अस्थि-पंजर-से शरीर को हैरानी से देखता रह गया।

भीतर जाते हुए उसकी नजर बदरंग दरवाजों और जगह-जगह से झड़ते प्लास्टर पर पड़ी और वह सोच में पड़ गया। अगले कमरे में पुराने जर्जर सोफे पर बैठे हुए उसे विचित्र अनुभूति हुई. उसे लगा बगल के कमरे के बीचों-बीच उसके सास-ससुर और पत्नी उसके अचानक आने से आतंकित होकर काँपते हुए कुछ फुसफुसा रहे हैं।

रसोई से स्टोव के जलने की आवाज आ रही थी। एकाएक ताजे गोश्त और खून की मिली जुली गंध उसके नथुनों में भर गई. वह उसे अपने मन का वहम समझता रहा पर जब सास ने खाना परोसा तो वह सन्न रह गया। सब्जी की प्लेटों में खून के बीच आदमी के गोश्त के बिल्कुल ताजा टुकड़े तैर रहे थे। बस, उसी क्षण उसकी समझ में सब कुछ आ गया। ससुर महोदय पूरी आस्तीन की कमीज पहनकर बैठे हुए थे, ताकि वह उनके हाथ से उतारे गए गोश्त रहित भाग को न देख सके. अपनी तरफ से उन्होंने शुरू से ही काफी होशियारी बरती थी। उन्होंने अपने गालों के भीतरी भाग से गोश्त उतरवाया था, पर ऐसा करने से गालों में पड़ गए गड्‌ढों को नहीं छिपा सके थे। सास भी बड़ी चालाकी से एक फटा-सा दुपट्टा ओढ़े बैठी थी, ताकि कहाँ-कहाँ गोश्त उतारा गया है, समझ न सके. साला दीवार के सहारे सिर झुकाए उदास खड़ा था और अपनी ऊँची-ऊँची नेकर से झाँकती गोश्त रहित जाँघों को छिपाने का असफल प्रयास कर रहा था। उसकी पत्नी सब्जी की प्लेट में चम्मच चलाते हुए कुछ सोच रही थी।

"राकेश जी, लीजिए।लीजिए न!" अपने ससुर महोदय की आवाज उसके कानों में पड़ी।

"मैं आदमी का गोश्त नहीं खाता!" प्लेट को परे धकेलते हुए उसने कहा। अपनी चोरी पकड़े जाने से उनके चेहरे सफेद पड़ गए थे।

"क्या हुआ आपको? ।सब्जी तो शाही पनीर की है!" ......पत्नी ने विस्फारित नेत्रों से उसकी ओर देखते हुए कहा।

"बेटा, नाराज़ मत होओ।हम तुम्हारी खातिर में ज़्यादा कुछ कर नहीं।" सास ने कहना चाहा।

"देखिए, मैं बिल्कुल नाराज नहीं हूँ।" उसने मुस्कराकर कहा, "मुझे दिल से अपना बेटा समझिए और अपना मांस परोसना बन्द कीजिए. जो खुद खाते हैं, वही खिलाइए. मैं खुशी-खुशी खा लूँगा।"

वे सब असमंजस की स्थिति में उसके सामने खड़े थे। तभी उसकी नजर अपने साले पर पड़ी। वह बहुत मीठी नजरों से सीधे उसकी ओर देख रहा था। सास-ससुर इस कदर अचंभित थे, जैसे एकाएक किसी शेर ने उन्हें अपनी गिरफ़्त से आजाद कर दिया हो। पत्नी की आँखों से आँसू बह रहे थे। यह सब देखकर उसने सोचा।काश, ये गोश्त की गंध उसे बहुत पहले ही महसूस हो गई होती!

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तिड़के घड़े-सुभाष नीरव

"सुनो जी, बाऊजी से कहो, लैट्रिन में पानी अच्छी तरह डाला करें। भंगन की तरह मुझे रोज साफ़ करनी पड़ती है।"

गुड़ुप!

"बाऊजी, देखता हूँ, आप हर समय बैठक में ही पड़े रहते हैं। कभी दूसरे कमरे में भी बैठ जाया करें। इधर कभी कोई यार-दोस्त भी आ जाता है मिलने।"

गुड़ुप!

"बाऊजी, आप तो नहाते समय कितना पानी बर्बाद करते हैं। सारा बाथरूम गीला कर देते है। पता भी है, पानी की कितनी किल्लत है।"

"अम्मा, हर समय बाऊजी के साथ क्यों चिपकी रहती हो। थोड़ा मेरा हाथ भी बटा दिया करो। सुबह-शाम अकेली खटती रहती हूँ, यह नहीं कि दो बर्तन ही मांज-धो दें।"

गुड़ुप! गुड़ुप!

"बाऊजी, यह क्या उठा लाए सड़ी-गली सब्जी! एक काम कहा था आपसे, वह भी नहीं हुआ। नहीं होता तो मना कर देते, पैसे तो बर्बाद न होते।"

गुड़ुप!

"अम्मा, आपको भी बाऊजी की तरह कम दीखने लगा है। ये बर्तन धुले, न धुले बराबर हैं। जब दुबारा मुझे ही धोने हैं तो क्या फायदा आपसे काम करा कर। आप तो जाइए बैठिए बाऊजी के पास।"

गुड़ुप!

दिनभर शब्दों के अनेक कंकर-पत्थर बूढ़ा-बूढ़ी के मनों के शान्त और स्थिर पानियों में गिरते रहते हैं। 'गुड़ुप' -सी एक आवाज़ होती है। कुछ देर बेचैनी की लहरें उठती हैं और फिर शान्त हो जाती हैं।

रोज की तरह रात का खाना खाकर, टी.वी. पर अपना मनपसंद सीरियल देखकर बहू-बेटा और बच्चे अपने-अपने कमरे में चले गये हैं और कूलर चलाकर बत्ती बुझाकर अपने-अपने बिस्तर पर जा लेटे हैं। पर इधर न बूढ़े की आँखों में नींद है, न बूढ़ी की। पंखा भी गरम हवा फेंक रहा है।

"आपने आज दवाई नहीं खाई?"

"नहीं, वह तो दो दिन से खत्म है। राकेश से कहा तो था, शायद, याद नहीं रहा होगा।"

"क्या बात है, अपनी बाह क्यों दबा रही हो?"

"कई दिन से दर्द रहता है।"

"लाओ, आयोडेक्स मल दूँ।"

"नहीं रहने दो।"

"नहीं, लेकर आओ. मैं मल देता हूँ, आराम आ जाएगा।"

"आयोडेक्स, उधर बेटे के कमरे में रखी है। वे सो गए हैं। रहने दीजिए."

क्षणिक चुप्पी के बाद बूढ़ी बोली, "ये बहू-बेटा हमें दिनभर कोंचते क्यों रहते हैं?" बूढ़ी का स्वर धीमा और रुआँसा-सा था।

"तुम दिल पर क्यों लगाती हो। कहने दिया करो जो कहते हैं। हम तो अब तिड़के घड़े का पानी ठहरे। आज हैं, कल नहीं रहेंगे। फेंकने दो कंकर-पत्थर। जो दिन कट जाएँ, अच्छा है।"

तभी, दूसरे कमरे से एक पत्थर उछला।

"अब रात में कौन-सी रामायण बाँची जा रही है बत्ती जलाकर। रात इतनी-इतनी देर तलक बत्ती जलेगी तो बिल तो ज़्यादा आएगा ही।"

गुड़ुप!


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