काला समय / बलराम अग्रवाल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

घर के भीतर लाश थी, गृहपति नरसिंह की लाश। रोते, छाती और सिर पीटते परिवारजन थे। तहकीकात में मशगूल पुलिस थी। कुत्ते थे। बाहर भीड़ थी। डरे और सहमे लोगों की भीड़। जानने और बताने को उत्सुक जिज्ञासुओं व वाचकों की भीड़। अफवाहें बुनते और सुनते लोगों की भीड़। भीड़—जिसे कुछ भी पता नहीं था, सिवा इसके कि सामने वाली कोठी में कल रात कुछ डकैत घुस आए थे और एक आदमी को मार गये।

“इस हरामजादे ने बेमतलब ही टंटा बढ़ा दिया।” कोठी पर तहकीकात में शामिल एक पुलिसमैन अपने साथी से कह रहा था,“…आखिर कितना लूट ले जाते वे—लाख, दो लाख…दस-बीस-पच्चीस लाख…?”

“पैसा बड़ी मुश्किल से जोड़ा जाता है यादव।” साथी बोला,“इतनी आसानी से दिया भी तो नहीं जाता।”

“भई, जान है तो जहान है राणे।” यादव बोला,“अपनी जान देकर आखिर किसके लिए बचाया इसने पैसा, बोल!…साला, खुद तो मरा ही, हमारी भी मशक्कत का इंतजाम कर गया।”

राणा उसकी इस बात पर बुरी तरह खीझ गया। कुछ देर तक तो वह उसके चेहरे को देखता रह गया, फिर बोला,“यार, एक आदमी जान से गया…और तू है कि अपनी मशक्कत का रोना रो रहा है!…”

“न रोऊ?…यह अगर जान न देता तो थाने में छोटी-मोटी डकैती की रपट लिखी जाती, बस…” यादव बोला,“लेकिन अब…भई तू इमोशनल टाइप की बातें करता है और मैं प्रेक्टिकल टाइप की! मैं…।”

“सी॰ ओ॰ साहब आ रहे हैं।” उसकी बात को बीच में ही काटकर राणा अचानक फुसफुसाया और सावधान की मुद्रा में खड़ा हो गया।

“हलो राणा!” सी॰ ओ॰ साहब ने जीप से उतरते ही उसकी ओर देखकर पुकारा और कुछ पूछने जैसा संकेत करते हुए आगे बढ़ आए।

“गुड मार्निंग सर।” फुर्ती के साथ सेल्यूट मारकर राणा बोला,“कोई खास बात नहीं लेकिन…” उन्हें एक ओर को लेजाकर उसने उनके कान में कहा,“यह पता चला है कि नरसिंह को गोली लगते ही घर की औरतें बुरी तरह दहशत खा गईं और उन्होंने बिना किसी ना-नुकर के सेफ की चाबियाँ डकैतों को सौंप दीं।”

“हूँ…!” सी॰ ओ॰ साहब के गले से निकला।

“वे लोग सारी नगदी और जेवर ले गये सर!” राणा ने अपनी बात पूरी की।

“हाउ मच?…कुड यू एस्टीमेट दैट ऑर नॉट!” सी॰ ओ॰ ने फुसफुसाकर पूछा।

“यस सर…यही कोई पच्चीस-तीस लाख…।” राणा ने भी वैसे ही उन्हें बताया।

उन्होंने एक बार फिर ‘हूँ’ की आवाज़ निकाली और आगे बढ़ गए।

वह कोठी के भीतर पहुँचे, जहाँ कुत्ते बिखरे हुए और लस्त-पस्त लाश को सूँघ रहे थे। राणा और जहाँ थे, वहीं रह गये।

“छानबीन के नाम पर तूने इसलिए चाबियाँ ली थीं औरतों से!” एकांत पाकर यादव ने तैशभरे अंदाज़ में राणा से पूछा। हालाँकि उसका स्वर बहुत तेज़ नहीं था, पर तीखा खूब था। चेहरा पूरी तरह कस गया था।

“कीप क्वाइट यादव।” उसके ऐसे तेवर देखकर राणा मुकाबले के लिए तैयार अंदाज़ में बोला,“मैं फालतू की प्रेक्टिकैलिटी में विश्वास नहीं रखता।”

“अरे…तू तो यार डाकुओं का भी बाप निकला!” मना करने के बावजूद यादव आश्चर्यभरे स्वर में बोला,“जो चीज़ साले डाकू नहीं लेजा पाए वो…!!”

“शट-अप यादव!” राणा लगभग चीख पड़ा।

“अच्छा, एक बात तो बता…” उसकी चीख से बेपरवाह यादव ने बोलना जारी रखा,“यह स्कीम…यह तेरे दिमाग की उपज थी या किसी के इशारे पर तूने ऐसा किया?…सी॰ ओ॰ साहब के…या…?”

मूर्ख आदमी। बीसवीं सदी आखिरी दौर की हिचकियाँ ले रही है और यह…! पुलिस…भारतीय पुलिस विभाग में यह करने क्या आया है? और अगर आ ही गया है तो कर क्या रहा है यहाँ? क्या सुबह-शाम हाजिरी लगा देने को, अफसरों के आगे ‘यस्सर’ ‘नोस्सर’ बोल देने को और महीने की आखिरी तारीख को वेतन लेजाकर घरवाली के हाथों में थमा देने भर को ‘पुलिस की नौकरी’ कहते हैं? कई मामलों में तो परमात्मा भी भरपूर बेवकूफी करता है। शेरदिल और जबर-दिमाग़ लोगों को हलका-फुलका शरीर दे देता है और भारी-भरकम शरीर वाले, इस यादव-जैसे घटोत्कचों को दिलो-दिमाग से खारिज रखता है। नहीं—परमात्मा का ख्याल मन में आते ही राणा ने बारी-बारी अपने कानों को छूकर उसके प्रतिकूल अपने विचारों के लिए उससे जैसे क्षमा माँगी। उस-जैसे लोग औरों के प्रति चाहे जैसे भी रहें, परमात्मा के प्रति नाकारात्मक नहीं रह सकते। उसका अस्तित्व दरअसल है ही उस-जैसे लोगों के कारण। भय बिन प्रीत न होय गुसाईं—बाबा तुलसीदास ने यह ऐसे ही थोड़े लिख दिया होगा। …परमात्मा से अगर प्रीत बनाए रखनी है तो मन में ‘भय’ बनाए रखने वाले काम—चोरी-लफंगई—करते रहना परमावश्यक हो जाता है।

“चुप कैसे हो गया?” यादव ने उसे पुन: टोका।

उसके सवाल पर राणा कुछ देर तक फिर चुप रह गया। वह यादव की ओर सिर्फ देखता रहा जैसे कि कुछ बोलने से पहले यह सोच रहा हो कि अपनी बात वह कहाँ से और कैसे शुरू करे। …कुछ इस तरह कि यादव को समझा भी दिया जाय और अपना अन्दाज़ भी कड़ुवा न हो।

“यादव, अनुभव और भाग्य—ये दो चीज़ें हैं जो आदमी को ऊँचा उठाने में मदद करती हैं।” अन्तत: उसने धीरे-धीरे बोलना शुरू किया,“भाग्य पर किसी का कोई जोर नहीं। …लेकिन अनुभव! उन्हें अपनी चेतना और मेहनत के बल पर पाया भी जा सकता है और बढ़ाया भी जा सकता है।…”

यादव चुपचाप उसे बोलते हुए सुनता रहा। हालाँकि अभी तक की राणा की बात उसकी समझ में नहीं आई थी।

“…देखो, राज-मिस्त्री जैसे किसी पेशे में तो तुम हो नहीं कि मसाला अगर दीवार पर लगा तो मालिक का और नीचे गिरा तो भी मालिक का, अपन को तो शाम को दिहाड़ी मिल ही जानी है—अपन का क्या लगा और क्या गिरा। पुलिस की नौकरी में आए हो तो काम को देखकर रोओ मत। घुसो इसके भीतर। इसे जानो, जाँचो, परखो। सीखो—इसमें जीने, रहने और बने रहने के तौर-तरीके।”

“क्या!…क्या मैं पुलिस-सेवा के तौर-तरीके नहीं जानता?” यादव ने पूछा।

“बहुत-सी बातें हैं जिन्हें जानना हमेशा ही जरूरी रहता है मेरे दोस्त!” राणा बोला,“किताबों में सब-कुछ नहीं लिखा होता। आदमी का सबसे बड़ा शिक्षक समय है, उससे सीखो।”

यादव की समझ में इस बार भी कुछ नहीं आया। दरअसल वह बातों को सीधे-सीधे कहने और समझने का आदी था। और राणा, कम से कम इस समय, उसे सीधे-सीधे कुछ बताने का खतरा मोल नहीं ले रहा था। सो, इस समय की उसकी बातें उसे रहस्य-जैसी उलझी हुई लग रही थीं। हाँ, इतना वह जरूर समझ रहा था कि उसी के कैडर में, उसी के मीमो के तहत पुलिस-सेवा में आया राणा इस समय तक अधिकारियों की नजर में काफी चढ़ चुका था। और इसका सिर्फ एक कारण उसे नजर आता था—यह कि वह अपने-आप को जरूरत से कुछ ज्यादा ही मुस्तैद ‘पोज़’ करता था। यादव को ‘पोज़’ करना कभी भी पसन्द नहीं रहा। अधिकारियों के आदेश और मौका-ए-वारदात पर मानवताजनित कर्त्तव्यपरायणता से अलग तुरंत न वह कुछ करता था, न कुछ सोचता था।

“किस सोच में पड़ गया?” उसे अन्यमनस्क देखकर राणा ने पूछा।

“कुछ नहीं।” उसके मुँह से निकला।

“यादव, आदमी को इस धरती पर तीन ‘प’ चाहिएँ।” उसकी दुविधा को भाँपकर राणा ने पुन: बोलना शुरू किया,“तू बता सकता है कि वो तीन ‘प’ क्या हैं?”

“पवित्र हृदय…प्यार और…।”

“और परलोक।” राणा ने वाक्य को पूरा करके उसे दुत्कारा,“तुझे तो किसी मंदिर में बैठकर कथा-वाचन करना चाहिए…और बेंत या पिस्तौल नहीं, तेरे हाथों में मंजीरे ही ज्यादा अच्छे लगने थे।” यह कहकर वह चुप हो गया। अफसोस इस बार उसके साफ-साफ उभर आया था। जाहिर था कि यादव से वह सच्ची मित्रता रखता था अन्यथा तो उसके भोलेपन पर वह दु:खी न होकर खुश ही होता, या फिर नि:स्पृह रहता।

“मेरे भाई, यह काल…यह—जिसमें तू और मैं जी रहे हैं—कलिकाल कहलाता है। कलिकाल, यानी काला समय…काला कहने, सुनने, देखने और भोगने का समय। सफेदी में भी काला ढूँढने का समय है यह। जिस तरह सत्ययुग में सत्यमय रहना कालोचित था उसी तरह अब कलिमय रहना कालोचित है। जो लोग काल के विरुद्ध गति रखते हैं—काल उन्हें नष्ट कर डालता है—यह तो तूने पढ़ ही रखा है।”

“हाँ, और यह भी कि सत्यमय रहना हर काल में शांतिप्रद है और कलिमय रहना हर काल में कष्टप्रद।” यादव बोला।

“खैर छोड़!” राणा उसकी बात पर तपाक से बोला,“यह विषय से कुछ अलग की बात हो गयी। इस काल में तीन ‘प’ कौन-से हैं, यह मैं तुझे बताता हूँ। वे हैं—पैसा, पद और प्रतिष्ठा। हम, नौकरी करके जीनेवालों के लिए पद का मतलब पदोन्नति भी हो सकता है। …और इस, पुलिस की नौकरी में, ये तीनों ही कोई दुर्लभ चीजें नहीं हैं, बशर्ते कि कोई बोझ समझकर इसे न करे। अब देख…।” अपने आसपास नजरें घुमाकर और वहाँ किसी अन्य को न पाकर उसने अपेक्षाकृत धीमे स्वर में बोलना शुरू किया,“ये जो नगदी और जेवर, मैंने यहाँ से पार किए हैं, बहुत सोच-समझकर…और अपने विभाग की प्रतिष्ठा को बचाने के लिए किए हैं, न कि किसी गलत इरादे से।”

उसकी इस बात से यादव के मुख पर एक व्यंग्यपूर्ण मुस्कान तैर आई।

“गलत समझ रहा है।…सुन—” उसकी मुद्रा को पहचानकर राणा ने सफाई देना शुरू किया,“यों तो किसी घर पर डकैतों का आ धमकना और एकाध को मार भागना हमारे विभाग के लिए आम घटना है और इसे हम खास गम्भीरतापूर्वक नहीं लेते। लेकिन कुछ मामलों में छोटी से छोटी घटना भी पुलिस विभाग के लिए सिरदर्द बन जाती है। हम एक राजनीति-निर्भर समाज में रह रहे हैं। छोटे से छोटे आदमी के सिर पर आज बड़े से बड़े राजनेता का हाथ अनायास ही प्रकट हो सकता है। अब, इस डकैती को ही ले। यहाँ एक आदमी मारा गया। घरवालों के अलावा किसे पता है कि मरने वाले ने डकैतों को कुछ भी नहीं ले जाने दिया। अब, वे अगर खुद सारा माल पार कर देते तो? हमें तो वह भी ढूँढना ही पड़ता न। हम बहुत जोर लगाते तो ज्यादा से ज्यादा डकैतों को पकड़ लेते; लेकिन सामान को कहाँ से बरामद करते? वह तो गया ही नहीं था। लेकिन अब!…अब कौड़ी हमारे हाथ में है।”

“कैसे?”

“एक बात तो तू यह गाँठ में बाँध ले कि आज के समय में दूध का धुला कोई नहीं है।…मैं तेरी बात नहीं कर रहा हूँ। मेरा मतलब उन हितैषियों से है, जो इस केस में खुलकर पुलिस के खिलाफ सामने आयेंगे—पत्रकार और राजनेता। इन्हें बड़े आराम से चुप किया-कराया जा सकता है। और दुर्भाग्य से कोई एक अगर नहीं चुप हुआ और प्रेशर अगर एब्नॉर्मली बढ़ गया तो नो-प्रॉब्लम। दो-चार चिरकुटों से यह माल बरामद दिखाकर हम अपने विभाग की नाक को बचा लेंगे…और अगर न बढ़ा तो…।”

“बुरा न माने तो पर्सनल लेवल पर एक बात बोलूँ?”

“बोल।”

“हमने खाया, डाकुओं ने खाया या इसके घरवालों ने। यह तो इसे नहीं खा पाया न।…इस साले को अपनी जान देकर क्या मिला?…ले जाने देता। जान तो बचती।”

यादव की इस बात पर राणा फिर मुस्कराया। आदत के मुताबिक कुछ देर तक तो वह चुप ही रहा। फिर एकाएक गंभीर हो गया और धीरे-धीरे बोला,“जिन्हें जीना आता है, वे पैसे के लिए कभी नहीं मरते यादव। अपने मान…अपनी प्रतिष्ठा के लिए मरते हैं। तू तो गीता का पाठ करता है—इतना भी नहीं समझता!…यह नरसिंह…डकैती के समय इसके सामने रहे होंगे—एक तो यह कि यह चाबियाँ उन्हें सौंप दे और फिलहाल मौत को टालकर जिंदगीभर इस अहसास के साथ जीता रहे कि वह बुज़दिल निकला, और दूसरा यह कि जिस तरह सिर उठाकर वह जिया है, उसी तरह मर भी जाए मगर चाबियाँ न दे। उसने दूसरा रास्ता चुना—अंतिम समय तक सिर उठाकर जीने का रास्ता। यादव, हमारे द्वारा गहने, नगदी हटा देना एक अलग हादसा है, वह कड़वे यथार्थ से जुड़ा है, लेकिन नरसिंह का मरना एक ‘उत्सर्ग’ है। इस ‘उत्सर्ग’ को समझने की कोशिश करोगे तो तहकीकात तुम्हें बोझ नहीं लगेगी, मज़ा आएगा इसमें। ऐसे आदमी का हत्यारा खुला घूमता रहे सड़कों पर, बर्दाश्त नहीं कर पाओगे कभी।”

यह कहते-कहते भावावेश के कारण उसकी आँखें सुर्ख हो आईं और यादव को वहीं छोड़कर वह दूसरी ओर को चला गया।