कालिन्दी / मनीषा कुलश्रेष्ठ

Gadya Kosh से
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रिक्शों के हुजूम में मेरा रिक्शा भी बहुत धीरे ही सही मगर आगे बढता जा रहा है। भीड़ इतनी है कि पैदल चलो तो कंधे छिलें। रिक्शे भी आपस में उलझ रहे हैं। अब तो यहाँ भीड़ और बढ ग़ई है। मैं फिर लौट रहा हूँ वहाँ। उस एक गली में, जिसकी पहचान उसमें रहने वाली उन कुछ औरतों से थी और शायद अब भी है। जिनके सर्वसुलभ जिस्मों की महक हवाओं में सूंघ कर न जाने कहाँ - कहाँ से लोग आते थे। सामान लाद कर मुम्बई आए ट्रक ड्राईवर, सुदूर प्रदेशों से रोजी की तलाश में परिवारों को पीछे छोड़ आए मजदूर - कामगार, निचले तबके के लोग। कुछ मध्यमवर्ग के भी, अपनी औरतों से उकताए लोग। यह गली हमेशा अनजाने चेहरों के हूजूम से घिरी रहती थी। ये चेहरे तरह - तरह का शोर मचाया करते थे। समय कोई भी तय नहीं था। हर वक्त एक भूख में बिलबिलाते चेहरे।

मुझे जहाँ जाना था वह एक तीन मंजिला पीली इमारत थी। ढहती हुई सी। जिसके छज्जे लटके हुए थे।अनैतिकता वहाँ खुले सर घूमती थी। तरह - तरह के गलत - सही कामों में मुब्तिला वहाँ बहुत से परिवार थे। अवैध शराब बेचने वाले। बहुत निचले तबके के स्मगलर। नशीली दवाओं का धन्धा करने वाले। फिल्मों में एक्स्ट्रा का काम करने वाले, आर्केस्ट्रा और बार में नाचने वाली लडक़ियां। ऐसी कुछ औरतें जो खुल कर शरीर का धन्धा करती थीं। कुछ ऐसी जो चुपचाप - चुपचाप अपने बच्चों से छिप कर, पति या पिता की सहमति से दैहिक सुख के बदले में घर का खर्चा चला रही थीं। बहुत कम कीमत पर। आह! इतनी कम कि !

ऐसी पीली इमारतों की एक श्रृंखला थी। पीली इमारतों के आगे दलाल (जो अकसर उनके पति या प्रेमी हुआ करते थे) और ग्राहक वहाँ की औरतों के जिस्मों का भाव - ताव करते। गहरे - अंधरे कमरे। सीलन और बदबुओं से गंधाते। ग्राहकों की प्रतीक्षा में। उन पीले घरों की परछांइयों में एक आतंक और डर भी थरथराता था। कई बार वहाँ चाकू चल जाते। बलात्कार होते।

कभी - कभी मैं हैरान होता हूँ, यह सोच कर कि वह एकदम सही माहौल था जो मुझे नशीली दवाओं का आदी बना सकता था। या फिर मैं किसी 'पैडिफिलिस' यानि बच्चों का यौनशोषण करने वाले आदमी या औरत के हाथों रबर के गुड्डे की तरह तोड़ - मरोड़ दिया जा सकता था। पूरी गुंजाइश थी उस माहौल में कि दुरगा जैसी कामुक औरत मुझे फुसला लेती या डेविड के गोद में बिठाने वाले खेल मुझे बरबाद कर देते। उस चाल के और बच्चों जैसा ही कोमल शिकार था, मैं भी। उस जगह के घातों - प्रतिघातों के प्रति सदा छठी इन्द्रीय जाग्रत रखे हुए 'जमना' मुझे आगाह करती रहती थी। इसके पास मत जा..उसके साथ बात नहीं..इसके कमरे गया तो देखना. ..उसके साथ खेला तो। फिर भी मैं इन भयावह कल्पनाओं में जीने लगता हूं कि ऐसा हुआ होता तो, क्या होता ? मुझे अजीब का पीड़ादायक सुख मिलता है इन कल्पनाओं में। मैं अपने अंतस के खाज भरे कोने खुजला कर लहुलुहान कर लिया करता हूं। मीठा दर्द और मीठा सुख।

'कश्टमर' शब्द उस गली के हमउम्र बच्चों के बीच एक डरावना शब्द था। एक पिशाच जो औरतों का गला दबाया करता था। औरतें उसकी गिरफ्त में कराहतीं थीं। एक पिशाच जिसके न आने से -- कभी कटोरदान में रोटी कम पड़ ज़ाती थीं या फिर बचती तो सब्जी या शोरबे के बिना ही खानी होती थीं।

किवदंतियां जुड़ी थीं इस शब्द से। पहली बार जब यह कान में पडा तो मेरे अलावा बाकि बच्चों को कुछ भी अटपटा नहीं लगा। हम सब बच्चे रात को साढे दस बजे बिल्डिंग के सामने खेल रहे थे। तभी छोटू दलाल आकर बोला था -- "स्साले रण्डीखाने की औलादों ये कोई खेलने का टैम है। तुम पर तो अफीम भी अब असर नहीं करती। जाओ जाकर सो जाओ। कश्टमरों का टैम है ये।"

मैं ने 'कश्टमर' कभी नहीं देखा था। एक बार मैं स्कूल से लौटा तो देखा वो किसी आदमी को जल्दी - जल्दी कमरे से धकेल रही थी। मैं ने पूछा, “ ये ही कश्टमर था क्या ?” वह फटी हुई आंखों से मुझे देखती रही और बिना खाना दिए बिस्तर पर धम्म गिर गई। मैं शाम तक भूखा बैठा रहा। उसके संदूक में रखे पुराने एलबम में पीली पड़ी हुई तस्वीरें देखता रहा। सारे चेहरे अजनबी। एक तस्वीर में कुछ औरतें थीं। उनमें से एक उसकी मां थी। एक फटा चित्र था जिसमें वह थी दूसरे की आधी बांह ही दिख रही थी।

वह इस गली की सारी औरतों से अलग थी। ऐसी जो जिन्दगी अपनी तरह से, अपनी शर्त पर जीती हैं। चाहे वह गलत हो कि सही। ऐसे में अनपढ़ होना कोई मायने नहीं रखता। बचपन में भी उसका ऐसा कडक होना मुझे खुशी देता था। वह सबके सामने घुन्नी - सी रहती। अकेले में बहुत बातें करती। वह अपने डर बांटती, जिन्हें मैं बहादुर बच्चे की तरह दूर करने की कोशिश करता। वह झगड़ती अपनी रोजमर्रा की जरूरतों से। तरह - तरह के काम पकड़ती छोड़ती। कभी कपडा धोने का साबुन घर - घर बेचती। कभी साड़ियों के फाल लगाती रात - रात तक, या फिर मालिश करती औरतों की।

जिन्दगी को दी अपनी संपूर्णता का मोल वह नहीं जानती थी। उसकी नुची - कुतरी हुई संपूर्णता का अहसास उसे तभी होता था जब वह नोची या कुतरी जा रही होती थी। जिन्दगी के साबुत टुकडे का नोचे - कुतरे जाने का सिलसिला कब शुरू हुआ , यह उसकी याददाश्त में धुंधला पड़ चुका है।

अब वह बिस्तर पर पड़ी है। मैं उससे रू - ब - रू हूं। वह मुझसे आंख नहीं मिलाती। मैं अपने मन की खोह में घुस कर खुदाई करके इस औरत से अपने अटूट सम्बन्ध की जड़ खोज रहा हूं। मैं खिडक़ी से बाहर देखता हूं लगातार, बूढ़े पेड़ बेचैनियों में अपनी डालियां हिला रहे हैं। धूल और धुंए से उनकी पत्तियों का हरा रंग सलेटी हो गया है। जड़ें सड़क का कोलतार फोड़ कर बाहर आकर सांस लेना चाहती हैं, भीतर नमी नहीं है न... लवण हैं...प्यासी सी रेत है। अटपटी हालत में हैं पेड़। इस हैरानी में कि वे यहाँ कैसे पहुँचे? उन्होंने जब बीज में से सर उठाया था, तब यहाँ एक जंगल का मुहाना था। अब यहाँ भीड़ है। आस - पास भरे पूरे बाजार हैं और हैं गलियों के गुंजल।

आस - पास की महक से बुरी तरह उकताया - सा मैं उसे देखता हूं। उसकी कुतरी हुई संपूर्णता के साथ उसकी जिजीविषा उसके माथे पर जल - बुझ रही है।

यह औरत जीवंत थी मेरे सपनों में। मेरे बचपन में। वह बचपन अब महज सपना ही तो लगता है। इसकी और मेरी उम्र में महज पन्द्रह सालों का फर्क है। मेरे बचपन में यह भी किशोरी थी। स्कूल का रास्ता उसकी बातों से महकता। मेरा बस्ता थामे वह दो मील चलती थी

मैं उससे कहता कि चाल के और बच्चों की मैं भी वहीं पास के सरकारी स्कूल में पढूंग़ा। इतना चलना नहीं पडेग़ा।

“ तू अलग है उन सब से। और देख मैं भी।” वह वहीं रुक जाती और चालू हो जाता उसका भाषण ।

भीड़ और धुंए से भरा रास्ता आगे चल कर जंगली फूलों से भरा जंगल बन जाता। उसकी ढेर सारी बातों से वह रास्ता मजेदार हो जाता था। स्कूल की गली आने से पहले ही वह पलट जाती। मैं चीखता कि स्कूल के गेट तक चलो। वह गुर्रा कर मना कर देती, “मुझे और काम नहीं है क्या?” उसका मुलायम चेहरा रूखा हो जाता।

मैं पूरे बचपन इस औरत का मुरीद रहा। नायलोन की सस्ती साड़ी और सूती सलवार - कुरते में भी परी लगती। उसका सांवला रंग, घुंघराले बाल, बड़ी आंखों के नीचे के स्याह घेरे, उसकी मांसल पीठ, उघडे पैर और गले की उभरी हड्डी। सब कुछ।

बाद के सालों में, मुझे इस पर बहुत गुस्सा आने लगा था । मुझे स्कूल छोड़ कर पता नहीं कहाँ जाया करती थी वह। उसने साबुन बेचना, वेश्याओं की मालिश करना बन्द कर दिया था। स्कूल से लौटता तो वह कभी कमरे पर नहीं मिलती। शाम को वह मेरी चीख - पुकार सुनती और अपनी मुस्कानों से मेरे बचकाने गुस्से के खारेपन को सोखती जाती। पाव और दूध का कप पकडा कर मुझे प्यार से देखती। वह बहुत खुश रहने लगी थी।

बारह साल का होने तक तो मैं बहुत कुछ बल्कि सब कुछ समझने लगा था। अंग्रेजी स्कूल और यह परिवेश मेरे भीतर विषमता की एक बहुत बड़ी खाई खोद रहा था। मैं घनेरे असमंजस में था, मेरे व्यक्तित्व के भीतर पता नहीं क्या बन - बिगड़ रहा था। स्कूल में किसी बच्चे से झगड़ा होने पर मैं अचानक फाहशा औरतों के मुंह से निकलने वाली भाषा बोलने लगता और फिर पी टी सर के हाथों पिटाई होती। यहाँ चाल के लडक़ों से एकदम अंग्रेजी बोल पड़ ता तो मजाक बनता। वहाँ नन्स और फादर। यहाँ पेटीकोट में घूमती औरतें, दूसरी मंजिल में उसके कमरे तक पहुंचने वाली, पेशाब की मंद गंध वाली सीढियों के बीच ही, देह और उसके गुह्य रहस्यों को लेकर नित नई कक्षा लगी होती। कामुक आवाज़ों, गंधों और गालियों से कमोबेश मैं सुन्न हो चला था।

एक दिन हम दोनों लेटे - लेटे हल्की रोशनी में डूबे कमरे के कोनों में अंधेरे की बनती - बिगड़ती आकृतियों को घूर रहे थे कि वह बोली।

“मुझे पता है तेरे मन में बहुत सवाल उठने लगे हैं आजकल।”

"..."

“आज तू सारे सवाल पूछ ले, जो तेरे मन में उठते हैं।”

मैं बहुत देर चुप रहा फिर एक सवाल जो मेरी आधी आत्मा कुतर चुका था, उसे मैं ने मन के बिल से निकाल फेंका।

“तेरी शादी हुई थी”

“नहीं।”

“सच्ची - सच्ची बताऐगी ना।”

“हं।”

“खा कसम।”

“ खाई।”

“ मेरी कसम खा।”

“ पागल है क्या? कसम कसम है।”

“ तो खा न।”

“ अच्छा तेरी कसम।”

“तेरी शादी नहीं हुई फिर मैं कहाँ से कैसे आया?”

“वैसे ही जैसे और इन्सान आते हैं।”

“फिर मैं कोई कश्टमर की औलाद हूं? “

“ वो सच नहीं है। नहीं।

“ तूने सच बताने की कसम खाई है।”

“सच है, तू नहीं समझेगा।”

“मैं सब समझता हूं।”

“नहीं समझता।”

“तू बताएगी नहीं पता था। कसम खा के भी पलटेगी।”

“ सच। तेरा बाप है। उसका नाम भी है, तेरे स्कूल के रजिस्टर में। उसने छोड़ दिया मुझे। अब उसकी बात की तो देखना। ये अंग्रेजी स्कूल में पढ़कर तू कैसे - कैसे सवाल करता है रे। यहीं के सरकारी स्कूल में पढता तो शायद कोई सवाल नहीं करता। चुपचाप समझने की कोशिश करता।”

सच जानने के बाद तो मैं फिल्मों में वेश्याओं, दलालों और ऑर्केस्ट्रा और बार में नाचने वाली औरतों की रिहाइश वाली उस इमारत से निकल भागना चाहता था।

“जमना, यहाँ से कहीं और जाकर रहें।”

“किराया कहाँ से देंगे ?”

“इसका कहाँ से देती है ? इससे छोटा और कच्चा झौंपडा चलेगा पर यह नहीं”

“इसका किराया नहीं देती मैं। ये मेरी मां का कमरा है। खरीदा हुआ।”

“तू तो कहती थी दूर कहीं रत्नागिरी में तेरा घर है। आम के बाग हैं।”

“ ऐसे ही । वो धन्धेवाली थी। उसने ही ये कोठरी खरीदी थी। रत्नागिरी में तेरे बाप का घर है। “

“....”

“ और तू भी अब।” उसकी आंखें फिर पथरा गईं और वह बैठे - बैठे दीवार पर सर मारने लगी। पहले हल्के - हल्के फिर ज़ोर - ज़ोर से। मुझे चिढ हुई इस नाटक से।

उस दिन भी मेरे मुंह से 'कश्टमर' शब्द सुनते ही पगला गई थी। शरीफ बनती है स्साली । गली के और बच्चे दिनरात 'कश्टमर' की बात करते हैं, उनको कोई औरत कुछ नहीं कहती। यह है कि नाटक।

तब से मैं ने उसे कुछ भी कहना पूछना छोड़ दिया। मुझे शक नहीं यकीन था, वह मुझे स्कूल छोड़ कर के धन्धा किया करती थी। अगर नहीं करती तो मेरे अंग्रेजी स्कूल की फीस कहाँ से लाती। रात को परियों की कहानियां सुनाते हुए जरूर मुझे अफीम चटाती थी। उसका बटुआ हमेशा दस - दस के नोटों से भरा रहता था। अब एक पासबुक भी रखती थी वह।

एक दिन मैं स्कूल के रास्ते में से ही लौट आया। पीली इमारत के सामने बने एक सस्ते होटल की टेबल पर बस्ता लेकर बैठा रहा। मैं ने देखा वो साड़ी पहने थी। बाल खोले थे, उनमें सेवन्ती के फूल थे। हाथ में पर्स। कहाँ जाती है यह, आज देखना ही होगा। आज अपने सारे भरम तोड कर विषमता के चौडे पाटों के सिरों पर रखे अपने पैरों को आज छोड़ दूंगा और इस बजबजाती खाई में गिर ही जाऊंगा।

बस्ता वहीं भूल कर मैं उसके पीछे लग गया। गली - दर -गली। चौक और मोड। कुछ कच्चे रास्ते और रेल की लाईनें। फिर नौ - पन्द्रह की लोकल। मैं भी बिना टिकट चढ़ ग़या भीड़ में। मुझे लगा उसने मुझे चढ़ते हुए देखा, पर उसने मुंह फेर लिया। मैं एक मोटे आदमी के पीछे छिप गया। जहाँ वो उतरी मैं भी उतर गया। वह फिर चल पड़ी, एक चौड़ी सड़क के फुटपाथ पर....मैं खीज रहा था कितना और चलेगी ? अचानक वह एक चर्च जैसी दिखने वाली इमारत में घुस गई। जब सिक्योरिटी वाला एक आदमी का पास देख रहा था, तभी मैं विकेट गेट से चुपचाप भीतर चला गया। बड़ा - सा हरा - भरा बगीचा सामने पीले - लाल पत्थरों वाली बहुत बड़ी इमारत थी। बड़े - बड़े खम्भे। बड़ी मेहराबों वाले, बड़े दरवाजे। सब कुछ बड़ा और खुला। साफ और खुश्बूदार हवा। सबकुछ भूल कर मेरा मन खुश हो गया। उस बदबूदार नर्क के सामने यह बहुत सुन्दर एक स्वर्ग था। मैं इस स्वर्ग का और सुख लेता कि वह इस खुली - खुली इमारत के गलियारों में घुस गई। जहाँ बड़े - बड़े हॉल थे। सफेद पोश आदमी। साफ - सुन्दर औरतें और पढने वाले लडक़े - लडक़ियां आ - जा रहे थे। क्या यहाँ नौकरी करती है वह ? या उसका कोई सगेवाला!

वह गलियारे के एक हॉल में दाखिल हुई फिर तुरन्त पलट आई। वह सफेद खंभे के पीछे छिप गया। वह मुड़ कर उसी खंभे की तरफ आ रही थी। “क्या उसने देख लिया ?”मेरा दिल गले तक उछल आया। दौड़- दौड़ कर,चल - चल कर वैसे भी मेरी सांसे काबू में ही नहीं आ रही थीं। उसकी परछांई दिखी लगा वह हल्की उदास मगर बहुत शांत थी। खंभे के जरा पहले उसने एक बड़ा दरवाजा धकेला और अन्दर चली गई। मैं ने चैन की सांस ली और खंभे के पीछे से निकल आया। अब मैं वहाँ एकदम अकेला खडा था, हवा में उडते पत्तों और ठण्डे सन्नाटों के बीच। मैं ने चारों तरफ नजर डाली, गलियारे के दोनों तरफ चित्र टंगे थे। बड़े अजीब। हरी गाय और जामुनी पहाड। ख़ेतों में झुके हुए अधनंगे, हडियल आदमी - औरतों के झुण्ड। पेड़ों में उगे लाल फलों पर कुछ रोते कुछ हंसते चेहरे। कैसे चित्र हैं ये? बड़े भद्दे और डरावने। तभी बहुत से पैरों की धपड़ - धपड़ आहटें सुनाई दीं। कुछ खिलखिलाहटें और बातें, मैं गलियारे के एक खुले हिस्से से बगीचे में कूद गया।

उसे दरवाजे में भीतर घुसे पन्द्रह मिनट से ज्यादा हो गए थे। मैं लगातार उस दरवाजे पर नजर टिकाए रहा। अचानक एक डर पेट में गङ्ढा बनाने लगा। पेट में हल्का - हल्का कंपन हुआ जो आतंक का पूर्वाभास होता है। वह इन गलियारों और बड़े - बड़े कमरों में खो गई तो मैं क्या करुंगा ? वह बेखबर घर जाऐगी और मुझे ढूंढेगी और मैं इस एकदम अजनबी इलाके में खो जाऊंगा। लौटने का रास्ता, ट्रेनका स्टेशन का कुछ भी नहीं पता था मुझे। मैं तो पीली इमारतों से स्कूल और उसके आगे कभी आया ही नहीं। मगर कल तो वह वापस आऐगी वह अगर नौकरी करती है यहाँअगर नहीं करती हो और बस आज किसी काम से आई हो तो क्या करुंगा ? मुझे लगा पन्द्रह साल का होकर भी बच्चे का बच्चा ही रह गया। चाल के बच्चे जो चिढाते हैं वह सही हैकि मैं दूध पीता बच्चा हूँ, उसके पल्ले से चिपका रहता हूं। अब मेरी हथेलियों में पसीना चिपचिपा रहा था। भूख पेट जला रही थी। आंखों में आंसुओं के कण किरकिरा रहे थे। भीषण असुरक्षा मन में भर गई। एक इच्छा हुई कि गेट के पास बैठे चपडासी से जमुना बाईजमुना बाई सलुंके के बारे में पूछे। पर अगर उसने मुझे पकड लियाऔर पूछा 'अन्दर कैसे घुसा' तो ?

मैं सहमा हुआ गलियारे के साथ - साथ नीचे घास पर चलता रहा, आगे गलियारा बन्द हो गया। खिडक़ियां शुरू हो गयीं। एक के बाद एक, कई - कई मैं हर खिडक़ी के नीचे बने एक पतले चबूतरे पर चढ़ - उतर कर खिडक़ी - दर - खिडक़ी झांकता हुआ सरकने लगा। कहीं परदे तो कहीं नहीं। कहीं अन्दर बड़े कमरों में हर दीवार पर चित्र ही चित्र और चित्र बनाते लडक़े - लडक़ी। कहीं छोटी - बड़ी मूर्तियां तो कहीं लोहे और लकड़ी क़ी अजीब सी आकृतियां बनाते लोग। बड़ी - बड़ी लाइटें और कैमरे। भीतर दुबका आतंक अब उत्सुकता में बदल रहा था। एक उम्मीद जागी थी कि अब मैं उसे खोज लूंगा। एक खिडक़ी में मैं ठिठक गया। कमरा खाली था। परदा खुला था। दीवारों पर नंगे मर्द और औरतों के चित्र लगे थे। जवान भी और बूढ़े और बहुत बूढ़े नंगे मर्द और औरतें। मैं बुरी तरह अचकचा गया। तब तक मैं ने नंगी औरतों वाली किताबें देख ली थीं। चाल में वैसी किताबें हर कहीं मिलेंगी और उनके पन्नों पर सफेद, सुन्दर, नंगी - कामुक औरतें। मुझे लगा क्या बकवास है-- ये कैसी हैं किसी के चेहरे पथरीले हैं, किसी की देह ढलकी हुई। लटकी छातियों और मोटे नितम्बों वाली औरतें। मुझे जुगुप्सा होने लगी थी। तभी कुछ लडक़े लडक़ियों का झुण्ड घुसा कमरे में और उनके पीछे 'वह' । मन हुआ कि आवाज दे दूं। पर वह टेबल पर चढ़ कर बैठ गई थी। मुझे हैरानी हुई। इसकी साड़ी कहाँ गई? ये तौलिए का झब्बा क्या पहना है ? अब क्या इस ड्रेस में ये उन लडक़े - लडक़ियों को पढाने ही लगेगी? एक दाढी वाला पेट के बल मेज पर लेटा पैर मोड कर, कूल्हे उठा कर। वैसे ही उसे कुछ कहा और फिर उतर कर गोल टेबल पर बैठ गया। लडक़े - लडक़ी भी उस मेज के दो तरफ बैठ गए। दूसरी लम्बी मेज पर वो थी।कहाँ गई इस मेज पर कूल्हे ऊंचे करके लेटी, यह नंगी औरत कौन है ! ! ! !

मैं सुन्न हो गया था। यह सब क्या था? तुरन्त खिड़की पर से बेजान हो कर नीचे कूद गया। कुछ देर वहीं लेटा रहा। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि यह कैसा धन्धा है? उन वेश्याओं, सफेद, नंगी औरतों की किताबों और इसकी इस नंगी नुमाइश के बीच क्या कोई फर्क है? यह ऐसा क्यों कर रही है?

मेरे शरीर से जान निकल चुकी थी। दिमाग पर पाला पड़ ग़या था।

फिर मैं घास के लम्बे मैदान को दौड कर पार करके दीवार फांद कर बाहर आ गया और सिक्योरिटी वाले से जरा हट कर उसका इंतजार करने लगा। वह दो घण्टे बाद निकली और चल पड़ी। कुछ देर चल कर उसने जरा सा पीछे मुड़ कर देखा, मैं बेमन से दीवार से सट गया, फिर चल पडा उसके पीछे, शिथिल मगर सजग _ उन्हीं रास्तों पर। मैं उसके घर पहुंचने के दो घण्टे बाद पहुंचा घर गया। इधर - उधर आवारा घूमता रहा भूखा और बहुत से सवालों में घिरा।

उसकी जो नंगी - गीली परछाइयां मेरे सवालों से लिपटी थीं, न जाने कितने सालों तक यूं ही लिपटी रहीं, फिर वक्त के साथ सूख - सूख कर झर गईं। शायद एकाध अब भी हरी हो, लिपटी हो। मैं ने उन बिना जवाब के सवालों को बहुत दिनों से नहीं पलटा था मसलन वह कुछ और भी तो कर सकती थी? आखिरकार नंगे ही होना था क्या?

मेरी नजर उसके चेहरे पर उगे झुर्रियों के एकदम नए जाल पर पड़ती है। उस जाल में बहुत से पुराने सपनों के पंख फंसे हैं। उसकी आंखे मुंदी हैं। आज जब मैं उसके चेहरे में झुर्रियों के जाल को देखता हूं तो हैरान होता हूं क्या सच में यह बहुत चतुर थी? बत्तीस दांतों के बीच अपने मूल्यों के साथ जीभ - सा बचे रहना चतुराई थी? पूरी जिन्दगी अपने वजूद की नंगी परछाइयों को ढकने की कोशिश में मुझसे भागती रही, क्या वह चतुराई थी? यह आज भी वहीं नौकरी करती है। कहती है, रिटायर हो कर ही छोडेग़ी। पेन्शन लेगी। यहीं रहेगी। मैं जानता हूं जिद्दी है।

यह खुद क्या कम जिद्दी है?

प्रोफेसर साहब के फोन करने के बावजूद, ये आर्ट कॉलेज नहीं आया। मुझे पता था नहीं आऐगा। वहाँ उसे डराने वाले भूत छुपे हैं, खंभे के पीछे, टेबल के ऊपर। आज दोपहर हुआ ये कि पोज देते - देते मैं बेहोश हो गयी। शायद घुटना मोडे - मोडे ख़ून का दौरा दिमाग तक जाना बन्द हो गया था। वहीं डॉक्टर आया, दो इंजेक्शन लगे, वहीं ग्लूकोज क़ी बोतल भी चढी। फिर कॉलेज वालों ने ही एम्बुलेन्स में मुझे यहाँ तक छुड़वाया। मगर यह नहीं आया। अब आया है। इसे पता है कि मैं अब भी वही नौकरी वही मॉडलिंग करती हूं। उमर तो हो गयी है। मगर प्रोफेसर साहब कहते हैं कि “जवान और सधे जिस्म तो कोई भी पेन्ट कर ले असली कला तो वह है जो झुर्रियों के बारीक जाल की सुन्दरता को पकडे।”

(शायद यह बहाना है। ऐसी युवा मॉडल मिलना बहुत मुश्किल होता है, यहाँ इतने बड़े शहर के इतने बड़े और पुराने आर्ट कॉलेज में कॉन्ट्रेक्ट और परमानेन्ट मिला कर छ: हैं बस। उस पर फैकल्टी कितनी सारी, मूर्तिकला, फोटोग्राफी, एब्स्ट्रेक्ट कंटम्प्रेरी, म्यूराल। )

ये दुबला हो गया है। दाढी क्यों बढा ली है? घुन्ना है। चुपचाप बैठा रहेगा। कहेगा नहीं कुछ।आंखे तक नहीं मिलाना चाहता मुझसे। मुझे ही क्या पड़ी है। जाने दो। बाहर पेड़ों को ताक रहा है। ऐसे चुप बैठे रहना है तो आता ही क्यों है? फोन पर हाल पूछ ले। मोह नहीं छूटता इसका मेरे से। अच्छा हुआ 'मेरे साथ चल' की रट अब छोड़ दी है। मुझे नहीं जाना वहाँ उस समाज में। मां इस समाज की थी सर से पांव तक। मैं इस समाज से अपनी जड़ें उखाडने की चाह में, खुली जडे लिए नित जलील होती, सूखती घूमती रही। फिर ये ये भी त्रिशंकु होने की स्थिति में ही रहा। अब इसके बच्चे एकदम मुक्त हो कर उसी समाज में सांस ले वही ठीक है। इसीलिए मैं अपनी खुली, फफूंद लगी जड़ें ले कर वहाँ नहीं जाना चाहती।

कितने दिनों बाद यह इधर आया है। सोचता होगा कि मैं अपनी नंगी सच्चाइयां इससे छुपाती हुई, यहाँ तक चली आई हूं और सोचता होगा कि मैं आंख नहीं मिलाना चाहती। तुझे आंखें चुराते देख कर ही मैं आंखें बन्द कर लेती हूं या फेर लेती हूँ। तुझसे शरम करुंगी तू जो मेरी जांघों से सतमासा ही निकल पडा था।

तू जितना समझता है, उससे कहीं चतुर हूं मैं। बहुत दिनों तक लगातार छुपाने के बाद और तेरी उत्सुकता के एक हद पार कर लेने के बाद ही मैं ने अपने सच तुझ पर उजागर हो जाने दिए और यह भरम भी बना रहने दिया कि तू समझता है कि तूने जो मेरे सच जान लिए हैं , उस बाबत मैं कुछ नहीं जानती। अब तू कुछ भी समझ कि कपडे उतार कर भी वेश्याओं की बस्ती में मैं पवित्रता का ड्रामा किए हुए बैठी हूं। मैं जानती हूं कि तू जानता है मेरा हर सच। वो चाहे पवित्र हो कि न हो। तुझे हक था जानने का उस पहली सांस से जब तू मेरी जांघों के बीच खून के तालाब में अचानक आ गिरा था।

मुझे नहीं पता कि मैं ने इससे कुछ छिपा कर गलती की थी या नहीं लेकिन अपनी मां से कुछ तो बेहतर ही कोशिश रही थी मेरी। वह तो हमारे स्कूल से लौटने के बाद अगर कोई कस्टमर आता तो कहती, दीपू - लाली बिस्तर के नीचे घुस जाओ। हम वहीं स्कूल का काम करते। उपर चलती धपड़ - धपड़ क़े नीचे।

मैं देखती मां के बदन पर तरह - तरह के निशान। सिगरेट के जले सलेटी निशान, नीले - जामुनी निशान और बहुत बुरी तरह डर जाती। मुझे मां पर गुस्सा आता। यह बर्तन - झाडू क्यों नहीं कर लेती। दस - दस रूपए के लिए मर्दों से खुद को कुचलवाती क्यों है। मगर वह तो मुझसे भी यही उम्मीदें लगाने लगी थी।

आठवीं के बाद मेरी मां ने स्कूल छुडा दिया और मुझे मंहगी 'कॉल गर्ल' बनाने की सोचने लगी। एक बाहर के दलाल के बात भी की। मुझे मंहगी या सस्ती कैसी भी वेश्या नहीं बनना था। मैं एक टैक्सी ड्रायवर के साथ भाग गई। प्यार - व्यार का गहरा चक्कर डाला था उसने। बोला था, रत्नागिरी में घर है, थोड़ी ख़ेती है। आम के पेड़ हैं। मगर ये नहीं बताया एक और पत्नी भी है। एक दिन मुझे वापस छोड़ गया अजन्मे बच्चे के साथ। मुझे तब नहीं पता था कि इन पीले मकानों के बाहर का जो समाज है वह दूसरी ही कोई दुनिया है।

मेरे जाने के बाद ही दीपू भी एक ट्रकवाले के साथ खलासी बन कर गया तो फिर कभी नहीं आया। माँ बहुत गुस्से में थी, दोनों बच्चे, जिनकी वजह से खुद को कुचलवाती रही, दोनों के दोनों भाग गए। इसलिए सारा गुस्सा मुझ पर उतरा। मेरे कमरे में घुसते ही मां ने कपड़ों की तरह कूट डाला। इतना कि जांघ से खून गिरने लगा और मैं ने सतमासे बच्चे यानि इसे जनम दिया। मां बीमार रहने लगी थी। 'कश्टमर' कतराते थे। मैं वेश्याओं के नुचे हुए जिस्मों की मालिश करने लगी पांच - पांच रूपए में। एक दिन मां मर गई।

मैं अकेली, दलाल भी कमरे के चक्कर काटने लगे।

तब मैं ने अपनी बचपन की सहेली जोली के साथ सेल्सगर्ल का काम पकडा। क्या नहीं बेचा, सर्फ, साबुन, बरतन. फिर वो ही एक दिन अपने साथ आर्ट कॉलेज ले गई। पहले सिटिंग के हिसाब से पैसा मिलता था। साठ रूपए एक सिटिंग का।

सात साल ऐसे ही चला फिर वहाँ की परमानेन्ट मॉडल की नौकरी मिल गई। अब तक पूरे सतरह साल हो गए वहाँ काम करते हुए।

जब पहली बार गई थी तो बहुत संकोच हुआ था। जोली ने समझाया कि यह गलत काम नहीं है।

“अच्छा, मगर थोड़ा बोल्ड जॉब है जमना! मैं ने बहुत साल किया है। अब शादी करने जा रही हूं न। बेकरी वाले मोजेज़ के वहाँ यह सब नहीं चलेगा। तुझे अपनी जगह रखवा रही हूं।”

अपनी चाल के टाट पडे हुए स्नानघर में भी नहाते हुए कभी कपडे नहीं उतारे तो इतने लडक़े - लडक़ियों के सामने! मैं नहीं जानती वो क्या सोचते होंगे पर उनके चेहरों पर एक सस्ती उत्सुकता नहीं थी, एक धीरज भरा इंतजार था, मैं ने तौलिए का झब्बा उतार दिया था. मन ही मन यह ठानते हुए कि 'वेश्या बनने से यह थोड़ा अच्छा है।'

पहले मैं उनकी फरमाइश पर कठिन पोज दे देती थी। सोचती कुछ नहीं, हो जाऐगा...पर दो मिनट बाद ही समझ आ जाता कि इस पोज में रहना आसान नहीं मगर पूरे 15 मिनट शरीर अकड़ा हुआ रहता और दर्द महसूस करता। मैं दम साधे रहती। हर पन्द्रह मिनट के बाद दस मिनट की छुट्टी और आधे घण्टे बाद एक कप चाय मिलती। बाद में मुझे आसान से आसान पोज समझ आ गए, जिनमें मैं 15 से 20 मिनट बैठ या लेट सकती थी। खुजली की तेज इच्छा को टालना भी आ गया था। दिमाग वैसे ही ढल जाता है। मैं अपने चित्र नहीं देखती। ज्यादातर वो बहुत भद्दे दिखते थे।

कभी - कभी इतनी सारी लाइट के कारण, उमस भरे दिनों में पसीने की बूंदे मेरी छातियों के नीचे जमा होतीं रहतीं फिर इकट्ठी होकर पेट पर बह निकलतीं फिर जांघों में घुस जातीं।

एक बार मैं ने वहीं बैठे - बैठे एक लडक़े के कैनवास पर नजर डाली तो देखा, उसने वो बहती बूंदे बना डाली हैं। छाती से पेट पर फिसलती हुई। फिर वो मुझे देखते हुए देख कर बहुत मीठा - सा मुस्कुराया था। मुझे इसकी याद आ गई। स्कूल से आकर मुझे घर पर देख कर ऐसे ही मुस्कुराता था। न मिलूं तो पूरे दिन मुंह फुला कर रहता।

इतने लम्बे समय में मुझे अपना एक ही चित्र पसन्द आया था। आठ फुट ऊंचा। पूरा शरीर हल्के जामुनिया रंग का और छातियां और कूल्हे का उभार गुलाबी। बालों का रंग पीला उसमें नीली - नीली नदी की लहरें। बड़ी - बड़ी आंखें मंदिर की देवी जैसी। मुझे लगा थकान और अकड़न से खडे हुए रोंगटों वाली, मेरी छाया नहीं है यह। यह कोई और है। प्रोफेसर मोहनीश ने बनाया था वो। बोले - “ जमना तुम्हें पता है तुम्हारे शरीर का रंग सांवला या भूरा - वूरा नहीं है। यह जामुनी है। मैं ने ये तेज रंग कभी इस्तेमाल नहीं किये। आज जब बिना लाइटों के खिडक़ी खोल कर तुम्हें नेचुरल लाईट में देखा तो, मैं ने ये रंग उठाए हैं पहली बार । मैं ने ब्रश के कभी तिरछे स्ट्रोक नहीं इस्तेमाल किए मगर आज तुम्हारे शरीर की काट और ढलान ने मुझे मजबूर किया।”

उनको उस चित्र पर कोई बहुत बड़ाई नाम मिला था। एक किताब में वह चित्र छपा था, प्रोफेसर साहब के फोटो के साथ। उन्होंने वह किताब दिखाई “ देखो 'आर्ट टुडे' में तुम्हारा वाला चित्र छपा है। इस चित्र को मैं ने शीर्षक दिया है कालिन्दी। पढ़ो, अपना नाम, कालिन्दी यानि 'जमना' जमना सलुंके'।” उन्होंने हजार रूपए की बख्शीश जबरदस्ती पकडाई। कहते थे “जीवित मॉडल ही कलाकार के 'मास्टरपीस' बनाने के लिए एक बड़ा माध्यम होती है। लेकिन उन्हें वह इज्ज़त नहीं मिलती जो उन्हें मिलना चाहिये।”

प्रोफेसर हर आने वाले नए बैच से कहते -- “ये कोई फैशन मॉडल्स नहीं हैं। न ये किसी ब्यूटी कान्टेस्ट की देन हैं, ये हर आकार, लिंग और आयु के साधारण लोग हैं, जो यथार्थवादी कला को जन्म देने में हमारी मदद करते हैं। यहाँ नग्नता मायने ही नहीं रखती। आप जब कला की बारीकियों में उलझ जाते हैं, प्रकाश, छाया, कटावों और कोणों के उकेरने की तकनीकी में। उस वक्त आप कला के बारे में सोच रहे होते हो न कि नग्नता के बारे में। यहाँ वे नग्नता के पदर्शन के लिए नहीं बिठाई जाते हैं, ये तो 'सुपर प्रोफेशनल्स' हैं। इनके माध्यम से तुम एक मानव शरीर के सही - सही आकार और आयाम देख पाते हो, जो कि कपड़ों के चलते ठीक से पता नहीं चलते। यहाँ महत्वपूर्ण यह है कि तुम देह की लचीली मांसपेशियों का विविधता से भरे आयाम, तनाव और आराम के माध्यम से देख पाते हो, उनके आकार और आयाम जैसा कि मैं ने कहा न्यूड मॉडलिंग आसान काम नहीं है। एक अच्छे पोज क़े लिए उनकी मेहनत और एकाग्रता लगती है। बीस मिनट में पैर सो जाता, नितम्ब की हड्डियां दर्द करने लगती हैं, नस पर नस चढ़ ज़ाती है ।”

काश मैं उनकी बातें टेप करके उसे सुना पाती जो उस दिन खुली खिडक़ी से मुझे पोज करते हुए देख गया था एन् इसी मास्टरपीस बनने वाले दिन। जामुनी रंग वाली जमना को।


हाँ, उसे देख लिया था मैं ने। लोकल में चढ़ते हुए। जानती थी, उसके पास पैसे होंगे नहीं इसलिए लोकल से उतर कर रिक्शा भी नहीं किया। पैदल आर्ट कॉलेज पहुंची। ठान लिया था, आज इसके सारे सवालों के उत्तर इसे बिना बोले दे दूं। इसीलिए जब बिना लाईट के सूरज की रोशनी में चित्र बनाने की बात कही प्रोफेसर साहब ने तो मैं चुपचाप मान गई। परदे खोल दिए गए। मैं ने कनखियों से उसे देखा भी, उसका चेहरा लाल हुआ फिर बैंगनी....अंत में काला। फिर वह खिडक़ी से कूद गया।

उस दिन जब वह घर लौटा तो मैं ने बहुत दिनों बाद पास के होटल से मुर्गे का कढाही शोरबा और रोटियां मंगाए थे। शायद भूख तेज थी और गुस्सा नपुंसक। उसने चुपचाप खा लिया। खाकर भी गुस्से में वह होंठ चबाता रहा।

खाने के बाद जब वो हाथ धो रहा था तब वो बोली।

“ स्कूल नहीं क्या आज तू ?”

“ गया तो था।”

सोचा कि पूछूं।

“तू आज मेरे पीछे आया था ! लोकल से उतरते देख लिया था मैं ने। तू क्या सोचता है तू ही शाणा है। और वहाँ आर्ट कोलेज में तुझे सिकोरिटी वाला ऐसेईच घुसने देता !”

लेकिन मैं ने नहीं पूछा क्योंकि फिर वो पूछता कि -- “ तूने फिर मुझे साथ क्यों नहीं लिया ?”

तो क्या कहूंगी ? कह दूंगी कि -- “नौकरी है वो मेरी।”

फिर वो कहेगा कि -- “ऐसी गन्दी नौकरी। छोड़ दे वो नौकरी।”

तो कहूंगी कि -- “काम में गन्दा - अच्छा क्या? मुझे बस ये पता है कि इन ड्राईंग पढने वाले इन बच्चों को मेरी जरूरत है। मेरे काम से इनको सीखने को मिलता है। वहाँ कोई मुझे गन्दी नजर से नहीं देखता। मैं नहीं छोड़ ने वाली ये नौकरी। पूर सात हजार मिलते हैं महीने के। “

मैं चुप रही। चुपचाप बर्तन समेटे और मांजे। वह उंगलियां चटखाता रहा। देखा! आज भी उंगलियां चटखा रहा है। कितना मना करती रही हूं।

“उंगलियां तोडेग़ा क्या?” मैं आंखें खोलकर तरेरती हूं । वह हंसता है। बचपन वाली हंसी।

“अब छोड़ दे ये नौकरी जो तू कॉलेज में करती है।”

“ छोड़ दूंगी। रिटायर हो ही जाऊंगी जल्दी ही।”

“पैसा दे के जाऊं।”

“अभी तो है। चाहिएगा तो ले लूंगी। तेरा कैसा चल रहा है ?”

“ठीक ।”

“नौकरी ?”

“बदल ली।”

“अब फोटो नहीं खींचता।”

“खींचता हूं। भूकंप और बम धमाके के नहीं । खून में लथपथ लोगों के फोटो खींच कर भी अखबार में पैसे कम ही मिलते थे।”

“फिर?”

“फिर क्या बच्चे होने के बाद खर्चा बढ ग़या है। एक कमरे में काम नहीं चलता। इसलिए अब फ्रीलांस अपना ही काम करता हूं। एक साथ कई जगह पर।”

“ तभी तू दुबला हो गया है। काम उतना ही करना चाहिए जितना शरीर झेल सके।”

“ उधर की तरफ यहाँ के जैसे तो नहीं रहा जा सकता है न। थोडे ज्यादा पैसे बन जाते हैं। अब मै विज्ञापनों के लिए भी काम करता हूं। मॉडलों के फोटो खींचता हूं अभी अपने खींचे फोटो की प्रदर्शनी लगाई थी उसका एक किताब में रिव्यू भी आया है।”

“आर्ट टुडे में! 'डिवाइन न्यूडिटी' ? “

“तुझे कैसे पता ?”

मैं ने आंखे मूंद ली। मुझे पता था उसके भीतर के अहम् की हवा रिस कर उसे पिचका हुआ छोड़ गई है।