काली आँधी / कमलेश्वर / पृष्ठ 1

Gadya Kosh से
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जग्गी बाबू मेरे दोस्त हैं। होटल गोल्डन सन के मैनेजर। होटल के मैनेजरों के बारे में तरह-तरह की ऊँची-नीची बातें रहती हैं, पर जग्गी बाबू इस पेशे में अपनी तरह के अलग आदमी हैं। मुझे मालूम है कि उन्होंने अपनी ज़िन्दगी को क्यों एक जगह रोक रखा है। कहने के लिए कुछ भी कहा जा सकता है। पर आदमी की तकलीफ की असलियत जानना शायद बहुत मुश्किल होता है।


औरों से क्या कहूं, अब तक खुद अपने घर में मैं यह साबित नहीं कर पाया कि जग्गी बाबू के भीतर एक ऐसा इन्सान बैठा हुआ है जो अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए रोता है...सच कहूं, तो मालती के लिए रोता है। मालती के लिए यह आदमी अपनी ज़िन्दगी को पकड़कर बैठ गया है—न ज़िन्दगी को आगे बढ़ने देता है, न पीछे हटने देता है।

कभी आप जग्गी बाबू के कमरे में जाइए। होटल गोल्डन सन के टैरेस पर बने दो कमरों के अपार्टमेंट में वे अकेले रहते हैं। मैनेजर हैं, इसलिए उन्हें वहीं रहने के लिए जगह भी मिल गई है। उनके कमरे में दो खास चीज़ें हैं, एक डिब्बा, जिसमें उनकी प्यारी बिटिया लिली के खत रखे रहते हैं और दूसरी है एक घड़ी, जो हमेशा बंद रहती है। वक्त को नापते-नापते एक दिन अचानक वह रुक गई। जग्गी बाबू ने उसे चलाया नहीं न उसे चाबी दी।


मैंने एक दिन उनसे पूछा था—यह घड़ी खराब हो गई है ? जब आता हूं, हमेशा एक वक्त पर अटकी मिलती है !

जग्गी बाबू मुस्करा दिए थे। फिर बोले थे—क्या यह जरूरी है कि घड़ी खराब हो जाए, तभी रुके ! उसे किसी खास वक्त पर खुद भी तो रोका जा सकता है....

--तो इसे चलाया भी जा सकता है !

वे फिर फीकी-सी हंसी हंसे थे—तुम भी क्या बात करते हो ! वक्त चलता है...यह घड़ी चलते-बदलते हुए वक्त को सिर्फ नापती है। और वक्त को नापने की ख्वाहिश अब मुझमें नहीं...


--बदलने की ताकत सबमें नहीं होती...जिनमें होती है वे भी वक्त को बदलते-बदलते खुद बदल जाते हैं...वे, जिनके पास यह शक्ति है, शायद वक्त को बदलना भी नहीं चाहते...सिर्फ वक्त का इस्तेमाल करना चाहते हैं।

मैं जान रहा था कि जग्गी बाबू के भीतर की कौन-सी चोट बोल रही थी। एक तरह से कहें तो यह बहुत व्यक्तिगत चोट है पर खुली आँखों से देखें तो यह सबकी चोट है।


एक तरह से अब मैं भी राजनीति में हूं। करीब-करीब उन्हीं दिनों से, जब से मालती जी राजनीति में आईं। यों मैं मालती को बचपन से जानता रहा हूं। मैं मालती जी के पिता बैरिस्टर प्रतापराय के दफ्तर में असिस्टेंट था और वहीं से मालती जी के परिवार के साथ हमारा एक रिश्ता शुरू हुआ था। प्रतापराय जी की मृत्यु के बाद, या कहूं मालती जी की शादी के बाद मेरा संबंध कुछ टूट गया। प्रतापराय जी की मृत्यु के बाद मैं उनकी जायदाद की देख-भाल करता रहा। जब मालती जी राजनीति में आईं तो उन्होंने एक सहायक के रूप में मुझे फिर से अपने साथ बुला लिया था। तब से मैं मालती जी के साथ हूं।


जग्गी बाबू राजनीति की बातों में नहीं पड़ते। समझते सब हैं, पर बात कीजिए तो कतराते हैं। एक बार कुरेद दिया तो चिढ़कर बोले थे—यार, तुम्हारी, यह राजनीति बड़ी घटिया चीज़ है...तुम लोगों ने इसे निहायत बेहूदा बना दिया है। तुम लोग सिर्फ चीज़ों का बखूबी इस्तेमाल करना जानते हो !...बाढ़ आई तो उसे इस्तेमाल करो, सूखा पड़े तो उसे इस्तेमाल करो, कहीं कोई लड़की भाग गई तो उसके भागने का इस्तेमाल करो...कहीं कोई मर गया तो उसकी मौत को इस्तेमाल करो....तुम लोगों ने आदमी के आंसुओं जज़बातों को तक को नहीं छोड़ा...उसकी आशाओं और सपनों तक को नहीं बख्शा...इससे ज्यादा घटिया बात और क्या हो सकती है कि दुःखी और मुसीबतज़दा इन्सानों के सपनों तक का इस्तेमाल तुमने कर लिया...खुदा के लिए, उसके सपने तो उसके लिए छोड़ दिए होते...ताकि वह अपनी बदहाली और मुसीबतों के बीच सपनों के सहारे तो जी लेता....तुमने....तुमने उसके सपनों को नारे बनाकर निचोड़ लिया ! अब क्या बचा है आदमी के पास ? खैर छोड़ो...कहां की बातें ले बैठे....


ज्यादातर जग्गी बाबू बातों को टाल देते हैं। मालती जी की बात करो तो भी शामिल नहीं होते, ऐसे जताते रहते हैं जैसे मालती जी से उन्हें कुछ लेना-देना न हो। जैसे वे उनकी ज़िन्दगी में कभी आए ही न हों। मालती जी एक धमाके के साथ राजनीति में आईं। सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ती हुई। जहाँ से उन्होंने शुरू किया, वहां से पीछे मुड़कर देखने की जरूरत उन्हें नहीं पड़ी। पहला चुनाव उन्होंने म्युनिस्पल बोर्ड कमेटी का लड़ा...हंगामा बहुत हुआ। तरह-तरह की अफवाहें फैलीं। शायद इसलिए और भी ज़यादा कि जग्गी बाबू खजुराहो में एक टूरिस्ट होटल चलाते थे। जब पहली बार मालती जी ने घर से बाहर कदम रखा तो जग्गी बाबू बहुत खुश थे। कोई बहस करने लगे और कहने लगे—जग्गी बाबू, इस चुनाव में तो आपको खड़ा होना चाहिए था ! तो वे तपाक से कहते थे—देश के निर्माण में औरतों को भी आगे आना चाहिए। औरतों यानी हमारी आधी जनसंख्या जब तक इस तामीर में हाथ नहीं बंटाएगी, तब तक हर काम की स्पीड आधी रहेगी...यह बेहद ज़रूरी है कि हमारे घरों की औरतें आगे आएं और हर काम में मर्दों का हाथ बंटाएं...


और पहली बार जग्गी बाबू और मालती जी के पैर घर की दहलीज से साथ-साथ बाहर आए थे।

नौकर बिंदा बताता था कि मालकिन बहुत डर रही थीं और जग्गी बाबू उन्हें हिम्मत बंधा रहे थे—और स्पीच देने में क्या रखा है ? ये देखो मैंने तुम्हारी स्पीच लिख दी है...इसे रट लो, बस...

मालती जी कमरे में घूम-घुमकर स्पीच रटती रही थीं और जगह-जगह पर अटककर पूछती जाती थीं—यह क्या लफ़्ज है ?

-ये ऑक्टराय, यानी महसूल...चुंगी जो टैक्स लगाती है। पूरा सेंटेंस इस तरह बोलना—गावों से शहर आने वाले माल पर जो ऑक्टराय यानी चुंगी का महसूल लगता है, वह आखिर तो वही गरीब किसान देता है जो हमें ज़िंदा रखता है ! मेरा वादा है कि मैं अपने गरीब किसान और गांववाले भाइयों के हित से इस चुंगी के महसूल को खत्म करूंगी....समझीं, यहां पर तालियां बजेंगी, तब एक मिनट तक रुकना और आगे यों शुरू करना...तो मेरे इस गरीब खजुराहो शहर के भाइयों और बहनों !


और यह क्रम जो चला तो रुकने को नहीं आया। सफलता मालती जी के कदम चूमती चली गई। आवाज़ गूंजती रही, एक चुनाव से दूसरे चुनाव तक। चुंगी की मेम्बरी से पार्लियामेंट के चुनाव तक। मैंने मालती जी के हर चुनाव अभियान में हाथ बँटाया है और वे आवाजें अब तक मेरे कानों में गूंजती हैं जो एक दिन खजुराहो म्युनिस्पल बोर्ड के चुनाव से शुरू हुई थीं—मेरे इस गरीब खजुराहो शहर के भाइयों और बहनों ! मेरे ज़िले के भाइयों और बहनों ! मेरे प्रदेश के भाइयों और बहनों ! मेरे देश के भाइयों और बहनों !

यह आवाज़ फैलती गई। आवाज़ का दायरा बढ़ता गया। आवाज़ की गूंज गहराती गई। और जग्गी बाबू हर बार इस फैलती आवाज़ के साथ-साथ बैठकर आए थे। मंच पर मालती जी और जग्गी बाबू एक साथ ही बैठे थे। बिंदा मालाएं संभाले हुए था।


ज़िला परिषद वाला चुनाव जीतने पर फिर स्वागत समारोह हुआ था। कारों की कतार में इस बार जग्गी बाबू पीछे वाली कार में थे और मालाएं गोद में रखे बैठे थे। असेम्बली चुनाव में जीतने के बाद मालती जी बेतरह घिरी हुई थीं। जग्गी बाबू कारों की कतार में सबसे पीछे वाली कार पर थे और मंच पर जब चढ़ने लगे तो एक वार्लिटियर ने उन्हें रोक लिया था। वे अचकचाकर बोले—अरे भाई, मैं, मैं मालती जी का....


वार्लिटियर ने अपने जोम में जवाब दे दिया था—हां, हां, यहां सभी मालती जी के घरवाले ही हैं।

हटिए....नीचे उतरिए।

मेरी निगाह न पड़ती तो जग्गी बाबू अपमानित होकर सीढ़ियों से उतर ही गए होते। वार्लिटियर को डांट कर मैं उन्हें मंच पर ले आया था। कुर्सियां नहीं थीं तो एक मोढ़े का इंतजाम करके उन्हें बैठा दिया था। वे बैठे तो रहे, पर बेहद बुझे हुए थे। सफलहोने वाले के चारों तरफ कैसा मजमा जुटता है और सही लोग कैसे उससे दूर होते जाते हैं, इसका जीता-जागता उदाहरण जग्गी बाबू हैं।


उनका एलबम उठाकर देखिए। इस दुःखद सच्चाई की दास्तान तस्वीरें ही बता देंगी। तस्वीरों में से झांकता जग्गी बाबू का हंसता–खिलखिलाता और खुशी से भरा चेहरा खामोश और उदास होते-होते एक दिन बिलकुल गायब हो जाता है।

और तब वे सारा वक़्त अपने खजुराहो वाले होटल पर ही गुज़ारने लगे थे। अफवाहें भी फैली थीं कि जग्गी बाबू का होटल होटल नहीं, वह तो लोगों को पटाने का शिकारगाह है। कि जग्गी बाबू ने अपनी बीवी को औरों को लिए छोड़ दिया है...आखिर पैसा बनाने के लिए कुछ तो करना पड़ेगा...यह साला अपनी बीवी को दांव पर लगा बैठा है !


खजुराहो वाले होटल में उन दिनों कई बार जग्गी बाबू से मेरी बातें हुईं। वे दोनों तरफ से दुखी थे। मालती को लेकर भी और इन अफवाहों को लेकर भी। और एक दिन मालती जी से उनका झगड़ा हुआ था। मालती ने उनसे कहा था—आप यह होटल बंद कर दीजिए।