काली घोड़ी द्वार खड़ी / माया का मालकौंस / सुशोभित

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काली घोड़ी द्वार खड़ी
सुशोभित


दीप्ति की फ़िल्म 'चश्मेबद्दूर' का यह अनूठा गाना है

कुलजमा क़िस्सा ये है कि 'सरगम संगीत विद्यालय' में हर सोमवार और बुधवार को शाम चार से साढ़े पांच के बीच 'वो' गाना सीखने जाती है । गाना सीख सके, इसके लिए ‘चमको' साबुन की सेल्सगर्ल का काम भी करती है। ख़ुशबूदार, झागवाला चमको।

सुर-ताल में मन रम गया है 'उसका' । लौ जुड़ गई है। संगीत में 'सम' पर आमद होती है, पर वो 'सम' पर नहीं, 'आमद' के उस मनोरथ पर ठहर गई है, जहाँ बार बार लौट आने का राग है।

'वो' पक्का गाना गाती है । जहाँ सुर ग़लत लगता है, गुरु टोक देते हैं, वह तुरंत सुधार कर लेती है । मन-ही-मन एक ऊभचूभ इस तरह बनती है । सुरों की तुरपई । एक टाँका इधर, कभी दूसरा उधर ।

अब कक्षा समाप्त हो गई है, 'वो' बाहर चली आई है, लेकिन मन में जैसे उस धुन की धूनी । देह में लहर की लय लिए वह उस धुन के साथ बहती है, खुलती है। नई उपज की प्रत्याशा में उसके मन की पतंग दोलती है, और 'वो' बेख़याली की एक दिलकश तस्वीर।

अब ‘वो’ एक बस स्टॉप पर है और बस का इंतज़ार कर रही है । पृष्ठभूमि में गीत के मौजूं बोल उभरते हैं : 'सुध-बुध बिसर गई हमरी ।' वह दूसरों के लिए अश्रव्य लेकिन उसके लिए ज़ाहिर वह गीत मन ही मन गाती है, सुरों को साधते, मानो ग़लत गाने पर अभी ग़ैरहाज़िर गुरु कहीं से प्रकट होकर उसे टोक देंगे।

बस स्टॉप पर खड़े शोहदे उसे कनखियों से देखते हैं, फ़ब्तियां कसते हैं, लोग बावरी समझते हैं। लेकिन 'उसको' परवाह कहाँ ।

गाने के एक मोड़ से मिलकर फ़ारूख शेख़ अपनी फटफटी ('काली घोड़ी' ) पर आते नज़र आते हैं। 'उसके' चेहरे पर बेसाख़्ता एक मुस्कराहट खिल जाती है : क्षितिज से क्षितिज तक फैली उजली मुस्कान, जो केवल एक प्यार करने वाली लड़की के चेहरे पर ही संभव है ।

दोनों के बीच बातें होती हैं : 'कहाँ जा रही हो ?' 'फलानी जगह ।' 'अरे मैं तो भी तो उधर ही जा रहा था, चलो छोड़ देता हूँ' 'सच्ची ?' 'हाँ, हाँ, क्यों नहीं' : ऐसी ही कुछ बातें, जो हम सुन तो नहीं पाते लेकिन आसानी से अनुमान लगा सकते हैं।

'वो' गाड़ी पर बैठती है और ये चली, वो चली। देखते-देखते चिड़िया फुर्र हो जाती है। बस स्टॉप पर बस का इंतज़ार कर रहे दूसरे नश्वर प्राणी मुस्करा भर देते हैं। मन मसोसी मुस्कान ।

पृष्ठभूमि में गाना चलता रहता है :

'बरजोरी सैंया ले जावे/ चकित भई सगरी नगरी. '

बस, इस गीत की धुन ही वहाँ शेष रह जाती है, जो दीप्ति के मन में पनचक्की की तरह चल रही थी । हम उस धुन को उठाकर ज़ेब में रख लेते हैं, अपने साथ घर ले आते हैं, अपनी मेज़ पर सम्हाल कर रख देते हैं, जैसे हरे शीशे का कंचा। गले पर बाँध लेते हैं, जैसे ओस का कंठहार ।

सई परांजपे की उस प्यारी फ़िल्म का यह छोटा-सा, मीठा-सा सीक्वेंस है । मन में मीठी गुदगुदी करने वाला, लेकिन बीत चुके की कचोट के साथ । क्या दीप्ति से लुभावनी कोई और प्रेयसी कभी हुई है ? नहीं तो ।