कालू / सुशांत सुप्रिय
कुत्तों से दत्ता साहब को चिढ़ थी। नफ़रत थी। एलर्जी थी। पर गली का कुत्ता कालू था कि दत्ता साहब की चिढ़ की परवाह ही नहीं करता था। जैसे ही दत्ता साहब बाहर जाने के लिए दरवाज़ा खोलते, कालू को सामने पाते। कालू को देखते ही दत्ता साहब का ग़ुस्सा आसमान छूने लगता। उन्होंने कालू को डराने-धमकाने, गली से बाहर खदेड़ने की बहुत कोशिश की। पर कालू था कि पिछली घटना भूल कर दत्ता साहब के मकान के दरवाज़े पर फिर मौजूद हो जाता। दत्ता साहब उसे छड़ी दिखाते। वह छड़ी की मार के दायरे से बाहर रहते हुए पूँछ हिलाता। कालू के पूँछ हिलाते रहने से दत्ता साहब और ज़्यादा चिढ़ जाते। दो-एक बार उन्होंने पास पड़े पत्थर और पैरों में पहनी चप्पलें उतार कर कालू को दे मारीं। पर दत्ता साहब का निशाना हर बार चूक जाता। उधर कालू चप्पलों और पत्थरों को छकाने की कला में और पारंगत होता जाता। जब तक दत्ता साहब गली से बाहर नहीं चले जाते, कालू उनसे एक मर्यादित दूरी बनाए रखते हुए सतर्कतापूर्वक उन्हें 'गॉर्ड ऑफ़ ऑनर' देता चलता! दत्ता साहब का मन करता कि वे अपने सिर के बाल नोच लें।
कुछ महीने पहले तक दत्ता साहब के सामने यह समस्या नहीं थी। वे रोज़ाना सुबह-शाम टहलने जाते थे। रात का खाना खाने के बाद भी उन्हें गली के दो-तीन चक्कर लगाने की आदत थी। पर बुरा हो गली के नए गोरखा चौकीदार का। उसने न जाने कहाँ से भटकते हुए आ गए कालू को अपने पास पाल-लिया।
गली के बाक़ी लोगों को कालू से कोई परेशानी नहीं थी। गली की महिलाएँ अपने-अपने घरों का जूठा सुबह-शाम कालू को खिलाने लगीं। ऐसी आव-भगत छोड़ कर कालू भला कहीं और क्यों जाता? पर दत्ता साहब को दुख इस बात का था कि उनकी पत्नी भी गली की महिलाओं की तरह सुबह-शाम कालू को खिला-पिला कर हट्टा-कट्टा बनाने वालों की सूची में शामिल थी। दत्ता साहब के लिए यह बात असहनीय थी। यह ऐसा था जैसे कोई सगा-सम्बन्धी दुश्मन की फ़ौज में शामिल हो जाए। उन्होंने पहले पत्नी को समझाया, फिर कई बार उसे डाँटा भी। पर पत्नी थी कि उनकी आँख बचा कर कालू को बचा-खुचा जूठा खिला ही आती।
दत्ता साहब ने एक-दो बार चौकीदार को भी डाँटा कि वह न जाने कहाँ से इस आवारा कुत्ते को पकड़ लाया है। पर चौकीदार का कहना था कि कालू के होते कोई चोर-उचक्का गली में नहीं घुस सकता। यह सुनकर दत्ता साहब को और ग़ुस्सा आया। उन्होंने कहना चाहा — अबे, चौकीदारी के लिए तुझे रखा है या कुत्ते को? अगर कालू ने ही चौकीदारी करनी है तो तेरी तनख़्वाह भी कालू को ही दे देते हैं! पर चौकीदार के मुँह लगना उन्होंने ठीक नहीं समझा।
दो-चार बार दत्ता साहब ने इस मुद्दे पर पड़ोसियों और अन्य गली वालों से भी बात की। पर बात करने पर पता चला कि गली में अन्य किसी को भी कालू से कोई शिकायत नहीं थी। कुछ लोगों ने तो कालू की तारीफ़ में क़सीदे भी पढ़े — बड़ा सीधा कुत्ता है जी। मांस-मछली को तो सूँघता तक नहीं। छोटे बच्चे इसकी पूँछ खींच लेते हैं पर यह गुर्राता तक नहीं। पर गली में आने-जाने वाले अजनबी लोगों पर यह पूरी निगाह रखता है। वग़ैरह।
दत्ता साहब समझ नहीं पा रहे थे कि कैसे कालू से छुटकारा पाएँ। ग़ुस्से में उन के मन में बड़े भयंकर ख़याल आते। क्या वे कालू को ज़हर मिला खाना दे दें?
जीव-हत्या? ना बाबा ना! उनका मन इस ख़याल को उसी समय ख़ारिज कर देता। क्या नगर निगम वालों को फ़ोन करके कह दें कि उनकी गली में काले रंग का एक पागल कटहा कुत्ता दहशत मचाए हुए है? पर उनकी बात का समर्थन कौन करेगा?
उन्हें इस समस्या का कोई हल दिखाई नहीं देता।
फिर एक ऐसा समय आया जब कालू दत्ता साहब को नींद में भी पीड़ित करने लगा। उनके सपनों में भी कालू आ कर उन्हें सताने लगा। वे कोई बड़ा अच्छा-सा सपना देख रहे होते। सपने में इंद्रधनुष होता, तितलियाँ होतीं, मेमने होते, हंस होते। अचानक किसी झाड़ी के पीछे से कालू उदित हो जाता। फिर उसका आकार बढ़ने लगता। वह एक बड़े भालू के आकार का हो जाता। उसकी आँखें भेड़ियों की तरह खूँखार लगने लगतीं। उसके पंजे और दाँत शेर की तरह नुकीले हो जाते। उसकी भौंक दहाड़ में तब्दील हो जाती और वह दत्ता साहब को खाने दौड़ता। और सर्दियों की रात में भी पसीने-पसीने हो गए दत्ता साहब इस दु: स्वप्न से डर कर उठ जाते।
इसी तरह कुछ महीने और गुज़र गए। एक सुबह दत्ता साहब दफ़्तर जाने के लिए घर से निकले और कालू आदतन उनके साथ हो लिया। दत्ता साहब तो पहले से ही कालू से खार खाए बैठे थे। गली के मोड़ पर उन्हें एक पत्थर का टुकड़ा दिखा। उन्होंने फुर्ती से पत्थर उठा कर कालू को दे मारा। पत्थर की मार से बचने के चक्कर में कालू इधर-उधर लपका। बदक़िस्मती से वह सामने से आ रही एक बस की चपेट में आ गया। ड्राइवर ने ब्रेक लगाई पर तब तक बस का पहिया कुत्ते को कुचल चुका था। एक किंकियाहट हुई और कालू के प्राण-पखेरू उड़ गए।
दत्ता साहब सन्न रह गए। सड़क पर कालू की क्षत-विक्षत लाश पड़ी थी। चारो ओर ख़ून बिखरा हुआ था। दत्ता साहब सोच नहीं पा रहे थे कि वे खुश हों या शोक मनाएँ। अचानक घटी इस घटना ने उन्हें भीतर तक झकझोर दिया। उनकी आँखों में आँसू आ गए। वे दफ़्तर नहीं जा पाए। वापस घर लौट गए। उस दिन उनसे खाना भी नहीं खाया गया।
दत्ता साहब कालू से छुटकारा तो चाहते थे पर कालू की ऐसी नियति देख कर वे भी सिहर उठे थे। कई दिन बीतने पर भी वे इस घटना से उबर नहीं पाए। कालू के नहीं रहने पर उन्होंने महसूस किया कि उन्हें कालू की आदत पड़ गई थी। कभी-कभी आप जिससे नफ़रत करते हैं, आपको उसकी भी आदत पड़ जाती है। यदि अचानक वह नहीं रहे तो आपके जीवन में एक ख़ालीपन, एक सूनापन आ जाता है। आपके भरे-पूरे जीवन से जैसे कुछ-छिन जाता है। इस लिहाज़ से नफ़रत और प्यार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
कुछ दिनों बाद मोहल्लेवालों ने पाया कि दत्ता साहब कहीं से एक काला पिल्ला ले आए थे। उन्होंने उसका नाम रखा था - कालू।