काल और सृजन / निर्मल वर्मा
भोपाल में एक परिचर्चा हुई थी - 'काल और सृजन' पर। परिचर्चा के दौरान मेरे भीतर अनेक जिज्ञासाएँ और शंकाएँ उठी थीं, लेकिन दो दिन की बातचीत में उन्हें ठीक-ठीक शब्दों में निरूपित करना संभव नहीं था। बाद में मैंने कुछ नोट्स तैयार किए, जो काफी विश्रृंखलित और अधूरे हैं - उन्हें किसी भी अर्थ में परिचर्चा पर एक निष्कर्षात्मक टिप्पणी के रूप में नहीं लिया जाए।
शायद इस विषय को चुनने के पीछे कहीं हमारे भीतर एक त्रास मौजूद था - इतिहास और समय के प्रति त्रास। क्या हम मनुष्य के भीतर बहनेवाली सृजन धारा को इतिहास के दावों और दबावों से मुक्त रख सकते हैं - या यह सिर्फ एक आदर्शवादी लालसा और स्वप्न है? यहाँ मैं उन फार्मूलों और फैशनों की बात नहीं कर रहा, जो कुछ देर के लिए भले ही कला को कलुषित कर लें, हम जल्दी ही उनके मोह और आतंक से छुटकारा पा लेते हैं। स्वयं कला - कला का सत्य - हमें उसके आवरण से मुक्त करवा लेता है। स्वयं हमारी प्यास और कला की संपूर्ति एक बिंदु पर एकीकृत हो जाते हैं। लेकिन यह त्रास जाता नहीं, कुछ देर के लिए अपने को छिपा लेता है और फिर दुबारा आता है - एक दूसरे वेश में, एक दूसरी माँग लिए... इस बार उसकी माँग में धमकी नहीं है - वह कला से यह नहीं कहता कि तुम्हें सार्थक होने के लिए इतिहास के आगे घुटने टेकना होगा; वह कला से सिर्फ यह पूछता है, कि अगर तुम्हें समय की कलुष से इतना डर है, तो तुम किसी 'परम और शाश्वत सत्य' की ओर क्यों नहीं मुड़तीं।
अगर मैं झूठ और नश्वर हूँ (इतिहास कहता है) तो तुम किसी प्लैटो के 'प्राइमल आइडिया', किसी ऐसे संपूर्ण सत्य की ओर क्यों नहीं जातीं, जो शायद सृष्टि के समूचे कारोबार, कार्यकलाप, ऐतिहासिक परिवर्तनों के पीछे छिपा रहता है - अटल, अद्वैत, एब्सेल्यूट - उसमें न समय की गंदगी है, न इतिहास का आतंक : क्यों नहीं कला अपनी सार्थकता किसी परम और पवित्र सत्य में ढूँढ़ती? क्यों उसमें रमती है जो रूप है, बाह्य का यथार्थ है, माया है - क्यों नहीं इस माया को भेद कर उस 'परम' को पकड़ती, जो हर परिवर्तन और विकृति से परे है? इतिहास के विरुद्ध 'परम' का यह नियंत्रण कम आकर्षक नहीं है। एक बार जीवन की नश्वरता, अनुभवों की अराजक-अर्थहीनता जान लेने के बाद यह प्रलोभन और भी अधिक बढ़ जाता है कि हम समय और जीवन की सीमाओं का अतिक्रमण करनेवाले किसी ऐसे 'परम सूत्र' को पा सकें, जो न केवल हमारे जीवन को कोई अर्थवत्ता दे सके, बल्कि हमारे सृजनात्मक कर्म की चरम उपलब्धि – कला को कोई स्थायी मूल्य, कोई नैतिक वैधता प्रदान कर सके। वे लोग भी जो कला के मूल्यांकन के लिए किसी भी आइडियॉलॉजी को अप्रासंगिक मानते हैं, क्योंकि समयबद्ध होने के कारण वह कला के शाश्वत भेद को नहीं खोल सकती, चुपचाप किसी परम सत्य के आलोक मंडल को स्वीकार कर लेते हैं। क्या परम की सत्ता आइडियॉलॉजी के शासन से कम आततायी है? क्या कोई ऐसा शाश्वत सत्य है - अद्वैत के दर्शन से ले कर वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत तक - जो कला के अभेद्य सत्य - गोएटे के शब्दों में कहें तो उसके 'प्रत्यक्ष रहस्य' को खोल सकती है? एक लंबे अर्से से पश्चिम में समय और इतिहास के प्रति एक सशंकित और पीड़ित दुविधा का भाव रहा है : वह 'चीज' जो हमेशा बदलती है, दुनिया को बदलती है, किसी अंतिम, चरम बिंदु की ओर अग्रसर होती है - क्या इतिहास की उस सतत-परिवर्तनशील प्रक्रिया में हम कलाकृति की कोई सार्थक, विश्वसनीय कसौटी ढूँढ़ सकते हैं? कला, जो परिवर्तन के विपरीत, एक स्थिर और चिरंतन विश्वास पर टिके रहने की चेष्टा है, क्या अपने सत्य का रेफरेंस किसी ऐसे मूल्य में खोज सकती है, जो स्वयं इतिहास से उपजा है, और कभी भी मृत, और अप्रासंगिक हो सकता है?
शायद इसी विडंबना से बचने के लिए पश्चिम का आधुनिक कलाकार बाह्य जगत के यथार्थ के समानांतर अपनी रचना करता है, जिसे हम 'नियो-रियलिज्म' (नव-यथार्थवाद) का नाम दे सकते हैं, या दूसरे चरम पर जा कर वह बाह्य यथार्थ को संपूर्ण रूप से ठुकरा अपनी कृति का रेफरेंस अपने भीतर, अपने अहम और इगो के संसार में ही पाता है क्योंकि -अपने में से अधिक इस दुनिया में और कौन-सी चीज, नैतिकता, मूल्य या यथार्थ विश्वसनीय और प्रामाणिक हो सकता है? क्या दोनों ही स्थितियों में कला का अवमूल्यन नहीं होता? कलाकार के अहम और इतिहास दोनों के बीच फँस कर क्या कोई भी कलाकृति अकिंचन, क्षुद्र और मूल्यहीन नहीं हो जाती? अहम-त्रस्त कला और कला में सोशल रियलिज्म - ऊपर से देखने पर दोनों एक-दूसरे के विरोधी जान पड़ते हैं - किंतु क्या वे दोनों कला की अद्वैत और अखंडित सत्ता को ठुकरा कर नहीं चलते? लेकिन 'अहम' का एक वृहत्तर और समग्र रूप है - जिसे हम 'सेल्फ' या 'आत्मन' कह सकते हैं और यह संसार का विरोधी, प्रतिद्वंद्वी तत्व नहीं है : यह अपने सत्य में उस 'परम' का ही अणु है, जो सामाजिक यथार्थ से कहीं ज्यादा व्यापक और सार्वभौमिक है - जिसमें समूची प्रकृति, जीव-संसार, समय और इतिहास की धारणाएँ शामिल हैं। भारत में महान कला के ऐसे क्षण आए हैं, जब कलाकार इस आत्म और उस परम के बीच एक जीवंत संबंध और संतुलन कायम करता है - लेकिन ऐसा भी होता है कि हम अपने भीतर के 'मैं' को अकिंचन मान कर जीवन का समूचा सत्य 'परम' को समर्पित कर देते हैं - क्या इससे कला अपने उच्चतम गौरव से स्खलित नहीं होती? यदि पश्चिम में मनुष्य के भीतर शताब्दियों से इतिहास के प्रति आतंक-भाव रहा है, तो क्या पूर्व में -विशेषकर भारत में - शाश्वत के प्रति एक अगाध सम्मोहन नहीं रहा है, परम सत्य के प्रति सम्मोहन, जो अहम की सफरिंग और नश्वरता से मुक्त है, जो अपने में अखंडित है, अटल है, एब्सेल्यूट है। इससे हम कला को इतिहास के आतंक से तो मुक्त रख पाए, किंतु क्या परम के प्रति इस पूजा-भाव ने हमारी कला को एक अमूर्त और अवायवी 'दर्शन' का ही आनुषंगिक अंग नहीं बना दिया, जहाँ शाश्वत की स्थिरता तो है, अहम का आवेग नहीं... कला के लिए नश्वरता का भय उतना ही संहारी हो सकता है, जितना शाश्वत का सम्मोहन। कला उसकी कोई मदद नहीं कर सकती जो इतिहास से संत्रस्त है, किंतु जिसने 'परम' में सत्य को पा लिया है, क्या उसे कला की कोई जरूरत, कोई अंदरूनी भूख महसूस हो सकती है? कला में आनंद स्थिति दिखाना एक बात है, पर क्या आनंद स्थिति को प्राप्त करने के बाद कला का सृजन संभव है? इसीलिए कला के मर्म को थाहने के लिए हम जीवन की ओर मुड़ते हैं - जो हर क्षण मिटता है और एक जैसा रहता है : एक कलाकृति अहम के अनिश्चय और शाश्वत के सम्मोहन दोनों को अपने में समाहित करती है - इसलिए हर उत्कृष्ट कलाकृति में हमें एक अद्भुत 'स्थिर आवेग' के दर्शन होते हैं - स्थिरता, जो हमें समय और इतिहास और संसार की माया के बीच एक शांत केंद्रबिंदु की ओर ले जाती है, आवेग, जो हर क्षण हमारे भीतर की जड़ता पैसिविटी, निष्क्रियता के तमस को तोड़ता है। वह हमें निर्वैयक्तिक होना सिखाती है - और निर्वैयक्तिक होने का अर्थ तटस्थ होना नहीं है, समय और संसार का अतिक्रमण करना नहीं है, बल्कि अपने अहम और इगो की छलनाओं और भ्रांतियों से मुक्त होना है, ताकि हम सच्चाई की सब दिशाएँ और आयाम एक साथ देखने की सामर्थ्य जुटा सकें - चूँकि बंधनों और छलनाओं का सिलसिला मृत्यु तक समाप्त नहीं होता, इसलिए मुक्त होने का आवेग निरंतर जारी रहता है। कला में वह स्थिर आवेग (still passion) है, जहाँ हम एक साथ, एक ही समय में काल और कालातीत, जीवन और मृत्यु, इतिहास और शाश्वत में वास करते हैं सच्चाई यह है कि एक के विपरीत दूसरे का पलड़ा भारी होते ही कला की गरिमा नष्ट होने लगती है, क्योंकि स्वयं मनुष्य अपने 'मनुष्यत्व' के गौरव से वंचित होने लगता है...
यदि सार्त्र ने अपनी चरम हताशा में मनुष्य को 'अर्थहीन आवेग' (useless passion) माना था, तो इसलिए कि वह कभी इस भ्रांति से मुक्त नहीं हो सके कि मनुष्य सिर्फ ऐतिहासिक जीव नहीं है : आवेग सचमुच कहीं नहीं ले जाता, यदि उसका अर्थ एक स्थिर बिंदु में वास नहीं करता। कला में इस अविश्वास के कारण ही सार्त्र जीवन-भर 'स्वतंत्रता' की बात करते रहे और साथ ही साथ उन सब 'दर्शनों' का समर्थन करते रहे, जो मनुष्य को एक निर्मम आततायी, टोरिलेटेरियन गुलामी की तरफ घसीटते थे... किंतु क्या यह समूचे इतिहास-दर्शन की ट्रेजेडी नहीं है? इतिहास की छलना के विपरीत एक दूसरा सत्य है - जिसे मैंने कभी एलीफेंटा गुफा में शिव की मूर्ति में देखा था। वहाँ ये दो चरम सत्य - संपूर्ण स्थिरता और संपूर्ण पैशन - एक साथ चट्टान के पत्थर से निकाले गए थे। एक ओर शक्ति का अपूर्व वैभव और सौंदर्य - दूसरी ओर पुरुष का पौरुष संकल्प और लौकिक संपन्नता - दोनों ही जीवन, प्रेम, कर्म, प्रजनन और श्रम के गौरव से मंडित हैं - लेकिन इन दो अगल-बगल की मूर्तियों से हट कर जब आँख बीच की मूर्ति पर ठिठकती है, तो सब कुछ स्तब्ध और स्थिर-सा हो जाता है। शिव ने मानो अपने चेहरे पर पुरुष के वैभव और शक्ति के सौंदर्य दोनों को एक शांत, निर्वैयक्तिक, अटल बिंदु पर केंद्रित कर लिया है - एक असाधारण तन्मयता में - जो महज ठहराव नहीं है, बल्कि वह एक ऐसा अदृश्य बिंदु है, जहाँ सब गतियाँ निश्चल हो जाती हैं। वह उस अद्भुत संतुलन का क्षण है, जहाँ सृजन और सौंदर्य, माया और यथार्थ, एक-दूसरे में घुल कर एक असीम एकाग्रता और निस्संगता का भाव जाग्रत करते हैं, जो शायद ही किसी अन्य कलाकृति में देखना संभव हो; एक ऐसी दुर्लभ कलाकृति, जो कला के अपूर्व सौंदर्य और उसकी परिभाषा को एक साथ आलोकित करती है। दुनिया में कितनी ऐसी कलाकृतियाँ हैं जो कला का रहस्य जीवन के अर्थ में और जीवन का रहस्य कला के अर्थ में एक साथ उद्घाटित करती हों? मैंने ऊपर 'कला के अर्थ' का उल्लेख किया है। एक कलाकृति का अर्थ कैसे निकलता है? क्या वह विज्ञान या समाजशास्त्र या गणित के सूत्रों या सिद्धांतों से जो अर्थ निकलता है - उससे अलग है? परिचर्चा में स्वामीनाथन ने एक जगह बहुत सुंदर और सारगर्भित बात कही थी कि कोई कलाकृति या तो अपने में संपूर्ण रूप से अभेद्य होती है या हजारों अर्थ खोलती है। जब हम किसी कलाकृति को किसी एक खास अर्थ के साथ नत्थी कर देते हैं, उसी समय हम उसकी समग्र और संश्लिष्ट अर्थवत्ता को नष्ट कर देते हैं। इस संदर्भ में हाईनिरिख़ जिश्मर की बात याद आती है : भारत की पौराणिक कथाओं की व्याख्या करते हुए उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भारतीय लोक-मानस में यदि विष्णु और शिव ने अपनी लोकप्रियता में वैदिक देवताओं - ब्रह्मा-इंद्र-वरुण को पीछे छोड़ दिया, तो इसका कारण यह था कि वैदिक देवताओं की तरह शिव और विष्णु की अवधारणा किसी एक खास अर्थ या प्रयोजन के साथ नहीं जुड़ी थी। शिव संहार ही नहीं करते, पृथ्वी की रक्षा के लिए गंगा को अपने शीर्ष पर वहन भी करते हैं, वैसे ही विष्णु पोषण ही नहीं करते, नरसिंह अवतार ले कर हिरण्यकश्यप का नाश भी करते हैं; दोनों देवताओं में विरोधी तत्वों को आत्मसात करने की अंतहीन क्षमता है - क्या यही कारण नहीं है कि प्राचीन भारतीय कला में विष्णु और शिव के बहुमुखी, द्विविधात्मक बिंब को जितना विभिन्न रूपों में चित्रित किया गया, उतना किसी और देवता को नहीं? इससे हम एक अनोखे निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कोई कलाकृति एक खास दर्शन या आइडियॉलॉजी से उत्प्रेरित हो सकती है - किंतु एक कलाकृति की सत्ता में उसका अर्थ उस दर्शन या आइडियॉलॉजी के संदेश या डॉग्मा से कहीं अधिक व्यापक, और संश्लिष्ट हो सकता है -उसके विपरीत जा सकता है : आधुनिक जीवन में ईसाई धर्म का उतना केंद्रीय महत्व नहीं रहा जो यूरोपीय मानस के लिए मध्यकाल में था - लेकिन बाइजश्न्टाइन कला, गोथिकगिरजों का स्थापत्य और ईसा मसीह के जीवन और मृत्यु से प्रेरित असंख्य चित्र आज भी - शुद्ध कला के रूप में - हमें आलोड़ित करते हैं। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि एक चित्र के ऊपरी बिंब या प्रतीक क्या हैं - वे किसी भी धर्म या आइडियॉलॉजी से उधार लिए हो सकते हैं - फिर वह चाहे '¬' का चिह्न हो, सलीब का प्रतीक, या हँसिया-हथौड़ा ही क्यों न हो - महत्वपूर्ण बात यह है कि कलाकृति की अर्थवत्ता इन चिह्नों और प्रतीकों के राजनीतिक-धार्मिक संदर्भों का अतिक्रमण कर लेती है, खुल जाती है - एक स्वायत्त इकाई बन जाती है और इस तरह समय के गुजरने के साथ यदि उसके प्रतीक और बिंब अप्रासंगिक या अर्थहीन भी हो जाते हैं - तो भी चित्र का कलात्मक अर्थ रत्ती-भर मलिन नहीं पड़ता। कलाकृति से एक अर्थ निकालना - अथवा उसमें अपने विश्वासों का सबूत ढूँढ़ना-दोनों ही बातें झूठी नैतिकता को जन्म देती है। कला की नैतिकता इसमें नहीं है, कि वह हमारे संस्कारों या विश्वासों का समर्थन करे, इसके लिए हमारी दुनिया में जज और मौलवी और कॉमीसार हैं, जो हमें एक खास व्यवस्था में रहने और जीने की मर्यादा सिखाते हैं - क्या वैध है, क्या अवैध : हमें यह करना चाहिए, यह नहीं। कला सिखाती नहीं, सिर्फ जगाती है, क्योंकि उसके पास 'परम सत्य' की ऐसी कोई कसौटी नहीं, जिसके आधार पर वह गलत और सही, नैतिक और अनैतिक के बीच भेद करने का दावा कर सके। तब क्या कला नैतिकता से परे हैं? हाँ, उतना ही परे जितना मनुष्य का जीवन सामाजिक व्यवस्था से परे है... जहाँ व्यक्ति का अनुभव इतना विलक्षण और अनूठा है कि उसे किसी भी व्यवस्था की मर्यादा अर्थ नहीं दे सकती। यहीं कला की 'नैतिकता' शुरू होती है - कोई अनुभव झूठा नहीं, क्योंकि हर अनुभव अद्वितीय है। झूठ तब उत्पन्न होता है जब हम किसी 'मर्यादा' को बचाने के लिए अपने अनुभव को झुठलाने लगते हैं। सीता के अनुभव के सामने राम की मर्यादा कितनी पंगु और प्राणहीन जान पड़ती है -इसलिए नहीं कि उस मर्यादा में कोई खोट या झूठ है, बल्कि इसलिए कि राम अपनी मर्यादा को बचाने के लिए अपनी चेतना को झुठलाने लगते हैं। परिचर्चा में डॉ. रामचंद्र गांधी ने एक बहुत महत्वपूर्ण सत्य की ओर संकेत किया था जब उन्होंने कहा कि भारतीय मनीषा में अंत:करण (conscience) पर जोर नहीं, जोर हमेशा 'चेतना' (consciousness) पर रहा है - एक अखंडित, और स्वच्छ, और पारदर्शी चेतना, जो काल और स्पेस की सीमाओं को भेद कर सब कुछ एक साथ देखती है। नैतिकता की पहली शर्त है - हम कितना कुछ देख सकते हैं। क्या कला की भी पहली शर्त यह नहीं है? क्या अपने सगे-संबंधियों, गुरु-पितामहों को मारना अनैतिक नहीं है? अर्जुन का यह प्रश्न महत्वहीन नहीं है, किंतु प्रश्न की गहरी नैतिक पीड़ा केवल उस समय अर्थपूर्ण हो सकती है, जब वह उसे - उस प्रश्न को - आसपास फैले समूचे यथार्थ के संदर्भ में देख सकें। कृष्ण का ब्रह्मरूप और कुछ नहीं - सिर्फ विभिन्न यथार्थों को एक साथ देखने की चेतना है।
यह चेतना हर व्यवस्था की नैतिकता के परे-मनुष्य को समग्र और समूचे यथार्थ से जोड़ती है; कला का सत्य इस चेतना के भीतर है जो सब कालों को समेटे है, इसलिए जब किसी विशिष्ट युग या समाज व्यवस्था के मूल्य इस चेतना को धुँधलाते हैं - अथवा स्वयं मनुष्य का अहम और दुराग्रह उसे झुठलाता है - तभी कला का हस्तक्षेप अपने सबसे मूलगामी अर्थ में नैतिक हो जाता है। क्या यह महज संयोग है कि मनुष्य जाति के आदिकाव्य-महाभारत या ईलियड की घटनाओं या सफोकिलीस के नाटकों ने निरंतर इस विराट चेतना की परतों को खोला है? ईडिपस की ट्रेजेडी यह नहीं है कि उसने कोई अनैतिक काम किया है बल्कि यह कि वह अपनी चेतना पर परदा पड़े रहने देता है, आँखें रहते हुए भी अंधा रहता है; अंत में पश्चात्ताप के क्षणों में जब वह सचमुच अपनी आँखें फोड़ लेता है, तो उसका यह भयानक कर्म उसके समूचे जीवन-कलाप की तार्किक परिणति जान पड़ता है।
धृतराष्ट्र की जन्मजात अंधता और ईडिपस का स्वेच्छा से अंधा होना - ये दो विभिन्न संस्कृतियों की कलाकृतियों को कितना समीप सरका देता है। दोनों ही पात्र मोहानिष्ठ हैं - दोनों ही दृष्टिहीन है - दृष्टि जो चेतना है। दोनों ही हमें इस विराट प्रश्न की देहरी पर ला कर छोड़ देते हैं कि कला में नैतिकता का संकट क्या हमारी द्वैत, खंडित चेतना का ही तो परिणाम नहीं है? लेकिन इसे संकट क्यों मानें? क्या यह सृजन का कुरुक्षेत्र नहीं है, जहाँ दो विराट सेनाओं के बीच एक खाली जगह पर यथार्थ, भ्रम, माया और सत्य के बारे में बहस होती है - पर्वत शिखर के अकेले एकांत में नहीं - बल्कि सत्य और असत्य के बीच फैले मैदान में। कितनी शताब्दियाँ बीत गईं जब गीता में ये प्रश्न उठाए गए थे। आज की हर महत्वपूर्ण, कविता या उपन्यास इन्हें छूता है, इनसे भिड़ता है - क्योंकि कला में जब तक मनुष्य जीवित है, कोई प्रश्न पुराना नहीं पड़ता और कोई उत्तर अंतिम नहीं होता।
जीने की अखंड, अदम्य धारा में - जिसे परिचर्चा में मुकुल घोषाल ने 'सागर की तरह अपार और विस्मयकारी' कहा था। हम कई बार मरते हैं, अनेक बार अप्रत्याशित क्षणों में शाश्वत का बोध करते हैं, कितनी बार अपने खंडित अनुभवों में बदहवास होते हैं, किंतु ऐसे दुर्लभ अवसर भी आते हैं, जब एक चकाचौंध में पूरा पैटर्न दिखाई दे जाता है जो हमारी गलतियों, गुनाहों, अज्ञान और अधैर्य के परदे के पीछे छिपा रहता है, कला जब यह परदा हटाती है तो अचानक लगता है - हाँ, यह सत्य है, यही मेरे जीवन का अर्थ है - लेकिन विचित्र बात यह है, कि अगर हमसे कोई पूछे, तुमने वाल्मीकि से क्या अर्थ पाया, शेक्सपियर या टॉलस्टॉय ने तुम्हें क्या दिया - तो एक भी उत्तर संतोषजनक नहीं जान पड़ता - क्योंकि हम जानते हैं कि जो हमें मिला है, वह कोई जीवन का हल नहीं है, किसी समस्या का समाधान नहीं है - हम सिर्फ एक बड़ी रोशनी में आ गए हैं। हम कुछ ज्यादा देख रहे हैं - हालाँकि दुनिया और हमारा जीवन वही है, जो पहले था। क्या यह कम है?