काल करै सो आज कर / सुधा भार्गव

Gadya Kosh से
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पोस्टकार्ड हाथ में आते ही मैं झल्ला उठी –श्रुति तूने 75 वर्ष पार कर लिए मगर गुल खिलाने से बाज नहीं आती । अपने पर भरसक काबू करते हुए मैंने पढ़ा -हमारी पूज्य माता जी श्रुति देवी जीते जी अपना मरण दिवस मनाना चाहती हैं । इसलिए शीघ्र ही ठीक समय पर पहुँचकर शोक सभा में सम्मिलित होने का कष्ट कीजिये ।

आपकी उपस्थिति अनिवार्य है ।

विनीत

सुपुत्र गंगा राम

वाह रे गंगा राम !जीते जी माँ को गंगा में बहा दिया । मगर सुपुत्र भी क्या करे !दुनिया को अपने इशारों पर नचाने वाली के आगे अच्छे-अच्छे पानी भरने लगते हैं फिर बेटे की तो बिसात क्या ! कहने को तो वह मेरी एकमात्र अंतरंग सहेली है पर कब क्या उसके दिमाग में चल जाए मैं तो क्या भगवान भी नहीं बता सकता ।

आज 21 तो हो ही गई ,25 अक्तूबर को शोक सभा का दिन नियत है । कैसा शोकदिवस ,केवल कुराफात की बातें । जाना तो है ही । पूना से दिल्ली का रास्ता है भी बड़ा लंबा –सोचते –सोचते अटैची में कपड़े लगाने बैठ गई । बहू ने 23 अक्तूबर का टिकट मेरे हाथों में थमा दिया । । वह भी मेरी इस सखी से परिचित थी । उसकी दृष्टि से तो वह पुरानी ,सदी –गली परम्पराओं को तोड़ने वाली एक निडर व साहसी महिला है ।

अकेला सफर ,रात के अंधकार में ट्रेन दनदनाती अपने गंतव्य स्थान की ओर बढ़ रही थी। वर्षों बाद अपनी बालसखा के घर जा रही थी वह भी शोक मनाने । मन की दशा बड़ी विचित्र थी । सोचते –सोचते प्रगाढ़ निद्रा में लीन हो गई ।

पौ फटते ही मेरे नींद खुल गई । कुछ घंटों के बाद दिल्ली पहुँचने वाली थी । स्टेशन पर उसका बेटा लेने आया । रास्ते भर सच और झूठ की कशमकश में हम खामोश से बैठे रहे । घर में घुसते ही श्रुति ने मुझे गले लगा लिया और ज़ोर –ज़ोर से रोने लगी ।

मैं अपनी सहेली की ठिठोली समझ गई ।

-इतनी ज़ोर से रो रही है –यह नाटक काहे का ---।

-क्यों !शोक तो ऐसे ही मनाया जाता है । श्रुति हंस पड़ी पर मैं अंदर ही अंदर खीज रही थी ।

-अच्छा यह बता ,अब तूने यह क्या नई रीति शुरू कर दी ?

-मंजू ,एक रात मैंने सोचा –मेरे मरने के बाद न जाने कोई ठीक से पूजा पाठ ,दान दक्षिणा करेगा या नहीं । इसी तनाव को दूर करने के लिए मैंने शोक दिवस के कार्ड छपवा दिये । अब क्या करना है –बताती जा वरना मुझसे शिकायत रहेगी यह नहीं किया –वह नहीं किया ।

दूसरे दिन आमंत्रित लोग एकत्र हुए । घर में रामायण का पाठ व कीर्तन हुआ । ईश्वर से श्रुति को अपने चरणों में जगह देने की प्रार्थना की गई । पहले पंडितों को भोजन कराकर दान –दक्षिणा दी गई । तत्पश्चात सबको भोजन कराया । शाम को महा पंडित जी का प्रवचन हुआ । उस समय श्रुति के बेटे-बेटियाँ अपने परिवार सहित आगे ही बैठे थे परंतु मध्य में श्रुति गंभीर मुद्रा में विराजमान थी । यह भी उसकी नाटक बाजी ही थी । स्कूल के जमाने की अभिनय प्रतिभा का खूब उपयोग हो रहा था ।

मित्रों ,रिशतेदारों ने उसका खूब गुणगान किया । वैसे भी विनोदी प्रकृति के कारण दूसरों का दिल जीतना उसके बाएँ हाथ का खेल है । इस तरह राजी खुशी शोक सभा समाप्त हुई ।

जिसने भी सुना ,एक महिला जीते जी अपने मरने की रस्में निबाहना चाहती है दौड़ा चला आया । उसे देखने वालों की भीड़ लग गई । श्रुति का आदेश था मृतक भोज भंडारे से कोई भूखा न जाए । यह रस्म निभाने का यदि कोई उससे कारण पूछता तो उसके पास एक ही उत्तर रहता –न जाने ऊपर वाले का कब बुलाबा आ जाए ,सो मैंने सोचा काल करै सो आज कर ।और फिर ----उसके वही चिरपरिचित अट्ठहास से दिशाएँ गूंजने लगतीं ।