काव्यलोक से गुज़रते हुए (शिवकुमार मिश्र) / नागार्जुन

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नागार्जुन को याद करते हुये
शिवकुमार मिश्र का संस्मरण

अतिशय बहुआयामी है नागार्जुन का काव्य-लोक, उनका रचना-संसार। जितना बहुआयामी, उतना ही प्रशस्त, विशद और वैविध्यपूर्ण। इस अनंत-रूपात्मक जगत के नाना रूपों से जुड़े शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध के बेहद बारीक़ अहसासों वाली इंद्रिय-संवेदनों की विपुल राशि तो उसका हिस्सा है ही, आदमी के मनोजगत के एक-एक कोने को भीतर तक थाहने और उजागर करने वाली विपुल भाव-संपदा भी उसका अभिन्न अंग है। अपने विपर्यस्त समय का दर्पण, दीपक और आलोचनात्मक भाष्य होने के साथ-साथ, इतिहास, पुराण तथा जातक कथाओं के ढेरों संदर्भ भी अपनी आधुनिक अर्थवत्ता के साथ उसमें गुंथे हुए हैं।

कह सकते हैं कि नर-नारी और नरेतर बाह्य जगत का पूरा प्रसार उसके दायरे में है। साधारण-असाधारण, परुष-कोमल, शुभ-अशुभ, सुंदर और विरूप, अनगिनत विरुद्धों को वह अपने में समेटे हुए है। व्यक्ति-विशिष्ट निजी सवेदनाएं भी उसमें हिलोरें ले रही हैं, और देश, धरती तथा उसके निवासियों के सामाजिक जीवन का यथार्थ के साथ उनके सम-विषम जीवन संदर्भ भी उसमें अक्षत लिपिबद्ध हैं। ‘प्रतिबद्ध हूं’ शीर्षक अपनी एक कविता में नागार्जुन ने जगत तथा उसमें स्पंदित होने वाले जीवन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता, आबद्धता और संबद्धता को जिन आयामों पर विशद किया है, वे अपने आप में उनके काव्यलोक और मनालोक के विशद व्यापक फलक का साक्ष्य हैं।

नागार्जुन के इस काव्यलोक से होकर गुज़रने के मायने हैं, इस अनंत रूपात्मक जगत और आदमी के भावलोक से अपने परिचय और अपने संबंधों को विशद, व्यापक तथा सघन बनाना, उनके बरक्स अपने जीवन-विवेक और काव्य-विवेक को निरंतर मांजते-निखारते रहना, परंपरा और वर्तमान, तथा उनके आपसी संबंधों को जानने-समझने की सही दृष्टि पाना तथा ग्रहण और त्याग के उस ज़रूरी विवेक से अभिज्ञ होना जो उनकी ग्राह्यता और अग्राह्यता के बिदंुओं के बारे में मन को निरभ्र कर सके। यही नहीं, देश, धरती तथा उनके साधारण जनों के बेहतर भविष्य से प्रतिबद्ध जनधर्मी रचनाशीलता की शक्ति तथा संभावनाओं की सही और खरी समझ के साथ उनके पक्ष में चल रही आमूल सामाजिक बदलाव तथा न्यायसंगत व्यवस्था की मुहिम में पूरे मन से शामिल तथा सक्रिय होना।

अपने जनपद की मिट्टी के रूप-रस और गंध में रचा पगा होते हुए भी नागार्जुन का रचनाविश्व आंचलिक नहीं है। इसके साथ देश, धरती और उसके साधारण जनों के सुख-दुख, ताप-त्रास तथा जीवन संदर्भों और जीवन संघर्षों से एकतान होते हुए भी वह विश्व-मानवता की पीड़ा, सुखः-दुख, तथा जीवन संघर्षों को भी अपनी प्रशस्त संवेदना के दायरे में लिये हुए है।

नागार्जुन का काव्यलोक जितना बहुआयामी, विशद और वैविध्यपूर्ण, साथ ही, तमाम विरुद्धों की संहिति वाला है, उनके अपने जीवन संदर्भ भी लगभग वैसे ही हैं। पुरोहिताई से जीविका अर्जित करने वाले, मिथिला के एक नितांत रूढ़िवादी, अपठित, ब्राह्मण परिवार में जन्म। वास्तविक नाम वैद्यनाथ मिश्र। चार साल की अवस्था में मातृवियोग। माता के वात्सल्य से वंचित एवं निहायत क्रूर, अनपढ़, दुराचारी पिता के आतंक के साये में बीता कुंठा और क्लेश से भरा बचपन। दूसरों के अन्न से पलने वाले विद्यार्थी के रूप में कलकत्ता और काशी में संस्कृत तथा पालि भाषाओं के माध्यम से साहित्य और दर्शन का अध्ययन। उन्नीस वर्षों की अवस्था में विवाह, परंतु विवाह के बाद ही बौद्ध भिक्षु के रूप में गृहस्थी तथा घर-परिवार से विरत थाइलैंड, लंका, तिब्बत, कैलास-मानसरोवर आदि का भ्रमण। लंका से बौद्ध धर्म तथा दर्शन में पारंगत होकर स्वदेश वापसी। स्वदेश लौटते ही पुनः गृहस्थ धर्म का निर्वाह एवं बड़े कठिन संघर्षों में जीवन यापन तथा परिवार का भरण-पोषण। उपरांत स्वामी सहजानंद और राहुल सांकृत्यायन की प्रेरणा से किसान-आंदोलन में शिरकत, जेल यात्राएं, अनंतर मार्क्सवाद-समाजवाद को जीवन-दर्शन के रूप में अपनाकर साहित्य, कला और संस्कृति के जनधर्मी सरोकारों और संकल्पों से जुड़कर जनधर्मी, प्रतिबद्ध रचनाकर्म के बूते पर ख्यात प्रगतिशील रचनाधर्मी के रूप में मान्य और लोकप्रिय।

आजीवन कांग्रेसी शासन की जनविरोधी नीतियों की कठोर आलोचना, ख़ासतौर से इंदिरा गांधी के अधिनायकतंत्रा का मुखर विरोध, फलतः आपात्काल के पहले ही गिरफ़्तारी। कुछ समय तक जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति के आंदोलन में शिरकत। अंततः उससे भी मोहभंग। जेल से छूटकर जब तक जिये, अपनी जनधर्मी निष्ठाओं के तहत अपने रचनाकर्म में सक्रिय। बेहद रोमांचक, बेहद असामान्य और बड़े कठिन जीवन संघर्षों से भरा पूरा है नागार्जुन की जीवन-यात्रा का वृत्तांत।

उसके जो भी अन्य निहितार्थ और फलितार्थ हों, चली आ रही नैतिकता के दायरे से वह कैसा भी, कितना भी पृथक हो, नागार्जुन का धर्म और नीति के मान्य प्रतिमानों से बाहर आना ही उनके नागार्जुन होने या बनने का मूलाधार है। उन्हीं के शब्दों में,


पहले तुम भी वही चुटन्ना और जनेऊ वाले पंडित जी थे न! न पुरानी परिधि से बाहर निकलते, न आंखें खुलतीं। न इस तरह युग का साथ दे पाते।

दुखों ने किसी और को मांजा हो या न मांजा हो, नागार्जुन के व्यक्ति और जीवन को उन्होंने ज़रूर मांजा और निखारा है। ऐसा न होता तो सचमुच चोटी, जनेऊ, तिलक धारण किये वे कहीं वैदिक कर्मकांड संपादित करवाते हुए आखि़री सांस लेते। उनके इस नितांत असहज, रोमांचक और बेधक जीवनानुभवों वाले जीवन-यात्रा वृत्तांत को उनकी कविताओं तथा इतर लेखन में उसकी समस्त निष्पत्तियों के साथ अवसरोचित संदर्भों में देखा और पढ़ा जा सकता है। अपनी एक कविता ‘रवि ठाकुर’ में ‘जो रवींद्रनाथ ठाकुर को निवेदित है’ अपने जीवन-संदर्भों की कुछ परतों के साथ उन्होंने अपने को दबी हुई दूब के रूपक में प्रस्तुत किया है:

पैदा हुआ था मैं
दीन-हीन अपठित किसी कृषक-कुल में
आ रहा हूं पीता अभाव का आसव, ठेठ बचपन से
कवि मैं रूपक हूं दबी हुई दूब का
हरा हुआ नहीं कि चरने को दौड़ते!!
अपने अग्रज कवि से उन्होंने आशीष चाही है:
आशीष दो मुझको, मन मेरा स्थिर हो!!
नहीं लौटूं चीर चलूं, कैसा भी तिमिर हो!!
प्रलोभन में पड़कर बदलूं नहीं रुख़
रहूं साथ सबके, भोगूं साथ सुख-दुख।

सबसे एकात्म होकर सबके सुखःदुख में सहभागिता, नागार्जुन जब तक जिये, इस प्रतिश्रुति को उन्होंने निभाया। निःसंग, एकाकी, अपनी वैयक्तिकता में बंधी ज़िंदगी को उन्होंने नकारा। ‘यह कैसे होगा’ शीर्षक अपनी एक कविता में अपनी जनधर्मी संवेदना की समूची ऊष्मा के साथ वे मौजूद हैं।

दमा जैसे कठिन रोग से जर्जर शरीर होते हुए भी, प्रकृति ने आदमी को जो आयुष्य दिया है, नागार्जुन ने अधिकांश में उसे जिया, विषम से विषम परिस्थितियों में भी भग्न-मन नहीं हुए, इस लोक या परलोक की बड़ी से भी बड़ी सत्ता के समक्ष नतशिर नहीं हुए। जब तक जिये, अपने स्वाभिमान को अक्षत रखते हुए जिये। अपने ज़मीर की क़ीमत पर कभी, किसी तरह का समझौता उन्होंने नहीं किया। बड़े से बड़े प्रलोभन को उन्होंने ठुकराया। व्यवस्था और सत्ता के प्रभुओं की धमकियों से भयभीत नहीं हुए। उनकी आंखों से आखें मिलाते हुए, उन्हें ललकारते और चुनौतियां देते हुए जिये। आपातकाल के पहले ही वे बंदी बना लिये गये, परंतु उस दौर के दमन तंत्रा और स्वैराचार की उनकी भर्त्सना जारी रही।

‘जली ठूंठ
पर बैठकर गयी कोकिला कूक
बाल न बांका कर सकी, शासन की बंदूक’

आपात्काल पर उनकी यह टिप्पणी उस दौर में करोड़ों कंठों से गूंजी। आपाधापी, व्यक्तिगत लाभ-लोभ और परले दर्जे की स्वार्थपरता वाले आज के समय में इस तरह जी लेना या जी पाना कोई मामूली बात नहीं। वह भी एक मसिजीवी, व्यवस्था तथा सत्ता की आंख की किरकिरी बने। ध्यातव्य है कि प्रेमचंद, मुक्तिबोध तथा अपवाद-स्वरूप कुछ अन्य लोगों के साथ वे ऐसे रचनाकार हैं कि जीवन के तमाम विष को पीते और पचाते हुए उन्होंने अपने कृतित्व में उसके निशान नहीं पड़ने दिये हैं। उनकी वाणी से देश, धरती और जनता के आतपतप्त प्राणों को शीतल करने वाला अमृत ही छलका है। वैश्विक ज्ञान तथा गहन जीवनानुभवों की जो संपदा उन्होंने अर्जित की और जिसका उनके रचनाकर्म में अपने पूरे प्रभाव के साथ विनियोग है, अपने श्रम और स्वाध्याय के बल पर अर्जित की, किसी की कृपा से नहीं। अपनी मातृभाषा मैथिली के साथ संस्कृत, बांग्ला और हिंदीμइन चार भाषाओं की काव्य परंपराओं का सर्वोत्तम उनके रचनाकर्म में विद्यमान है।

प्रगतिशील हिंदी कविता की वृहत्तत्रायी में यदि वे ‘कनिष्ठिकाधिष्ठित’ हैं तो प्रशस्त, जनधर्मी संवेदनाओं और संकल्पों को शब्द और रूप देने वाले अपने रचनाकर्म के नाते। कविता और मानव-जीवन, कविता और समाज, कविता की संप्रेषणीयता जैसे विषयों को लेकर चल रही तमाम बहसें नागार्जुन जैसे जनधर्मी, जीवनधर्मी और समाजचेता रचनाकार की सर्जना के बरक्स आप से आप अर्थहीन हो जाती हैं। हम कह चुके हैं कि नागार्जुन का रचना-संसार, उनका काव्यलोक अतिशय विशद और बहुआयामी है। बावजूद इसके उसमें केंद्रीयता उस सामाजिक यथार्थ की है, अपने समूचे जीवन और अपने समूचे रचनाकाल में नागार्जुन जिसके दृष्टा ही नहीं, भोक्ता भी रहे हैं। उनके अपने विपर्यस्त समय का चेहरा अपनी सारी विदूपताओं और तेवरों में उनकी रचना में प्रतिबिंबित और चित्रित है।

इतिहास साक्षी है कि बेहद लंबे और कठिन स्वाधीनता संघर्ष के बाद जो आज़ादी देश को मिली वह सही कहा जाये, तो विखंडित आज़ादी थीμमात्रा राजनीतिक सत्ता का हस्तांतरण। इसके मूल में ये स्वाधीनता आंदोलन के पूंजीवादी-सामंती नेतृत्व के अपने वर्गहित, राजनीतिक सत्ता पाने की उसकी आकांक्षा, जिसके चलते देश-विभाजन की शर्त को भी स्वीकार किया गया। साधारण जनता के आर्थिक सामाजिक हित से जुड़े बुनियादी सवालों को हाशिये पर डाल दिया गया; जनता से किये गये इस वायदे के बावजूद कि आज़ादी के बाद उन्हें हल किया जायेगा, आज़ादी के बाद भी उन्हें हाशिये पर ही रहने दिया गया। विकास और जनकल्याण के नाम पर जो कुछ सामने आया, वह था असमान आर्थिक विकास। परिणामतः कुछ इलाक़े तो जगमगाये, अधिकांश को अंधेरे की ही नियति मिली। व्यापक जन-असंतोष से घबराये शासक वर्ग ने अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिए जिस तरह जन के तंत्रा को अधिनायक तंत्रा के रूप में बदला, आपातकाल और उससे जुड़ा आतंक और दमन का सिलसिला, अपने विषम फलितार्थों के साथ स्वाधीन भारत के पटल पर अंकित है। वह नागार्जुन की सर्जना में भी अपने कलंकित रूप में, उनकी पैनी निगाहों और जनधर्मी संवेदनाओं से छनते हुए प्रतिबिंबित और मूर्त है।

सच और झूठ का टकराव, और व्यवस्था तथा सत्ता का छल फ़रेब भी इसका हिस्सा है। इसमें राजनीति तथा अर्थनीति की तिकड़में, पहेलियां तथा तिलस्म हैं तो उससे जूझते-टकराते, उसे खोलने के लिए संकल्पबद्ध साधारण जन का जीवट भी। इसमें देश में धरती तथा साधारण जन के जीवन को नरक बनाने वालों की साज़िशें भी हैं, तो अपने बेहतर भविष्य के लिए संघर्ष करती जनता की अपार निष्ठा और सक्रियता भी। अभिशप्त जीवन जीने वालों की जिजीविषा भी इसका हिस्सा है और उनके हर्ष-उल्लास और उमंग, तरंगित मन की आकाक्षाएं और स्वप्न भी। साथ ही जनशक्ति के आवेग से घबराये शासक शोषक वर्ग के भयभीत चेहरे भी। अकाल, बाढ़, महामारी, दमनचक्र, अन्याय और अत्याचार की गाथाएं भी इसमें हैं और आतंक के इसी माहौल में जन्म लेने वाले कल्कि के अवतार भी। शांति और अहिंसा की बातें भी इसमें हैं और बंदूकों की गोलियों की गूंज भी। नगर तथा ्रगांव ही नहीं, दूर-दराज़ के अंचलों की गहमागहमी भी इसमें हैं, और उनमें छाया निस्तब्ध सन्नाटा भी। इस सामाजिक यथार्थ से जुड़ी उनकी कविताएं महज कविताएं नहीं, समय और समाज की जीती-जागती हक़ीक़त, उसका प्रामाणिक दस्तावेज़ हैं। कवि की अपनी मनोभूमि की बात करें तो साधारण जनता के जीवन संदर्भों, जनशक्ति के स्वरूप, जन की आकांक्षाओं, बेहतर जीवन के उसके स्वप्नों और उसके संघर्ष को उस जन से एकात्म होते हुए जितनी संलग्नता तथा संवेदना की जितनी ऊष्मा से उन्होंने चित्रित किया है, साधारण जन की व्यथा तथा उसके शरीर और मन के दंशों को जिस तरह आकुल होते हुए चूमा-सहलाया है, आहत हुए हैं, जन शक्ति के उफान को देखकर उल्लसित और हर्षित हुए हैं, देश, धरती तथा जन की पीड़ा तथा व्यथा की ज़िम्मेदार जनविरोधी शक्तियों पर उतने ही कठोर प्रहार भी उन्होंने किये हैं: ‘प्रतिहिंसा ही स्थायी भाव है मेरे कवि का’ जैसे संकल्प के साथ। इसी शीर्षक की उनकी कविता की कुछ पंक्तियां हैं:

नव दुर्वासा, शबर पुत्रा मैं, शबर-पितामह
सभी रसों को गला-गलाकर
अभिनव द्रव तैयार करूंगा
महासिद्ध मैं, मैं नागार्जुन
... ... ...
हिंसा मुझसे थर्रायेगी।
मैं तो उसका खून पियूंगा
प्रतिहिंसा ही ... ... ...

एक पूरा सिलसिला है ऐसी कविताओं का उनके काव्यलोक में, जिसमें उनके उक्त संकल्प को शब्द और रूप मिला है। ‘अन्न पचीसी’, ‘जयति जयति सर्व मंगला’, ‘नदियां बदला ले ही लेंगी’, उनकी वे लंबी कविताएं हैं, जिनमें उनका यह संकल्प अपने निहायत पारदर्शी रूप में जीवंत हुआ है।

नागार्जुन हिंदी जगत में अपने धारदार व्यंग्यों के नाते विशेष ख्यात और लोकप्रिय हैं। उनके ये व्यंग्य उसी सामाजिक यथार्थ की उपज हैं, अभी जिसका ज़िक्र हमने किया है। ध्यान रहने कि ये व्यंग्य नागार्जुन के काव्यलोक में अभिव्यक्ति की एक विशिष्ट भंगिमा भर नहीं हैं वे मानव-मुक्ति के उस विचार दर्शन का हिस्सा हैं’, जिससे नागार्जुन का मनोलोक आलोकित है। व्यंग्य यों भी गहरी मानवीय करुणा से उपजता है और विश्व-मानवता शोषण-मूलक जिन व्यवस्थाओं के शिंकजे में फंसी है, उसके दुखःदर्द के मूल उन शोषक-व्यवस्थाओं के वृत्त में ही हैं, जिनके उन्मूलन के बिना संतप्त मनुष्यता की मुक्ति संभव नहीं है, नागार्जुन इसे समझते हैं। उनके व्यंग्य की इसी ज़मीन से जुड़े हैं। इसी नाते नागार्जुन जब नये-नये तेवरों में शोषणमूलक इन व्यवस्थाओं पर, उनके शासन-तंत्रा पर, समाज तथा धर्म के उनके बनाये नीति-निर्देशों पर, साधारण जन के सुखःदुख से निरपेक्ष उपरले वर्गों की मानसिकता पर, साहित्य कला और संस्कृति की जन-विमुख गतिविधियों पर कभी आगबबूला होते हुए, कभी चिकोटियां काटते हुए, कभी उनका मखौल उड़ाते, कभी-कभी निहायत गंभीर मुद्रा में तो कभी निहायत शरारती अंदाज़ में व्यंग्य-बाणों की बौछार करते हैं, तो यह सब अपनी जन-प्रतिबद्धता और गहरे मानवीय सरोकारों के तहत करते हैं। उनके व्यंग्यों की ज़द में देश विदेश के बड़े-बड़े नेता, थैलीशाह, बाहुबली, धर्म के ध्वजाधारक, सामाजिक नियमों के नियंता, चापलूस, नौकरशाह, छुटभैये, साधु-संन्यासी, पंडित-मौलवी, पीर-फ़कीर, सब आये हैं। किसी को उन्होंने बख़्शा नहीं है। नाम ले लेकर उन पर प्रहार किये हैं, उनके मुखौटे नोचे हैं। उनके व्यंग्यों की दुनिया इतनी वैविध्यपूर्ण है कि उसके सारे आयामों को समेटना बहुत कठिन है। फिर भी, ‘मंत्रा’, ‘प्रेत का बयान’, ‘पुरानी जूतियों का कोरस’, ‘तीनों बंदर बापू के’, ‘बाघिन’, ‘पैने दांतों वाली’, ‘खिचड़ी विप्लव’, ‘तालाब की मछलियां’, ‘मांजो और मांजो’, ‘वे और तुम’ जैसी तमाम छोटी-बड़ी कविताओं में उनकी धार और तेवरों को परखा जा सकता है।

हमने नागार्जुन के काव्य लोक में विरुद्धों की संहिति की बात की है, उनके नव दुर्वासा रूप की झलक हम देख चुके हैं। ‘खुब गये दुधिया निगाहों में’, ‘गुलाबी चूड़ियां, ‘एक मित्रा का पत्रा’, ‘आओ प्रिय आओ’ जैसी कविताओं में, या उन कविताओं में जो शिशुओं को संबोधित हैं, या किशोरों और तरुणों को, उनके कवि का नितांत द्रवणशील, वत्सल, करुणार्द्र, तरल और बेहद उदार रूप हमारे सामने आता है। उनकी कुछ कविताएं विशिष्ट व्यक्तियों पर हैं जो उनके प्रेरणास्पद रहे हैं, जिनसे उन्होंने आलोक पाया है, मसलन रवि ठाकुर, भारतेंदु, निराला आदि। कुछ कवि-मित्रों को संबोधित हैंμकेदार अग्रवाल जैसे आत्मीय मित्रों को। कुछ अनुज कवियों पर हैं, जैसे राजकमल चौधरी पर। इन कविताओं में भी नागार्जुन की कवि-संवदेना का निहायत तरल रूप सामने आया है। निराला पर उनकी एकाधिक कविताएं हैं। एक कविता की कुछ पंक्तियां:

मरु-प्रांतर को तुमने अंतर का नीर दिया
कविता-तपस्विनी को ज्योतिमय चीर दिया
रह गये प्रतीक्षा में सारे दिग्पाल, किंतु तुम झुके नहीं,
222 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011
तुम कड़ी साधना में दधीचि को जीत चुके
कोई आये तुमसे सीखे
वह द्वापर वाली शरशैया की चुभन आज
आये कोई तुमसे सीखे युग-युग का हालाहल पीना
आये कोई तुमसे सीखे यह रक्तदान
आये कोई तुमसे सीखे यह स्वाभिमान।

नागार्जुन छायावाद के परवर्ती दौर में उस समय हिंदी कविता के मंच पर आये जब कविता को अपना उल्लेखनीय प्रदेय देकर छायावाद असीम और अनंत के गलियारों में विचरण करने लगा था। पंत और निराला पथ बदल चुके थे। प्रेम और प्रकृति, दो ऐसे विषय थे जिनमें छायावादी कवियों ने अपनी कवि-संवेदनाओं को उनके बाह्य रूप तक ही नहीं, उनके अंतरंग सौंदर्य तक को समेटा था। प्रेम छायावादी कविता में सच्चे सात्विक राग तक पहुंचा है। नागार्जुन देश, धरती तथा जन के जीवन संदर्भों और जीवन संघर्षों के प्रति अपनी सारी प्रतिबद्धता के साथ प्रेम और प्रकृति जैसे उन विषयों की गहराइयों में भी डूबे और उतराये हैं जिनके लिए छायावादी कविता विशेष ख्यात रही है। स्त्राी-पुरुष के बीच के प्रेम पर भी उन्होंने पूरे मन और संवेदना की सारी ऊष्मा के साथ लिखा है। उनकी प्रेम संवेदना का वैशिष्ट्य इस बात में है कि उनकी प्रेम कविताओं का आलंबन परकीया न होकर स्वकीया रही है। नागार्जुन ही नहीं, प्रगतिशील काव्यधारा के केदार और त्रिलोचन जैसे कवियों ने भी प्रेम कविताओं की चली आ रही परंपरा में स्वकीया को केंद्र में लाकर दांपत्य प्रेम की उस कड़ी को न केवल आगे बढ़ाया है, उसे एक नया जीवन दिया है जो संस्कृत की काव्य-परंपरा के बाद लगभग हाशिये पर चली गयी थी। दांपत्य प्रेम के मनोहारी चित्रा हमें संस्कृत के महाकाव्यों में मिलते हैं या फिर मध्यकालीन आख्यान कविता में। प्रेम भारतीय परंपरा में साहचर्यजन्य माना गया है। जितना लंबा साहचर्य, उतना ही प्रगाढ़ प्रेम। दांपत्य रति में प्रेम का यह रूप अपने पूरे उत्कर्ष में उभरा है। जहां तक नागार्जुन का प्रश्न है, एकाधिक कविताओं में उन्होंने अपनी प्रिया अपनी पत्नी को पूरे भावान्मेष में याद किया है, पूरे राग के साथ। ‘सिंदूर तिलकित भाल’ शीर्षक उनकी कविता इस संदर्भ में बार बार याद की गयी है।

‘घोर निर्जन में परिस्थिति ने दिया है डाल
यादआता तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल।’

अपनी एक अन्य कविता ‘वह तुम थीं’ में नागार्जुन दांपत्य प्रेम के राग को उस बिंदु पर जाकर उभारते हैं जब पति और पत्नी दोनों उम्र के आखिरी दौर में पहुंच चुके होते हैं, उनके बीच के इस रागात्मक संबंध को नागार्जुन ने प्रकृति-चित्रों के माध्यम से मूर्त किया है। कविता आरंभ होती है:

सिकुड़ गयी रग-रग
झुलस गया अंग-अंग
बनाकर ठूंठ छोड़ गया पतझार
उलंग असगुन-सा खड़ा रहा कचनार
अचानक उमगी डालों की संधि से
छरहरी टहनी
पोर-पोर में गसे थे टूसे
यह तुम थीं।

उम्र के आखि़री दौर में एक ओर पीछे छूटा अतीत, दूसरी ओर आगे मृत्यु की पीड़ा भरी प्रतीक्षा। मनोलोक में अंधकार के अलावा और कुछ नहीं। ऐसे क्षण, वृद्धा प्रिया-पत्नी की हथेलियों का माथे पर स्पर्श गहरे अंधकार को चीर देने वाली ज्योति की किरण होती है। आगे कचनार का रूपक है, पतझर में ठूंठ हो चुका, घर के आंगन में पत्रा विहीन, अपशुकन की भांति खड़ा। बुढ़ापे के शरीर जैसा ही तो रह जाता है कचनार। बुढ़ापे का शरीर, घर-परिवार में सब ओर से उपेक्षित। परंतु पतझड़ के बाद वसंत के आते ही जैसे कचनार की डालों की संधि से छरहरी टहनियों के अंकुर फूटते हैं, वह हरा भरा हो जाता है, बुढ़ापे के एकाकीपन की व्यथा में पत्नी-प्रिया का सिर पर हाथ फेरते हुए तबियत का हाल पूछना, कचनार के फिर से हरिया उठने जैसा ही होता है, जीने की नयी उमंग उपजाता है। और भी कविताएं हैं। अपनी एक बांग्ला कविता में वृद्ध कवि प्रिया-पत्नी से कहता है, ‘माथे की वह जगह तो बताओ जहां तुम सिंदूर लगाया करती थीं’। वृद्ध-दांपत्य के बारे में बेहद मार्मिक कविताएं नागार्जुन की हैं।

प्रकृति नागार्जुन के काव्यलोक में अपने पूरे प्रसार और वैभव के साथ चित्रित हुई है। प्रकृति के सारे तेवर नागार्जुन के काव्यलोक में हैं, उसका संुदर, मनोहारी रूप तो रौद्र रूप भी, उससे जुड़े हर्ष-उल्लास तो उसके दुख-दाह भी। प्रकृति से इतना अंतरंग और गहरा नाता आधुनिक कविता में अन्यत्रा कम मिलेगा, छायावादी कवियों तक में भी। उनके काव्यलोक में प्रकृति साधारण रूप-रंग में भी है और असाधारण रूप में भी। उसकी सारी ऋतुओं से नागार्जुन का गहरा लगाव है, निराला की तरह पावस से कुछ ज़्यादा। पावस के कीचड़ तक का अभिनंदन उन्होंने अपनी एक कविता ‘जय हे कीचड़’ में किया है। एक अन्य कविता में उसे ‘हरिचंदन’ कहा है। बादलों पर भी, निराला की तरह उन्होंने बहुत लिखा है, उनके सारे रूपों और तेवरों के साथ। हिमालय पर उनकी कविता संस्कृत के क्लासिक कवियों की याद ताज़ा कराती है। उसका वैशिष्ट्य यह है कि वह उनका देखा हिमालय है, कालिदास की तरह कल्पित नहीं। ‘अमल धवल गिरि के शिखरों पर बादल को घिरते देखा है’, कविता में वे कहते हैं कि कहां है कालिदास के मेघदूत का वह धनपति कुबेर और कहां है उसकी अलका। उनका मेघदूत भी पता नहीं कहां है।

‘जाने दो वह कवि-कल्पित था/
मैंने तो भीषण जाड़ों में/
नभ चुंबी कैलाश शीर्ष पर/
महामेघ
को झंझानिल से गरज-गरज भिड़ते देखा है/
बादल को घिरते देखा है’।

हिमालय है तो देवदार चिनार सब उनके यहां हैं, शिशु-चिनार भी। मेघ है तो मेघनियां भी और कुरंग की तरह दौड़ते शिशु-मेघ भी। पुष्पों की पूरी दुनिया है उनके काव्यलोक में। ‘फूले कदंब/ डाली-डाली पर कंदुक सम झूले कदंब।’ ग्रीष्म का आतप भी है और शरद की चांदनी भी। खेत-खलिहान, बीज, अंकुर, लहलहाती पकी फसलों की छवि सब कुछ नागार्जुन के काव्यलोक में है। प्रकृति नागार्जुन के काव्यलोक में निःसंग कहीं नहीं है। मनुष्य के पूरे साहचर्य में है। नागार्जुन ने प्रकृति को उसके समूचेपन में जिया है।

नागार्जुन मुकम्मिल कवि हैं, जीवन की समग्रता के कवि, बेहद गहरे राग के कवि। आदमी और आदमीयत की उच्चतर संभावनाओं के चितेरे। भाषा और रचना-शिल्प के वैविध्य में भी नागार्जुन की कविता मानक कविता है। इतनी जीवंत, अनेकरूपा, व्यंजक भाषा, छंदों की जितनी समृद्ध दुनिया उनके काव्यलोक में है, अन्यत्रा कम ही मिलेगी। आधुनिक कवियों में एक निराला ही नागार्जुन की कवि प्रतिभा के बरक्स अपनी छाप मन पर छोड़ते हैं। जन-कवि तो वे हैं हीμ

जनधर्मिता की मिसाल है उनकी कविता। उनकी जन्मशती पर उन्हें मेरा शतशः प्रणाम।

नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 मो.: 09429071338