काव्यशास्त्र की ऐसी-तैसी (अष्टभुजा शुक्ल) / नागार्जुन
लेखक - अष्टभुजा शुक्ल
( नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 प्रस्तुत है।)
केदार, शमशेर, त्रिलोचन आदि के बीच नागार्जुन ही ऐसे रहे जिनका दर्शन मुझे व्यक्तिगत रूप से कभी नहीं मिला! इसका एक प्रत्यक्ष कारण पीढ़ियों का अंतराल तो रहा ही, नागार्जुन की घुमंतू प्रकृति और जीवन की वे दशाएं भी रहीं जिनके वशीभूत होकर इतस्ततः होते रहना उनकी नियति बनी रही। अन्यों की तुलना में नागार्जुन का जीवन अधिक गतिशील बना रहा। लेकिन इन सबके बीच हिंदी की आधुनिक कविता में नागार्जुन जितने सर्वप्रिय हैं, ‘क्यों’ का उत्तर दे पाना उतना ही चुनौतीपूर्ण। जनकवि, विद्रोही, औघड़, कवि-योद्धा, प्रतिबद्ध आदि चलताऊ पदावलियों के ज़रिए कविता में उनके ऐतिहासिक प्रदाय को घेर देना मुझे हमेशा असहज लगता रहा है। इतने काव्य-वैभव से चमत्कृत करने वाले नागार्जुन यदि संवेदना के नाम पर व्याकुल भावुकता अथवा विचार के नाम पर ठस काव्यादेश या काव्यादर्श से तनिक भी विगलित हुए होते तो कब का उनका तर्पण कर दिया गया होगा। यह नागार्जुन के काव्य-विवेक की स्वाधीन चेतना ही उनकी उपस्थिति को इतना जबर्दस्त बनाती है कि कवियों, पाठकों, आलोचकों, सामाजिकों या राजनीतिकों की कोई भी भुनभुनाहट उन्हें अनसुना नहीं कर सकती। यद्यपि नागार्जुन के समय में बहुत-से महत्वपूर्ण कवि-कर्म संपादित हो रहे हैं। फिर भी निराला के बाद, निराला जैसे केवल वही दिखायी देते हैं- निराला की छायाप्रति बनने से सर्वथा इनकार करते हुए। इनकार का ऐसा आत्मबल ही नागार्जुन को एक बड़ा कवि सिद्ध करता है क्योंकि वे कविता को कोई सिद्ध वस्तु न मानकर अनंत संभावनाओं की वस्तु मानते हैं। कविता के पूर्वकृत रूपों, विषयों या वस्तुओं की चौखट में क़ैद होना उन्हें मंज़्ाूर नहीं। अतः वे कविता के रूप विस्तार, विषय विस्तार और वस्तु विस्तार के लिए सदैव प्रयोगशील हैं। ऐसी प्रयोगशीलता अज्ञेय की उस प्रयोगशाला से एकदम भिन्न है जो ज़िद की हद तक प्रयोग किये जाने के फेर में प्रत्यभिज्ञा से लगातार च्युत होती जाती है। नागार्जुन के काव्य-प्रयोगों में एक प्रकार की पूर्वापरता भी है जिस पर हम आगे चलकर चर्चा करेंगे। प्रसंगतः नागार्जुन ही सच्चे अर्थों में अज्ञेय के अपनी-अपनी राहों के अन्वेषी कवियों में सबसे सार्थक कवि हैं। इस राह पर चलते हुए भी वे मेरे-पीछे-तू-आ-आ के खि़लाफ़ हैं! क्योंकि वे किसी भी शिविर, स्कूल या संघ की अविनय अवज्ञा कर सकते हैं किंतु अपनी कविता के मिशन में च्युत नहीं हो सकते। बेशक अज्ञेय अपने समय के साहित्य की एक बड़ी कार्यशाला हैं। उनके यहां पचासों दायित्व हैं जो एक से बढ़कर एक हैं। साहित्य के हर मोर्चे पर वे एक नये प्रस्थान की भांति हैं। किंतु उनके बाद की पीढ़ी ख़ुद को नागार्जुन की परंपरा में देखे जाने को लेकर बहुत अधीर रहती है जबकि अज्ञेय से वह उतनी
ही सम्मानित दूरी बनाये रखने को अभिशप्त है क्योंकि अज्ञेय न तो पूर्ववर्ती हिंदी काव्य परंपरा से जुड़ना चाहते थे, न किसी कवि परंपरा से। बल्कि वे अज्ञेय-परंपरा क़ायम करने के लिए अति सचेत थे। मौलिकता की इतनी महत्वाकांक्षा किसी दूसरे में न थी। नागार्जुन काव्य-परंपरा और कवि-पंरपरा से आवेशित थे किंतु उनके आवेश में बह जाने वाले नहीं थेμउन्होंने देशकाल के अनुसार कविता की परंपरा को एक टर्न दिया और ख़ुद उसमें बहुत बड़ा टर्न लिया। वास्तव में उस समय की कविता को सबसे बड़ा टर्न देने के लिए अज्ञेय जी ही कृतसंकल्प थे। इसलिए उनके काव्य-प्रतिमान विश्वजनीनता में सयत्न शामिल होकर सर्वाभौम होने के प्रतिमान हैं जबकि नागार्जुन के स्थानीयता में निरायास शामिल होकर सार्वभौम होने के। इसीलिए अज्ञेय के विश्वबोध में एक प्रकार की अलग-थलग और परायेपन की संवेदना अभिलक्षित होती है। वही उनका ममेतर है। जबकि नागार्जुन का विश्वबोध परंपरा की स्थानिकता से प्रारंभ होकर वृहत्तर रूप अख़्तियार करता है। अज्ञेय की अति मौलिकता होते-होते छिन्नमूल मौलिकता हो जाती है। इसके बरक्स नागार्जुन की बद्धमूल। अज्ञेय की मौलिकता में आत्म सर्वोपरि है, नागार्जुन में सर्वात्म। अज्ञेय की संवेदना रुई जैसी साफ़-शफ़्फ़ाक किंतु विरस है जबकि नागार्जुन की आषाढ़ के बादलों जैसी मटमैली किंतु सजल। इसीलिए अज्ञेय के यहां विषय की प्रायः एकरूपता है जबकि नागार्जुन के यहां बहुरंगी वैविध्य। यही कारण है कि अज्ञेय की कविता आलोचना के लिए वैसी चुनौती या प्रेरणा नहीं प्रस्तुत करती जैसी कि नागार्जुन की। जीवन-संग्राम के क्षेत्रा में अज्ञेय की कविता एक छाया-युद्ध है जबकि नागार्जुन में गुरिल्ला छापामार की आहटें हैं। अज्ञेय की समस्या मानसिक अधिक है जबकि नागार्जुन की समस्या साक्षात् अधिक। अज्ञेय कभी-कभी ही ज़मीन पर उतरते हैं। नागार्जुन हमेशा ज़मीन से ही ऊपर उठते हैं। अज्ञेय जी की अपनी राह का अन्वेषी होने का मतलब सिर्फ़ अज्ञेय-पथ है, वही नागार्जुन के यहां जन-पथ है।
इसी जन-पथ के वरण के कारण ही नागार्जुन में इनकार का ऐसा आत्मबल पैदा होता है जो उन्हें प्रतिपक्ष का अनूठा कवि बनाता है। कविता के पूर्वप्रदत्त रूपों, विचारों और वस्तुओं से लगातार ठाने रहने का आत्मसंघर्ष ही उन्हें कल्पना और यथार्थ के उन अनुभव क्षेत्रों तक ले जाता है जिन्हें साहित्य का वर्जित क्षेत्रा भी माना जाता है। शायद इसी नाते आधुनिक कवियों में नागार्जुन सबसे ज़्यादा चलने वाले सिक्के हैंμकभी-कभी निराला से भी ज़्यादा। अपनी लोकप्रियता की दुंदुभि से वे उन कवितावादियों को हतप्रभ और निरुत्तर कर देते हैं जो लोकप्रियता को कविता की एक ख़ास खामी एवं सरलीकरण का जोखि़म सिद्ध करने पर उतारू रहते हैं। वे न केवल ओज, माधुर्य, प्रसाद जैसे संस्कृत के काव्य प्रतिमानों को धता बताते हुए चलते हैं बल्कि हिंदी के तनाव, अनुभूति, संप्रेषण जैसी शब्दावलियों के संभ्रम में नहीं उलझते। कविता कैसी हो या कैसी होगी, की समस्या नागार्जुन के यहां बिलकुल ही नहीं है। क्योंकि उन्हें पक्का भरोसा है कि वे जो भी लिख रहे हैं, वही कविता है। यही आत्मबल उन्हें आलोचना के सम्मुख एक चुनौती के रूप में पेश करता है तो हिंदी के विशाल पाठक वर्ग को बहुत ही चहेते कवि के रूप में। काव्य-गुणों की निरंतर अनदेखी करने वाले नागार्जुन पुरातन काव्यशास्त्राीय दृष्टि से काव्य-दोषों के कवि ठहरते हैं। कविता के लगभग सभी निषेध उनके यहां विधायी भूमिका में हैं। वे एक ऐसे विचित्रा कवि हैं जिन्होंने पूर्वसिद्ध साहित्यिक रूपों या प्रतिमानों से लगातार असहमत होते हुए सृजन किया है। ऐसे कवियों को आचार्य आनंदवर्द्धन ने ‘विशृंखलगिरा’ अर्थात् बेढंगी काव्य-रचना वाला कवि माना है, ‘एतच्च चित्रां कवीनां विशृंखलगिरां अस्माभिः परिकल्पितम्’। आगे आनंदवर्द्धन इसी बात को आगे बढ़ाते
हुए स्पष्ट करते हैं कि नौसिखिए कवि आरंभ में भले ही चित्रा (काव्य रचना) का व्यवहार करें, किंतु प्रौढ़ि प्राप्त कर लेने पर कवियों का तो ध्वनि ही एकमात्रा काव्य है, ‘प्राथमिकानामभ्यासार्थिनां यदि परं चित्रोण व्यवहारः प्राप्त परिणतीनां तु ध्वनिरेख काव्यमिति स्थितिमेतत्’ (ध्वन्यालोक, तृतीय उद्योत)। आनंदवर्द्धन की दृष्टि में व्यंग्य ही ध्वनि है। स्पष्ट है कि अपनी आरंभिक उठान में नागार्जुन ने भले ही चित्रा-काव्य (बेढंगी काव्य रचना) की रचना की हो किंतु उनके प्रौढ़ कवि की कविता की ध्वनि व्यंग्यप्रधान ही है। जो आनंदवर्द्धन का व्यंग्य है, वही नागार्जुन के यहां व्यंग्य है। इस व्यंग्य में काव्यशास्त्राीय दोषों की भरमार है। इस लिहाज़ से नागार्जुन सदोष कविता वाले कवि हैं। श्रुतिदोष से लेकर न्यून-अधिकपदत्व दोष और उससे भी आगे बढ़कर ‘ग्राम्यत्व’ या ‘च्युत्संस्कृति’ दोषों के बल पर ही वे हिंदी के चित्तवृत्तिविशेष वाले कवि बन जाते हैं। श्रुति-मधुर कविता से एक आवश्यक दूरी बनाये रखने को सजग नागार्जुन श्रुतिकटुत्व को ही अपना काव्य प्रतिमान बनाते हैं। इससे वर्ण की कटुता हो न हो, वर्ण्य विषय ही उतना कटु है कि तमाम वर्चस्वशाली ताक़तें तिलमिला जाती हैं। इसकी ज़द में भारतीय राजनीति की कारगुज़ारियां, आपात्काल का अंधेरा और नवधनाढ्य वर्ग की खाल खिंचाईμसब कुछ है। ‘इंदु जी, इंदु जी, क्या हुआ आपको’ या ‘आओ रानी हम ढोयेंगे पालकी’, ‘तीनों बंदर बापू के’, ‘कोढ़ी कुढब तन पर मणिमय आभूषण जैसे दरिद्र देश के धनिक’ वाली लोकप्रिय कविताओं को यहां याद किया जा सकता है। इसी प्रकार ‘मंत्रा’ कविता में इस महादेश का उच्चाटन, मारण, कवच, अर्गल, कीलक सब है। ‘ओं हमेशा हमेशा करेगा राज मेरा पोता’ जैसी पंक्ति को 1984 में ही भविष्यवाणी की तरह सच होने की नामवर जी की अनूठी आलोचकीय दृष्टि आज 2010 तक आते-आते भविष्यवाणियों की भविष्यवाणी प्रतीत हो रही है। जिस लिहाज़ से काव्यशास्त्रा में ‘ग्राम्यत्व’ दोष का विधान किया गया है, उसी ग्राम्यत्व को नागार्जुन बार-बार अपनी कविताओं में महिमामंडित करते हैं। उनके भीतर एक किसान हमेशा चौकन्ना रहता है जो वाल्तेयर के ‘किसान’ जैसी गंवई होशियारी और विपदाओं को ठहाकों से ठेल देने की चुहलबाजी से भरा रहता है। जहां पर अज्ञेय जी सभ्य रुचि, सभ्य कवि और सभ्य कविता के समर्थक हैं, वहीं पर नागार्जुन रुचि भंग के कवि हैं। अज्ञेय जी ‘सांप’ के साथ भी-तुम सभ्य तो नहीं हुए-ही देखने के आग्रही हैं जबकि नागार्जुन कानी कुतिया, मादा सुअर, कौआ, प्रभु तुम कर दो वमन आदि पदों का बेधड़क प्रयोग करके अपनी भदेसता को कविता में वैध ठहराते हैं। इससे उनकी एक न्यारी छवि बनती है। नागार्जुन का रुचि-भंग किसी प्रकार की अरुचि पैदा करने के बजाय आलोचकों, पाठकों और अध्येताओं की साहित्यिक अभिरुचि का संवर्द्धन करता है। काव्यशास्त्रा में गिनाये गये ये दोष नागार्जुन की कविता में स्थान पाकर यदि गुणों में रूपांतरित हो जाते हैं तो इसके पीछे अपार पाठकीय स्वीकृतियां ही हैं क्योंकि काव्य-गुणों की विधायिका वास्तव में सहृदयों की स्वीकृतियां ही हुआ करती हैं, पुरातन काव्यशास्त्राीय निर्देश नहीं:
तदा जायंते गुणा यदा ये सहृदयैर्गृह्यंते।
रविकिरणानुगृहीतानि भवंति कमलानि कमलानि।।
नागार्जुन काव्यशास्त्रानुसारी कवि न होकर लोकशास्त्रानुसारी कवि हैं। इसीलिए उनकी कविता में या मनोदेश में हिंदी का बहुचर्चित ‘तनाव’ भूल में से भी नहीं दिखायी देता, ठीक वैसे ही जैसे तमाम संकटापन्न स्थितियों में लोक-मन या जन में। उनके यहां ‘करुणा’ है, इसीलिए प्राणिमात्रा के प्रति संवेदना भी। वहां करुणा का कारण शोक है किंतु काव्यशास्त्राीय सिद्धांतवादियों की भांति शोक ही श्लोक में नहीं ढल जाता। वे शोकः श्लोकत्वमागतः के भी निषेध में खड़े हो जाते हैं। दूसरी ओर पंत जी की तरह उनके वियोगी होने से आंखों से निकलकर चुपचाप कविता बहने नहीं लगती बल्कि परिस्थितियां जब नागार्जुन को घोर संकट में डाल देती हैं तो संबल के रूप में उन्हें प्रिया का ‘सिंदूर तिलकित भाल’ याद आता है। यहां कवि वेदना से भरा हुआ होकर भी पाषाण-प्रतिम नहीं हैμ
चाहिए किसको नहीं सहयोग?
चाहिए किसको नहीं सहवास?
कौन चाहेगा कि उसका शून्य में टकराय यह उच्छ्वास?
हो गया हूं मैं नहीं पाषाण
जिसको डाल दे कोई कहीं भी
करेगा वह कभी कुछ न विरोध
करेगा वह कुछ नहीं अनुरोध
वेदना ही नहीं उसके पास
फिर उठेगा कहां से निःश्वास
(सिंदूर तिलकित भाल)
जिस पाषाणहृदयता से नागार्जुन बार-बार इनकार करते हैं, वही जब उन्हें समाजशास्त्रा के भिड़ंतवादियों में भी दिखायी देने लगती है तो वे मखौल उड़ाने में तनिक भी संकोच नहीं करते:
क्या लाल? क्या लाल
लहू लाल? क्रांति लाल
युद्धोत्तर शांति लाल
चीन की देह लाल
चीन का हृदय लाल
अमरीका की नाक लाल
ब्रिटेन की जीभ लाला
यह लाल, वह लाल
(क्या लाल, क्या लाल?)
यहां साम्राज्यवादियों के साथ-साथ साम्यवादियों की भी वैसी ही छिः थू है! क्योंकि नागार्जुन एक सचेत, और जैसा कि पहले ही इंगित किया गया, स्वाधीन चेतना के जातीय कवि हैं। उनमें एक ऐसी राष्ट्रीय आस्तिकता है जिसे जनता की आत्मा की आवाज़ कह सकते है। यह आस्तिकता वस्तुतः ‘अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा’ वाले कालिदास की आस्तिकता है। यह अकारण नहीं कि जनपद के अंचल में अगहनी धान की दुद्धी मंजरियों को कनकाभ बनाते बालारुण के प्रति स्वतन बांचते नागार्जुन का आस्तिक उनके नास्तिक को पछाड़ देता है। और वे भलीभांति जानते हैं कि तमाम ऐसे पाषाणहृदय समाजशास्त्राी, जो लोकजीवन के आंतरिक विन्यास से सर्वथा अनभिज्ञ हैं, वे कवि के इस ‘डेविएशन’ को अपनी फाइलों में नोट कर ही रहे होंगे! यह वास्तव में कवि का प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का ज्ञापन है। इस लोकेषणा से नागार्जुन तनिक भी विचलित होते तो दुबारा ‘जोड़ा मंदिर’ जैसी कविता न लिखते।
भोकर राउत और मंुगिया की माई की स्मृति में सरजुग द्वारा बनाये मंदिर की सूझ पर जब गांव के लोग उपहास करते हैं तो नागार्जुन गमिष्यामुपहास्यताम से विधिवत परिचित हैं:
इस पर कहा मैंने सरजुग से -
‘धत् पगले, ऐसा भी कोई बोले!
पता नहीं है तुझे?
तरौनी गांव के बाबू-भैया लोग
हंसी उड़ाते हैं मेरी भी’
नागार्जुन की आस्तिकता लोक में है, उन मंदिरों में बिल्कुल नहीं जिनमें ‘कल्पना के पुत्रा भगवान’ विराजते हैं। उस काल्पनिक भगवान से कवि वरदान भी चाहता है तो विचित्रा:
घोर अपराधी-सदृश हो नत बदन निर्वाक्
बाप-दादों की तरह रगडूं न मैं निज नाकμ
मंदिरों की देहली पर पकड़ दोनों कान
हे हमारी कल्पना के पुत्रा, हे भगवान
कवि को खूब पता है कि गतानुगतिकता की संजीवनी कितनी मीठी होती है! इसके बरक्स वह तिक्त, काषाय, कटु अनुभवों का विधान कर सर्वथा लीक छोड़कर चलने वाला शायर बन जाता है। बाप-दादों की तरह मंदिरों की देहली पर नाक रगड़ने के बजाय नागार्जुन का प्रणाम उन्हें निवेदित है जो अपूर्णकाम तो हैं लेकिन सामाजिक निर्माण में असली भूमिका निभाने के बावजूद जो सदैव नेपथ्य में ही जीने के लिए अभिशप्त हैं। यही कारण है कि नागार्जुन जैसा शब्द-शिल्पी न तो शोक से अवसन्न होकर किंकर्त्तव्यविमूढ़ होता है और न ही सामाजिक परिवर्तन के अति उत्साह में शोक से भिड़ जाने को आस्तीनें चढ़ा लेता है, बल्कि भारतीय जन जीवन की मूल प्रकृति के अनुसार वे सबसे पहले शोक की अवज्ञा करते हैं, बाद में उसका विश्लेषण करते हैं और आखि़र में उसके निदान के लिए संघर्ष करते हैं। जीवन में अधिक से अधिक दिलचस्पी ही नागार्जुन के कवि का मौलिक स्वभाव है। यह दिलचस्पी भी भद्रता-विरोधिनी ही है। ‘डियर तोताराम’ ‘कटहल’ और ‘नेवला’ भी कविता के विषय बनकर मनुष्य की संवेदना का विस्तार करते हैं तो ‘अकाल और उसके बाद’ के सिर्फ़ दो पैराग्राफों में प्राकृतिक आपदा से तहस-नहस हुए और फिर जिजीविषा के अंकुरण का ऐसा मार्मिक वृत्तांत है जो मृतक में भी जान डाल देने जैसा ही है। चाहे वह किसी शिशु की दंतुरित मुस्कान से संभव हो, चाहे दिमाग़ की कटोरी में तकली-सी नाचती किसी सुंदरी की छवि से। ‘अकाल और उसके बाद’ जैसी चमत्कृत करने वाली कविता का शोक सिर्फ़ शोक तक सिमट कर नहीं रह जाता बल्कि वह जीवन के नवोन्मेष तक पहुंचता है। ध्यान देने की बात है कि यहां शोक को व्यंजित करने वाले समस्त उपादान मनुष्येतर हैं। चूल्हा निर्जीव है पर वह रोता है। क्योंकि बुझा हुआ चूल्हा है। चूल्हे का जल जाना ही उसका हंसना है। चक्की भी निष्प्राण है पर वह भी उदास है। उसका चल जाना ही उसकी खुशी है। कुतिया है तो वह भी ब्राउनी ब्यूटी रोज़ी नहीं बल्कि कानी है। उनके पास उसका चुपचाप सोना आपदा की निस्पंद मार है। वह कौरे के लिए मोहताज है फिर भी साथ छोड़कर कहीं भाग जाने के लिए तैयार नहीं। अनाज के अभाव में चूहों की हरकत और उछल-कूद बंद है। लेकिन ज्यों ही अन्य का आगम दिखायी देता है, मनुष्य के परितः की संपूर्ण पारिस्थितिकी में जीवन की हलचल शुरू हो जाती है। घर भर की आंखों के चमक उठने में चूल्हे, चक्की, चूहे, बिस्तुइया, कुतिया-सबकी आंखों की चमक है। किसी भी समय, किसी भी संवेदना और किसी भी शिल्प की कविता अलंकारों को चाहे जितना भी उतार दे लेकिन मानवीकरण से निजात पाना उसके लिए मुश्किल है। इस कविता का मानवीकरण और उसके मूल में निहित करुणा कालिदास जैसे कालजयी कवि से अर्जित मानवीकरण और करुणा का ही विस्तार है जहां अधखायी घास को हिरनी उगल देती है, मोर नाचना बंद कर देते हैं और लताएं पीले पत्तों को आंसुओं की तरह चुआ रही हैं। नागार्जुन जैसे कवि की करुणा जहां जन-जीवन से उत्प्रेरित है, वहीं उसका रोष उस भद्र जीवन और व्यवस्था के प्रति है जिसके कारण लोक-जीवन नारकीय हो जाता है। उस लोकजीवन की आदिम आवश्यकता है भूख और उस भूख का निवारक है कृषक-जीवन का सर्वस्व अन्न। अतः नागार्जुन का अन्न-चिंतन ही ब्रह्म-चिंतन बन जाता है। यह एक नयी ऋषि-दृष्टि है जो अन्नोपनिषद् के ब्रह्म को ही ब्रह्म मानती है। शेष ब्राह्मी दृष्टियां कवि की निगाह में प्रेत-दृष्टियां हैं। प्रेत अर्थात् विगत। अतः नागार्जुन एक नये अध्यात्म का प्रस्ताव करते हैं जो जितना ही मानसिक है उससे कम साक्षात् नहींμअन्न ब्रह्म है बाक़ी ब्रह्म पिशाच।
नागार्जुन न मुक्तछंद के कवि हैं न छंदोबद्ध। बल्कि वे छंदोमय कवि हैं। वे कविता में पूर्व प्रयुक्त सभी शिल्पों का उपयोग अपने ही ढंग से करने वाले हैं। उनकी जिन कविताओं को छंदमुक्त माना जाता है वे दरअसल ‘बतकही छंद’ में हैं और यह बतकही लोक-जीवन की ख़ास खूबी है। फलतः नागार्जुन की कविता में जन-जीवन की समस्याएं तो बहुत हैं लेकिन ‘संप्रेषण’ की कोई समस्या नहीं। जबकि हमारे समय की अधिकांश कविता ‘संप्रेषण’ की समस्या से ही इतनी जूझ रही है कि जीवन की समस्याओं से दो-चार हो पाने की उसके पास फुर्सत ही नहीं। नागार्जुन की पारगामी कविताओं में जीवन की समस्या और उसके सौंदर्य का अद्भुत समंजन है। वे जीवन-सौंदर्य की झांकियों से समस्याओं के पहाड़ तोप देने वाले कवि हैं। उनके यहां ‘जली ठूंठ पर बैठकर’ कोकिला कूकती है, हरे भरे पल्लवों के झुरमुट में नहीं। लेकिन चाहे जली ठूंठ हो या शासन की बंदूक - सभी अपने आशयों में पूरी तरह संप्रेषित होते हैं, कविता के कथ्य और शिल्प की समस्त शर्तों के साथ। नागार्जुन की काव्य-प्रतिज्ञा भी संप्रेषण पर टिकी हुई प्रतीत होती है। वे कविता में जटिलता और अनेक संस्तरीयताओं से जान बूझकर परहेज करते हुए मुक्तिबोध की क्षतिपूर्ति करते नज़र आते हैं। मुक्तिबोध की विचार-प्रतिज्ञा का अक्षरशः पालन करते हुए भी उनकी कविता की संवेदना-प्रतिज्ञा अपनी है। अतः उनकी कविताओं का संवेदनात्मक विस्तार कहीं बहुव्यापी है तो इसलिए क्योंकि परंपरा में उनकी गहरी पैठ भी है। उनकी कविता काव्यशास्त्राीय परंपरा से टक्कर लेते हुए अपनी संभावनाओं की तलाश में मूलवादियों को बिदकाने की हद तक आगे बढ़ जाती है किंतु कवि-परंपरा से वह अपना तादात्म्य निरंतर बनाये रखती है। इस दृष्टि से विचार करने पर यह सहज ही लक्ष्य किया जा सकती है कि नागार्जुन पर अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों का गहन प्रभाव है। यह प्रभाव न केवल भाव-संपदा का है बल्कि अनेकधा सीधे-सीधे विचार और पंक्तियां तक आयत्त कर ली गयी हैं। किंतु यह आयत्तता इतनी घुलनशील और कलात्मक है और उसमें ऐसा नागार्जुनी पुट आ जाता है कि ढूंढ़ते रह जाना पड़ता है। ज्ञातव्य है कि काव्य-परंपरा की शास्त्राीयताओं में कवियों के चौर-कर्म पर भी बहुत ही संवेदनशील ढंग से विचार किया गया है और कविता के विकास एवं संवर्द्धन के हेतु इसे वैध भी ठहराया गया है। राजेशखर के अनुसार वणिक् और कवि अ-चौर हो ही नहीं सकते किंतु अपने-अपने व्यापार में वे ही आनंदित होते हैं जो वाक्-कला से निगूहन (छिपाने) में निपुण होते हैं:
नास्त्यचौरः कविजनो नास्त्यचौर वणिग्जनः।
स नंदति विना वाच्यं यो जानाति निगूहितुम।।
सुबरन की खोज में कवि, व्यभिचारी, चोर की श्रेणी को शायद इसीलिए नैतिक ठहराया गया हो! कोई चाहे तो ‘व्यभिचारी’ की जगह ‘व्यापारी’ को भी दे सकता है। तात्पर्य यह है कि प्राक्तन कविताओं या परंपराओं से छिन्नमूल होकर काव्य-परंपरा का समुचित विकास संभव ही नहीं। किंतु ऐसा वे ही विवेकसंपन्न कवि संभव कर पाते हैं, और उन्हीं के यहां शब्दार्थ की दरिद्रता नहीं होती, जो देश-काल का सम्यक् विभाग कर पाने की दृष्टि से संपन्न होते हैं:
देशं कालं च विभजमानः कविर्नार्थदर्शनदिशि दरिद्राति।
नागार्जुन की काव्य-संपदा न तो एकसंस्तरीयता का आभास देती है और न ही शब्दार्थ की दृष्टि से परिमित प्रतीत होती है बल्कि काव्य-परंपरा के गतिशील कारकों का वे ऐसा निगूहित प्रयोग करते हैं और उन्हें ऐसी जगहों पर अपने काव्य-कौशल से विन्यस्त कर देते हैं जिससे एक नया काव्यार्थ पैदा हो जाता है। जो कवि किसी दूसरे के मूल वाक्य को पिघलाकर नवीनता का संचार करते हुए अपने काव्य में आत्मसात कर ले और दूसरों को इसका पता भी न चले, उसे द्रावक कवि माना जाता है:
अप्रत्यभिज्ञेयतया स्ववाक्ये नवतां नयेत्।
यो द्रावयित्वा मूलार्थम् द्रावकः स भवेत् कविः।।
ऐसी द्रावकता नागार्जुन में स्थाने-स्थाने देखने को मिलती है। पहले ही इंगित किया गया है कि नागार्जुन की कविता पर बुद्ध की करुणा और कालिदास की संवदेना का प्रभाव सर्वाधिक है। ‘गीले पांक की दुनिया गयी है छोड़’ में गंगा की बाढ़ का दृश्य दर्शाते-दर्शाते कवि गर्मी की तन्वंगी गंगा को याद करने लगता है किंतु पंत जी की ‘नौका-विहार’ वाली संवेदना से नितांत भिन्न, कृष्णद्वैपायनों (मल्लाहों) के छोकरों में शामिल होकर मछली और घुंघचियां खोजने की कामना से भर जाता है। यहां नागार्जुन की यह गंगा:
भगवती भागीरथीμ
ग्रीष्म में यह हो गयी थी प्रतनु-सलिला
विरहिणी की पीठ लुंठित एकवेणी-सदृश
बिलकुल ऐसी ही क्षीणकाय कालिदास की यह विरहिणी नायिका है:
वसने परिधूसरे वसान, नियमक्षाममुखी धृतैकवेणी।
अतिनिष्करुणस्य शुद्धशीला, मम दीर्घं विरहव्रतं विभर्ति।।
एक-दो नहीं अनेक ऐसे वस्तु वृत्तांत हैं जहां नागार्जुन कालिदास के बहुत क़रीब हैं किंतु यहां विस्तार में जाने का कोई औचित्य नहीं। ख़ुद नागार्जुन भी इसे कवि-कल्पित मानकर अपने मौलिक अनुभवों को अपनी कविता में विस्तार देते हुए एक और ही संसार से परिचित कराते हैं जहां प्राकृतिक सौंदर्य में भी जीवन-संघर्ष की ही अनुगूंज है:
जाने दो, वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है
यहां ऋतु भी बदल जाती है और कवि-कल्पना भी। नागार्जुन की अन्य कल्पनाओं के जो दो रचनाकार हैं, वे हैं लू-शुन और बर्तोल्त ब्रेख़्त और इन दोनों पर ही केंद्रित होकर उन्होंने रचनाएं भी की हैं। ‘लू-शुन’ पर केंद्रित श्रद्धांजलि की पंक्तियां देखिएः
दुर्दम, अनमनीय, क्रांतिदर्शी!
छद्म वाम पर निरंतर वाणवर्षी
अ-कपट बंधु तुम विश्व-सर्वहारा के
अक्षय उत्स तुम जन-चेतना धारा के
करो अंगीकार प्रणतियां हमारी
सहज-सरल लू-शुन व्यंग-वज्रधारी
और देखिए ब्रेख़्त की घुच्ची आंखें जोμ
नफ़रत की धधकती भट्ठियां
प्यार का अनूठा रसायन
अपूर्व विक्षोभ
जिज्ञासा की बाल-सुलभ ताजगी
ठगे जाने की प्रयोगशाला सिधाई
और प्रवंचितों के प्रति अथाह ममता से भरी हुई हैं।
पहले कविता की एक और परंपरा में जहां कवियों में आत्मगर्व की भावना कूट-कूटकर भरी हुई है, वहीं नागार्जुन के यहां संत-कवियों जैसे आत्मधिक्कार और आत्मालोचन के अक्स बहुतायत हैं। ख़ुद को पतित, नीच, बंदर, वनमानुष, सत्तरसाला, मिलिट्री का बूढ़ा घोड़ा कहकर कोसते रहना भी नागार्जुन की काव्य-कला का एक अनूठा आयाम है। उन्हें भलीभांति पता है कि लेखन जैसा वायवीय काम तथाकथित शिक्षित नौकरशाहों के किस काम का है? फिर भी वे लेखन से प्रतिबद्ध हैं, और आबद्ध हैं। इसी प्रतिज्ञा के तहत ही वे एक्सेप्ट करते हैंμ
जी हां, लिख रहा हूं।
लेकिन इस लेखन का मूल्य क्या हैμ
आप तो ‘फोर
फिगर मासिक/
वेतन वाले उच्च अधिकारी ठहरे
/मन-ही-मन तो हंसोगे ही/
कि भला यह भी कोई काम
हुआ, कि अनाप-शनाप ख़यालों की/
महीन लफ़्फ़ाजी ही/
करता चले कोई/
यह भी कोई काम हुआ भला!’
भले ही यह कोई भला काम न हो लेकिन कविता नागार्जुन की रग-रग में है। इस कवि-कर्म और जन-चेतना की सोच के निमित्त मिली समस्त चेतावनियों का साहसिक उपहास करना ही उनका ध्येय है। नागार्जुन दिनकर की भांति न तो अपने को ‘अपने समय का सूर्य’ घोषित करते हैं और न ही अज्ञेय की भांति ‘धारा के नितंब पर स्थाणु-सा वीर्य स्खलित करने वाला सूर्य’ बनना चाहते हैं, बल्कि वे निराला के ‘नवल कंठ नव जलद मंद्र-रव’ के उद्घोष से निःसृत ‘नये गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है’ उसमें अपनी थोड़ी-बहुत आभा देखने वाले कवि हैं। उनमें यह आभा जीवन-संघर्ष, आत्मसंघर्ष और काव्य-संघर्ष के बल पर आयी हैμकिसी रंग-रोगन से नहीं। मो. 09415356433