काव्यात्मा का लक्ष्य: मात्सुओ बाशो का अन्तिम हाइकु / कुँवर दिनेश

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मात्सुओ बाशो सत्रहवीं शताब्दी के महान् जापानी दार्शनिक-कवि-हाइकुकार थे, जिन्होंने अपनी यात्रा-डायरियों तथा काव्य-संकलनों के माध्यम से 'हाइकु' विधा / छन्द को एक गम्भीर कविता के रूप में प्रतिष्ठित किया। नि: सन्देह कविता के क्षेत्र में उन्होंने नया प्रयोग किया, परन्तु आध्यात्मिक स्तर पर उन्होंने महान् जापानी परम्परा का निर्वहन किया है। वे भ्रमणशील रहे और काव्य-सृजन में निरन्तर सक्रिय रहे। उनके जीवन का उत्तरार्ध सांसारिक नहीं कहा जा सकता, जैसा कि उनके काव्य में सृष्टि व ब्रह्माण्ड विषयक उनके दर्शन से विदित होता है। उनके हाइकु में गहन दार्शनिक चेतना मिलती है जो मानव के अस्तित्व सम्बन्धी प्रश्नों पर केन्द्रित है। सन् 1644 में युइनो में जन्मे बाशो का जीवनकाल केवल पचास वर्षों का रहा, जिसके विषय में भी उन्हें पूर्वाभास हो गया था। मृत्यु से पूर्व की उनकी अनुभूति इस हाइकु में आभासित है:

यात्रा, रोग में:

मेरे स्वप्न फिरेंगे

शुष्क धरा पे।

(-मात्सुओ बाशो; हिन्दी अनुवाद: कुँवर दिनेश)

मात्सुओ बाशो ने जिस समय उपर्युक्त हाइकु की रचना की, उस समय वे मृत्यु-शय्या पर थे। पहली पंक्ति में वे जिस यात्रा का उल्लेख करते हैं, वह उनके जीवन की यात्रा है, जिसका अब अचानक अवसान होने वाला है। जीवन-यात्रा के इस अन्तिम पड़ाव में जहाँ उनका शरीर रोग से ग्रस्त हो चुका है, वहीं उनकी काव्यात्मा दु: खी एवं खिन्न है, क्योंकि उनकी यह यात्रा सफल होती नहीं दीख पड़ रही है।

यात्रा को पूर्ण करके लक्ष्यसिद्धि का समय अब उनके पास नहीं बचा है, इसी बात से उनका मन एवं उनकी आत्मा अवसन्न है। नि: सन्देह बाशो की आत्मा एक काव्यात्मा थी, जो अधिकाधिक सार्थक एवं स्तरीय सर्जन करके अपनी जीवन-यात्रा को सफल बनाना चाहती थी। अपनी सर्जना से न केवल संसार को संतुष्ट करना, प्रत्युत उत्कृष्ट सर्जन अथवा अभिव्यक्ति से आत्मसंतुष्टि प्राप्त करना भी इस काव्यात्मा का लक्ष्य था।

स्पष्टत: प्रथम पंक्ति में उल्लिखित 'रोग' उनकी लक्ष्य-सिद्धि में व्यवधान बनकर आया है―एक ऐसे मोड़ पर, जिसके आगे कुछ दिखाई नहीं पड़ता। केवल काल का संकेत दिखाई पड़ता है, जो साध्य, साधना, साधन व सिद्धि ―सब कुछ छीन लेता है। अपने इस असाध्य पंगुत्व व असमर्थता के कारण ही कवि की आत्मा क्लिष्ट व असंतुष्ट है। मानव-मन में इच्छाओं का जगना-उमगना बेहद सामान्य बात है; किन्तु उनकी पूर्ति न होना विषाद को जन्म देता है―और यह भी मानव-मन की सामान्य प्रवृत्ति है। सर्जन की शक्ति से सम्पन्न कवि-मन सदैव उत्कृष्ट रचना के लिए चिन्तित रहता है और नियति द्वारा उसके लक्ष्य-साधन में अवरोध उत्पन्न किए जाने से, वह स्वयं असहाय, असमर्थ व पराभूत अनुभव करता है और उसके लिए यह विफलता सबसे बड़ा दु: ख है। कवि-मन नियतिजन्य इस पराजय को स्वीकार करने के लिए बिल्कुल भी तत्पर नहीं है।

हाइकु की द्वितीय व तृतीय पंक्तियों में बाशो लिखते हैं― "मेरे स्वप्न फिरेंगे / शुष्क धरा पे" ―जिससे स्पष्ट है उनके कवि-मन में अनेकानेक स्वप्न हैं और उनको साकार करने की तीव्रेच्छा है। उनके ये स्वप्न उनकी हृदयंगम / हृदयस्थ कल्पनाओं, अभिलाषाओं एवं आशाओं के प्रत्यक्षीकरण को इंगित करते हैं।

लेकिन कवि की चिन्ता के केन्द्र में यही प्रश्न है कि मृत्यु के उपरान्त उसकी स्वप्निल आकांक्षाओं का क्या होगा; वे स्वप्न जो उसके हृदय में जाग्रत हो चुके हैं, उनका क्या होगा? कवि-मन यह मानने को तैयार नहीं कि उसकी जाग्रत इच्छाएँ भी काल द्वारा नष्ट कर दी जाएँगी। उसका विश्वास है कि उसके स्वप्न मरेंगे नहीं―प्रत्युत यहीं 'फिरेंगे / शुष्क धरा पे' ―अर्थात् उजाड़, ऊसर, निर्जन भूखण्ड पर। इस बिम्ब में कवि ने मृत्यु के बाद के पड़ाव की परिकल्पना कि है, जो सर्वथा एकाकी है, शुष्क व नीरस है।

कवि की आत्मा निवसित है उसके सर्जन में, उसकी कल्पनाओं में, उसकी स्वप्निल आकांक्षाओं में―जो यदि अपूर्ण रह जाती हैं, तो कवि-मन से वियुक्त होकर भटकती फिरेंगी। मन व आत्मा से पृथक् संसार शुष्क एवं नीरस ही कहा जा सकता है―इसमें कोई सन्देह नहीं है।

यह हाइकु कवि-दृष्टि को बूझने-समझने के कोण से भी महत्त्वपूर्ण है। चूँकि इस कविता में कम से कम शब्दों में बात कही गई है, बहुत-सी बात अनकही है। 'शुष्क धरा' ― इस पद में कवि की दृष्टि निर्जन चरागाह में, सूखे घास में अथवा ऊसर एवं अजोत धरातल में काव्य के पाठकों की शुष्क, रुचिहीन, विरक्त मानसिकता को देखती है, जिसमें काव्य के प्रति उदासीनता, बेसरोकारी अथवा दुर्बोधता व्याप्त है। यही कारण है कवि 'शुष्क धरा' को देखते हुए यह सोचने पर विवश हो जाता है कि उसकी कविताएँ उदासीन-से पाठकों की ऊसर व शुष्क मस्तिष्क-भूमि पर भटकती फिरेंगी। यानी कवि-मन जिन सहृदय पाठकों की अपेक्षा करता है, वे दृष्टिगोचर नहीं हैं। कवि की चिन्ता इसी आशा पर केन्द्रित है कि उसकी कविताएँ किस प्रकार भावी पीढ़ियों के हृदय में स्थान बना पाएँगी और कैसे उनके कथ्य एवं अभिप्रेत को सही परिप्रेक्ष्य में ग्रहण करेंगी।

कवि ने जिस यात्रा कि बात प्रथम पंक्ति में कही है वह एक ऐसे लक्ष्य की प्राप्ति के विषय में है, जिसे वह प्राप्त करना चाहता था, लेकिन अकस्मात् रोग और मृत्यु की आशंका से ग्रसित हो जाने से उसकी लक्ष्यप्राप्ति की यह यात्रा अधूरी रह जाने के भय को उजागर करती है।

सन् 1694 में ओसाका में आने पर लगभग पचास वर्ष की अवस्था में बाशो उदर-रोग से पीड़ित हो गए थे और कुछ समय में उनका देहावसान हो गया था। अपनी आयु के पूर्ण होने पर नहीं, प्रत्युत् रोग के कारण उनका जीवन अकस्मात् पूर्ण हो गया था। मृत्यु के दिन से पूर्व रुग्णावस्था में बाशो सुदूर देहात में एक कुटीर में समय व्यतीत कर रहे थे। इस अवस्था में उन्होंने जीवन को 'शुष्क धरा' का रूपक दिया, जिसके माध्यम से उन्होंने मानव के अस्तित्व के विषय में अपना दृष्टिकोण शब्दायित किया है। सूखी घास से भरे बियाबान चरागाह को देखकर उनके मन-मस्तिष्क में यह विचार कौंधा कि प्रकृति का यह निर्जन भू-भाग जहाँ मानव की पहुँच नहीं बनी है, कितना शान्त, एकाकी और शुद्ध है। कवि ने ऐसे ही विजन स्थानों पर अपनी मृत्यु के बाद अपनी अप्राप्य इच्छाओं तथा अपूर्य स्वप्नों के भटक जाने की बात कही है।

यदि बाशो के व्यक्तित्व एवं कवित्व को सही अर्थों में समझना है तो प्रकृति के ऐसे ही स्वच्छन्द और मानव द्वारा असंपृक्त स्थानों में अवधान लगाकर समझना होगा। मात्सुओ बाशो प्रथम हाइकुकार माने गए हैं और उनके प्रत्येक हाइकु में जीवन व अस्तित्व के कई पहलुओं के अभिभूतकारी चित्र मिलते हैं। अपने इस अन्तिम हाइकु के माध्यम से भी बाशो भावी कवियों / हाइकुकारों को प्रेरणा तथा मार्गदर्शन दे गए।