काव्यानुवाद की समस्याएँ / आनंद कुमार शुक्ल

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नयी समीक्षा की अतिवादी 'नीबू-निचोड़' प्रवृत्ति से संत्रस्त होकर इस प्रवृत्ति के जनक माने जानेवाले टी. एस. एलियट ने 'समीक्षा के सीमांत' में लिखा- "कविता का पाठक कविता को केवल समझना नहीं चाहता, बल्कि उसका आस्वादन भी करना चाहता है।" ('पाश्चात्य साहित्य चिंतन', निर्मला जैन, कुसुम बाँठिया, पृ। 183)

यह बात आलोचना के लिए जितनी महत्त्वपूर्ण है, काव्यानुवाद के लिए उससे कमतर नहीं। बल्कि एक मायने में देखें तो काव्यानुवाद के लिए आस्वाद प्रक्रिया का संरक्षण जितना श्रमसाध्य है, उतना ही जटिल। एक ओर काव्यानुवादक को मूल की आस्वाद प्रक्रिया को सुरक्षित रखना पड़ता है तो दूसरी ओर लक्ष्य भाषा के पाठकों के सामने ऐसी अनूदित कृति रखने की कोशिश करनी पड़ती है जो उन्हें उन्हीं की भाषा और संस्कृति की उपज लगे, ताकि वे अनूदित कृति के साथ आत्मीय संबंध सहज रूप से स्थापित कर सकें। किसी अनूदित कृति की इस विशेषता को अनुवादक की सफलता से जोड़कर देखा जाता है। हरिवंश राय बच्चन ने अनुवाद की सहजता को उसका प्राथमिक गुण माना- "अगर कृति पढ़कर अनुवाद की प्रतीति होती है तो वह निम्न श्रेणी का अनुवाद माना जाएगा। अनूदित कृति से कृत्रिमता का अहसास नहीं होना चाहिए." (अनुवाद पत्रिका, स्वर्ण जयंती विशेषांक, डॉ आरसू का लेख- 'अनुवाद बच्चन की अनुदृष्टि में) सचमुच अनुवाद कर्म दुधारी तलवार पर चलने के समान है।

सामान्य अनुवाद के संबंध में यदि अनुवादक दोनों भाषाओं (लक्ष्य एवं स्रोत भाषा) का ज्ञाता है और उसे विषय से संबंधित पारिभाषिक समतुल्यों का ज्ञान है, तो वह एक सफल अनुवादक हो सकता है, किंतु साहित्यिक अनुवाद और विशेषतः काव्यानुवाद के परिप्रेक्ष्य में सिर्फ इतनी ही योग्यता पर्याप्त नहीं है।

जॉन ड्राइडन ने अपने लेख 'काव्यानुवाद की कला' (अनु। अरविंद कुमार) में लिखा है- "...रूपरेखा यथावत बना लेना, नाक नक्श सही उतार लेना, बिल्कुल ठीक अनुपात कर लेना और संभवतः काम चलाऊ रंग भी भर लेना- यह सब एक बात है; लेकिन इन सब में लालित्य, मुद्रा, भाव-भंगिमा और रंगों का उतार-चढ़ाव डाल पाना, ऐसी सचलता भर पाना जो इन सबमें जान डाल दे- यह एक बिल्कुल अलग बात है।" (अनुवाद पत्रिका, जन।-मार्च 1987, पृ। 126)

इस बात से यह प्रश्न भी मुखर होता है कि आखि़र काव्यानुवाद के दौरान कृति का सर्वस्व, उसका प्राण क्या है?

अन्य भाषिक संरचनाओं की भाँति कविता भी आखिरकार एक भाषिक संरचना है। कविता की अभिव्यक्ति का प्राथमिक स्रोत उसकी भाषिक संरचना है, और पाठक कविता के जिस तत्त्व से प्रथमतः रू-ब-रू होता है, वह उसकी भाषिक संरचना ही है। किंतु, अन्य भाषिक संरचनाओं से इसका एक मौलिक अंतर यह है कि कविता में भाषा अपने सर्वाधिक संश्लिष्ट रूप में रहती है।

"वस्तुतः एक साहित्यिक कृति पारस्परिक भिन्न भाषिक प्रणालियों की जटिल व्यवस्था एवं मानव संस्कृति की विस्तृत व्यवस्था के द्वंद्वात्मक संबंधों पर आश्रित रहती है और उसकी इस संपूर्ण संरचना की परख किए बिना अनुवादक जब केवल काव्यगत अन्वयांतर पर अपना ध्यान जमाता है या किसी निर्दिष्ट उद्देश्य से साकल्य के स्थान पर किसी एक पक्ष को उभारता है तब अनुवाद में परेशानी उत्पन्न होती है। आधुनिक आलोचना में जब यह कहा जाता है कि शब्द और अर्थ अविभाज्य हैं और शब्द एक विशेष संदर्भ में एक अनुपम तथा अतुलनीय अर्थ को प्रकट करता है तो उसके अन्वयांतर का प्रश्न ही नहीं उठता। अन्वयांतर समानार्थकता पर निर्भर करता है और अनुवाद स्रोत भाषा के अर्थ लक्ष्य भाषा के अर्थ में प्रतिस्थापित करता है।" (अनुवाद पत्रिका, जन-जून 2000 में इन्द्रनाथ चौधुरी के लेख- 'साहित्यिक अनुवाद के संदर्भ में अनुवाद अध्ययन का स्वरूप' से उद्धृत)

किंतु क्या प्रतिस्थापन की प्रक्रिया सहज है? जर्मनी के लाइपजिग स्कूल के प्रमुख विचारक आटो कादे ने 1968 ई. में समतुल्यता और प्रतिस्थापन की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए शब्दों की चार प्रकार की मुख्य कोटियाँ प्रस्तुत कीं। (1) पूर्ण समतुल्य- जो मानक शब्दावली की तरह हर भाषा में पूर्ण रूप से एकसमान और एकअर्थी होता है, (2) वैकल्पिक समतुल्य- एक शब्द के लिए कई समतुल्य प्रतिस्थापक शब्द, (3) आसन्न समतुल्य- एक शब्द के अर्थांश से समतुल्य एवं (4) निष्प्रभावी समतुल्य- ऐसा शब्द जो किसी भाषा विशेष की सांस्कृतिक विशिष्टता से संबंधित हो और किसी अन्य भाषा में उसका समतुल्य शब्द असंभव हो।

यद्यपि कादे की शब्द आधारित अनुवाद प्रणाली अनेक दोषों से ग्रस्त है, किंतु यह नहीं भूला जा सकता कि किसी भी भाषा के शब्द उस भाषा की प्राथमिक इकाई के अनिवार्य घटक हैं। कादे द्वारा प्रस्तुत कोटियों के आलोक में यदि काव्यानुवाद की चर्चा की जाए तो अकसर कविता का बहुत कुछ ऐसे शब्दों से निर्मित होता है जिनके प्रतिस्थापक के रूप में आसन्न समतुल्य या निष्प्रभावी समतुल्य ही प्राप्त होते हैं। जाहिर है, ऐसी कविता का अनुवाद कुछ ऐसे समतुल्यों के आधार पर करना होगा जो कवि के अभिप्रेत को पूर्णतया अभिव्यक्त न कर सकें अथवा कुछ बदल कर प्रस्तुत करें।

सर जॉन डेन्हम ने एनियड का अनुवाद करते हुए उसकी भूमिका में लिखा- "कविता एक ऐसी 'स्पिरिट'है जो एक भाषा से दूसरी में उड़ेलने के दौरान सबकी सब उड़ जाती है और पात्रांतर करते वक्त अगर नई 'स्पिरिट' न डाली जाए तो पात्र में कुछ भी नहीं बचेगा।" (अनुवाद पत्रिका, स्वर्ण जयंती विशेषांक, पृ.10) निश्चित रूप से ऐसा लिखते समय सर जॉन डेन्हम के सामनेसर्जनात्मकता की तमाम परेशानियों में से उपर्युक्त परेशानियाँ भी रही होंगी।

शब्द और अर्थ के संबंध को जाक देरिदा ने संपृक्त और प्रतिपत्तित मानने से इंकार करते हुए अर्थ के आधार को पूर्णतया अस्थिर माना। देरिदा का विखंडनवाद फर्दिनांद द स्यूसोर के भाषाविषयक विचारों का तार्किक परिणाम है। स्यूसोर ने भाषा को एक संकेत प्रणाली के रूप में चिह्नित किया, जिसका प्रत्येक संकेत एक संकेतक और एक संकेतित से मिलकर बना होता है। संकेतक और संकेतित का संबंध यादृच्छिक होता है। वस्तुतः यह संबंध सामाजिक तौर पर मनमानेढंग से मान लिये जाने के कारण निर्मित होता है। साथ ही, संकेतक 'क'का अर्थ संकेतित 'क'इसलिए भी होता है क्योंकि वह संकेतित 'ख', 'ग', 'घ' नहीं है या नहीं माना गया है। "स्यूसोर का निष्कर्ष है कि भाषा प्रणाली में सिर्फ भिन्नताएँ होती हैं। अर्थ संकेतों में रहस्यपूर्ण ढंग से छिपा हुआ नहीं होता है बल्कि वह वृत्तिमूलक होता है। यह दूसरे संकेतों से उसकी भिन्नता का परिणाम होता है।" ('अनुवाद और रचना का उत्तर जीवन', रमण प्रसाद सिन्हा, पृ.24)

देरिदा ने भिन्नता की प्रक्रिया को अनंत श्रृंखला के रूप में प्रस्तुत किया। "अगर आप किसी संकेतक का अर्थ जानना चाहते हैं तो शब्दकोश में जो आप पाएँगे वह कुछ और संकेतक ही होंगे जिसके संकेतित को आपको ढूँढ़ना होगा। इस प्रकार यह प्रक्रिया अनंत ही नहीं बल्कि चक्राकार भी है: संकेतक संकेतित में और संकेतित संकेतक में लगातार बदलते रहेंगे लेकिन आप किसी ऐसे संकेतित तक नहीं पहुँच पाएँगे जो खुद में संकेतक न हों।...अर्थ किसी एक संकेत में नहीं बल्कि संकेतकों की एक पूरी शृंखला में बिखरा हुआ होता है जहाँ वह 'उपस्थिति'और 'अनुपस्थिति' के बीच झिलमिलाता रहता है।...देरिदा का मुख्य सैद्धांतिक आग्रह यह रहा है कि चूँकि अर्थ का आधार अस्थिर होता है और बीज।शब्द या 'गहन संरचना' जैसी कोई चीज नहीं होती, इसलिए एक ही भाषा के अंतर्गत या एक भाषा से दूसरी भाषा में शुद्ध संकेतितों का परिवहनअसंभव है। ऐसे में अनुवाद की धारणा बदलकर हमें रूपांतरण की बात करनी चाहिए: नियंत्रित रूपांतरण: एक भाषा से दूसरी भाषा में, एक पाठ से दूसरे पाठ में नियंत्रित रूपांतरण।" ('अनुवाद और रचना का उत्तर जीवन', रमण प्रसाद सिन्हा, पृ.25-26)

दूसरी ओर साहित्यिक अनुवाद को शाब्दिक अनुवाद के रूप में देखने पर अनुवादक बुरी तरह असफल होगा। दरअसल प्रत्येक कृति में उसके पाठ के साथ ही उसके कर्ता द्वारा संप्रेषित अर्थ भी छिपा होता है। अनुवादक का कार्य न केवल प्रदत्त पाठ का रूपांतरण है, बल्कि उस संप्रेषित अर्थ का भी लक्ष्य भाषा में पाठ के माध्यम से पुनर्प्रस्तुतीकरण है जो कृतिकार का मूल उत्स है और अंततः कृति का अभिप्रेत भी। इसीलिए अनुवादक अपने अनुवाद कर्म की शुरुआत करने से पूर्व कृति की व्याख्या का उत्तरदायित्व भी वहन करता है। इस क्रम में अनुवादक की अपनी समझ और विचारधारा व्याख्या को प्रभावित करती है। यह अनायास नहीं है कि जहाँ विज्ञान विषयक कृतियों के लिए किसी भाषा में सिर्फ एक अनुवाद ही पर्याप्त माना जाता है, वहीं साहित्यिक कृतियों के विविध अनुवादों में परस्पर होड़-सी मची रहती है और प्रत्येक परवर्ती अनुवाद मूल के अधिक निकट पहुँचने एवं अपनी भाषा में भी पैठ बनाने के लिए पूर्ववर्ती अनुवादों से संघर्ष करता है, साथ ही प्रेरणा भी लेता है।

व्याख्या के क्रम में शब्दशः अनुवाद की प्रक्रिया पीछे छूटने लगती है। वस्तुतः ऐसा करना तार्किक रूप से भी असंभव है। "शब्द के लिए शब्द खोजनेवाला अनुवादक एक साथ कई कठिनाइयों में ऐसा उलझ जाता है कि उससे बाहर निकलना उसके लिए कठिन हो जाता है। उसे मूल लेखक के विचार तथा शब्द दोनों का ध्यान रखना पड़ता है और अपनी भाषा में प्रत्येक विचार व शब्द के समरूप भी खोजने होते हैं। इसके अतिरिक्त उसे छंदों के चरणों एवं तुक की दासता भी ढोनी पड़ती है। यह बहुत कुछ बँधे पैरों से रस्सियों के ऊपर नाचने जैसा है, जिसमें आप सावधानी बरतकर गिरने से भले ही बच जायें लेकिन गति के सौंदर्य की आशा नहीं कर सकते।" (अनुवाद पत्रिका, शतक विशेषांक, पृ.8)

अनुवादक की कठिनाई का एक सिरा मूल पाठ के अर्थ वलयों और उसके संप्रेषण से जुड़ा हुआ है तो दूसरा सिरा स्रोत भाषा एवं लक्ष्य भाषा के ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विकास में अंतर से। साथ ही, काव्यानुवादक को कविता के आंतरिक संगीत और उसकी सौंदर्याभिरुचि का भी परिचालन करना पड़ता है। कविता के अनुवाद में हम शब्दों को उनके समतुल्यों द्वारा प्रतिस्थापित कर सकते हैं। कुछ शब्द जो स्रोत भाषा की अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं से उपजे होते हैं उन्हें छोड़ दिया जाए तो किसी भी भाषा की शब्दावली का बहुत कुछ ऐसा होता है जो दूसरी भाषा में भी अन्य रूप में मौजूद रहता है। आसानी से ही कोई अनुवादक किसी गेय विन्यास को भी तुकांतवादी शाब्दिक अनुक्रम में रूपांतरित कर सकता है, किंतु इन सबसे कहीं महत्त्वपूर्ण है- 'उस अर्थ' की खोज और उसका संप्रेषण। कविता के तमाम अर्थ वलयों के भीतर कविता का सूक्ष्मतम या मूल प्रयोजन छिपा रहता है, जिसे हम कविता के भीतर मौजूद जीवन के संगीत के माध्यम से पकड़ते हैं।

इसलिए काव्यानुवादक का प्राथमिक गुण काव्य-ध्वनि का प्रभावी विश्लेषण एवं आत्मसातीकरण है। विश्लेषण एवं आत्मसातीकरण की प्रक्रिया अपने मूल में ही द्वंद्वात्मक है। "अनुवादक टेक्स्ट को मात्र डीकोड ही नहीं उसे रीकोड भी करता है यानी टेक्स्ट का निर्माण करता है। इसलिए अनुवाद मात्र अनुकरण नहीं जिसका एक ही सही पाठ होता है। परंतु अनुवाद सर्जन भी नहीं। अनुवादक तो कृति के अनुरूप सर्जन करता है मगर कृति में निहित विचारों को मात्र प्रस्तुत नहीं करता, उसको रूपांतरित करता है। अनुवादक एक प्रकार का स्रष्टा है जो लेखक के यथार्थ के सम्मुख अपने को समर्पित करता है।" (अनुवाद पत्रिका, शतक विशेषांक, पृ.7)

कृति की सर्जना करते समय प्रत्येक संवेदनशील साहित्यकार एक विशिष्ट संवेदनशीलता, आत्मानुभूति एवं लोकोत्तर भावभूमि में पहुँचता है। यदि अनुवादक साहित्यकार की उस भावभूमि तक पहुँचने में अक्षम हो तो उसका अनुवाद एकदम सतही और निष्प्रभावी बनकर रह जाएगा।

काव्यानुवाद के दौरान स्रोत भाषा एवं लक्ष्य भाषा के ऐतिहासिक विकास एवं संस्कृति के बीच का अंतर बहुत बड़ी कठिनाई के रूप में सामने आता है। "हर भाषा के कुछ संदर्भ और प्रसंग होते हैं। प्रसंग स्थानिक और देश काल से जुड़कर भाषा की धरातलीय संरचना में घर किए रहते हैं और दूसरी ओर, संस्कृति से प्रभावित भाषा की आभ्यंतरिक संरचना में नाना ऐतिहासिक संदर्भ मौजूद रहते हैं। प्रसंग का संबंध भाषा के लाक्षणिक तथा व्यंजनात्मक रूप एवं उससे जुड़े स्थानिक देश-काल से होता है और संदर्भ का संबंध भाषा में निहित गहरे सांस्कृतिक संदर्भों से होता है।" (अनुवाद पत्रिका, शतक विशेषांक, पृ.3-4)

इसीलिए अनुवादक के सामने ऐसी स्थिति में बेचारगी-सी आ जाती है।यहाँ अनुवादक कृति के पाठक पर पड़े प्रभाव के आधार पर समरूप प्रभावों की नवसर्जना की ओर प्रवृत्त होता है। फिर भी, विभिन्न सांस्कृतिक, भौगोलिक, ऐतिहासिक, आर्थिक एवं स्थानीय स्थितियों में उत्पादित होने के कारण अनूदित रचना के प्रति लक्ष्य भाषा के अनुवादक-पाठक की आभ्यंतरिक प्रतिक्रिया ठीक वैसी ही नहीं रह पाती, जैसी मूल रचना के प्रति स्रोत भाषा के रचनाकार-पाठक की होती है। यहाँ तक कि एक ही भाषा के विभिन्न पाठकों की आभ्यंतरिक प्रतिक्रिया भी एक नहीं होती।

रचनाकार कविता में भाषा की समाहार शक्ति के माध्यम से अपनी संस्कृति का अपचयन करता है। इस प्रकार कविता अपने संप्रेषित रूप में एक सांस्कृतिक इकाई का स्वरूप ग्रहण कर लेती है। कविता के बारे में एक सामान्य एवं सार्वभौमिक धारणा यह है कि वह सामान्य से हटकर असाधारण अभिव्यक्ति होती है। सामान्य से सामान्य काव्योक्ति में भी असाधारण की उपस्थिति का कोई न कोई प्रयत्न अवश्य होता है; या तो 'वस्तु विधान'के माध्यम से अथवा 'शिल्पगत् चमत्कार'के माध्यम से। इस असाधारणका एक हिस्सा अपने आसपास के सांस्कृतिक परिवेश में अवश्य डूबा रहता है। और अनुवाद को सांस्कृतिक सेतु के रूप में कितना भी प्रशंसित एवं विज्ञापित किया जाए, लेकिन संस्कृतियों के बीच की खाई पाटने के क्रम में अनुवादक द्वारा की गई मशक्कत को सिर्फ अनुवादक ही बता सकता है। इससे भी अधिक दुखद पहलू यह है कि इतनी मशक्कत के बाद अनुवादकों को जो खिताब मिलते हैं, वे हैं- घुसपैठिया, परजीवी और अंततः धोखेबाज-वंचक-गद्दार!

अर्थविन्यास एवं सांस्कृतिक स्थितियों से निपटने के पश्चात् काव्यानुवादकों को जिस तीसरी प्रमुख समस्या से दो-चार होना पड़ता है, वह है- काव्यगत संगीत का पुनर्निर्माण, जिसमें एक ओर बाह्य संगीत के उपकरण लय, छंद, अलंकार आदि होते हैं तो दूसरी ओर आंतरिक संगीत के उपकरण नाद सौंदर्य, तन्मयता आदि।

यदि आंतरिक संगीत की समस्या को कुछ समय के लिए टाल भी दिया जाए तो बाह्य संगीत का अनूदित कृति में संरक्षण अपने आप में बड़ी समस्या है। विविध विद्वानों एवं अनुवादकों में इस बात को लेकर अत्यधिक मतभेद है कि कविता के बाह्य संगीत का संरक्षण और उसकी पुनर्रचना अनूदित कृति में किस प्रकार संभव है? "काव्यानुवाद में अलंकारों का अनुवाद कठिन है। छंदों की स्थिति भी जटिल होती है। एडनो सेंट विसेंट मिले ने बादलेयर का अनुवाद उसी काव्य छंद में किया है। उनका कहना था कि अनुवाद में वही छंद, लय और संगीत होना ज़रूरी है। डारोथी लेयर्स ने भी दांते के अनुवाद में उसी टेरजा राइस का प्रयोग किया है, मगर जॉन सियार्डो की धारणा अलग थी। दांते का अनुवाद करते हुए उन्होंने कहा कि इतालवी छंद अंग्रेजी में नहीं चल सकता। बच्चन ने मैकबेथ और ऑथेलो का अनुवाद हिन्दी की प्रकृति के अनुसार रोला छंद में किया। यहाँ सवाल उठता है कि क्या कविता का अनुवाद गद्य में हो सकता है? मैथ्यू आर्नल्ड का विचार था कि कविता का अनुवाद गद्य में हो सकता है। कार्लाइल तथा लीहंट पद्य का अनुवाद पद्य में ही चाहते हैं। टाइटलर का कहना है कि अनेक कविताओं की मुख्य विशेषता उनकी संगीतात्मकता और लय होती है और इन विशेषताओं को गद्य में नहीं लाया जा सकता।" (अनुवाद पत्रिका, शतक विशेषांक, पृ.10)

वस्तुतः कविता में कल्पना, रस-योजना, छंद-योजना, अलंकार, बिंब-विधान, माधुर्य और लय का परिपाक होता है। गद्य में अनुवाद करने पर मूल रचना की इन विशेषताओं के नष्ट हो जाने का खतरा बना रहता है। यदि अनुवाद इन विशेषताओं के परिचालन में असमर्थ हो जाए तो उसकी प्रासंगिकता, सार्थकता के साथ गुणवत्ता पर भी प्रश्न चिह्न लगते देर नहीं लगेगी।

किंतु कविता का बाह्य संगीत ही उसका सर्वस्व नहीं है। उसका आंतरिक संगीत ही अंततः उसे सार्थक काव्यमयता प्रदान करता है। भाव या विचार की आंतरिक आबद्धता अर्थ से भी परे जिस प्रतीयमान प्रतीति को स्पष्ट करती है वह उसका रूपाकार आंतरिक संगीत है। एक श्रेष्ठ काव्यानुवादक बनने के लिए आवश्यक है कि अनुवादक अनूदित कृति में मूल कृति के आंतरिक संगीत के समरूप आंतरिक संगीत को प्रवाहित करे। इस प्रक्रिया में अनुवादक को एक मायने में पुनर्सर्जना ही करनी पड़ती है।

यह तो निश्चित है कि प्रत्येक मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति को इस आंतरिक संगीत की कुछ न कुछ प्रतीति अवश्य होती है, किंतु क्या हर कोई अपनी उस प्रतीति का पुनर्सृजन कर उसे रागात्मक संगीत में अर्थवत्ता प्रदान करते हुए रूपाकार कर सकता है? इसीलिए "विशिष्ट सर्जनात्मक प्रतिभा से समन्वित मनीषी साहित्यकार ही अनुवाद के क्षेत्र में सफलता की आशा कर सकता है, अनुवाद को कला और सर्जना के साँचे में ढाल सकता है।" ('अनुवाद विज्ञान: सिद्धांत एवं अनुप्रयोग, डॉ नगेन्द्र, पृ.2)

काव्यानुवाद में इतने सारे जोखिमों को देखते हुए कई बार तो इसे सिरफिरों का काम मान लिया जाता है। हम्बोल्ट का यह कहना अनायास नहीं है कि- "सारा अनुवाद कार्य असंभव को संभव बनाने का प्रयास है।" ('अनुवाद विज्ञान: सिद्धांत एवं अनुप्रयोग', डॉ नगेन्द्र, पृ.2)