काव्य का काफ़िला-मीलों चलना है / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
शब्दकोश की सीमाएँ होती हैं। शब्द का वाक्य में प्रयोग-सन्दर्भ, वक्ता, मन: स्थिति, परिस्थिति पर केन्द्रित होता है। रचनाकार का चिन्तन-मनन-मन्थन, अनुभव अर्थ को धार देते हैं। बात केवल सामने बैठे श्रोता या दर्शक की या उस पाठक की है, जिसके लिए हम रच रहे हैं। उसका अनुभव और ग्राह्य शक्ति भी अर्थ के साथ चलती है। कबीर अनपढ़ थे; लेकिन जीवन की पाठशाला का उनका अनुभव वहुत व्यापक था, उनका चिन्तन बहुत गहन था, जो आज भी बड़े-बड़े ज्ञानियों को चकित कर देता है। कवि की भाव-व्यापकता ही उसे आम आदमी से अलग करती है। यदि कहीं उसका निजी दुःख भी है, तो वह इतने व्यापक स्वरूप में उद्घाटित होता है कि हर पाठक को वह अपना दुःख प्रतीत होता है। रसज्ञ काव्य के कितने गहन अर्थ तक पहुँचता है या कौन-से अर्थ को पाठक पकड़ता है, ग्रहण करता है, यह उसकी ग्राह्य-शक्ति और जीवन-दृष्टि पर निर्भर है। यही कारण है कि जब पाठक का अनुभव रचनाकार के अनुभव से और अधिक होता है, तो वह मूल अर्थ से भी और अधिक आगे पहुँच जाता है और यदि पाठक सीमित दायरे में घिरा रहता है, तो वह सृजक द्वारा सम्प्रेषित अर्थ तक नहीं पहुँच सकता है।
काव्य-साधना के लिए निर्मल मन के बिना शब्द-शक्ति और भाव-शक्ति जाग्रत नहीं होती और न इनके अभाव में सहृदय अभिभूत होता है। रचनाकार का परिवेश और अध्ययन, जीवन-अनुभव और सरोकार उसे और अधिक सजग दृष्टि प्रदान करते हैं। विभिन्न कार्य-समूहों, स्थानों (गाँव व नगर) , कार्य-संस्थाओं से जुड़े होने वाले लोगों का जीवन-अनुभव, उनकी संवेदना, विभिन्न प्रकार का अध्ययन एक ही स्थान पर, एक ही कार्यक्षेत्र में उम्र बिताने वालों के अनुभव से अधिक होता है। उदार चिन्तन जहाँ हमें व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करता है, वहीं अनुदारता सोच को संकीर्ण बनाती है। किसी भी तरह प्रसिद्धि प्राप्त करने ले रचना करना और विश्व-कल्याण को ध्यान में रखकर साहित्य-सृजन करना, दोनों ही अलग-अलग कर्म हैं।
परिवेश रचनाकार का निर्माण करता है, वहीं सजग रचनाकार अपने परिवेश को अपने कर्म से सुवासित भी करता है। यहाँ मैं डॉ. कविता भट्ट का उल्लेख करना चाहूँगा। इनका रचनाकर्म गुणवत्ता में किसी से किंचित् भी कम नहीं है। नाम के लिए काम करने वाले बहुत हैं। काम के लिए काम करना चाहिए और अपनी सामाजिक प्रतिबद्धताओं का पूरे मन से निर्वाह करना चाहिए। केवल उम्रदराज़ होना किसी के बड़े होने का निकष नहीं है। मनुस्मृति में कहा भी है-
न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः। ' यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवाः स्थविरं विदुः॥2.156॥
(सिर के बाल सफ़ेद हो जाने से ही कोई मनुष्य वृद्ध नहीं कहा जा सकता; देवगण उसी को वृद्ध कहते हैं जो तरुण होने पर भी ज्ञानवान् हो।) सीखने की प्रवृत्ति और परिवेश की व्यापकता, भाषिक नियन्त्रण रचनाकार को समृद्ध करता है। सामाजिक परिवेश, सांस्कृतिक-चेतना रचनाकार को और अधिक भाव-सम्पन्न बनाते हैं।
मनोभावों में प्रेम जीवन की सबसे बड़ी मृगतृष्णा है। मन इसको प्राप्त करने के लिए जीवनभर कुलाँचे भरता रहता है। मिल जाए, तो प्रतिपल सशंकित रहता है कि कहीं यह हाथ से न निकल जाए। मिलने के बाद हाथ से निकलने की स्थिति में पूरा अस्तित्व क्षत-विक्षत हो जाता है। जितना उसे भूलने का प्रयास किया जाता है, वह बाँस की फाँस की तरह मर्म में करकता रहता है। काव्य में प्रेम की तड़प बहुत-सी कविताओं का विषय है। वह कहीं अतीत के मधुरिम पलों को याद करके जीवन-आनन्द अनुभव करता है, कभी उन पलों को लौटाने की कल्पना करता है। इनके काव्य में अधर, आलिंगन चुम्बन किसी अधूरी प्यास का बयान ही नहीं; बल्कि एक स्वस्थ मन की मूलभूत आवश्यकता है, जिसे छद्म नैतिकता के नीचे कुचल दिया जाता है। इस गहन प्रेम को कोई समझ न सका। प्रिय के सच्चे प्रेम को पाने की ललक, उत्कण्ठा, ज़द्दोज़हद उसके व्यक्तित्व को झकझोर कर रख देती हैं, फिर भी वह हर स्वप्न को सँभालने के लिए प्रयासरत है। अधरों की प्याली हो, जीवन का प्रश्नपत्र और उसका अनिवार्य प्रश्न हो, हाशिये पर प्रेम की नव कल्पना हो कि रोज़मर्रा जिनसे जुड़े हैं, केवल वही प्रेम हो ज़रूरी नहीं। कुछ लोग उस शृंखला से हटकर हाशिये पर होते हैं; परन्तु उस प्रिय के प्रति उनका समर्पण बहुत ज़्यादा होता है। 'चूर-चूर व्यक्तित्व को सँभालने का प्रयास भी जारी है। प्रिय के बिखराव को रोकना, ख़ुद के विश्वास और अस्तित्व को टूटन से बचाने का प्रयास भी कवयित्री का अभिप्रेत है। अधिकतर कविताएँ' मैं 'या' तुम'केन्द्रित हैं। यह ज़रूरी नहीं कि' मैं' में केवल कवयित्री की ही व्यथा-कथा है। वह किसी की भी पीड़ा हो सकती है। यही इनकी व्यापकता है। यहाँ कुछ कविताओं का अवगाहन ज़रूरी है।
प्यार को कवियों ने अनेक रूपों में चित्रित किया है। इनकी छोटी-सी कविता 'अनिवार्य प्रश्न तुम' में जीवन, प्यार, प्रश्नपत्र और अनिवार्य प्रश्नपत्र का नवीन रूपक प्यार की विशद व्याख्या समेटे हुए है, बीज में वटवृक्ष की तरह। यहाँ उसका प्यार परीक्षार्थी की तरह विवश है कि उत्तीर्ण होने के लिए प्रश्न-पत्र कैसे हल किया जाए-
जीवन-प्रश्न पत्र / अनिवार्य प्रश्न तुम / परीक्षार्थी-सा विवश / है मेरा प्यार
समय भी कम है / उत्तीर्ण भी होना है / बताओ तो सही / कहाँ से प्रारम्भ करूँ?
'हाशिए पर प्रेम' प्रेमबीज को स्वप्नजल से सींचना चुम्बनों से उर्वरा करना बेजोड़ कल्पना है। गहन अनुभूति और सशक्त अभिव्यक्ति के कारण इस कविता में प्रेम की नई उद्भावना है-
प्रतिदिन स्वप्नजल से सींचकर, / चुम्बनों से उर्वरा करता रहा / बिन अपेक्षा ही मरुधरा को। —
ऊसरों में बीज बोना गुनाह है क्या? / हाशिए पर प्रेम लिखना बुरा है क्या?
'प्यार लिखूँगी' कविता में चिरयौवना आशा के साथ सर्द हथेली पर प्यार लिखने का संकल्प निहित है। यह तभी सम्भव है जब अपने प्रेम की ऊष्मा पर भरोसा हो। यह भरोसा भी उसी को हो सकता है, जो किसी को निर्मल और निश्छल मन से प्रेम करता हो-
अपनी गर्म उँगलियों से / तुम्हारी सर्द हथेली पर / चिरयौवना आस से नवजीवन का प्यार लिखूँगी।
प्रेम में आडम्बर नहीं चल सकता। जब प्रेम निष्ठुर हो जाता है तो, न प्रेम रहता है, भुजपाश में बँधने की ललक और चुम्बनों की गर्माहट में चेतना नहीं रमती, क्योंकि ये सब मोह के विष-बन्धन हैं। इसी तथ्य को–'अब चेतना रमती नहीं' में आपने गहराई से उकेरा है। सीधी और सरल बात है कि हृदय में प्रेम की गरमाहट न हो तो तन का आकर्षण छीजने लगता है-
प्रेम निष्ठुर हो चुका है, / प्रेमिका अब है ही नहीं। / भुजपाश और चुम्बनों में, / अब चेतना रमती नहीं।
आदमी जीवन की ऊष्मा के लिए तनिक-सा प्रेम चाहता है; पर सब कुछ मिल जाने पर भी पूर्णता से ओत-प्रोत प्रेम नहीं मिल पाता। 'प्रेमपत्र नहीं मिलता' कविता में यही संकेत किया गया है-
कितना भी जीवन खपा लो, अब तो सच्चा मित्र नहीं मिलता,
पलकें झुकीं, अधर थरथराते, चुम्बन धरे; भाव सचित्र नहीं मिलता,
चूर-चूर व्यक्तित्व को सँभालने का प्रयास हर व्यक्ति करता है। बिखराव को रोकने में, ख़ुद को टूटने से बचाने में कठोर प्रयास करना पड़ता है, जो कवि का अभिप्रेत है। -'मैं पानी हूँ' में इसी तरह की एक आश्वस्ति है, जिसमें समय को भी चुनौती दी है-
ओ समय! तुम यदि पत्थर भी हो, / तो कोई बात नहीं।
चलती रहूँगी प्यार से, / तुम्हारी कठोर सतह पर- / धार बनकर।
'यदि तुम रहो प्रिय! साथ में' प्रिय का साथ में होना मन में उमंग भर देता है, तप्त तन को भी सँवार लेना स्वीकार है; जीवन के प्रश्न पत्र के सभी उत्तर दिए जा सकते हैं, लेकिन कब-
चाँद का दर्पण निहारूँ, / तप्त तन को मैं सँवारूँ / यदि तुम रहो प्रिय! साथ में,
प्रश्नपत्र यह जीवन का- / लिख दूँगी उत्तर मन का / यदि तुम रहो प्रिय! साथ में।
'तेरे नैनो की गंगा में' बरसों से जिस अन्तरंग भाव को छुपाकर रखा था, उसको प्रकट करने का साहस किया है-
बरसों से मन में रखा था छिपाकर, / अब जा के कहने का साहस हुआ।
तेरे नैनो की गंगा में डुबकी लगाकर, / काया कंचन हुई मन पारस हुआ।
और पारस बनने तक की यह यात्रा, भोग या विलास की नहीं, बल्कि संयम की यात्रा है-
सुनते थे, प्रेम, वासना है तनों की, / मेरा तन-मन तो प्रेम में तापस हुआ।
'चाँद हथेली पर' नहीं उग सका, क्योंकि विधि का विधान इसमें बाधक था-
अश्रु-जल से बहुत सींची धरा, / रेखाओं की मिट्टी न थी उर्वरा।
'प्रश्नचिह्न अच्छे नहीं लगते...' विशाल सागर भी खारा है, आँसू भी खारे हैं। सागर की एक बूँद पियें या नहीं; लेकिन जीवन के ये खारे आँसू तो पीने पड़ते हैं।
सागर की एक बूँद भी नहीं पीते; / परन्तु आँसू पीना ही पड़ता है।
और आँसुओं का खारापन- / उपहास करता है; हमारा जीवनभर।
'नदी बोल पड़ी' में नदी रचनाकार का अस्तित्व है, जिसे मिटाने का बार-बार प्रयास किया जाता है। जब नदी बोल पड़ती है तो किनारों को चुप रहना पड़ता है-
आज अचानक नदी बोल पड़ी- / ओ किनारे! यदि तुम क्रूर हो।
समय के जैसे- / तो मैं भी प्रबल जलधारा हूँ।
अपने वेग से तुम्हारी सीने पर / अमिट हस्ताक्षर करूँगी-
व्यक्ति की सरलता उसकी प्रवृत्ति है; लेकिन जब उसे दूसरों के साथ व्यवहार करना पड़ता है, जीवन बिताना पड़ता है, तो यही सरलता उसे भारी पड़ती है और व्यथित भी करती है। 'नैनों की भाषा हारी' में इनका भाव-वैभव देखिए-
मेरी सरलता ने मुझे अँधेरों में रखा, / वरना, कोई कमी न थी मुझे उजालों की।
जीवन के सफ़र में निरन्तर संघर्ष करते हुए, विपरीत विचारों और ख़ुद को न समझने वाले व्यक्तियों से आहत होने पर थक जाता है, तो उसे केवल उस गोदी में दो पल चाहिए, जहाँ वह सिर टिकाकर अनुराग को जीवित रखे, खुलकर रो सके, अपने भीतर दबी व्यथा को किसी सच्चे हमदर्द से बाँट सके। सुखद जीवन कल्पना मात्र है, फिर भी उस गोदी में दो पल का चैन तो मिल ही सकेगा। स्पर्श तो केवल उन्माद देता है, सुकून नहीं देता 'मैं काश! तुम्हारी गोदी में' कविता दिल को छू जाती है; क्योंकि उन्माद की बजाय अनतरंग प्रेम की गर्माहट जीवन का दर्द सोखने में सक्षम है-
मैं काश! तुम्हारी गोदी में / सिर रख सिसक-रो पाती।
थक जाती रोते-रोते जब / नैन मूँद सदा को सो जाती।
'तुझे मुझमें डूबना होगा' में यह बात महत्त्वपूर्ण है कि प्यार में तैरने के लिए प्रिय में डूबना, उसको समझना ज़रूरी है, भावों की अतल गहराई तक पहुँचना ज़रूरी है-
बारिश के पानी में; / काग़ज़ की कश्ती-सा, / प्यार से तेरे प्यार को तैराना।
वादा है मेरा। / लेकिन शर्त यह है कि; / तुझे मुझमें डूबना होगा।
'दूर जाते हुए' में स्मृति का वह माधुर्य है, जो अप्राप्य है, फिर भी उसे पाने की उम्मीद की एक किरण मन के किसी कोने में जगी है। सच्चे प्रेम-सम्बन्धों के कारण दोनों की व्यथा एक जैसी है। तथाकथित नैतिकता किसी को कुछ नहीं दे पाती है। यान्त्रिक सम्बन्ध से जुड़कर एक छत के नीचे रहकर भी मन एकाकार नहीं हो पाते हैं, साथ का तात्पर्य है गहन आत्मीयता की पुष्टि, न कि दिखावा-
एक ही छत तले रहते रोबोट; / आकृति-मानव-सी दिखने वाली
मेरे कंधे पर अपनी हथेली से / हमदर्दी का हस्ताक्षर करेगा?
प्रेम कविताओं की मार्मिकता के साथ-साथ हृदय में दृढ़ता का संचार करने वाली काव्य-रचना, सामाजिक सरोकारों के लिए गहन चिन्ता, जन समान्य की पीड़ा को मुखर करने वाली रचनाओं के साथ 'माँ' , मेरी बीमार माँ, द्रुपदा अब भी रोती है, जैसी मार्मिक कविताएँ भी हैं। कवयित्री का काव्य एकांगी न होकर बहुमुखी भावों की पुण्यसलिला है। नई रीत लिखें अब, उगाना चाहती हूँ सपने, मैं हूँ क्योंकि—, मैंने उम्र गुज़ार दी, 'मीलों चलना है' शीर्षक कविता उत्साह का संचार करने वाली और दृढ़ता का विस्तार करने की संकल्प-यात्रा है।
सत्पथ पर ठोकर, प्रतिपल सँभलना है, / चिरनिद्रा से पूर्व मुझे मीलों चलना है।
काव्य की विभिन्न शैली में भी आपने अपनी पहचान बनाई है। हाइकु, ताँका और चोका को इन्होंने ऊँचाई प्रदान की है। भाव और अभिव्यक्ति की दृष्टि से विषयवस्तु में नयापन, अभिव्यक्ति में नूतनता के साथ सहजता इनके ताँका की विशेषताएँ हैं। इस विशेषता को त्रिवेणी के नियमित रचनाकार और पाठक भली प्रकार समझते हैं। प्रेम जीवन की शाश्वत अनुभूति है, जो जड़ से चेतन तक फैली है। इसकी उदात्तता मनुष्य को मानव बनाती है। विकृत मानसिकता वाले इसी प्रेम को वासना या कुण्ठा बना लेते हैं। एक साथ इतने भावपूर्ण ताँका भाव एवं कल्पना की ऊर्ध्व भावभूमि तक ले जाते हैं। भाव-सम्पन्न और गुणात्मक सर्जन करना सृजक को स्थापित करता है। रससिद्ध कवयित्री कविता ने इसे सिद्ध कर दिखाया है। उपमान नए तो हैं ही, भाव-पूरित भी हैं, जैसे-नभ-सी बाहें, मन की खूँटी, मन की दीवारें-
कभी पसारो / बाहें नभ-सी तुम, / मुझे भर लो / आलिंगन में प्रिय / अवसाद हर लो।
उगता रवि / धरा का माथा चूमे / खग-संगीत / मिले ज्यों मनमीत / दिग-दिगन्त झूमे।
ताप-संताप / मिटे हिय के सब, / प्रिय-दर्शन / प्रफुल्ल तन-मन / ज्यों खिले उपवन।
आँखें लिखतीं / मन पर अक्षर / प्रेम-पातियाँ, / उन अध्यायों पर / मैं करूँ हस्ताक्षर।
मन की खूँटी / झूलता फूलदान / तेरी प्रीत का / प्रिय फूल सजाऊँ / नित खिले मुस्कान।
बदले रंग। / मन की दीवारों के, / नहीं बदली / उस पर चिपकी / तेरी तस्वीर कभी।
मन का कोना / उदीप्त-सुवासित / प्रिय प्रेम से! / इत्र नहीं, कपूर;। पूजा के दीपक-सा।
खोले द्वार यूँ / बोझिल पलकों से, / नशे में चूर / कदमों के लिए भी, / मंदिर के जैसे ही।
डॉ. कविता भट्ट के इन ताँका में-नभ-सी बाहें पसारना में 'पसारो' शब्द की व्यापकता फैलाओ में नहीं, आलिंगन द्वारा अवसाद हर लेना (वासना नहीं भाव की शीतलता और सुखानुभूति) , रवि द्वारा धरा का माथा चूमना (प्रकृति का मानवीकरण और दृश्य बिम्ब, दिग-दिगन्त का झूमना भी हर्षोल्लास की अभिव्यक्ति) , प्रिय-दर्शन द्वारा ताप-सन्ताप का मिटना एक सात्त्विक अनुभूति है। आँखों द्वारा मन पर अक्षर लिखकर प्रेम पाती पूरी करती हैं फिर उन पर हस्ताक्षर करके उस भावानुभूति को पुष्ट करना बेहद गहन है। मन की खूँटी पर रूपक की प्रस्तुति और उस पर भी झूलता हुआ (बलपूर्वक टँगा हुआ नहीं) फूलदान, मन की दीवारों पर चिपकी (टँगी हुई नहीं) तस्वीर का न बदलना (चिपकी हुई जो है) , मन के कोने का उद्दीप्त और सुवासित होना, वह भी किसी सस्ते या तीव्रगन्ध वाले बाज़ारू इत्र से नहीं; बल्कि कपूर से सुवासित (सुगन्धित से ऊपर) । प्रिय का प्रेम मर्यादित है। कोई भी चलताऊ जुमलेबाजी यहाँ काम नहीं करती। हुस्ने-जानाँ, जाने-जानाँ जैसी घिसी-पिटी शब्दावली का यहाँ प्रवेश नहीं; क्योंकि प्रिय का वह प्रेम पूजा के दीपक की ज्योति-सा पावन है, आस्था और विश्वास से भरा है, आत्मीयता से परिपूरित है। प्रेयसी का समर्पण इस सीमा तक है कि नशे में चूर / कदमों के लिए भी वह उसी तरह द्वार खोलती है, जैसे कोई आस्थावान् मन्दिर का द्वार खोलता है, पूरे समर्पण भाव से। उपर्युक्त ताँका के भावों की यह एक झलक भर है। यहाँ प्रत्येक ताँका व्यापक अनुभूति लिये हुए है, जिस पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है।
आप हाइकु के क्षेत्र में पहली बार 24 सितम्बर 2014 को अपने इस हाइकु के साथ आई. मकान और घर के अन्तर को बताते हुए दीवारें ढहने की नियति को स्वीकार करते हुए कहती हैं-मकाँ को घर / बनाना चाहते थे / दीवारें ढहीं।
स्वप्न-शृंखला का निरन्तर चलते जाने वैसा ही सुखद लगता है, जैसे अधिक सर्दी में लिहाफ़ की गर्माहट। कवयित्री मन के मीत से मधुर मनुहार करती है कि कभी स्वप्न बनकर ही चले आते; क्योंकि जीवन में वैसे तो साक्षात् मिलन विधि ने प्रदान ही नहीं किया। सपनों की यह गर्माहट प्रकारान्तर से जीवन की ऊष्मा है। ऐसे में जो सुधियाँ मन को लहरों के और भीड़ के रेले की तरह घेरती हैं, ये उन्हीं की हैं जो प्रेम की टीस देकर, कोमल हृदय को छलकर चले गए हैं-
गर्म लिहाफ़ / आँखों में निरन्तर / स्वप्न-शृंखला
मीत मन के / कभी तो आते तुम / स्वप्न बनके.
उमड़े रेले / उनकी सुधियों के / छलिया हैं जो।
कोहरे को आपने नई उद्भावना के साथ प्रस्तुत किया है। जब कोहरा छाया हो तो प्रेमी के संग अठखेलियाँ करते हुए 'कोई देख न ले' यह झिझक नहीं रहती। कोहरा अपनी कम दृश्यमानता के कारण प्रेमी-प्रेमिका के लिए सकारात्मक आत्मीय और अन्तरंग अवसर प्रदान करता है। कुछ शब्दों के छोटे से कलेवर में शृंगार का अभिभूत करने वाला इतना सौन्दर्य भर देना सरल कार्य नहीं। यही वह भाषा-शक्ति है, जो निरन्तर गहन अध्ययन और पर्यवेक्षण से मिलती है। चिट्ठी पाने के लिए डाकिए की प्रतीक्षा बहुत आतुरता से की जाया करती थी। अब नया ज़माना आ गया। उस डाकिए की प्रतीक्षा नहीं रह गई. कविता ने आँखों के लिए 'डाकिया आँखें' नितान्त नूतन, मसृण-भाव पूरित शब्द का प्रयोग किया है। वह प्रतीक्षा ही करती रह जाती है; लेकिन कोई मन के लिखे उन खतों को प्रिय पढ़ता ही नहीं। उसके प्रेम को वह अनुभव ही नहीं करता। इस प्रयोग की जितनी भी व्याख्या की जाए कम है। चाय की प्याली को खूबसूरत प्रतीक रूप में 'अधर धरो' पंक्ति से जोड़कर प्रेम की गर्माहट को पेश किया है-
कोहरा ढक ले / अठखेलियाँ सारी / प्रिय-संग की।
डाकिया आँखें / मन के ख़त भेजें / प्रिय न पढ़े।
सर्द न होना / चाय की प्याली जैसे / अधर धरो।
ये तीन हाइकु केवल हाइकु नहीं, वरन् किसी कुशल कैमरा मैन द्वारा लिये गए स्नैपशॉट प्रतीत होते हैं। कवयित्री ने किसी बाज़ारू प्रेम को अपना विषय नहीं बनाया। वह प्रेम तो प्रणव (ओम्) की तरह साँसों में समाया है, रन्ध्र-कूपों को सींचने वाला है। वह तो निरन्तर तपश्चर्या में निमग्न योगिनी की तरह है और उसका प्रिय साधारण नहीं, उच्छृंखल नहीं, वरन् योगीश्वर है। उदात्त प्रेम का इससे सुन्दर उदाहरण क्या होगा। बड़े से बड़े गीत में जो बात नहीं कही जा सकती वह 17 वर्णों अर्थात् छह शब्दों में सम्प्रेषित कर दी। इस तरह की भाषा होने पर ही हाइकु 'मन्त्र सिद्ध' हो सकेगा।
तुम प्रणव / मैं श्वासों की लय हूँ / तुम्हें ही जपूँ।
प्रतीक्षारत / तापसी योगिनी मैं / तू योगीश्वर!
जो सच्चा प्रेमी है, वही सच्चा पारखी हो सकता है। वही पत्थर और हीरे के भेद कि समझ सकता है। यह प्रेमपूरित दृष्टि ही उसे पहचान सकती है। शिल्पी का भी कमाल है कि वह अपने मन के स्वरूप को प्रस्तर-खण्ड में मूर्त्तिमान् कर दे।
पाहन हूँ मैं / तुम हीरा कहते / प्रेम तुम्हारा।
तुम हो शिल्पी / प्रतिमा बना डाली / मैं पत्थर थी।
ये कुछेक उदाहरण है। बहुतों के कई-कई संग्रह छप गए, तब भी ऐसे चार हाइकु उनके पास नहीं मिलेंगे।
प्रिय का स्पर्श वैसा ही सुखद है जैसे किसी भिखारी को ठिठुराती शीत में गर्माहट देने के लिए कम्बल मिल जाए. प्रिय के आने की असीम उत्कण्ठा और लालसा इतनी अधिक हैं कि जैसे कोई लिहाफ़ मिल गया हो। मिलन की व्याकुलता में साँसें दहक उठी हैं अर्थात् साँसों में गहन उत्तेजना भर गई है, मिलन की अधीरता बढ़ गई है।
स्पर्श तुम्हारा / भिखारी को कम्बल / शीत-प्रतीक्षा।
तुम्हारा आना / सर्दी में लिहाफ-सा / साँसें दहकीं।
प्रिय तो नहीं पहुँचता। प्रिया प्रतीक्षारत रही और सारा सौन्दर्य विगलित हो गया। यौवन-सम्पन्ना श्वेतकेशा में परिवर्तित हो गई-
हुआ विलम्ब / तुम्हें आने में प्रिय / श्वेतकेशा मैं।
कोई पढ़े न पढ़े, पीड़ा जाने न जाने, महसूस करे या न करे; लेकिन सच्ची प्रिया वही है, जो हृदय में छपी व्यथा को बाँचने की क्षमता रखती हो, जो गहन संवेदना की धनी हो-
मैं ही बाँचूँगी / पीर-अक्षर पिय, / जो तेरे हिय।
वियोग में जीवन भर अँगीठी की तरह सुलगती रही, फिर भी मन क्यों सीला रह गया! बहुत मार्मिक व्यंजना विरह में सुलगने के साथ निरन्तर अश्रु धारा बहती रही, इसीलिए सुलगते रहने पर भी मन का सीलापन दूर नहीं हुआ। विप्रलम्भ शृंगार की बहुत ही मार्मिक अभिव्यंजना की गई है। 'सुलगना' शब्द में व्यथा की निरन्तरता बनी हुई है। जलना कुछ पल का; लेकिन सुलगना बरसों-बरस, अहर्निश-
जीवन भर / अँगीठी-सी सुलगी / मन क्यों सीला।
नारी के नयनों में, वक्ष में ममता के अमृत का अजस्र स्रोत अवस्थित है, फिर भी इस हृदयहीन संसार में उसका उत्पीड़न कम नहीं होता। इस हाइकु में 'नैन' और 'वक्ष' शब्दों का व्यापक अर्थ है। यही सफल हाइकुकार की क्षमता है, जिसकी सिद्धि शब्द-जाल से सम्भव नहीं-
ममता फूटे / नैनों और वक्षों से / क्यों उत्पीड़न।
इनका चोका-सृजन भी बेजोड़ है। ओ माँ! आद्या प्रकृति, प्रेम-अँजुरी, इस बरस अब से कुछ अंश यहाँ पर दे रहा हूँ—निज चिन्ताएँ / और उद्वेग सभी / तुझको सौंपे / वर सदैव / अनंत चुम्बन भी / मेरे मस्तक / धरे तूने नित माँ -प्रेम-अँजुरी / किन्तु यह क्या मिला! / तुम सदैव / सशंकित, क्रुद्ध ही—-नहीं जानती / तप जिससे होओ / तुम प्रसन्न / जबकि मैं तो प्रिय / हूँ प्रेम-तपस्विनी! -बाट तिहारी / मधुमास निहारे / मन-आँगन / दहकते अंगारे / तन-चंदन / सुलगाएँ फुहारें / होम अग्नि में / ज्यों घृत हो द्रवित / ये कौन कहे / कि तन की है ज्वाला, / यह बन्धन / मन से मन का रे! / अधरों पर / यों अधरों की प्याली / मैं रूक्ष धरा / तू बदली निराली / बरस जा ना! / इस बरस अब / मैं जनमों की / पिया रही हूँ प्यासी / युगों-युगों से / बैठी नैन सँजोए / सभी स्वप्न गुलाबी!
आपकी भाषा में एक सांस्कृतिक सुगन्ध है, वैदिक चिन्तन का मुग्धकारी भावात्मक स्पर्श है-जैसे आद्या प्रकृति, होम, घृत, प्रणव, आदि। जापान की इस काव्य शैली को पूर्णरूपेण भारतीय परिवेश और चिन्तन में गूँथकर सरस बना दिया है। इनके हाइकु आदि काव्य में बिम्ब, प्रतीक, विशेषण विपर्यय सहज भाव से आए हैं, जो भाव को और अधिक सम्प्रेष्य बना देते हैं। काव्य का कोई भी प्रकार हो, वह शब्द की सीमा से परे होता है। केवल शब्दों में उलझा शब्दकोश का अर्थ कभी काव्य नहीं बन सकता। अच्छे काव्य का अर्थ सदैव शब्दों के अभिधेय अर्थ का अतिक्रमण करता है। हाइकु, ताँका, सेदोका, चोका आदि जापानी कविताएँ होने पर भी हमारी भारतीय काव्यशास्त्रीय परम्परा के साथ हमारे समाज का दर्पण भी हैं। नवीन उपमान इनको और उत्कृष्ट बनाते हैं। इनकी रचनाओं की मौलिक उद्भावनाओं का यही सौरभ इन्हें अपने समकालीनों से अलग करता है।
अभी यात्रा शुरू हुई है। मीलों चलना है। पथ में पर्वत-घाटी भी आएँगे, पुष्पित उपवन और कण्टक-वन भी। प्यार करने वाले भी, ईर्ष्या द्वेष करने वाले भी। सबको पार करते हुए इनके काव्य का काफ़िला आगे बढ़ता जाएगा। भविष्य में इनका काव्य-सृजन हिन्दी-जगत् को और ऊँचाई प्रदान करेगा, मेरा ऐसा विश्वास है।