काव्य की भाषा / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल
काव्य की भाषा / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल
कविता में कही गई बात चित्र रूप में हमारे सामने आनी चाहिए। यह हम पहले कह आए हैं। अत: उसमें गोचर रूपों का विधान अधिक होता है। वह प्राय: ऐसे रूपों और व्यापारों को ही लेती है जो स्वाभाविक होते हैं और संसार में सबसे अधिक मनुष्यों को सबसे अधिक दिखाई पड़ते हैं।
अगोचर बातों या भावनाओं को भी, जहाँ तक हो सकता है, कविता स्थूल गोचर रूप में रखने का प्रयास करती है। इस मूर्तिविधान के लिए वह भाषा की लक्षणा शक्ति से काम लेती है। जैसे 'समय बीता जाता है' कहने की अपेक्षा 'समय भागा जाता है' कहना वह अधिक पसंद करेगी। किसी काम से हाथ खींचना, किसी का रुपया खा जाना; कोई बात पी जाना, दिन ढलना या डूबना, मन मारना, मन छूना, शोभा बरसना, उदासी टपकना इत्यादि ऐसी ही कविसमयसिद्ध उक्तियाँ हैं जो बोलचाल में रूढ़ि होकर आ गई हैं। लक्षणा द्वारा स्पष्ट और सजीव आदान प्रदान का विधान प्राय: सब देशों के कविकर्म में पाया जाता है। कुछ उदाहरण देखिए-
(क) धान्य भूमि वनपंथ पहारा।
जहँ जहँ नाथ पॉंवतुम धारा ॥ - तुलसी ।
(ख) मनहु उमगि अँग अँग छवि छलकै । - तुलसी।
(ग) चूनरि चारु चुई सी परै A
(घ) बनन में बागन में बगरो बसंत है । - पद्माकर।
(ङ) वृंदाबन बागन पै बसंत बरसो परै । - पद्माकर।
(च) हौं तो स्याम रंग में चोराय चित चोराचोरी ,
बोरत तो बोरयो पै निचोरत बनै नहीं । - पद्माकर।
(छ) एहो नंदलाल! ऐसी व्याकुल परी है बाल ,
हाल ही चलौ तौ चलौ , जोरे जुरि जायगी A
कहैं पद्माकर नहीं तौ ये झकोरे लगे ,
औरै लौं अचाका बिनु घोरे घुरि जायगी A
तौ ही लगि चैन जौ लौं चेतिहै न चंदमुखी,
चेतैगी कहूँ तौ चाँदनी में चुरि जायगी A
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि वस्तु या तथ्य के पूर्ण प्रत्यक्षीकरण तथा भाव या मार्मिक अंतर्वृत्ति के अनुरूप व्यंजना के लिए लक्षणा का बहुत कुछ सहारा कवि को लेना पड़ता है।
भावना को मूर्त रूप में रखने की आवश्यकता के कारण कविता की भाषा में दूसरी विशेषता यह रहती है कि उसमें जाति संकेतवाले शब्दों की अपेक्षा विशेष-रूप-व्यापार-सूचक शब्द अधिक रहते हैं। बहुत से ऐसे शब्द होते हैं जिनसे किसी एक का नहीं बल्कि बहुत से रूपों या व्यापारों का एक साथ चलता सा अर्थग्रहण हो जाता है। ऐसे शब्दों को हम जाति संकेत कह सकते हैं। ये मूर्तविधान के प्रयोजन के नहीं होते। किसी ने कहा 'वहाँ बड़ा अत्याचार हो रहा है'। इस अत्याचार शब्द के अंतर्गत मारना, पीटना, डॉंटना, डपटना, लूटना, पाटना इत्यादि बहुत से व्यापार हो सकते हैं, अत: 'अत्याचार' शब्द के सुनने से उन सब व्यापारों की एक मिली जुली अस्पष्ट भावना थोड़ी देर के लिए मन में आ जाती है; कुछ विशेष व्यापारों का स्पष्ट चित्र या मूर्त रूप नहीं खड़ा होता। इससे ऐसे शब्द कविता के उतने काम के नहीं। ये तत्वरनिरूपण, शास्त्री यविचार आदि में ही अधिक उपयोगी होते हैं। भिन्न भिन्न शास्त्रोंए में बहुत से शब्द तो विलक्षण ही अर्थ देते हैं और पारिभाषिक कहलाते हैं। शास्त्रमीमांसक और तत्वबनिरूपक को किसी सामान्य तथ्य या तत्व तक पहुँचने की जल्दी रहती है इससे वह किसी सामान्य धर्म के अंतर्गत आनेवाली बहुत सी बातों को एक मानकर अपना काम चलाता है, प्रत्येक का अलग अलग दृश्य देखने दिखाने में नहीं उलझता।
पर कविता कुछ वस्तुओं और व्यापारों को मन के भीतर मूर्त रूप में लाना और प्रभाव उत्पन्न करने के लिए कुछ देर रखना चाहती है। अत: उक्त प्रकार के व्यापक अर्थसंकेतों से ही उसका काम नहीं चल सकता। इससे जहाँ उसे किसी स्थिति का वर्णन करना रहता है वहाँ वह उसके अंतर्गत सबसे अधिक मर्मस्पर्शिनी कुछ विशेष वस्तुओं या व्यापारों को लेकर उनका चित्र खड़ा करने का आयोजन करती है। यदि कहीं के घोर अत्याचार का वर्णन करना होगा तो वह कुछ निरपराध व्यक्तियों के वध, भीषण यंत्रणा, स्त्री बच्चों पर निष्ठुर प्रहार आदि का क्षोभकारी दृश्य सामने रखेगी। 'वहाँ घोर अत्याचार हो रहा है' इस वाक्य द्वारा वह कोई प्रभाव नहीं उत्पन्न कर सकती। अत्याचार शब्द के अंतर्गत न जाने कितने व्यापार आ सकते हैं, अत: उसे सुनकर या पढ़कर संभव है कि भावना में एक भी व्यापार स्पष्ट रूप से न आए या आए भी तो ऐसा जिसमें मर्म को क्षुब्ध करने की शक्ति न हो।
उपर्युक्त विचार से ही किसी व्यवहार या शास्त्र के पारिभाषिक शब्द भी काव्य में लाए जाने योग्य नहीं माने जाते। हमारे यहाँ के आचार्यों ने पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग को 'अप्रतीत्व' दोष माना है। पर दोष स्पष्ट होते हुए भी चमत्कार के प्रेमी कब मान सकते हैं? संस्कृत के अनेक कवियों ने वेदांत, आयुर्वेद, न्याय के पारिभाषिक शब्दों को लेकर बड़े बड़े चमत्कार खड़े किए हैं या अपनी बहुज्ञता दिखाई है। हिन्दी के किसी मुकदमेबाज कविता कहनेवाले ने 'प्रेमफौजदारी' नाम की एक छोटी सी पुस्तक में श्रृंगार रस की बातें अदालती कार्रवाइयों पर घटाकर लिखी है। 'एकतरफा डिगरी', 'तनकीह' ऐसे ऐसे शब्द चारों ओर अपनी बहार दिखा रहे हैं, जिन्हें सुनकर कुछ अशिक्षित या भद्दी रुचिवाले वाह वाह भी कर देते हैं।
शास्त्र के भीतर निरूपित तथ्य को भी जब कोई कवि अपनी रचना के भीतर लेता है तब वह पारिभाषिक तथा अधिक व्याप्तिवाले जातिसंकेत शब्दों को हटाकर उस तथ्य को व्यंजित करनेवाले कुछ विशेष मार्मिक रूपों और व्यापारों का चित्रण करता है। कवि गोचर और मूर्त रूपों के द्वारा ही अपनी बात कहता है। उदाहरण के लिए गोस्वामी तुलसीदासजी के ये वचन लीजिए-
जेहि निसि सकल जीव सूतहिं तब कृपापात्र जन जागै।
इसमें माया में पड़े हुए जीवन की अज्ञानदशा का काव्यपद्धति पर कथन है। और देखिए, प्राणी आयु भर क्लेश निवारण और सुखप्राप्ति का प्रयास करता रह जाता है और कभी वास्तविक सुख शांति प्राप्त नहीं करता, इस बात को गोस्वामीजी यों सामने रखते हैं-
डासत ही गई बीति निसा सब, कबहुँ न नाथ ! नींद भरि सोयो।
भविष्य का अज्ञान अत्यंत अद्भुत और रहस्यमय है जिसके कारण प्राणी आनेवाली विपत्ति की कुछ भी भावना न करके अपनी दशा में मग्न रहता है। इस बात को गोस्वामीजी ने 'चरै हरित तृन बलिपसु' इस चित्र द्वारा व्यक्त किया है। अँगरेज कवि पोप ने भी भविष्य के अज्ञान का यही मार्मिक चित्र लिया है, यद्यपि उसने इस अज्ञान को ईश्वर का बड़ा भारी अनुग्रह कहा है-
उस बलिपशु को देख आज जिसका तू, रे नर !
अपने रँग में रक्त बहाएगा बेदी पर !
होता उसको ज्ञान कहीं तेरा है जैसा ,
क्रीड़ा करता कभी उछलता फिरता ऐसा?
अंतकाल तक हरा हरा चारा चभलाता।
हनन हेतु उस उठे हाथ को चाटे जाता।
आगम का अज्ञान ईश का परम अनुग्रह 1 ॥
बातचीत में भी जब किसी को अपने कथन द्वारा कोई मार्मिकता का प्रभाव
1. The lamb thy riot dooms to bleed today
Had he thy reason, would he skip and play?
Pleased to the last he crops the flow’ry food’
And licks the hand just raised to shed his blood,
The blindness to the future kindly given.
—Essay on Man.
उत्पन्न करना होता है तब वह इसी पद्धति का अवलम्बन करता है। यदि अपनी पत्नी पर अत्याचार करनेवाले किसी व्यक्ति को उसे समझाना है तो वह कहेगा कि
'तुमने इसका हाथ पकड़ा है'; यह न कहेगा कि 'तुमने इसके साथ विवाह किया है'। 'विवाह' शब्द के अंतर्गत न जाने कितने विधिविधान हैं जो सबके सब एकबारगी मन में आ भी नहीं सकते और उतने व्यंजक या मर्मस्पर्शी नहीं होते। अत: कहने वाला उनमें से जो सबसे अधिक व्यंजक और स्वाभाविक व्यापार 'हाथ पकड़ना' है, जिससे सहारा देने का चित्र सामने आता है, उसे भावना में लाता है।
तीसरी विशेषता कविता की भाषा में वर्णविन्यास की है। 'शुष्को वृक्षस्तिष्ठत्यग्रे ' और 'नीरसतरुरिह विलसति पुरत:' का भेद हमारी पंडितमंडली में बहुत दिनों से प्रसिद्ध चला आता है। काव्य एक बहुत ही व्यापक कला है। जिस प्रकारर् मूर्तविधान के लिए कविता चित्र विद्या की प्रणाली का अनुसरण करती है उसी प्रकार नादसौष्ठव के लिए वह संगीत का कुछ कुछ सहारा लेती है। श्रुतिकटु मानकर कुछ वर्णों का त्याग, वृत्तविधान, लय, अंत्यानुप्रास आदि नादसौंदर्य साधन के लिए ही हैं। नादसौष्ठव के निमित्त निरूपित वर्णविशिष्टता को हिंदी के हमारे कुछ पुराने कवि इतनी दूर तक घसीट ले गए कि उनकी बहुत सी रचना बेडौल और भावशून्य हो गई। उसमें अनुप्रास की लंबी लड़ी-वर्णविशेष की निरंतर आवृत्ति-के सिवा और किसी बात पर ध्याउन नहीं जाता। जो बात भाव या रस की धारा का मन के भीतर अधिक प्रसार करने के लिए थी, वह अलग चमत्कार या तमाशा खड़ा करने के लिए काम में लाई गई।
नादसौंदर्य से कविता की आयु बढ़ती है। तालपत्रा, भोजपत्रा, कागज आदि का आश्रय छूट जाने पर भी वह बहुत दिनों तक लोगों की जिह्वा पर नाचती रहती है। बहुत सी उक्तियों को लोग, उनके अर्थ की रमणीयता इत्यादि की ओर ध्यातन ले जाने का कष्ट उठाए बिना ही प्रसन्नचित्त रहने पर गुनगुनाया करते हैं। अत: नादसौंदर्य का योग भी कविता का पूर्ण स्वरूप खड़ा करने के लिए कुछ न कुछ आवश्यक होता है। इसे हम बिलकुल हटा नहीं सकते। जो अंत्यानुप्रास को फालतू समझते हैं, वे छंद को पकड़े रहते हैं, जो छंद को भी फालतू समझते हैं, वे लय में ही लीन होने का प्रयास करते हैं। संस्कृत से संबंध रखनेवाली भाषाओं में नाद-सौंदर्य के समावेश के लिए बहुत अवकाश रहता है। अत: अँगरेजी आदि अन्य भाषाओं की देखादेखी, जिनमें इसके लिए कम जगह है, अपनी कविता को हम इस विशेषता से वंचित कैसे कर सकते हैं?
हमारी काव्यभाषा में एक चौथी विशेषता भी है जो संस्कृत से ही आई है। वह यह है कि कहीं कहीं व्यक्तियों के नामों के स्थान पर उनके रूप, गुण या कार्यबोधक शब्दों का व्यवहार किया जाता है। ऊपर से देखने में तो पद्य के नपे हुए चरणों में शब्द खपाने के लिए ही ऐसा किया जाता है, पर थोड़ा विचार करने पर इससे गुरुतर उद्देश्य प्रकट होता है। सच पूछिए तो यह बात कृत्रिमता बचाने के लिए की जाती है। मनुष्यों के नाम यथार्थ में कृत्रिम संकेत हैं, जिनसे कविता की पूर्ण परिपोषकता नहीं होती। अतएव कवि मनुष्यों के नामों के स्थान पर कभी कभी उनके ऐसे रूप, गुण या व्यापार की ओर इशारा करता है जो स्वाभाविक और अर्थगर्भित होने के कारण सुननेवाले की भावना के निर्माण में योग देते हैं। गिरिधर, मुरारि, त्रिपुरारि, दीनबंधु चक्रपाणि, मुरलीधर, सव्यसाची इत्यादि शब्द ऐसे ही हैं।
ऐसे शब्दों को चुनते समय इस बात का ध्या,न रखना चाहिए कि वे प्रकरण विरूद्ध या अवसर के प्रतिकूल न हों। जैसे, यदि कोई मनुष्य किसी दुर्धर्ष अत्याचारी के हाथ से छुटकारा पाना चाहता हो तो उसके लिए 'हे गोपिकारमण ! हे वृंदावन बिहारी !' आदि कहकर कृष्ण को पुकारने की अपेक्षा 'हे मुरारि ! हे कंसनिकंदन !' आदि संबोधनों से पुकारना उपयुक्त है; क्योंकि श्रीकृष्ण के द्वारा कंस आदि दुष्टों का मारा जाना देखकर उनसे अपनी रक्षा की आशा होती है, न कि उनका वृंदावन में गोपियों के साथ विहार करना देखकर। इसी तरह किसी आपत्ति से उद्धार पाने के लिए कृष्ण को 'मुरलीधर' कहकर पुकारने की अपेक्षा 'गिरिधर' कहना अधिक अर्थसंगत है।