काव्य भवन का सूना कमरा / जयप्रकाश चौकसे

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काव्य भवन का सूना कमरा
प्रकाशन तिथि :17 अगस्त 2017


पंद्रह अगस्त 1947 को देश के स्वतंत्र होने की खुशी के साथ विभाजन का गम भी शामिल था। इस वर्ष भी आज़ादी का जश्न मनाते समय ही चंद्रकांत देवताले ( चंद्रकांत देवताले की रचनाये / कविताये आप यहाँ पढ़ सकते है ) के निधन की खबर आई। हिंदी काव्य भवन का एक कमरा अब हमेशा के लिए खाली रहेगा। जैसा कवि अंबुज ने कहा कि इस भवन में खाली कमरों की संख्या भरे हुए कमरों से कहीं अधिक होती जा रही है। बाजार कविता को खारिज करना चाहता है,क्योंकि कविता पढ़ने मात्र से व्यक्तित्व में उजास फैल जाता है, जो बाजार की रंग-बिरंगी रोशनियों पर भारी पड़ता है। बाजार की जगमग-जगमग करती रोशनी से आंखें चौधियां जाती हैं,जबकि काव्य का उजास मन के तम को कम करता है और आत्मा में ताप समा जाता है।

प्राय: सृजन क्षेत्र में जिस तेवर से कवि प्रारंभ करता है, समय उसे भोथरा करता जाता है और उम्रदराज होते-होते कवि स्वयं का कार्टून बन जाता है परंतु चंद्रकांत देवताले ने अपने तेवर हमेशा यथावत रखे। उनकी तलवार पर कभी जंग नहीं लगा और उन्होंने उसे कभी म्यान में भी नहीं रखा। उनकी कविता 'उजाड़ में संग्रहालय' की अंतिम पंक्तियां हैं, 'कल सुबह स्वतंत्रता दिवस पर झंडा फहराने के बाद, जो कुछ भी कहा जाएगा, उसे बर्दाश्त करने की ताकत मिले सबको मैं शायद कुछ ऐसा ही बुदबुदा रहा हूं।' उनका निधन भी झंडा फहराने के समय के आस-पास ही हुआ है। वादों पर भरोसा करते रहने की भी एक सीमा होती है। इस बार का संबोधन चंद्रकांत देवताले के लिए सुनना शायद संभव नहीं था। वे मरे नहीं, उनके बर्दाश्त की हद हो चुकी थी। हम सब बर्दाश्त कर रहे हैं, इसीलिए शायद जी भी रहे हैं।

उनके अवचेतन के कैलेंडर में 15 अगस्त की तारीख सुर्ख अंक के रूप में दर्ज थी। इसी पर एक और कविता की कुछ पंक्तियां इस तरह है, 'इस खुशनुमा उत्सव में,विस्मृत महात्मा की कब्र खोद रहे हैं हत्यारे, और करोड़ों लोग आज़ादी में गिरफ्तार मौन खड़े हैं।' भावी पीढ़ियों के लिए उनके मन में गहरी चिंता थी, 'किस तरह होती जा रही है दुनिया, कैसा छोड़कर जाऊंगा मैं, बच्चों और तुम्हारे बच्चों को, इस कांटेदार भूलभुलैया में….कारखाने जरूरी हैं, कोई अफसोस नहीं, आदमी आकाश में सड़कें बनाए कोई दिक्कत नहीं।' इसी कविता की एक और पंक्ति है, 'मैं कारखानों में फंसी आवाज़ों के बिस्तर पर नहीं मरूंगा।' यह उनके लिए कितना कष्टदायी रहा होगा कि संभवत: वे लोकसभा में गूंजती आवाजों के बिस्तर पर मरे।

मध्यप्रदेश के बैतूल जिले के गांव जौलखेड़ा में उनका जन्म 7 नवंबर 1936 को हुआ। उस समय हिटलर युद्ध की तैयारी कर रहा था। उस दौर में प्रचार को साहित्य का दर्जा दिया जाने लगा था। आज के प्रचंड प्रचार का वह पहला स्वर्ण युग था। आज तो प्रचार से लगता है कि भारत में बने घरों में शौचालय होना कोई ताज़ा खोज है। समाज के चिंतक हेमचंद्र पहारे के दादा ने खंडवा जैसे छोटे शहर में 1922 में घर बनाया था, जिसमें शौचालय था और खंडवा से भी छोटे बुरहानपुर में बसंतलाल के घर में दो शौचालय थे। ऐसा भी कहीं नहीं लिखा है कि पांडव-कौरव खुले में निवृत्त होते थे। इस दौर में नए अन्वेषण से जरूरी है किसी पुरातन खोज को नया नाम देकर उसे अपना मौलिक विचार बनाएं। जाने चांद-सूरज उस सोच से कब तक बचे रहेंगे। ऐसे भी एक मज़हब ने चांद और दूसरे ने सूर्य पर अपना हक जमाया हुआ है। तारों की संख्या बहुत बड़ी है और दूरी भी बहुत है अत: उन्हें बख्शा गया है। शैलेन्द्र ने 'सीमा' के लिए गीत लिखा था, 'सुनो छोटी-सी गुड़िया की लंबी कहानी, तारों की बात सुने रात सुहानी।'

चंद्रकांत देवताले ने कई वर्ष पूर्व कविता लिखी थी, जिसका शीर्षक था 'चौदह अगस्त।' वह कविता थी, 'पुराने उम्रदराज दरख्तों से छिटकती छालें, कब्र पर उगी ताज़ा घास पर गिरती हैं, अतीत चौकड़ी भरते हिरण की तरह, मुझमें से होते हुए भविष्य में छलांग लगाता है, मैं उजाड़ में एक संग्रहालय हूं, हिरण की खाल और एक शाही वाघ को, चमका रही है उतरती हुई छूप, पुरानी तस्वीरें मुझ पर तोप की तरह तनी हैं, भूख की छायाओं और चीखों के टुकड़ों को दबोचकर, नरभक्षी शेर की तरह सजाधजा बैठा है जीवित इतिहास, कल सुबह झंडा फहराने के बाद जो कुछ भी कहा जाएगा, उसे बर्दाश्त करने की ताकत मिले सबको।' चंद्रकात देवताले ने होश संभालते ही शायद तय कर लिया था कि वे चौदहपंद्रह अगस्त की दरमियानी रात को देह त्याग देंगे।

कवि को भूतकाल, वर्तमान और भविष्य एक साथ नज़र आते हैं। समय की नदी के हर मोड़ से वे वाकिफ होते हैं। उनके हृदय में ही सारी नदियों के उद्‌गम और समुद्र में जा मिलने के स्थान मौजूद होते हैं। कवि अब एक लुप्तप्राय: प्रजाति है। बहीखाते पर शुभ-लाभ और लाभ-शुभ लिखा जाता है, कविता नहीं लिखी जाती। यह संभव है कि बनिये हुक्मरान पर महाकाव्य किसी बहीखाते पर ही लिखा जाए।