काव्य में असाधारणत्व / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल
काव्य में असाधारणत्व / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल
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काव्य में असाधारणत्व वहीं अपेक्षित होता है जहाँ भावों का अत्यंत उत्कर्ष दिखाना होता है। इस उत्कर्ष के लिए कहीं-कहीं असाधारणत्व पहले विभाव में प्रदर्शित होकर भाव (स्थायी) के उत्कर्ष का कारणस्वरूप होता है। जैसे श्रृंगार के आलम्बन के अत्यंत सौंदर्य, करुणा के आलम्बन के अत्यंत दु:ख,रौद्र के आलम्बन की अतिशय दु:साध्यंता इत्यादि द्वारा आश्रय के भावों के उत्कर्ष के लिए हेतु प्रस्तुत किया जाता है। पर आगे चलकर दिखाया जायगा कि भावों के उत्कर्ष के लिए भी सर्वत्र आलम्बन का असाधारणत्व अपेक्षित नहीं होता। साधारण से साधारण वस्तु हमारे गंभीर से गंभीर भावों का आलम्बन हो सकती है। साहचर्यजन्य प्रेम कितना बलवान् होता है उसमें प्रवृत्तियों को लीन करने की कितनी शक्ति होती है, सब लोग जानते हैं,पर वह असाधारणत्व पर अवलम्बन नहीं होता। जिनका हमारा लड़कपन में साथ रहा है, जिन पेड़ों के नीचे, टीलों पर, जिन नदी नालों के किनारे हम अपने साथियों को लेकर बैठा करते थे उनके प्रति हमारा प्रेम जीवन भर स्थायी होकर बना रहता है। अत: चमत्कारवादियों की यह समझ ठीक नहीं कि जहाँ असाधारणत्व होता है वहीं इसका परिपाक होता है, अन्यत्र नहीं।
प्रसंगप्राप्त साधारण असाधारण सभी वस्तुओं का वर्णन कवि कार कर्त्तणव्य है। काव्यक्षेत्र अजायबखाना या नुमाइशगाह नहीं है। जो सच्चा कवि है उसके द्वारा अंकित साधारण वस्तुएँ भी मन को तल्लीन करनेवाली होती हैं। साधारण के बीच में यथास्थान असाधारण की योजना करना सहृदय और कलाकुशल कवि का काम है। साधारण असाधारण अनेक वस्तुओं के मेल से एक विस्तृत और पूर्ण चित्र संघटित करनेवाले ही कवि कहे जाने के अधिकारी हैं। साधारण के बीच में ही असाधारण की प्रकृत अभिव्यक्त हो सकती है। साधारण से ही असाधारण की सत्ता है। अत: केवल वस्तु के असाधारणत्व या व्यंजनप्रणाली के असाधारणत्व में ही काव्य समझ बैठना अच्छी समझदारी नहीं।1
इसी प्रकार की एकांगदर्शिता के कारण कवि-कर्मक्षेत्र से सहृदयता धक्के देकर निकाल दी गई और कवि का कर्मक्षेत्र जीवन के कर्जक्षेत्र से काटा जाने लगा। फालतू कल्पना बुद्धि-जो संसार के किसी काम की न ठहरी-कविता के मैदान में दखल जमाने लगीं। जो कल्पना भर के प्राणियों तक के दु:ख को इस रूप में न उपस्थित कर सकी कि हृदय द्रवीभूत होने का कुछ अभ्यास प्राप्त करता, उसे उस क्षेत्र में घुसने की राह क्या खुला खेलने के लिए मैदान मिल गया, जिसमें विश्वउ की अनुभूति को प्रत्यक्ष करनेवाली महती कल्पनाएँ अपना विकास दिखाती आती थीं। एक कविजी किसी राजा के सुयश की फैलती हुई सफेदी से घबराकर कहते हैं-
यथा यथा ते सुयशोऽभिवर्द्धते सितां त्रिलोकीमि व कर्त्त मुद्यतम्।
तथा तथा मे हृदयं विदूयते प्रियालकालीधवलत्वशंकय॥। भोजप्रबन्ध, श्लोयक76।
भला कहिए तो यह किसी हृदय की वास्तविक अनुभूति हो सकती है? श्रोता के हृदय पर इस उक्ति का कोई गहरा प्रभाव पड़ सकता है?क्या यश की शुक्लता का अनुभव चूने की कलई के रूप में ही हुआ करता है? इस प्रकार बातें बनाने को लोग कविता समझने लगे। फिर कविता सिर्फ एक मजाक की चीज या शब्दचातुरीमात्र रह गई। 'सखुनसंज'2 और 'शायर' एक ही चिड़िया का नाम समझनेवाले मुसलमानों के आने पर यह धारणा और भी जड़ पकड़ गई। पर जो सहृदय हैं वे 'सूक्ति' और 'कविता' को एक ही चीज नहीं समझ सकते। 'सुभाषित' और'भोजप्रबन्ध' की सब सूक्तियाँ कविता नहीं कहला सकतीं। हाँ, भावों का उद्रेक करनेवाली रससूक्ति को अवश्य कविता कह सकते हैं।
इस प्रकार अनुभूति को जवाब मिल जाने पर जब कल्पना ही का सहारा रह गया, तब 'स्वत:संभवी वस्तु'3 की अपेक्षा 'कविप्रौढ़ोक्ति सिद्ध वस्तु'4 की ओर कवियों का ध्यातन अधिक रहने लगा। उत्प्रेक्षा की भरमार रहने लगी-वस्तु और व्यापार का सूक्ष्म निरीक्षण न रह गया। यहाँ पर यह विचार करना आवश्यक हुआ कि काव्य में कल्पना का स्थान क्या है और उसका उपयोग क्या है क्योंकि कुछ लोग काव्य को कल्पना की क्रीड़ा मात्र मान उसे पढ़े लिखों की गपबाजी कहा करते हैं।
काव्य का आभ्यंतर स्वरूप या आत्मा भाव या रस है। अलंकार उसके बाह्य
1. देखिए, 'काव्य में प्राकृतिक दृश्य' नामक निबन्ध।
2. [ वचनविदग्धा, बात समझानेवाला। ]
3. (काव्य के अतिरिक्त लोक में दिखाई पड़नेवाले घट, पट आदि पदार्थ।)
4. (कवि की वचनविदग्धाता से कल्पित पदार्थ जो बाहर नहीं दिखाई देते, जैसे कीर्ति का रंग उज्ज्वल मानना आदि।)
स्वरूप हैं। दोनों में कल्पना का काम पड़ता है। जिस प्रकार विभाव, अनुभाव में हम उसका प्रयोग पाते हैं उसी प्रकार रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों में भी। जबकि रस ही काव्य में प्रधान वस्तु है तब उसके संयोजकों में जो कल्पना का प्रयोग होता है वही आवश्यक और प्रधान ठहरा। रस का आधार खड़ा करनेवाला जो विभावन व्यापार है कल्पना का प्रधान कर्मक्षेत्र वही है। पर वहाँ उसे अनुभूति वा रागात्मिका वृत्ति के आदेश पर कार्य करना पड़ता है। उसे ऐसे स्वरूप खड़े करने पड़ते हैं जिनके द्वारा रति, हास, शोक, क्रोध, घृणा आदि स्वयं अनुभव करने के कारण कवि जानता है कि श्रोता भी अनुभव करेंगे। अपनी अनुभूति की व्यापकता के कारण मनुष्यमात्र की अनुभूति को तथा उसके विषयों को अपने हृदय में रखनेवाले ही ऐसे स्वरूपों को अपने मन में ला सकते हैं।
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