काव्य में मिथकीय प्रयोग की ऐतिहासिकता / सुस्मित सौरभ

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मिथक रचना मानव मन की सहज प्रवृत्ति है। कवि की अनुभूति का निजी स्तर इतिहास के पटल पर विकसित होकर अपने अंतर्विरोधों के साथ जब राष्ट्रीय और सामाजिक आयामों में बँध जाता है तब काव्य में मिथकीय संचेतना का उद्भव होता है। मिथक स्वयं में काव्य तो नहीं परंतु काव्य का प्रमुख उपादान होता है। विद्वानों की ऐसी मान्यता रही है कि मिथकीय प्रयोग की यह प्रवृत्ति विश्व के समस्त देशों के काव्यों में प्राप्त होती है। भारतीय वैदिक वाङमय से लेकर संस्कृत और हिंदी वाङमय के अद्यतन काव्य में मिथक का सजीव चित्रण सा हुआ है। मिथक जब कविधर्म बन जाता है तो काव्य धर्म एवं कवि समय जैसी मान्यताएँ जन्म लेने लगती हैं जैसे क्रौंच-वध और कविता का जन्म, नीर-क्षीर विवेक और साहित्यिक आदर्श आदि जैसे अगणित मिथक उसे समृद्ध बनाते है। वस्तुतः, मिथक आदिम काव्य है क्योंकि आदिम मानव की कल्पनात्मक वृत्ति ने इन कथाओं के माध्यम से अभिव्यक्ति पाई है। विश्व के अन्य देशों की तरह भारत में भी विशाल मिथक संपदा ऋग्वेद से लेकर संस्कृत के अभिजात काव्य, महाकाव्य, आख्यायिका और पाली, प्राकृत और अपभ्रंश के साहित्य में भरी पड़ी है।

काव्य और मिथक में संबंध

काव्य से मिथक का घनिष्ठ संबंध है ऐसी मान्यता सिर्फ भारतवर्ष में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी रही है। हिंदी साहित्य के विकासक्रम को देखने से ज्ञात होता है कि हिंदी साहित्य का कोई भी युग मिथकीय अवधारणा से अछूता नहीं है। कवि समाज का एक अंग होता है इसलिए मिथक उसके काव्य में अनायास ही प्रवेश कर जाते हैं। हिंदी काव्य में मिथकों से संबंधित जो काव्य रचना हुई वह परिणाम और महत्व दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। साहित्यिक घटनाओं और पात्रों को मिथकीय आयाम काव्य द्वारा ही प्राप्त होता है। भारत में वैदिक या उसके परवर्ती युग का और पश्चिम में यूनानी या हिब्रू भाषा के कवि सर्जना के क्षणों में जिस प्रक्रिया से मिथक की रचना करते थे मध्य युग तथा आधुनिक युग के कवि की सर्जनात्मक चेतना भी उसी का प्रयोग करती है। इस प्रकार केवल आदिम युग के कवियों ने ही नहीं बल्कि प्रत्येक युग के कवि ने अपने ढंग से मूलतः मिथक की रचना की है। अभिप्राय यह है कि होमर, इलियड, मिल्टन आदि ने अपने अपने देशकाल के रागात्मक उपकरणों और भाषिक साधनों के आधार पर एक प्रकार से मिथक की रचना की है। भारतीय संदर्भ में वैदिक कवि के सूक्तों में वाल्मीकि के रामायण, व्यास के महाभारत, तुलसीदास के रामचरितमानस, प्रसाद की कामायनी आदि में विभिन्न युगों के सामूहिक संस्कारों तथा भाषिक उपकरणों के अनुरूप मिथक सर्जना की एक परंपरा व्याप्त है। फलतः, मिथक और काव्य में अभेद संबंध है।

मिथक और काव्य में संबंध स्थापित करते हुए फिलिप व्हीलराईट ने अपने विचार निम्न रूप में व्यक्त किए हैं -

"मनुष्य की आदिभाषा काव्यमय रही और इसका कारण यह है कि वह एक ऐसी चेतना की सहज अभिव्यक्ति है जिसे हम आधुनिक शब्दावली में मुख्यतः मिथकीय मानते है। संक्षेप में, यह आदिभाषा स्वभावतः लय और लक्षणा दोनों का प्रयोग करती है।"1

विश्व का प्राचीन काव्य तो मिथक प्रधान ही रहा है, आधुनिक युग में भी अनेक कवियों ने अपने काव्य में मिथक का प्रयोग किया है। अंग्रेजी में मिल्टन, शैले ,कीट्स आदि और हिंदी में प्रसाद, निराला, पंत की कविताओं में मिथकों का प्राचुर्य रहा है। आधुनिक युग में मिथक एक प्रकार की स्वप्न कथा (फैंटेसी )का रूप धारण कर लेते हैं। मुक्तिबोध ने कामायनी का स्वप्नकथा के रूप में इसी आधार पर विवेचन करने का प्रयत्न किया है।

काव्य और मिथक के संबंध में अनेक स्वरूपगत समानताएँ देखने को मिलती हैं -

(1) काव्य की विषयवस्तु तत्वतः प्राकृतिक होती है जबकि उसकी रूप-रचना मानवीय। इस प्रकार, काव्य प्रकृति का अनुकरण इस अर्थ में है कि वह प्रकृति का मानवीकरण कर उसे प्रस्तुत करता है। प्रकृति के मानवीय प्रस्तुतीकरण के लिए मिथक दो उपकरणों का प्रयोग करता है - उपमा और रूपक। उपमा प्राकृतिक और मानवीय रूपों में साम्य स्थापित करती है और रूपक मानवीय रूपों का प्रकृति के रूपों पर अभेद आरोप कर अपनी संकल्पनाएँ प्रस्तुत करता है ।

(2) काव्य के संरचनात्मक विधान का निर्माण मिथकीय तत्वों से होता है क्योंकि काव्य रचना की प्रक्रिया मूलतः मिथक के निर्माण की प्रक्रिया है। इलियट के मूर्त विधान और भारतीय काव्य-शास्त्र का विभावन व्यापार मिथक रचना के ही शास्त्रीय नाम हैं।

(3) जिस प्रकार मिथक का रूप ही उसका अर्थ है उसी प्रकार काव्य में भी उसके रूप के अतिरिक्त कोई अन्य अर्थ नहीं होता। दोनों में भाव, बिंब-प्रतीक और वस्तु का पूर्ण ऐकात्म्य या अभेद संबंध रहता है।

(4) काव्य की भाषा चित्र भाषा होती है। शास्त्र से भिन्न काव्य में कवि भाषा का सर्जनात्मक प्रयोग करता है। भाषा के सर्जनात्मक प्रयोग की यह प्रक्रिया मिथक रचना की प्रक्रिया है और चित्र भाषा मिथक भाषा का ही नया नाम है। 2

काव्य में मिथक के प्रयोग का इतिहास

साहित्य में मिथक का का प्रयोग आरंभ से ही होता रहा है। भारतीय काव्य का आदि रूप वैदिक मिथकों में प्राप्त होता है। उधर यूरोपीय साहित्य का आदि रूप भी होमर पूर्वकाल के यूनानी मिथकों में मिलता है तथा पूर्वी एशिया के चीनी जापानी काव्य के विषय में भी यही सत्य है। भारतीय वैदिक काव्य का आधारभूत मिथक है देवासुर संग्राम। सृजन-विनाश, जन्म-मरण का द्वंद्व जीवन का आदि प्रश्न है जिसे मानव ने अनेक प्रकार से हल करने का प्रयास किया है। जीवन में व्याप्त उद्भव, विकास, विनाश, पुनर्सृष्टि की प्रक्रिया से संकेत प्राप्त कर उसने जन्म-मरण-पुनर्जन्म की मिथक श्रृंखला की कल्पना की। पुनर्जन्म की कल्पना से उसे मृत्यु की विभीषिका से त्राण मिला किंतु पुनर्जन्म की नियति भी तो मृत्यु है। अतः जन्म-मरण की श्रृंखला के आवागमन का यह चक्र उसके लिए सबसे बड़ी समस्या बन गया। किंतु उस मानव के भीतर विद्यमान चैतन्य तत्व ने एक ऐसी विराट सत्ता की कल्पना की जिसका न आदि है न अंत, जो देशकाल की सीमाओं से परे है और सभी में व्याप्त है। पाश्चात्य मिथक कल्पना की प्रक्रिया भी लगभग उपरोक्त मत के समान है। यूरोप के मिथक वैज्ञानिकों के अनुसार मिथक के मूलतः दो वर्ग हैं। प्रथम वर्ग के अंतर्गत वे मिथक आते हैं जो जीवन की चक्राकार गति को लेकर चलते हैं तथा द्वितीय वर्ग में ऐसे मिथक जिनके मूल में जीवन की रेखाकार गति की अवधारणा निहित है। पहले वर्ग के मिथकों के प्रेरणास्रोत हैं प्राचीन देववाद। यह दर्शन प्रकृति के जीवन से प्रभावित है जिसमें उद्भव, विकास, विनाश और पुनर्सृष्टि की निरंतर श्रृंखला लगी हुई है। ऋतुओं का प्रतिवर्तन, सौर मंडल के सूर्य, तारा-चंद्र का उदय अस्त होना आदि चक्र गति से ही होता है। इस घटना क्रम से प्रेरित होकर यूरोप के दार्शनिकों ने जीवन के चक्राकार गति की परिकल्पना की। रैखिक मिथकों का मूल आधार है मसीही दर्शन जिसमें जीवन की गति रेखाकार चलती है। इसके तीन समदिक् विकास बिंदु हैं - ईसा का जन्म, बलिदान और पुनर्जीवन जो एक ही बार घटित होते हैं।

पाश्चात्य मिथकवादियों के मत से चक्रिक जीवन धारणा और उससे प्रेरित मिथक कल्पना कामदी और रैखिक जीवन कल्पना तथा उस पर आधारित मिथक विधान त्रासदी का आधार स्रोत हैं। प्रबंध काव्य संदर्भ में कामदी और त्रासदी एवं इसमें निहित सुखात्मक और दुखात्मक जीवन धारणाओं का प्रयोग किया जाता है। दांते और मिल्टन दोनों ने यद्यपि मसीही-मिथक साहित्य के आधार पर अपने अपने काव्य कथानकों की रचना की है। फिर भी चक्रिक जीवन धारणा के प्रभाव में एक कामदी (डिवाइन कॉमेडी : दिव्य कामदी) का और दूसरा त्रासदीय काव्य (पैराडाईज लॉस्ट : स्वर्ग से निष्क्रमण) का निरूपण करते हैं। भारत के आस्तिक दर्शनों के अनुसार जीवन की गति अंततः न चक्रिक है और न रैखिक। भारत में भी नास्तिक दर्शनवादी जीवन की रैखिक गति में विश्वास करते हैं, जो ये मानते हैं कि जीवन का अंत मृत्यु के साथ ही हो जाता है।

"भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः"

बौद्ध शून्यवाद भी उच्चतर भूमिका पर इसी धारणा का पोषण करता है। किंतु ये नास्तिक दर्शन अत्यंत अल्पसंख्यक होने के कारण भारतीय विचार धारा का प्रतिनिधित्व नहीं करते। इसलिए भारतीय साहित्य में पाश्चात्य शैली के करुण काव्य तथा त्रासदी काव्य का प्रायः अभाव है। रामायण और महाभारत का समापन नायक की मृत्यु के साथ अवश्य होता है, परंतु वहाँ मृत्यु नायक के जीवन का अंत न होकर स्वर्गारोहण का सोपान है, जहाँ वह अनंत आनंदमय जीवन का उपभोग करता है। देवासुर संग्राम के मूल प्रयोजन से प्रेरित भारतीय मिथक में असुर वर्ग की असीम शक्ति और अपार वैभव का वर्णन है किंतु विजय देवों की ही होती है। 3

फिर भी, भारतीय काव्य-शास्त्र में मिथक अथवा काव्य के मिथकीय आधार का प्रत्यक्ष विवेचन नहीं मिलता। यहाँ मिथक का समानांतर शब्द है पुराण या पुराख्यान और अनेक पुराणों के आरंभ में उसकी परिभाषा दी गई है। राजशेखर आदि एक-दो आचार्यों ने जिन्होंने अपने विषय का प्रतिपादन शब्दार्थ के व्यापक रूप - वाङमय से आरंभ किया है। वाङमय के एक भेद के रूप में पुराण के स्वरूप का संक्षेप में निर्देश किया गया है -

"इह वाङमयमुभयथा - शास्त्रं काव्यं च
तच्च (शास्त्रञ्च) द्विधा - अपौरुषेयम पौरुषेयम च
पौरुषेयम तू पुराणं। तत्र वेदाख्यामोपनिबंधनप्रायं पुराणामष्टादशधा।"

अर्थात्, वाङमय के दो भेद हैं - शास्त्र और काव्य। शास्त्र दो प्रकार का होता है पौरुषेय और अपौरुषेय। पुराण नामक विधा पौरुषेय विधा के अंतर्गत आती है। 4

इस आधार पर राजशेखर ने काव्यशास्त्र की सामान्य परंपरा से थोड़ा हटकर पुराण स्वरूप का निरूपण किया किंतु उसे शास्त्र का उपभेद माना गया काव्य का नहीं।

भारतीय काव्यशास्त्र का आदिग्रंथ भरतमुनि का नाट्यशास्त्र है। भले ही भारतीय कलाओं का ज्ञानकोष होने पर भी मिथक का विवेचन नाट्यशास्त्र में नहीं मिलता परंतु नाटक की उत्पत्ति का वर्णन भरत ने मिथकीय शैली में ही किया है।

रस निष्पति के संदर्भ में भरत सूत्र के व्याख्याता शंकुक ने काव्य कला के स्वरूप की व्याख्या 'चित्र-तुरंग-न्याय' के द्वारा की है। उनका अभिप्राय है कि चित्र में अंकित अश्व की प्रतीति न सत्य होती है न असत्य।

आचार्य अभिनवगुप्त ने नाट्य अनुभूति का विश्लेषण करते हुए कहा है कि दर्शक प्रेक्षागृह में प्रस्तुत - दृश्य को न एकांत सत्य मानता है और न सर्वथा असत्य। वह एक प्रकार से उसमें सत्यासत्य की युगपत अनुभूति करता है। आधुनिक काव्य और मिथक के बीच संबंध - अभिन्न संबंध की कल्पना की है।

आनंदवर्धन ने ध्वनि-सिद्धांत की प्रस्तावना में लिखा है कि काव्यार्थ प्रतीयमान होता है। अर्थात, उसकी प्रतीति साक्षात न होकर कल्पनागम्य होती है। जिसका अभिप्राय है कि लौकिकदृष्टि से काव्य प्रसंग प्रत्यक्ष नहीं होता, प्रत्यक्षामाण होता है जिससे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष की प्रतीति होती है किंतु साथ ही वह परोक्ष भी नहीं होता। कवि के मन के अंतर्गत विद्यमान भाव को अभिव्यक्त करने के कारण विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी के इस समस्त प्रपंच को भाव कहते हैं और यही विभावन व्यापार है। भट्टनायक ने भावकत्व व्यापार के रूप में विभावन व्यापार का निर्वचन किया है जिसके द्वारा कवि काव्य में वर्ण्य विशेष को साधारण अथवा सर्वग्राह्य रूप में उपस्थापित करता है। भावकत्व वास्तव में वह व्यापार है जिसके द्वारा कवि मूल भाव के आधार पर गुण, अलंकार से युक्त काव्य की रूप रचना या काव्य मिथक की रचना करता है। अमूर्त भाव-विचारगम्य विषय को मूर्त रूप में प्रस्तुत करने के कारण, पश्चिम के आचार्यों ने इसे मूर्त विधान कहा है। जार्ज इलियट ने विशिष्ट शब्दावली का प्रयोग करते हुए इसे वस्तुगत सह संबंधी का विधान माना है और आधुनिक मिथकीय समीक्षक इसे मिथक रचना के नाम से अभिहित करते हैं। उपमामूलक अलंकारों में जहाँ प्रस्तुत और अप्रस्तुत के परस्पर आरोप के आधार पर चमत्कार की सृष्टि की जाती है, मिथक की कल्पना बीज रूप में निहित होती है। इनमें प्रमुख अलंकार होता है रूपक, विशेष कर सांगरूपक जो शब्द की लक्षणा शक्ति पर आश्रित है। प्रस्तुत पर अप्रस्तुत के आरोप जिसके लिए नार्थप फ्राई ने 'विस्थापन' का प्रयोग किया है जो मिथक रचना का मूल रहस्य है। मिथक काव्य में अनेक संदर्भों से निर्मित कथा का विस्थापन हो जाता है जबकि रूपक में सिर्फ एक संदर्भ का। इसलिए मिथक को रूपक का विस्तार माना जाता है।

काव्य रचना के संदर्भ में मिथकों का प्रयोग काव्य के प्रबंध और प्रगीत-मुक्तक दोनों ही विधाओं में प्रमुखता से हुआ है। उपरोक्त विषय वस्तु को धयान में रखते हुए प्रबंध काव्य और प्रगीत मुक्तक काव्य में मिथकों के प्रयोग पर चर्चा करना आवश्यक है।

प्रबंध काव्य

मिथक का रूप आख्यानपरक होने के कारण प्रबंध काव्य से मिथक का संबंध प्रारंभ से ही घनिष्ठ रहा है। पाश्चात्य एवं भारतीय सभी प्रमुख प्रबंध काव्यों की कथावस्तु प्रत्यक्षतः या परोक्षतः मिथकों पर आधारित है। होमर के दो महाकाव्य 'इलियड' और 'ओडेसी' की रचना भी मिथकों के आधार पर हुई है जो जनश्रुति के रूप में प्रचलित थे। इन काव्यों में आदिम मानव जाति के राग-द्वेष, कामुकता, वासना, भय, घृणा, अहंकार आदि वृत्तियों का चित्रण हुआ है। वहीं भारतीय इंद्र-वृत्र युद्ध का कथानक देवासुर संग्राम के रूप में चित्रित है जो कालांतर में कई परवर्ती काव्यों के कथानकों की सृष्टि करता है। इसके अलावा देवताओं की अनेक प्रणय कथाएँ, सृष्टि के विकास, मनुष्य के जन्म-मरण, प्रकृति की घटनाओं की व्याख्या करने वाली गाथाओं का संकलन उपनिषद्, पुराणों में मिलता है जो कालांतर में काव्य के रूप में रचित हुईं। रामायण, महाभारत की मूल कथाओं का निर्माण भी वैदिक मिथकों से ही हुआ है। रामायण में एक ओर राम-रावण युद्ध में देवासुर संग्राम का मिथक है जो प्रकृति की उत्पादन शक्ति का मिथक सीता के जन्म के रूप में व्यक्त हुआ है। सीता की अग्नि-परीक्षा जैसे कई अन्य मिथकों की चर्चा रामायण में की गई है। वहीं महाभारत की कथा में इंद्र, वरुण, सूर्य, अग्नि, यम, मरुत आदि वैदिक देवता सक्रियता से प्रकट हुए हैं और वैदिक वाङमय के उर्वशी-पुरुरवा, शकुंतला-दुष्यंत आदि के मिथकीय आख्यानों का रोचकता से वर्णन किया गया है। प्रलय और मनु की नाव का मिथक जिसका संकेत ऋग्वेद में मिलता है, महाभारत में एक मिथकीय आख्यान बन जाता है। महाभारत मुख्य रूप से भरत वंश के योद्धाओं की कथा है। देवासुर संग्राम का मिथक यहाँ बीज रूप में मिलता है क्योंकि सभी पांडव देवपुत्र और देवभावनाओं से संपन्न हैं तथा कौरव आसुरी प्रवृत्तियों से। इसके साथ ही महाभारत की कथा में सृष्टि की कथा, सूर्यवंश और चंद्रवंश की उत्पत्ति तथा विभिन्न यज्ञादि का वर्णन बहुलता से मिलता है। परवर्ती प्रबंध काव्यों का आधारस्रोत रामायण और महाभारत की कथा को बनाकर भी अनेक काव्य रचे गए। कुमारसंभव, रघुवंश, नैषध चरित, शिशुपाल वध, किरातार्जुनीय की कथा भी महाभारत पर आधारित है।

प्रबंध काव्यों की कथा का नायक दैवीय शक्तियों से संपन्न राजा होता है। वह अपने विरोधी प्रतिनायक के विरुद्ध संघर्ष करता है और अनेक प्रकार के दुख भोगता है। दुर्घटनाओं के चक्र में फँस कर नायक की मृत्यु हो जाती है या वह मृत्यु के निकट पहुँच जाता है किंतु देव कृपा से वह पुनर्जीवन प्राप्त करता है या मृत्यु की स्थिति से उबरकर दिव्य शक्ति का वरण करता है। भारतीय प्रबंध काव्यों में काफी हद तक यह सूत्र देखने को मिलता है।

प्रगीत एवं मुक्तक काव्य

मिथक का रूप कथात्मक होता है। कथा रूप में होने के कारण जहाँ प्रबंध काव्यों में इसका प्रयोग बहुलता से देखने को मिलता है वहीं प्रगीत एवं मुक्तक काव्यों में मिथक का प्रयोग थोड़ा कम हुआ है। परंतु इन काव्यों में मिथकीय प्रयोग का अभाव हो ऐसा नहीं है। पाश्चात्य कवियों ने अपनी प्रगीत रोमानी रचनाओं में खुलकर मिथक का प्रयोग किया है। शैले की शोकगीति 'एडोनिस' मिथकीय प्रयोगों से भरी पड़ी है। कीट्स की प्रसिद्ध प्रगीत कविताओं 'ओड टु ऑटम', 'ओड टु नाइटिन्गल' आदि में मिथक का प्रयोग प्रचुरता से मिलता है। पाश्चात्य काव्य की तुलना में भारतीय प्रगीत मुक्तक काव्यों में मिथक का प्रयोग अपेक्षाकृत कम हुआ है। छायावादी कवियों ने अपने प्रगीतों में मिथक को सम्मानजनक स्थान प्रदान किया है जिसमें प्रसाद, पंत, निराला के नाम अग्रगणिय हैं। इसके अलावा दिनकर, कुँवर नारायण, नागार्जुन, आदि ने भी अपने मुक्तकों में मिथक का प्रयोग किया है। इधर समसामयिक युग में नए कवियों की स्फुट रचनाओं में कहीं मूल रूप में तो कहीं स्वप्न कथा में मिथकों का बहुविध प्रयोग हुआ है।

इस प्रकार मिथक का क्षेत्र सामान्यतः प्रबंध काव्य होने के बावजूद भी उसकी सत्ता मुक्तक और प्रगीतों में भी व्याप्त है। ऋग्वेद की ऋचाएँ मिथक का आदिस्रोत होते हुए भी प्रगीतात्मक हैं। फलतः काव्य के विविध रूपों का संबंध मिथक के साथ पाया जाता है जिसका प्रभाव कथानक की रूपरेखा के साथ उसकी संरचना, कथानक रुढ़ि और कवि समयों पर भी परिलक्षित होता है।

हिंदी काव्य में मिथकीय प्रयोग की ऐतिहासिकता

हिंदी साहित्य का प्रादुर्भाव और विकास निरंतर मिथकों से जुड़ा प्रतीत होता है। इसके विकासक्रम को देखने पर ज्ञात होता है कि हिंदी साहित्य का कोई भी युग मिथकीय अवचेतना से अछूता नहीं है। भावबोध से लेकर कलात्मक अभिव्यक्ति तक सर्वत्र मिथकों की उपादेयता दर्शनीय है।

हिंदी साहित्य के आदिकाल को वीरगाथाकाल के नाम से जाना जाता है। इस काल में वीर काव्यों की प्रधानता थी। अधिकांश कवि राज्याश्रित थे परंतु इस राज्याश्रित परंपरा के अतिरिक्त एक अन्य धारा अविरल गति से प्रवाहित हो रही थी जो सीधी-सीधी मिथ कथाओं से जुड़ती है। विद्यापति ने अपने पदों में शिव और कृष्ण के संबंध में अनेक रमणीय प्रसंगों की कल्पना की है जिसमें शिव और कृष्ण पौराणिक चरित्र के रूप में चित्रित हुए है। चंदरबरदायी के 'पृथ्वीराजरासो' और दूसरे काव्यों में ऐतिहासिक चरित्रों को कल्पना प्रसूत अतिरंजनाओं के बीच में रखकर चित्रित करने की प्रक्रिया दिखाई पड़ती है। बौद्ध धर्म से संबंध रखने वाली कथाएँ तथा उनके रचयिता सबरपा, लुइपा, डोंबिंपा, ककुरिपा आदि मुख्य है जिनके साहित्य में बौद्ध दर्शन का ही वर्णन मिलता है। जैन धर्म परंपरा में देवसेन का काव्य 'श्रावकाचार' जिनकेश्वर का 'भारतेश्वर बाहुबलीरास' आसगु का 'चंदनबालारास' विजयसेन सूरी का 'रेवंतगिरीरास' सुमतिगणि का 'नेमिनाथरास' महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं। 'भारतेश्वर बाहुबलीरास' में राम कथा और 'नेमिनाथरास' में कृष्ण कथा को नए रूप प्रदान किए हैं। नाथ पंथियों के हठयोग, वाममार्ग, तंत्र मंत्र आदि का वर्णन भी आदिकालीन साहित्य में मिलता है। इस धारा में विशेष चर्चा का विषय गोरखनाथ रहे हैं जो मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य थे। गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं में गुरु महिमा, इंद्रिय निग्रह, वैराग्य, समाधि, हठयोग, ज्ञानयोग आदि वार्ताओं को प्रमुख स्थान दिया जिनमें मिथक का प्राचुर्य प्रयोग मिलता है।

पूर्वमध्य काल तक पहुँचते-पहुँचते सिद्ध-नाथ की रचनाओं ने काव्यधारा का रूप धारण कर लिया जो निर्गुण ब्रह्म परक ज्ञानाश्रयी शाखा कहलाई। इस शाखा के प्रमुख कवि रैदास, नानकदेव, जंभनाथ, हरिदास, लालदास, दादूदयाल, मलूकदास आदि हैं। संत मत में अनेक विख्यात भक्त हुए जिनमें कबीर का स्थान सर्वोपरि है। कबीर निःसंग कवि होते हुए भी मिथक कथाओं से अलग नहीं रह पाए। विष्णु की महत्ता स्वीकार करते हुए उनके चरण से उत्पन्न गंगा की कथा कबीर ने ग्रहण की। विष्णु की नाभि से कमल निकला जिस पर ब्रह्मा का जन्म हुआ, इसका उल्लेख भी उनके काव्य में मिलता है।

जाके नाभि पदम सु उदित ब्रह्मा, चरण गंग तरंग रे।
कहै कबीर हरि भगति बाँछूँ, जगत गुरु गोव्यंद रे।। 5

कबीर ने इंद्र, नारद, कृष्ण, उद्धव, शंकर आदि के अनेक मिथकों का वर्णन सविस्तार किया है। उनके पदों में राम के प्रति विशेष भक्तिभाव का अंकन मिलता है। राम भजन से तो भीलनी और गणिका भी संसार सागर तार गईं, पत्थर तैरने लगे।

भजन कौ प्रताप ऐसो तीरे जल परवान।
अधम भील, अजाति गनिका चढ़े जात विमान।। 6

पूर्व मध्यकाल की प्रेमाश्रयी निर्गुण काव्यधारा सूफी संप्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुई। सूफी कवियों में जायसी, मंझन, उस्मान, आलम, मुल्ला दाऊद, कुतुबन, गणपति विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। सूफी काव्यों पर भी पुराण कथाओं का प्रभाव रहा है। जायसी ग्रंथावली के आधार पर यह कहा जा सा सकता है कि मुख्य कथा में यत्र-तत्र अनेक मिथकों को पिरोया गया है। भारतीय पद्धति के अनुसार परमात्मा के तीन रूप होते हैं -रचयिता, पालनकर्ता और संहारक। इन तीनों रूपों को सूफी भक्तों ने स्वीकार किया। जायसी ने जिन दो वृक्षों को श्वेत-श्याम कहा है उनमें एक जड़ है दूसरा चेतन। चेतन जीव को भी जायसी परमात्मा के साथ एक कर देते हैं। 7

निर्गुण काव्य में विश्वास रखने वाले जायसी विष्णु के अवतार राम की कथा के अनेक संदर्भ स्मरण करते हैं। राम काव्य में लक्ष्मण की मूर्छा का उपचार संजीवनी थी। पद्मावत में राजा रतनसेन पद्मावती का सौंदर्य सुन कर मूर्छित हो जाता है। राजा रत्नसेन की मूर्छा भी पद्मावती रूपी संजीवनी ही दूर कर सकती है। यहाँ न राम हैं, न हनुमान? संजीवनी कैसे मिलेगी - यहाँ मिथक का प्रयोग एक बिंब के रूप में हुआ है।

है राजहिं लष्षन कै करा। सकति बाण माहा है परा।
नहिं सो राम, हनिवंत बड़ि दूरी। को लै आव संजीवनी मूरी।। 8

समुद्र-मंथन, अर्जुन-द्रौपदी के विवाह की कथा, राजा हरिश्चंद्र की सत्यवादिता, बैकुंठ धाम, हरिलीला, कैलास पर्वत, शिवलोक के वर्णन के साथ-साथ आदि देवत्रय का अंकन भी जायसी के काव्यों में मिलता है। विभिन्न देवताओं का अंकन करते हुए जायसी महेश से विशेष अभिभूत जान पड़ते हैं।

महादेव देवन्ह के पिता। तुम्हरी सरन राम रन जिता।।
एहू कंह तसि मया करेहू। पुरवहु आस, कि हत्या लेहू।। 9

पूर्वमध्यकालीन सगुण भक्ति साहित्य मिथकीय प्रभाव से पूर्णरूपेण आच्छादित रहा है। सूर, तुलसी, मीरा, रसखान आदि भक्त कवि और महात्माओं द्वारा सृजित यह साहित्य नैतिक, धार्मिक एवं सामाजिक मूल्यों और उच्च आदर्शों से समन्वित है। सगुण भक्तिकाल साहित्य में मिथकों की विविधता दृष्टिगोचर होती है। राम, कृष्ण, गज, गणिका, अजामिल, प्रहलाद, जटायु, रावण आदि चरित्रों, पशु-पक्षियों की कथाओं का उल्लेख भक्ति साहित्य में यत्र-तत्र प्राप्त हो जाता है। श्यामसुंदर दास ने भक्ति काल को हिंदी साहित्यकाल कहा है। हिंदी भक्ति काव्य में से यदि वैष्णव कवियों के काव्य को निकाल दिया जाए तो तो जो बचेगा वो इतना हल्का होगा कि जिस पर हम गर्व नहीं कर सकते। सूर, तुलसी, मीरा, रसखान आदि भक्त कवियों में किसी पर भी संसार का कोई साहित्य गर्व कर सकता है।

तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के राम दिव्य चरित्र के धनी नायक के रूप में, आराध्य ईश्वर के रूप में तथा मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में रामायण काल से लेकर वर्तमान साहित्य तक अनवरत वर्णित किए जा रहे हैं। अनेक मिथ इस चरित्र से जुड़ गए हैं जो प्राचीन से लेकर आधुनिक साहित्य तक मिलते हैं। रामभक्ति शाखा में राम के अवतार की पूर्ण ब्रह्म रूप में कल्पना की गई है। तुलसी के रामचरितमानस से स्पष्ट होता है -

जेहि राम भावईं वेद बुध, जाहि धरहि मुनि ध्यान।
सोई दशरथ सुत भगत हित कौसल पति भगवान।।10

परस्पर विभिन्नता संसार का आवश्यक लक्षण और गुण है परंतु तुलसीदास ने अपने काव्य में समरसता के मिथक को इतना प्रभावशाली बना दिया है कि वही उनकी काव्य-प्रेरणा का मुख्य लक्षण बन गया है। उन्होंने समन्वय के भाव को एक मिथक का रूप देकर सर्वजन-हिताय, सर्वजन-सुखाय की कल्पना की और इसका माध्यम राम चरित्र को बनाया। सर्व साधारण को लक्ष्य कर समन्वय की कल्पना रामराज्य के मिथक द्वारा ही पूर्णत्व प्राप्त कर सकती है। तुलसी ने रामचरित मानस के अलावा राम लला नहछू, वैराग्य संदीपिनी, बरवै रामायण, विनय पत्रिका आदि की रचना की जिसमें उन्होनें राम के मर्यादित रूप को मानव जीवन का आदर्श बनाने का प्रयास किया। राम भक्ति तुलसी के मिथक विषयक मोह का सबसे बड़ा प्रमाण तो यह है कि वे राम चरित की गाथाओं तक ही सीमित नहीं रहे। उन्होंने विष्णु के अवतार कृष्ण से भी संबद्ध पुराकथाओं को भी अंकित किया। सीता की महत्ता को स्वीकार करते हुए वे कहते हैं -

वाम भाग सोभित अनुकूला, आदि शक्ति छवि निधि जगमूला।
जास अंस उपजहिं गुन खानी, अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी ।
भृकुटि विलास जासु जग होई, राम बाम दिसि सीता सोई। 11

परशुराम, विश्वामित्र, हनुमान, बालि, सुग्रीव, कुंभकर्ण, कुबेर आदि से संबद्ध प्रचलित समस्त मिथकों का प्रयोग तुलसी के काव्य में मिलता है। इस काल में अन्य मुख्य कवि स्वामी रामानंद, अग्रदास ईश्वरीप्रसाद आदि हुए।

श्रीमद्भागवत ने सगुण वैष्णव कृष्ण भक्ति परंपरा को जन्म दिया। कृष्ण भक्ति से संबद्ध प्रमुख संप्रदायों में वल्लभ, निंबार्क, राधा-वल्लभ, हितहरिवंश तथा चैतन्य की गणना की जाती है। सूरदास, कुंभनदास, नंददास, हरिव्यासदेव, दामोदरदास, रामराय, हरिदास आदि अनेक कवि इन धाराओं से जुड़े हुए कृष्ण अराधना में लीन रहे साथ ही मीराबाई और रसखान आदि कवि भी थे जो केवल भक्त थे। कृष्ण के परंपरागत मिथक ने उनके हृदय में प्रेम जगाया। कृष्ण भक्ति के सर्वाधिक मान्य कवि सूरदास हुए। अतः उन्हें अनेक पौराणिक गाथाओं को बटोरने का अवसर मिला।

गोकुल प्रकट भए हरि आइ।
अमर उधारन, असुर संघारन, अंतरजामी त्रिभुवन राइ। 12

शंखचूड़, मुष्टिक, धेनुक, कंस, कपि, विप्र, गीध आदि के मिथक सशक्त शत्रु का नाश करने वाले कृष्ण के रूप को उजागर करते है। भक्त के आर्तनाद को सुन वरदहस्त बढ़ाने वाले कृष्ण से जुड़े प्रायः सभी मिथक सूर के काव्य में उपलब्ध हैं। भक्तों में परिगणित न होने पर भी उस युग के कुछ ऐसे कवि थे जो प्रबंधात्मक काव्यों की रचना करते थे, किंतु उनकी कृतियों का विषय मिथक कथाएँ ही थीं। तत्कालीन नीतिकाव्यों में काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार के परित्याग तथा उपकार वृति को ग्रहण करने का आग्रह मिलता है। मिथक कथाओं का निचोड़ इनमें प्राप्त है। ऐसे ग्रंथों में पद्मनाभ कृत डूँगर बावनी, ठाकुरसी रचित कृपणचरित आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।

भक्तिकाल के उत्तरार्ध में केशव, सेनापति, रहीम आदि अनेक कवियों का प्रादुर्भाव हुआ जो परवर्ती रीतिकालीन धारा के मूल स्रोत माने गए। राम और कृष्ण परक भक्ति में रसिकता का समावेश तो हुआ किंतु इष्टदेव के प्रति आस्था ज्यों की त्यों बनी रही। उस युग में ऐसे कवियों की कमी न थी जो आस्तिकतापूर्वक भक्ति में लीन थे। वातावरण के प्रभाव से राम और कृष्ण काव्य में रसिकता का समावेश अवश्य हुआ पर पौराणिक कथाओं ने एक नया मोड़ लिया। रीतिबद्ध कवियों की रचनाओं में भी मिथकीय चित्रों का समावेश है। चिंतामणि ने शक्ति के विभिन्न रूपों का अंकन किया है -

जु गौरी गनाधीस माता उमा चंडिका जो बखानी।
तु ही सर्व की बुद्धि तु ब्रह्म विद्या तु ही वेदवानी।। 13

राधा-कृष्ण की युगल लीला के प्रति कहीं-कहीं मतिराम की बहुत सुंदर उक्तियाँ हैं। भूषण की कुलदेवी भवानी थीं। उनका प्रत्येक रूप भूषण के काव्य का विषय बना -

जय मधु कैटभ छलनि देवि जय महिष विमर्दिनी।
जय चमुंड जय चंड-मुंड भंडासुर खंडिनी।। 14

कुलपति मिश्र ने दुर्गा भक्ति चंद्रिका नामक ग्रंथ में शक्ति के समस्त क्रियाकलापों को ग्रहण किया है। देव की अतिशय श्रृंगारिकता भी कृष्ण और राधा के रूप में उभरी है। भिखारीदास की रामभक्ति तुलसी के बहुत निकट जान पड़ती है। संत काव्य धारा गुरुभक्ति से लेकर योग साधना, सदाचार, आडंबरों का उन्मूलन, आत्मा-परमात्मा के अंश आदि सभी की पुष्टि के लिए मिथकों का सहारा लिया गया है। परंपरागत राम भक्ति में गुरु गोविंद सिंह का नाम उल्लेखनीय है। उन्होंने ब्रजभाषा में गोविंद रामायण की रचना की। इसके अलावा कई कवियों ने राम के मिथकों पर आधारित काव्यों की रचना की। रीतिकाल में कृष्ण काव्यधारा से संबद्ध अनेक कवियों का भी प्रादुर्भाव हुआ जिनके काव्य में प्रेम, श्रृंगार और विलास का समावेश अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में हुआ। इनमें गुमान मिश्र (कृष्ण चंद्रिका), ब्रजवासी दास (प्रबोध चंद्रोदय अनुवाद), मंचित (सुरभीदान लीला), नागरीदास (जुगालरस विलास) आदि उल्लेखनीय हैं। रीतिकालीन साहित्य में चैतन्य मत से संबद्ध भगवतमुदित, किशोरीदास गोस्वामी, गोपाल भट्ट, रामहरि, तुलसीदास मनोहारराय; निंबार्क संप्रदाय के नागरीदास, सुंदरि कुँवरि, कृष्णदास; वल्लभ संप्रदाय के जगतानंद, व्रजवासीदास; राधावल्लभ संप्रदाय के सहचरी सुख, अनन्य अली, आनंदबाई आदि; सखी संप्रदाय से संबद्ध बनी ठनी, रूपसखी, सहचरि शरण आदि अनेक कवियों की रचनाएँ कृष्ण विषयक मिथक पर आधारित हैं।

आधुनिक काल हिंदी साहित्य का वह काल है जब कविता छंद ताल लय के बंधनों को छोड़ स्वतंत्र हो गई। उसने जातीयता, धार्मिकता, राष्ट्रीयता को स्वीकार नहीं किया। इस काल का आरंभ भारतेंदु युग या पुनर्जागरण काल से हुआ। इस युग में स्वतंत्रता प्राप्ति, नारी उत्थान, भारतीय सांस्कृतिक, मानवतावाद, भक्तिविषयक आंदोलन छिड़ चुके थे। भारतेंदु युग के काव्य में सुधार और जागरण की प्रवृत्ति मुखर हो उठी। मिथक कथाएँ साहित्य के ऐसे चौराहे पर पहुँच गईं थीं कि वे अनेकों दिशाओं में आगे बढ़ सकती थीं। एक ओर माइकल मधुसूदनदत्त और हेमचंद्र जैसे बंगदेशीय कृष्णभक्त कवि थे तो दूसरी ओर टीकाधारी भक्ति के ठेकेदारों का उपहास करने वाले कवि। भारतेंदु जी ने अपने काव्य में अनेक मिथकों का प्रयोग किया है। गोवर्धनधारी कृष्ण का उन्होंने अपने काव्य में स्मरण करते हुए लिखा है -

"जिनके देव गुवरधनधारी ते औरहि क्यों मानै हो।
निरभय सदा रहत इनके बल जगतहि तृन करि जानै हो।
देवी देव नाग नर मुनि बहु तिनहि नाहिं दर आनै हो।
हरिचंद्र गरजत निरधक नितकृष्ण कृष्ण बल सानै हो" । 15

भक्ति तीन धाराओं में प्रवाहित हुई - निर्गुण, सगुण वैष्णव तथा देशभक्ति। सगुण भक्तिपरक रचनाओं में राम कृष्ण से संबद्ध अनेक संदर्भों का अंकन उपलब्ध है। रामकाव्य के क्षेत्र में हरिनाथ पाठक की श्री ललित रामायण, बाबू तोता राम की राम-रामायण विशेष उल्लेखनीय हैं। राम की अपेक्षा कृष्ण काव्यों की रचना अधिक मात्रा में हुई। प्रेमघन की अलौकिक लीला, अंबिकादत्त व्यास की कंसवध आदि रचनाएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ठाकुर जगमोहन सिंह ने 'प्रेमसंपतिलता' नामक ग्रंथ में राधा कृष्ण के निश्छल प्रेम का सुंदर अंकन किया है -

अब यों उर आवत है सजनी, मिलि जाऊँ गरे लगि कै छतियाँ।
मन की करि भाँति अनेकन औ मिलि कीजिए री रस की बतियाँ।
हम हारि अरी करि कोटि उपाय, लिखि बहु नेह भरी पतियाँ।
जगमोहन मोहनी मूरति के बिन कैसे कटें दुख की रतियाँ। 16

द्विवेदी युग के साहित्य की मूल प्रवृत्ति इतिवृतात्मक होने के कारण काव्य के क्षेत्र में मिथकीय चेतना का बहुमुखी विकास हुआ। परंपरागत पूज्य भावनाओं के आलंबन मिथकीय पात्रों का सहज सामाजिक मनुष्य के रूप में अंकन किया गया। इस प्रकार के तथ्यों से मिथकों रूप थोड़ा बदल सा गया। मैथिलीशरण गुप्त जी ने मुख्यतः रामकथा को आधार बनाकर ही अपने काव्यों की रचना की जिनमें प्रमुख हैं - साकेत, पंचवटी, प्रदक्षिणा आदि। साकेत में राम के भगवत स्वरूप के प्रतिपादन के साथ साथ उनके युग पुरुष स्वरूप का भी वर्णन किया गया है।

"राम तुम मानव हो ईश्वर नहीं हो क्या?
विश्व में रमे हुए नहीं सभी कहीं हो क्या?
तब मैं निरीश्वर हूँ, ईश्वर क्षमा करे!
तुम न रमो तो मन तुममें रमा करे।" 17

गुप्त जी ने परंपरागत मिथकों को एक नया मोड़ प्रदान किया। उनके हृदय में एक ओर अपने युग की प्रासंगिकता का मोह था तो दूसरी ओर भारतीय संस्कृति का आग्रह था, तीसरी ओर पशुता की आत्मकेंद्रित प्रवृत्ति के प्रति वितृष्णा तथा सामाजिकता से जुड़ी मानवीय चेतना का आग्रह था तथा चौथी विचारधारा नर-नारायण के मिथक से प्रेरित थी। 'नहुष' एक सशक्त मिथकीय चरित्र है। गुप्त जी ने अपने काव्य नहुष में पौराणिक कथा को प्रस्तुत करते हुए नहुष के चरित्र को को प्रतीकात्मक बना कर प्रस्तुत किया है। नहुष को मानव के पराक्रम और दर्प का प्रतीक कहा जा सकता है, पराक्रम से वह स्वर्ग का अधिकारी बनता है और दर्पातिरेक से उसका पतन हो जाता है। कवि ने उसका चरित्र नवीन रूप में गढ़ा है -

मैं ही तो उठा था आप, गिरता हूँ जो अभी,
फिर भी उठूँगा और बढ़के रहूँगा मैं,
नर हूँ, पुरुष हूँ मैं, चढ़ के रहूँगा मैं। 18

गुप्त जी ने अपने काव्य में नारी को विशेष स्थान प्रदान किया है। उन्होंने इस मिथक को परिवर्तित कर दिया है कि पुरुष का स्थान नारी से बड़ा होता है। उन्होंने अपने काव्य में यह चित्रित किया है कि पुरुष नारी के बिना अधूरा है तथा वह किसी धार्मिक कार्य का संपादन बिना सहधर्मिणी के नहीं कर सकता -

न तन सेवा न मन सेवा न जीवन और धन सेवा
मुझे है इष्ट जन सेवा सदा सच्ची भुवन सेवा।
न होगी पूर्ण वह तब तक, न हो सहधर्मिणी जब तक। 19

गुप्त जी ने जितने मिथकों को अपने काव्य में ग्रहण किया, सबमें अपने ढंग से मनोवैज्ञानिकता से आपूरित प्रासंगिकता का समावेश किया है।

अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ने कृष्ण चरित को एक नया रूप दिया। परंपरा से कृष्ण विरह में रोती हुई राधा 'प्रियप्रवास' में समाज सेविका बन गई। हरिऔध ने कृष्ण कथा में अपने युग की प्रासंगिकता का समाहार बहुत पटुता से किया है। उनके युग का स्वर जितना प्रियप्रवास में मुखरित हुआ है उतना वैदेही-वनवास में नहीं जबकि दोनों मिथक ग्रंथों का झुकाव समाजसेवा की ओर है। हरिऔध जी ने कृष्ण के अतिमानवीय क्रियाकलाप को अत्यंत सहज समाज-सेवा वृत्ति के रूप में अंकित किया है। उन्होंने राधा-कृष्ण को समाज के सहज जनों के रूप में अंकित किया है-

जो देखते कलह शुष्क-विवाद होता
तो शांत श्याम उसको करते सदा थे।
कोई बली निबल को यदि था सताता,
तो वे तिरस्कृत किया करते उसे थे। 20

व्यंग्य-विनोद के रचनाकारों में ईश्वरी प्रसाद शर्मा, नाथूराम शर्मा, जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी तथा बालमुकुंद गुप्त विशेष महत्वपूर्ण हैं। इन सभी कवियों ने पुरा कथाओं के गणमान्य पात्रों को व्यंग्यपरक काव्य का विषय बनाया।

छायावादी युग में जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रा नंदन 'पंत' तथा बालकृष्ण शर्मा नवीन मुख्य रूप से उल्लेखनीय कवि हैं जिन्होंने मिथक को काव्य का विषय बनाया।

जयशंकर प्रसाद की कामायनी सृष्टि रचना के मिथक पर आधारित होते हुए भी सर्वकालिक एवं सार्वभौमिक परिवेश से जुड़ी जान पड़ती है जिसमें कवि ने प्रलय का मूल कारण देवों के विलास को माना है।

देव दंभ के महामेघ में, सबकुछ ही बन गया हविष्य। 21

कामायनी के आधार ग्रंथ के विषय में रचना के आमुख में प्रसाद जी ने स्वयं लिखा है - जलप्लावन भारतीय इतिहास की एक ऐसी घटना है, जिसे मनु देवों से विलक्षण मानवों की एक भिन्न संस्कृति प्रतिष्ठित करने का अवसर दिया। इस घटना का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। कामायनी के आधार ग्रंथों में विष्णुपुराण, पद्मपुराण, वायुपुराण, अग्निपुराण ब्रह्मपुराण, मार्कंडेयपुराण, मत्स्यपुराण तथा श्रीमद्भागवत आदि मुख्य हैं। जलप्लावन की कथा इस्लामी, यहूदी, ईसाई धर्मग्रंथों में भी मिलती है। प्रसाद जी ने कामायनी में उसे उसी रूप में चित्रित किया है।

हाहाकार हुआ क्रंदनमय कठिन कुलिश होते थे चूर,
हुए दिगंत बधिर, भीषण रावण बार बार होता था क्रूर।
दिग्दाहों से धूम उठे या जलधर उठे क्षितिज-तट के,
सघन गगन में भीम प्रकंपन, झंझा के चलते झटके। 22

कामायनी में वर्णित नियतिवाद मिथक चेतना का ही एक रूप है। कवि द्वारा संसार के चलाने की शक्ति को नियति स्वीकार करना ही मिथक कल्पना है। देवताओं का जीवन उच्छृंखल हो जाने पर ही जल प्रलय से उनका विध्वंस हुआ था। कामायनी के आशा सर्ग में सृष्टि के विकास का जो चित्रण हुआ है उसमें शिव के विश्व रूप में अभिव्यक्त होने के संकेत हैं। सृष्टि के निर्माण का मिथक पौराणिक साहित्य से होता हुआ कामायनी तक आया है।

निराला की कविताओं पर भारतीय दर्शन का गहरा प्रभाव है। राम की शक्तिपूजा लंकाकांड के कथानक को लेकर लिखी गई एक लंबी कविता है। इसमें अपने सर्जक के निजत्व के समीपतम पहचान का प्रतिफलन है। यह रामकथा कम निराला के रचनात्मक संशय, संघर्ष एवं आत्मबलिदान की कहानी अधिक है। कृतिवास रामायण के आधार पर निराला ने इस मिथक काव्य की रचना की है। कवि ने कथा में परिवर्तन तो नहीं किया है लेकिन राम के चरित्र को आधुनिक मनुष्य के अंतर्द्वंद्व से जोड़ दिया है। निराला की काव्य रचना 'राम की शक्तिपूजा' एक लघु पौराणिक मिथक काव्य है।

"स्थिर राघवेंद्र को हिला रहा फिर फिर संशय
रह-रह उठता जग-जीवन में रावण-जय-भय,
जो नहीं हुआ आज तक हृदय रिपु-दम्य-श्रांत
एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रांत
कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार-बार,
असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार।" 23

सुमित्रानंदन पंत की कविताओं में मिथक का स्फुट प्रयोग हुआ है। 'पावस ऋतु में पर्वत प्रदेश' कविता में पंत ने इंद्र के पौराणिक स्वरूप को नए मिथक के रूप में प्रस्तुत किया है। इनकी कविता में प्रकृति के विभिन्न रूपों का चित्रण करते हुए मिथक का प्रयोग स्वतः ही हो गया है। 'सोम' एक महत्वपूर्ण मिथक है इसे 'जीवन मधु' और 'जीवन के रस' अर्थ में पेय पदार्थ के साथ साथ प्रयोग किया गया है। पंत जी ने भी 'सोमपायी' कविता में इसे 'जीवनमधु' के रूप में देखा है और दुहरे अर्थ में मधु और रस में प्रयोग किया है।

गौरी तट का स्वादु सोम जीवन आह्लादक
ऋषि-मुनियों का हृदय पेय था रुचिर मादक
पीले मृदु वृंतों को कूट निचोड़ अमृतरस
दुग्ध मिला मधु पेय बनाते दक्ष पुरोहित। 24

रामकथा के कुछ और प्रतीकार्थ भी 'लोकायतन' में खोले गए हैं। छायावादी युग में अनेक प्राचीन मिथकों का कहीं कुछ परिवर्तन करके कवियों ने अपने काव्य में प्रयोग किए। मिथकों और मनोविकारों का समन्यवय भी इस युग में हुआ।

रामधारी सिंह दिनकर ने अपने काव्य में वैदिक मिथकों का प्रयोग किया है। दिनकर ने मुख्यतः महाभारत के पात्रों को ही अपने काव्य का आधार बनाया है। 'कुरुक्षेत्र' नामक काव्य में कौरव-पांडव के युद्ध का वैचारिक विन्यास मिलता है। दिनकर ने इन मिथकों को द्वितीय विश्वयुद्ध के परिपेक्ष्य में देखा है। एक आदर्श वीर योद्धा की स्थापना करने के लिए दिनकर ने 'रश्मिरथी' काव्य की रचना की। इस काव्य का नायक कर्ण है और कर्ण की चारित्रिक गरिमा को प्रकाश में लाने वाला यह प्रथम महाकाव्य है। दिनकर ने कर्ण के चरित्र के माध्यम से वर्तमान युग की अनेक संवेदनाओं को को पाठकों के सम्मुख उद्घाटित किया है -

मैं उनका आदर्श कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे
पूछेगा जग किंतु, पिता का नाम न बोल सकेंगे,
जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा
श्रम से नहीं विमुख होंगे जो दुख से नहीं डरेंगे। 25

'उर्वशी' दिनकर का गीत नाट्य शैली में लिखा हुआ एक प्रबंध काव्य है। इसमें उर्वशी और पुरुरवा की पौराणिक कथा को काव्य का विषय बनाया गया है जिसका उद्देश्य चिरंतन पुरुष और चिरंतन नारी के प्रेम संबंधों की अतुल गहराइयों का अनुसंधान करना है।

छायावादोत्तर साहित्य में भी मिथक कथाओं पर आधारित वृहत साहित्य उपलब्ध है। एक ही कथा को कवियों ने भिन्न-भिन्न तथ्यों का पोषण करने के लिए भिन्न दिशाओं में मोड़ा है। रामेश्वर शुक्ल अंचल ने ऋषि अगस्त्य के मिथक का प्रयोग किया है। रामविलास शर्मा आलोचक के साथ प्रगतिवादी रचनाकार भी हैं जिन्होंने अपनी कविता में मिथक का उपयोग किया है। रामकथा की खलपात्र कैकेयी को काव्य का विषय बनाकर अनेक काव्यों की रचना हुई और प्रायः हरेक कवि ने मनोवैज्ञानिक स्तर पर उसे दोषमुक्त स्वरूप प्रदान करने का प्रयास किया। केदारनाथ मिश्र ने 'कैकेयी' नामक काव्य में रामवनगमन संदर्भ को एक नया संदर्भ प्रदान किया है। इसमें कैकेयी को एक वीर महिला के रूप में अंकित किया गया है जो यह सुनकर कि दक्षिण में असुर उत्पात कर रहे हैं, राम को युद्ध के लिए भेज देती है। मिश्र जी ने कैकेयी को वीरांगना, विदुषी तथा वात्सल्यमयी आदर्श नारी के रूप में प्रतिष्ठित किया है।

नारी जिसके लिए हाय अपना सिंदूर लुटा दे
माता जिसके लिए गोद में अपनी आग लगा दे।
तू कैसे उसके महत्व को जाने, तू रोता है,
तुमको ज्ञात भरत! कितना कर्तव्य कठिन होता है। 26

शेषमणि शर्मा 'मणिरायपुरी' ने भी कैकेयी नामक काव्य की रचना की जिसमें समसामयिक प्रसंगों की प्रतिच्छवि को बहुत निपुणता से कैकेयी काव्य में समाहित किया है। चाँदमल अग्रवाल 'चंद्र' के 'कैकेयी' नामक काव्य में भारत के चीन और पाकिस्तान से हुए युद्धों की प्रासंगिकता प्रतिबिंबित है।

नई कविता हिंदी की ऐसी धारा है जिसमें पहली बार मिथक का सार्थक और मार्मिक उपयोग दिखाई पड़ता है। अनेक स्थलों पर यांत्रिक युग की, युद्ध की विभीषिका के समानांतर मिथक के प्रसंगों का चुनाव किया गया है। नई कविता की विशिष्ट उपलब्धि के रूप में धर्मवीर भारती, दुष्यंत कुमार, कुँवर नारायण, नरेश मेहता आदि का नाम उल्लेखनीय है। धर्मवीर भारती ने अपने काव्य 'कनुप्रिया' में राधा को कृष्ण की प्रेयसी के रूप में वर्णित न कर आदर्श समाज सेविका के रूप में वर्णित किया है।

मैं पगडंडी के कठिनतम मोड़ पर
तुम्हारी प्रतीक्षा में
अडिग खड़ी हूँ कनु मेरे। 27

धर्मवीर भारती ने 'अंधायुग' में मिथकों का रूप परिवर्तित कर श्रेष्ठ मिथकीय काव्य की रचना की है। इसमें युद्ध के पश्चात समाज में व्यक्तियों की दयनीय स्थिति को चित्रित करते हुए कवि ने लिखा है -

युद्धोपरांत
यह अंधायुग अवतरित हुआ
जिसमें परिस्थितियाँ, मनोवृत्तियाँ, आत्माएँ सब विकृत हैं।
है एक बहुत पतली डोरी मर्यादा की
पर वह भी उलझी है दोनों ही पक्षों में
सिर्फ कृष्ण में साहस है सुलझाने का। 28

कुँवर नारायण ने चक्रव्यूह की रचना में महाभारत की उस कथा का प्रसंग लिया जिसमें अभिमन्यु अपने अंतिम समय में निहत्था युद्ध करने को विवश हो गया था। आज का हर व्यक्ति अपने को एक विचित्र चक्रव्यूह में घिरा पा रहा है। कुँवर नारायण के काव्य 'आत्मजयी' की मूल कथा कठोपनिषद से ली गई है। यह काव्य आधुनिक जीवन में उभरे प्रश्नों को चिरंतन भावधारा से जोड़ने का प्रयास तथा उत्तर पाने की अकुलाहट व्यक्त करता है।

नरेश मेहता ने अपने मिथकीय काव्य 'संशय की एक रात' में मनोवैज्ञानिक प्रश्न उठाया है कि यदि आज का मानव राम के जीवन जैसी विषम परिस्थितियों में घिर जाए तो क्या करेगा? यह काव्य मानवीय स्तर पर राम-रावण युद्ध से पूर्व की स्थिति का मनोवैज्ञानिक अंकन है -

राम की इस विवशता को
सोच सकते हो
अन्य क्यों प्रायश्चित करें मेरे लिए,
दुख भोगें
वनों में भटकें अकारण ही। 29

'महाप्रस्थान' की काव्य कथा भी नरेश मेहता ने पौराणिक कथा से ली है। यह उनका दूसरा प्रबंध काव्य है जिसमें उन्होंने मिथक कथा और पात्रों के माध्यम से राज्य, राज्य-व्यवस्था एवं युद्ध की समस्या को पुनः आधार बनाया। 'प्रवाद पर्व' नरेश मेहता की ऐसी कृति है जिसमें उन्होंने आपतकालीन संदर्भ में राज्य व्यवस्था को ही प्रमुखता से रेखांकित किया है।

'एक कंठ विषपायी' दुष्यंत कुमार की एक श्रेष्ठ मिथकीय रचना है जो दक्ष के यज्ञ और सती के मिथक पर आधारित है। इस काव्य में यह आशा की गई है कि प्रत्येक युग में एक ऐसा व्यक्ति अवश्य उत्पन्न होता है जो उस युग की समस्त कुरीतियों, कुसंस्कारों को परिवर्तित करने का प्रयास करता है। प्रतिफल में उसे दुख, अवहेलना, तिरस्कार ही मिलता है।

मुझे पता है,
इस त्रिलोक में,
महादेव का एक कंठ केवल विषपायी,
जिसकी क्षमताएँ अपार हैं। 30

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' की समस्त काव्य रचनाओं का अध्ययन करने के पश्चात यह ज्ञात होता है कि उनके काव्य में प्रसंगवश, वातावरण निर्माण अथवा बिंब व प्रतीक के रूप में मिथ शब्दों, घटनाओं और प्रसंगों को ही कविता के रूप में प्रयोग किया गया है। अज्ञेय ने 'दिति कन्या को' कविता में दिति की कथा का उपयोग करते हुए अभिप्रेत हुए प्रेत, असुर और दिति-कन्या शब्दों से पौराणिक मिथकों की ओर संकेत किया है। उनकी प्रसिद्ध रचना 'असाध्य वीणा' में मिथकीय वातावरण की संरचना बहुत उत्तम कोटि की हुई है। अज्ञेय की कविता में वैदिक मंत्रों का आकर्षण है जिससे कविता एक अद्भुत मिथकीय वातावरण की सृष्टि स्वतः कर देती है।

महाशून्य
वह महामौन
अविभाज्य, अनाप्य, अद्रवित, अप्रमेय
जो शब्दहीन सबमें गाता है। 31

प्रयोगवादी कवियों में गजानन माधव मुक्तिबोध ने प्रभावशाली ढंग से मिथकों का प्रयोग युक्तियों और प्रसंगों के रूप में किया है। इनके काव्य में मिथक के दो रूप मिलते हैं -

(क) उक्ति और प्रसंगगत मिथक

(ख) कल्पित मिथक

मुक्तिबोध रचित 'ब्रह्मराक्षस' एक मिथक है - बौद्धिक चेतना का। मध्यवर्गीय व्यक्ति इसी चेतना के कारण मुक्ति के लिए आतुर रहता है। कवि ने इस कविता के माध्यम से अनेक मिथकीय परतों को खोलने का कार्य किया है। ब्रह्मराक्षस को समरसता का प्रतीक मानकर कवि कहता है

अतिरेकवादी पूर्णता
की ये व्यथाएँ बहुत प्यारी हैं
ज्यामितिक संगति-गणित
की दृष्टि के कृत
भव्य नैतिक मान
आत्मचेतन सूक्ष्म नैतिक गान। 32

मुक्तिबोध का काव्य मिथकीय भावनाओं से युक्त है। उन्होंने अपने काव्य में मिथकों का प्रयोग ही नहीं किया बल्कि उनका परिष्कार और पुनरुत्थान भी किया है।

नागार्जुन के मन में पीड़ितों के प्रति बहुत ही वेदना एवं सहानुभूति की भावना थी जो समय-समय पर मिथकों के माध्यम से उनके काव्य में प्रकट हुई। नागार्जुन ने अपने काव्य में मिथकों को ज्यों का त्यों ही स्वीकार नहीं किया वरन उन्हें आधुनिक परिवेश का रूप देकर अपने काव्य में प्रयोग किया है। उन्होंने पुराने मिथकों को नवीन अर्थवत्ता प्रदान की है तथा नए अर्थ में प्रयोग किया है। 'तालाब की मछलियाँ' नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता है जिसमें पुराण वर्णित मिथक 'वही जीवित रह पाता है जिसके पास शक्ति है' के रूप को थोड़ा परिवर्तित कर समाज का चित्रण किया गया है -

वह कुलीन मैथिल कन्या
फिर सुनने लगी वही आवाज
हम भी मछली, तुम भी मछली
दोनों ही उपभोग वस्तु हैं
ज्ञाता स्वाद सुधी जन,
सजनी हम दोनों को
अनुपम बतलाते हैं। 33

केदारनाथ अग्रवाल की कविता एक विशिष्ट भारतीय मिथकीय जीवन की कविता है जिसमें अपनी धरती प्रति मोह है। प्रकृति के विविध रूपों में प्रतिबिंबित करने के लिए भी कवि मिथकीय पात्रों के नामों का सहारा लेता है। कवि ने नए मिथक बनाए हैं और अपने साहित्य में प्रयोग किए हैं।

चंद्रकांत देवताले की कविताओं में मिथकीय संवेदनाओं का द्रव्यशील ताप है, जो उन्हें प्रहार, विध्वंस की कविता लिखने की सृजनात्मक शक्ति देता है। उनकी कविताओं में दर्द और आक्रोश की भावना भरी हुई है। वे कविकर्म की जटिलता को समझते हुए मिथकों के माध्यम से शोषकों पर व्यंग्य करते हैं। वे नेताओं पर व्यंग्य करते हैं जिस व्यंग्य का माध्यम है मिथक।

डॉ. जगदीश गुप्त की एक प्रमुख मिथक प्रधान काव्य रचना है - 'शंबूक'। सत्ता पक्ष के प्रतीक राम के व्यवहार से आहत शंबूक, राम के समक्ष एक चुनौती है। इस काव्य में उठाए गए तमाम सवाल राम की लोकतांत्रिक व्यवस्था की बखिया उधेड़ कर रख देते हैं। शंबूक एक मिथक पात्र ही नहीं, वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था की समस्त अच्छाइयों तथा बुराइयों को मापने का माध्यम भी है -

सब करें सेवा
अगर वह श्रेष्ठ है,
त्याग दे सब स्वार्थ
यदि वह नेष्ट है। 34

इस प्रकार, हिंदी साहित्य के आदिकाल से अधुनातन साहित्य तक कोई भी अंश मिथकीय साहचर्य से दूर नहीं रह पाया। हृदय और बुद्धि का कोई भी आयाम ऐसा नहीं जहाँ मिथक कथाओं की पहुँच न हो।

संदर्भ

1. ट्वेंटीएथ सेंचुरी क्रिटिसिज्म पृ. 257

2. साहित्य और मिथक - डॉ नगेंद्र पृ. 36

3. साहित्य और मिथक - डॉ नगेंद्र पृ. 45

4. काव्यमीमांसा - राजशेखर, अध्याय 2

5. कबीर ग्रंथावली पृ. 281, पद 390

6. वही पृ 190,पद 301

7. भक्ति का विकास -मुंशीराम शर्मा, पृ. 591

8. जायसी ग्रंथावली, पद्मावत

9. पद्मावत, पद 211

10. रामचरितमानस - तुलसीदास

11. रामचरितमानस, बालकांड - तुलसीदास पद 176

12. सूरसागर, गोकुललीला - सूरदास

13. छंद विचार - चिंतामणि,पद 58

14. शिवराज भूषण - भूषण

15. भारतेंदु ग्रंथावली - भारतेंदु हरिश्चंद्र

16. प्रेमसंपतिलता - ठाकुर जगमोहनसिंह

17. साकेत - मैथिलीशरण गुप्त

18. नहुष - मैथिलीशरण गुप्त

19. साकेत - मैथिलीशरण गुप्त

20. प्रियप्रवास - अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

21. कामायनी, चिंता - जयशंकर प्रसाद

22. कामायनी - जयशंकर प्रसाद

23. राम की शक्तिपूजा - निराला

24. सोमपायी - सुमित्रानंदन पंत

25. रश्मिरथी - दिनकर

26. कैकेयी - केदार नाथ मिश्र

27. कनुप्रिया - धर्मवीर भारती

28. अंधायुग - धर्मवीर भारती

29. संशय की एक रात - नरेश मेहता

30. एक कंठ विषपायी - दुष्यंत कुमार

31. असाध्य वीणा - अज्ञेय

32. ब्रह्मराक्षस - मुक्तिबोध

33. तालाब की मछलियाँ - नागार्जुन

34. शंबूक - डॉ जगदीश गुप्त