काव्य में रहस्यवाद / साहित्य शास्त्र / रामचन्द्र शुक्ल
[यह निंबध केवल इस उद्देश्य से लिखा गया कि 'रहस्यवाद' या 'छायावाद' की कविता के संबंध में भ्रांतिवश या जानबूझकर जो अनेक प्रकार की बे सिर पैर की बातों का प्रचार किया जाता है, वह बंद हो। कोई कहता है'यही वर्तमन युग की कविता है', कोई कहता है'इसमें आजकल की आकांक्षाएँ भरी रहती हैं' और कोई कहता है कि 'बस, यही कविता का रूप है।' किसी सभ्य जाति के साहित्यक्षेत्र में ऐसे प्रवादों का फैलना शोभा नहीं देता।
मैं 'रहस्यवाद' का विरोधी नहीं। मैं इसे भी कविता की एक शाखाविशेष मनता हूँ। पर जो इसे काव्य का सामान्य स्वरूप समझते हैं उनके अज्ञान का निवारण मैं बहुत ही आवश्यक समझता हूँ। ]
'कविता क्या है?' शीर्षक निबंध में हम कह चुके हैं कि कविता मनुष्य के हृदय को व्यक्तिगत संबंध के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोकसामान्य भावभूमि पर ले जाती है, जहाँ जगत् के नाना रूपों और व्यापारों के साथ उसके प्रकृत संबंध का सौंदर्य दिखाई पड़ता है। इस सौंदर्य के अभ्यास से हमारे मनोविकारों का परिष्कार और जगत् के साथ हमारे रागात्मक संबंध की रक्षा और निर्वाह होता है। जिस प्रकार जगत् अनेकरूपात्मक है उसी प्रकार हमारा हृदय भी अनेक भावात्मक है। इन अनेक भावों का व्यायाम और परिष्कार तभी हो सकता है जबकि उन सबका प्रकृत सामंजस्य जगत् के भिन्न भिन्न रूपों और व्यापारों के साथ हो जाय। जब तक यह सामंजस्य पूरा पूरा न होगा तब तक यह नहीं कहा जा सकता है कि कोई पूरी तरह जी रहा है। उसकी सजीवता की मात्रा अधाूरी और प्रसार संकुचित समझा जाएगा। अत: काव्य का काम मनुष्य के सब भावों और सब मनोविकारों के लिए प्रकृति के अपार क्षेत्र में आलंबन या विषय चुनकर रखना है। इस प्रकार उसका संबंध जगत् और जीवन की अनेकरूपता के साथ स्वत: सिद्ध है।
काव्यदृष्टि से हम जब जगत् को देखते हैं तभी जीवन का स्वरूप और सौंदर्य प्रत्यक्ष होता है। जहाँ व्यक्ति के भावों के पृथक् विषय नहीं रह जाते, मनुष्यमात्र के आलंबनों में हृदय लीन हो जाता है, जहाँ व्यक्ति जीवन का लोकजीवन में लय हो जाता है वही भाव की पवित्र भूमि है। वहीं विश्वहृदय का आभास मिलता है। जहाँ जगत् के साथ हृदय का पूर्ण सामंजस्य घटित हो जाता है वहाँ प्रवृत्ति और निवृत्ति भी स्वत: मंगलोन्मुखी हो जाती है। जो नरक के, परजन्म के अथवा राजदंड के भय से ही पाप या अपराध नहीं करते, तथा जो स्वर्ग के या परजन्म के सुख के लोभ से ही कोई शुभ कार्य करते हैं, उनमें हृदय के विकास का अभाव और जीवन के सौंदर्य की अनुभूति की कमी समझनी चाहिए।
जीवन का सौंदर्य वैचित्रयपूर्ण है। उसके भीतर किसी एक ही भाव का विधान नहीं है। उसमें एक ओर प्रेम, हास, उत्साह और आश्चर्य आदि हैं, दूसरी ओर क्रोध, शोक, घृणा और भय आदिएक ओर आलिंगन, मधाुरालाप, रक्षा, सुख शांति आदि हैं, दूसरी ओर गर्जन, तर्जन, तिरस्कार और ध्वं,स। इन दो पक्षों के बिना क्रियात्मक या गत्यात्मक (डायनैमिक) सौंदर्य का प्रकाश नहीं हो सकता। जहाँ इन दोनों पक्षों में साध्यय साधक संबंध रहता है, जहाँ इनमें सामंजस्य दिखाई पड़ता है, वहाँ की उग्रता और प्रचंडता में भी सौंदर्य का दर्शन होता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह सौंदर्य भी मंगल का ही पर्याय है। जो लोग केवल शांत और निष्क्रिय (स्टैटिक) सौंदर्य के अलौकिक स्वप्न में ही कविता समझते हैं वे कविता को जीवनक्षेत्र के बाहर खदेड़ना चाहते हैं।
यूरोप का वर्तमन लोकादर्शवाद (ह्यूमैनिटेरियन आइडियलिज्म) मनुष्य की अंत:प्रकृति के एक समूचे पक्ष के सर्वथा निराकरण मेंक़ेवल प्रेम और भ्रातृभाव की भीतरी शक्ति द्वारा क्रूरता, क्रोध, स्वार्थमद, हिंसावृत्ति आदि की चिरशांति मेंक़ाव्य का परम उत्कर्ष मनता है और उसी के भीतर सौंदर्य और मंगल को बद्धा देखता है। उसका कहना कुछ इस प्रकार है
'सौंदर्य से, प्रेम से, मंगल से, पाप को एकदम समूल नष्ट कर देना ही हमारी आध्याकत्मिक प्रकृति की एकमात्र आकांक्षा है।...उच्च साहित्य स्वभाव नि:सृत अश्रुजल से कलंकमोचन करते हैं और स्वाभाविक आनंद से पुण्य का स्वागत करते हैं।'
यह परम भक्त ईसाई टाल्सटाय के साहित्यिक उपदेशों की बंग प्रतिध्व्नि है। 1 थोड़े शब्दों में इसका खुलासा यह है कि संसार में क्रूरता, हिंसा, अत्याचार, स्वार्थमद आदि हैं तो अत्याचारी को विवेकी, क्रूर को सदय, पापी को पुण्यात्मा, अनिष्टकारी को प्रेमी बनाने के अविचल प्रयत्न प्रदर्शन में ही साहित्य की उच्चता है अर्थात् शुभ और सात्तिवक भावों की अशुभ और तामस भावों पर चढ़ाई और विजय ऊँचे साहित्य का विधान है। क्रूरता पर क्रोध, अत्याचारियों का ध्वंहस, पापियों को जगत् के मार्ग से हटाना, मध्यमम काव्य का विधान है। वर्णव्यवस्था से शब्द लें तो एक ब्राह्मण काव्य का दूसरा क्षत्रिय काव्य।
1. श्री रवींद्रनाथ ठाकुरप्राचीन साहित्य।
इन आदर्शवादियों का कहना है कि आदर्श को सदा सामान्य जीवनभूमि से ऊँचे रखना चाहिए। ठीक है। जितने आदर्श होते हैं सब सामान्य भूमि से ऊपर उठे होते हैं। पर यह कहना कि उपर्युक्त आदर्श के भीतर ही सौंदर्य और मंगल की अभिव्यक्ति होती है, काव्य की उच्चता केवल वहीं मिलती है, मंगल, सौंदर्य तथा काव्य की उच्चता के क्षेत्र को बहुत संकुचित करना है। क्रूर अत्याचारी किसी दीन को निरंतर पीड़ा पहुँचाता चला जाता है। और वह पीड़ित व्यक्ति बराबर प्रेम प्रदर्शित करता और उस अत्याचारी का उपकार साधाता चला जाता है, यहाँ तक कि अंत में उस अत्याचारी की वृत्ति कोमल हो जाती है, वह पश्चााताप करता है, और सुधार जाता है। यह एक ऊँचा आदर्श है, इसमें संदेह नहीं। पर इस आदर्श में केवल दो पक्ष हैंअत्याचारी और पीड़ित। उस क्रूरता और पीड़ा को देखनेवाले तीसरे व्यक्ति की मनोवृत्ति का मंगलमय सौंदर्य कहाँ है, इसका अनुसंधान नहीं है। विचारने की बात है कि दूसरों की निरंतर बढ़ती हुई पीड़ा को देख देख अत्याचारियों की शुश्रूषा और उनके साथ प्रेम का व्यवहार करते चले जाने में अधिक सौंदर्य का विकास है कि करुणा से आर्द्र और फिर रोष से प्रज्वलित होकर पीड़ितों और अत्याचारियों के बीच उत्साहपूर्वक खड़े होने तथा अपने ऊपर अत्याचार पीड़ा सहने और प्राण देने के लिए तत्पर होने में। हम तो करुणा और क्रोध के इसी सामंजस्य में मनुष्य के कर्मसौंदर्य की पूर्ण अभिव्यक्ति और काव्य की चरम सफलता मनतेहैं।
मनुष्य की अंत:प्रकृति के एक पक्ष के सर्वथा अभाव को चरम साध्या रखकर निवृत्ति के आदर्श स्वप्न में लीन करने में ही काव्य की उच्चता हम नहीं मन सकते। यह स्वप्न सुंदर अवश्य है, पर जागरण इससे कम सुंदर नहीं। स्वप्न और जागरण दोनों काव्य के पक्ष हैं। इन दोनों पक्षों का सामंजस्य काव्य का चरम उत्कर्ष है। काव्य में हम 'वादों' का बाहर से आना ठीक नहीं समझते। पर यदि 'वाद' शब्द के बिना किसी पक्ष की पहचान न हो सकती हो तो हमें कहना पड़ेगा कि हमारा पक्ष है 'अभिव्यक्तिवाद' और 'सामंजस्यवाद'।
आदर्श व्यक्ति सिद्ध हो सकता है पर आदर्श लोक साध्यम ही रहा है और रहेगा। जिस दिन यह सिद्ध हो जाएगा उस दिन यह लोक कर्मलोक न रहेगा। फिर इसके रहने की भी जरूरत रहेगी या नहीं, नहीं कह सकते। प्रयत्न ही जीवन की शोभा है; जीवन का सौंदर्य हैक़ेवल अपना पेट भरने या आनंद से तृप्त होने का प्रयत्न नहीं; लोक में उपस्थित बाधा, क्लेश, विषमता आदि से भिड़ने का प्रयत्न। ऍंगरेज कवि ब्राउनिंग ने जीवन के इस प्रयत्न सौंदर्य की ओर इस प्रकार संकेत कियाहै
'यदि मनुष्य केवल आनंद से तृप्त होने के लिए ही, ढूँढ़ने, पाने और आनंद लेने के लिए ही, बना है। तब तो जीवन का इतना गर्वउसके महत्तव की इतनी चर्चाव्यर्थ है। यह आनंद पूरा हुआ कि मनुष्यों के दिन भी पूरे हुए समझिए। क्या पेट भरे पशु पक्षी को भी संशय या चिंता सताती है?
फिर, प्रत्येक बाधा को, जो भूतल के समसुगम को विषम और दुर्गम करती हो, खुशी से आने दो; प्रत्येक दंश (पहुँचाए हुए कष्ट) को जो न बैठा रहने देता हो, न खड़ा रहने, बराबर चलाता ही रहता हो, खुशी से लगने दो। हमारे आनंद बारह आने क्लेश ही हो जायँ? प्रयत्नवान् रहो और जो कुछ श्रम पड़े उसे गनीमत समझो। सीखो, कष्ट की परवाह न करो; साहस करो, क्लेश से मुँह न मोड़ो। 1
जगत् की विघ्न बाधा, अत्याचार, हाहाकार के बीच ही जीवन के प्रयत्न सौंदर्य की पूर्ण अभिव्यक्ति तथा भगवान की मंगलमय शक्ति का दर्शन होता है। अत: जो ऑंख मूँदकर काव्य का पता जगत् और जीवन से बाहर लगाने निकलते हैं वे काव्य के धोखे में, या उसके बहाने से, किसी और ही चीज के फेर में रहते हैं। इसी प्रकार जो लोग ज्ञात या अज्ञात के प्रेम, अभिलाष, लालसा या वियोग के नीरव सरव क्रंदन अथवा वीणा के तार झंकार तक ही काव्यभूमि समझते हैं, उन्हें जगत् की अनेकरूपता और हृदय की अनेक भावात्मकता के सहारे अंधाकूपता से बाहर निकलने की फिक्र करनी चाहिए। निकलने पर वे देखेंगे कि काव्यभूमि कितनी विस्तृत है। जितना विस्तार जगत् और जीवन का है उतना ही विस्तार उसका है। काव्यदृष्टि से यह दृश्य जगत् ब्रह्म की नित्य और अनंत कल्पना है। जिसके साथ उसका नित्य हृदय भी लगा हुआहै।
यह अनंत रूपात्मक कल्पना व्यक्त और गोचर हैहमारी ऑंखों के सामने बिछी हुई है। समष्टि रूप में यह शाश्वत और अनंत है। इसी की भिन्न भिन्न रूप चेष्टाओं की ओर हृदय के भिन्न भिन्न भावों को अपने निज के संबंधप्रभाव से मुक्त करके प्रवृत्त करना ब्रह्म की व्यक्त सत्ता में अपनी व्यक्त सत्ता को लीन करना है। इस पुनीत भावभूमि में जब तक मनुष्य रहता है तब तक यह अनंत काव्यके
1. पुअर वांट आव लाइफ इंडीड,
वेयर मैन वट फार्म्ड टु फीड
आन ज्वाय, टु सोल्ली सीक ऐंड फाइंड ऐंड फीस्ट;
सच फीस्टिग एंडेड, देन
ऐज श्योर ऐन एंड टु मेन;
इक्र्स केयर दि क्रापफुल बर्ड? फ्रेट्स
डाउट दि मा क्रैम्ड बीस्ट?
देन वेलकम ईच रिबफ
दैट टर्न्स अर्थ्स स्मूथनेस रफ,
ईच स्टिग दैट बिड्स नार सिट, नार स्टैंड बट गो।
बी अवर ज्वाएज थ्री पार्ट्स पेन!
स्ट्राइव ऐंड होल्ड चियर दि स्ट्रेन;
लर्न, नार एकाउंट दि पैंग; डेयर नेवर
ग्रज दि थ्रो।
भावुक श्रोता या द्रष्टा के रूप में रहता है। कुछ लोगों का यह ख्याल कि काव्यानुभूति एक और ही प्रकार की अनुभूति है, उसका प्रत्यक्ष या असली अनुभूति से कोई संबंध ही नहीं, या तो कोई ख्याल ही नहीं, या गलत है। काव्यानुभूति (एइस्थेटिक मोड आर स्टेट) एक निराली ही अनुभूति है, इस मत के कारण योरपीय समीक्षा क्षेत्र में बहुत सा अर्थशून्य वाग्विस्तार बहुत दिनों से चला आ रहा है। इस मत की असारता रिचर्ड्स ने अपने 'काव्य समीक्षा सिद्धांत' (प्रिंसिपल्स आव लिटररी क्रिटिसिज्म) में अच्छी तरह दिखाई है।
अपने को भूलकर; अपनी शरीरयात्रा का मार्ग छोड़कर, जब मनुष्य किसी व्यक्ति या वस्तु के सौंदर्य पर प्रेममुग्ध होता है; किसी ऐसे के दु:ख पर, जिसके साथ अपना कोई खास संबंध नहीं, करुणा से व्याकुल होता है; दूसरे लोगों पर सामान्यत: घोर अत्याचार करनेवाले पर क्रोध से तिलमिलाता है; ऐसी वस्तु से घृणा अनुभव करता है जिससे सबकी रुचि को क्लेश पहुँचा है; ऐसी बात का भय करता है जिससे दूसरों को कष्ट या हानि पहुँचने की संभावना होती है; ऐसे कठिन और भयंकर कर्म के प्रति उत्साह से पूर्ण होता है जिसकी सिद्धि सबको वांछित होती है तथा ऐसी बात पर हँसता या आश्चर्य करता है जिसे देख सुनकर सबको हँसी आती या आश्चर्य होता है; तब उसके हृदय को सामान्य भावभूमि पर और उसकी अनुभूति को काव्यानुभूति से भीतर समझना चाहिए। इसलिए यह धारणा कि शब्द, रंग या पत्थर के द्वारा जो अनुभूति उत्पन्न की जाती है केवल वही काव्यानुभूति हो सकती है, ठीक नहीं है।
जिस अनुभूति की प्रेरणा से सच्चे कवि रचना करने बैठते हैं वह भी काव्यानुभूति ही होती है। सत्यकाव्य और असत्यकाव्य मेंक़ाव्य और काव्याभास मेंयही भीतरी या मार्मिक अंतर होता है कि सच्चा काव्य सामान्य भूमि पर पहुँची हुई अनुभूतियों का वर्णन करता है और काव्याभास ऐसे सच्चे वर्णनों की केवल नकल करता है। न जाने कितने भाट कवियों ने अपने आश्रयदाता राजाओं की खुशामद में अपनी समझ में वीर और रौद्र रस लबालब भरकर बड़ी बड़ी पोथियाँ तैयार कीं, पर उनको लोक ने न अपनाया। वे या तो नष्ट हो गईं या उन राजाओं के वंशधारों के घरों में बेठनों में लपेटी पड़ी हैं। वे पोथियाँ सच्ची काव्यानुभूति की प्रेरणा से नहीं लिखी गई थीं। उनके नायकों की वीरमूर्ति या रौद्रमूर्ति राम कृष्ण की, शिवा प्रताप की, वीर रौद्रमूर्ति कैसे हो सकती थी? उनके उत्साह और उनके क्रोध का लोक अपना उत्साह और अपना क्रोध कैसे बना सकता था?
अभिव्यक्ति केवल और निर्विशेष नहीं हो सकती। ब्रह्म अपनी व्यक्त सत्ता के भीतर अपने 'सत्' और 'आनंद' स्वरूप की अभिव्यक्ति के लिए असत् और क्लेश का अवस्थान करता हैअपने मंगल रूप के प्रकाश के लिए अमंगल की छाया डालता है। मंगल पक्ष में सौंदर्य, हास, विकास, प्रफुल्लता, रक्षा और रंजन इत्यादि है, अमंगल पक्ष में विरूपता, विलाप, क्लेश और ध्वंीस इत्यादि हैं। इन दोनों पक्षों के द्वंद्व के बीच से ही मंगल की कला शक्ति के साथ फूटती दिखाई पड़ा करती है। अत्याचार क्रंदन, पीड़न, ध्वं स का सहन जगत् की साधना या तप है, जो वह भगवान की मंगल कला के दर्शन के लिए किया करता है। जीवन प्रयत्नरूप है, अत: मंगल भी साध्यी रहता है; सिद्ध नहीं। जो कविता मंगल को सिद्ध रूप में देखने के लिए किसी अज्ञात लोक की ओर ही इशारा किया करती है, वह आलस्य, अकर्मण्यता और नैराश्य की वाणी है। वह जगत् और जीवन के संघर्ष से कल्पना को भगाकर केवल मन मोदक बाँधने और खयाली पुलाव पकाने में लगाती है। ऐसी कायर कल्पना ही से सच्चे काव्य का काम नहीं चल सकता जो जगत् और जीवन से सौंदर्य और मंगल की कुछ सामग्री ले भागे और अलग एक कोने में इकट्ठी करके उछला कूदा करे।
ब्रह्म की व्यक्त सत्ता सतत क्रियमाण है। अभिव्यक्ति के क्षेत्र में स्थिर (स्टैटिक) सौंदर्य और स्थिर मंगल कहीं नहीं, गत्यात्मक (डायनैमिक) सौंदर्य और गत्यात्मक मंगल ही है, पर सौंदर्य की गति भी नित्य और अनंत है और मंगल की भी। गति की यही नित्यता जगत् की नित्यता है। सौंदर्य और मंगल वास्तव में पर्याय हैं। कलापक्ष से देखने में जो सौंदर्य है, वही धर्मपक्ष से देखने में मंगल है, जिस सामान्य काव्यभूमि पर प्राप्त होकर हमारे भाव एक साथ ही सुंदर और मंगलमय हो जाते हैं, उसकी व्याख्या पहले हो चुकी है। कवि मंगल का नाम न लेकर सौंदर्य ही का जिक्र किया करता है। टाल्सटाय इस प्रवृत्तिभेद को न पहचानकर काव्यक्षेत्र में लोकमंगल का एकांत उद्देश्य रखकर चले इससे उनकी समीक्षाएँ गिरजाघर के उपदेश के रूप में हो गईं। मनुष्य मनुष्य में प्रेम और भ्रातृभाव की प्रतिष्ठा ही काव्य का सीधा लक्ष्य ठहराने से उनकी दृष्टि बहुत संकुचित हो गई, जैसा कि उनकी सबसे उत्तम ठहराई हुई पुस्तकों की विलक्षण सूची से विदित होगा। यदि टाल्सटाय की धर्मभावना में व्यक्तिगत धर्म के अतिरिक्त लोकधर्म का समावेश होता तो उनके कथन में शायद इतना असामंजस्य न घटित होता।
अब यहाँ यह बात फिर स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि कविता का संबंध ब्रह्म की व्यक्त सत्ता से नहीं। जगत् भी अभिव्यक्ति है, काव्य भी अभिव्यक्ति है। जगत् अव्यक्त की अभिव्यक्ति है और काव्य इस अभिव्यक्ति की भी अभिव्यक्ति है। मनुष्य का ज्ञान देश और काल के बीच बहुत परिमित है। वह एक बार में अपने भावों के लिए बहुत कम सामग्री उपस्थित कर सकता है। सदा और सर्वत्रा किसी भाव के अनुकूल यह सामग्री उपलब्ध भी नहीं हो सकती। दूसरी बात यह है कि सबकी कल्पना उतनी तत्पर नहीं होती कि जगत् की खुली विभूति से संचित रूपों और व्यापारों की वे जब चाहे तब ऐसी मर्मस्पर्षिणी योजना मन में कर सकें जो भावों को एकबारगी जागृत कर दे। इसी से सूक्ष्म दृष्टि; तीव्र अनुभूति और तत्पर कल्पनावाले कुछ लोग ही कविकर्म अपने हाथ में लेते हैं।
प्रत्येक देश में काव्य का प्रादुर्भाव इसी जगत् रूपी अभिव्यक्ति को लेकर हुआ। इस अभिव्यक्ति के सम्मुख मनुष्य कहीं से लुब्धा हुआ, कहीं दु:खी हुआ, कहीं क्रुद्धा हुआ, कहीं डरा, कहीं विस्मित हुआ और कहीं भक्ति और श्रद्धा से उसने सिर झुकाया। जब सब एक दूसरे को ऐसा ही करते दिखाई पड़े तब सामान्य आलंबनों की परख हुई और उनके सहारे एक ही साथ बहुत से आदमियों में एक ही प्रकार की अनुभूति जगाने की कला का प्रादुर्भाव हुआ। इसका उपयोग जहाँ दस आदमी इकट्ठे होते, जैसेयज्ञ में, उत्सव में, युद्धयात्रा में, शोकसमाज मेंवहाँ प्राय: होता था। धीरे धीरे इसी अनुभूति योग की साधना से कुछ अंतर्दृष्टिसंपन्न महात्माओं को इस विशाल विश्वविग्रह के भीतर 'परम हृदय' की झलक मिली जिससे कविता और ऊँची भूमि पर आई। ये चराचर के साथ मनुष्यहृदय का संयोग कराने, सर्वभूतों के साथ मनुष्य को तादात्म्य अनुभव कराने उठे।
वाल्मीकि मुनि तमसा के हरे भरे कूल पर फिर रहे थे। नाना वृक्ष और लताएँ प्रफुल्लता से झूम रही थीं। मृग स्वच्छंद विचर रहे थे, पक्षी आनंद से कलरव कर रहे थे। प्रकृति के उस महोत्सव में मुनि के हृदय का भी पूरा योग था। उनकी वृत्ति भी उनमें रमी हुई थी। इतने में देखते ही देखते क्रौंच के एक जोड़े का नर पक्षी, रक्त से लिपटा, गिरकर मुनि के सामने तड़पने लगा। क्रौंची शोक से विह्नल ताकती रह गई। सुख शांति का भंग हुआ। मुनि एकबारगी करुणा से व्याकुल, फिर रोष से उद्विग्न हो उठे। उनके मुँह से यह वाग्धाारा फूट पड़ी
मा निषाद प्रतिष्ठांस्त्वमगम: शाश्वती: समा:।
यत्क्रौद्बचमिथुनादेकमवधी: काममोहितम्ड्ड
इस करुण क्रोध की वाणी में लोकरक्षा और लोकरंजन की साधनाविधिा और काव्य के अनेक भावात्मक स्वरूप की घोषणा थी। मुनि ने तमसातट की उस घटना में संपूर्ण लोकव्यापार का नित्य स्वरूप देखा। इससे वे हताश नहीं हुए। ध्यामन करने पर उसी के भीतर उन्हें मंगलमयी ज्योति का दर्शन हुआ जिसमें शक्ति, शील और सौंदर्य तीनों विभूतियों का दिव्य समन्वय था। इसी समन्वय को लेकर उनकी वेगवती वाग्धाारा चली। यह समन्वय जटिल हैइस प्रकार का है कि चाहे किसी एक को अलग कर लें, उसके साथ दूसरी दो विभूतियाँ भी इधर उधर लगी रहेंगी, जैसेयदि किसी ओर ध्वंीस वा नाश की ओर प्रवृत्त शक्ति को लें तो और सब ओर से वह शीलसाधन और सौंदर्यविकास करती दिखाई देगी। यदि क्षमा अनुग्रह में प्रवृत्त शील को लें तो अपार शक्ति उस क्षमा और अनुग्रह के सौंदर्य को बढ़ाती दिखाई पड़ेगी। यदि सौंदर्य को लें तो वह केवल व्याधि के रूप का प्रेम उभारता न दिखाई पड़ेगा, बल्कि शक्ति शील के योग में भक्ति, आशा और उत्साह का संचार करेगा।
न तो अंत:प्रकृति में एक ही प्रकार के भावों वा वृत्तियों का विधान है और न वाह्य प्रकृति में एक ही प्रकार के रूपों या व्यापारों का। भीतरी और बाहरी दोनों विधानों में घोर जटिलता है। इन्हीं परस्पर संबद्धा विविधा वृत्तियों का सामंजस्य काव्य का परम उत्कर्ष और सबसे बड़ा मूल्य है। सामंजस्य काव्य और जीवन दोनों की सफलता का मूल मंत्र है। काव्य का जो स्वरूप महर्षि वाल्मीकि ने अत्यंत प्राचीन काल में तमसा के किनारे प्रतिष्ठित किया था, आज ईसा की बीसवीं शताब्दी में इंगलैंड के अत्यंत निर्मलदृष्टि समालोचक रिचर्ड्स, योरपीय समीक्षाक्षेत्र का बहुत सा निरर्थक शब्दजाल और कूड़ा करकट पार करते हुए, उसी स्वरूप तक पहुँचे है। । 1
अब विचारने की बात है कि किसी अगोचर और अज्ञात के प्रेम में ऑंसुओं की आकाशगंगा में तैरने, हृदय की नसों का सितार बजाने, प्रियतम असीम के संग नग्न प्रलय सा तांडव करने या मुँदी नयनपलकों के भीतर किसी रहस्य का सुखमय चित्र देखने को ही'भी' तक तो कोई हर्ज न थाक़विता कहना, कहाँ तक ठीक है? चारों ओर से बेदखल होकर छोटे छोटे कनकौवों पर भला कविता कब तक टिक सकती है? असीम और अनंत की भावना के लिए अज्ञात या अव्यक्त की ओर झूठे इशारे करने की कोई जरूरत नहीं। व्यक्त पक्ष में भी वही असीमता और वही अनंतता है। व्यक्त और अव्यक्त में कोई पारमार्थिक भेद नहीं। ये दोनों सापेक्ष और व्यावहारिक शब्द हैं और केवल मनुष्य के ज्ञान की परिमिति के द्योतक हैं। अज्ञान की 'जिज्ञासा' ही का कुछ अर्थ होता है; उसकी 'लालसा' या प्रेम का नहीं। भौतिक जगत् की रूपयोजना लेकर जिस प्रेम की व्यंजना होगी वह भाव की दृष्टि से वास्तव में भौतिक जगत् की उसी रूपयोजना के प्रति होगा। जगह जगह जिज्ञासावाचक शब्द रखकर उसे किसी और के प्रति बताना या तो प्रिय असत्य या सांप्रदायिक रूढ़ि ही माना जायगा।
पहले कहा जा चुका है कि जिस प्रकार जगत् अनेकरूपात्मक है उसी प्रकार काव्य भी अनेकभावात्मक है। प्रेम, अभिलाष, विरह, औत्सुक्य, हर्ष आदि थोड़ी सी मनोवृत्तियों का एक छोटा सा घेरा संपूर्ण काव्यक्षेत्र नहीं हो सकता। इन भावों के साथ और दूसरे भाव, जैसेक़्रोधा, भय, उत्साह, घृणा इत्यादिएेसी जटिलता से गुंफित
1. एनीथिंग इज वैल्युएब्ल ह्निच विल सैटिसफाइ ऐन ऐपिटेंसी विदाउट इनवाल्ंविग दि फ्रास्ट्रेस्सन आव सम ईक्वल आर मोर इंपाटेन्ट ऐपिटेंसी।
दि कांप्लिकेशंस पासिबुल इन दि सिस्टेमाइजेशन आव इंपल्सेज आर इंडेफिनिट। दि प्लैस्टिसिटी आव स्पेशल ऐपिटेंसीज ऐंड ऐक्टिविटीज वैरीज एनार्मस्ली।
दि इंपाटेंस आव ऐन इंपल्स कैन बि डिफाइंड एज दि एक्स्टेंट आव दि डिस्टर्बेन्स आव अदर इंपल्सेज इन दि इंडिविडुअल्स ऐक्टिविटीज ह्निच दि थ्वार्टिंग आव दि इंपल्स इनवाल्ब्स।
अाई ए रिचर्ड्स, प्रिंसिपल्स आव लिटरेरी क्रिटिसिज्म, अधयाय 7
(तृतीय संस्करण, 1928।)
हैं कि सम्यक् काव्यदृष्टि उनको अलग नहीं छोड़ सकती; चाहे उनका सामंजस्य शेष अंत:प्रवृत्तियों के साथ कभी कभी मुश्किल से ही क्यों न बैठता हो।
आजकल कवि के 'संदेश' (मेसेज) का फैशन बहुत हो रहा है। हमारे आदिकवि काअादि से अभिप्राय प्रथम कवि से है जिसने काव्य के पूर्ण स्वरूप की प्रतिष्ठा कीसंदेश है कि सब भूतों तक, संपूर्ण चराचर तक अपने हृदय को फैलाकर जगत् में भावरूप में रम जाओ; हृदय की स्वाभाविक प्रवृत्ति के द्वारा विश्व के साथ एकता का अनुभव करो। करुण अमर्ष की जो वाणी उनके मुख से पहले पहल निकली उसमें यही संदेश भरा था। समस्त चराचर में एक सामान्य हृदय की अनुभूति का जैसा तीव्र और पूर्ण उन्मेष करुणा में होता है वैसा किसी और भाव में नहीं। इसी से आदिकवि की वाणी द्वारा पहले पहल उसी की व्यंजना हुई। उस वाणी में काव्य के प्रकृत स्वरूप का भी पूरा संकेत था। मनुष्य की अंत:प्रकृति के भीतर भावों का परस्पर जैसा जटिल संबंध है करुणा और क्रोध का वैसा ही जटिल संबंध वाणी में था। आलंबनभेद से इन दो विरोधी भावों का कैसा सुंदर सामंजस्य उस हृदय से निकले हुए सीधा सादे वाक्य में था।
अब उनके संदेश का कुछ और विवरण लीजिए। रामायण मेंविशेषत: वर्षा और हेमंत के वर्णन मेंज़िस संश्लिष्ट ब्योरे के साथ उन्होंने प्रकृति के नाना रूपों का सूक्ष्म निरीक्षण किया है उससे उन रूपों के साथ उनके हृदय का पूरा मेल पाया जाता है। बिना अनुराग के ऐसे सूक्ष्म ब्योरों पर दृष्टि न जा ही सकती है न रम ही सकती है। काव्य में 'प्राकृतिक दृश्य' नामक निबंध में हमने किसी वर्णन में आई हुई वस्तुओं का मन में दो प्रकार का ग्रहण बताया था। बिंबग्रहण और अर्थग्रहण मात्र। वर्षा और हेमंत के वर्णन में वाल्मीकि ने बिंबग्रहण कराने का प्रयत्न किया है। उन्होंने वस्तुओं के अलग अलग नाम नहीं गिनाए हैं; उनके आकार, वर्ण आदि का पूरा ब्योरा देते हुए आसपास की वस्तुओं के साथ उनका संश्लिष्ट दृश्य सामने रखा है। इसी संश्लिष्ट रूपयोजना का नाम चित्रण है। कवि इस प्रकार के चित्रण में तभी प्रवृत्त होता है जब वह वाह्य प्रकृति को आलंबन रूप में ग्रहण करता है। उद्दीपन रूप में जो वस्तुविधान होता है उसमें कुछ इनी गिनी वस्तुओं के उल्लेख मात्र से काम चल जाता है।
वन, पर्वत, नदी, नाले, पशु, पक्षी, वृक्ष, लता, मैदान, कछार ये सब हमारे पुराने सहचर हैं और हमारे हृदय के प्रसार के लिए अभी तो बने हुए हैं; आगे की नहीं कह सकते। इनके प्रति युग युगादि का संचित प्रेम जो मनुष्य की दीर्घवंशपरंपरा के बीच वासना रूप में निहित चला आ रहा है उसकी अनुभूति के उद्बोधान में ही मनुष्य की रागात्मिका प्रकृति का पूर्ण परिष्कार और मनुष्य के कल्याणमार्ग का अबाधा प्रसार दिखाई पड़ता है। इन्हें सामने पाकर इनसे यही कहने को जी करताहै
एहो! वन, बंजर, कछार, हरे भरे खेत!
विटप, विहंग! सुनो, अपनी सुनावें हम।
छूटे तुम, तो भी चाह चित्त से न छूटी यह
बसने तुम्हारे बीच फिर कभी आवें हम।
सड़े चले जा रहे हैं बँधो अपने ही बीच,
जो कुछ बचा है उसे बचा कहाँ पावें हम?
मूल रसस्रोत हो हमारे वही छोड़ तुम्हें
सूखते हृदय सरसाने कहाँ जावें हम?
रूपों से तुम्हारे पले होंगे जो हृदय वे ही
मंगल की योग विधिा पूरी पाल पावेंगे।
जोड़ के चराचर की सुख सुषमा के साथ,
सुख को हमारे शोभा सृष्टि की बनावेंगे।
वे ही इस महँगे हमारे नरजीवन का
कुछ उपयोग इस लोक में दिखावेंगे।
सुमनविकास, मृदुआनन के हास, खग
मृग के विलास बीच भेद को घटावेंगे॥
नर में नारायण की कला भासमन कर,
जीवन को वे ही दिब्य ज्योति सा जगावेंगे।
कूप से निकाल हमें छोड़ रूपसागर में
भव की विभूतियों में भाव सा रमावेंगे।
वैसे तो न जाने कितने कुछ काल कला,
अपनी दिखाते अस्त होते चले जावेंगे।
जीने के उपाय तो बतावेंगे, अनेक पर
जिया किस हेतु जाय, वे ही बतलावेंगे। । 1
ज्यों ज्यों मनुष्य अपनी सभ्यता की झोंक में इन प्राचीन सहचरों से दूर हटता हुआ अपने क्रियाकलाप को कृत्रिम आवरणों से आच्छन्न करता जा रहा है त्यों त्यों उसका असली रूप छिपता चला जा रहा है। इस असली रूप का उद्धाटन तभी हुआ करेगा जब वह अपने बुने हुए घने जाल के घेरे से निकलकर कभी कभी प्रकृति के अपार क्षेत्र की ओर दृष्टि फैलाएगा और अपने इन पुराने सहचरों के संबंध का अनुभव करेगा। अपने घेरे के बाहर की क्रूरता और निष्ठुरता के अभ्यास का परिणाम अंत में घेरे के भीतर प्रकट होता है। योरपीय जातियों ने एशिया, अफ्रीका और अमेरिका आदि बाहरी भूभागों में जाकर क्रूरता और निष्ठुरता का बड़े अधयवसाय के साथ
1. ये कवित्त शुक्लजी कृत 'हृदय का मधुर भार' शीर्षक कविता से उध्दृत हैं।
अभ्यास किया। फल क्या हुआ? उसी निष्ठुर और क्रूर वृत्ति का अत्यंत भीषण
विधान अंत में गत महायुद्ध में यूरोप ही के भीतर सामने आया जिससे वहाँ आध्या त्मिकता की चर्चा का फैशन जो उन्नीसवीं शताब्दी की अधिकभौतिक प्रवृत्ति के हद से ज्यादा बढ़ने पर प्रतिवर्तन (रिऐक्शन) के रूप में पहले से चल पड़ा था, खूब बढ़ा। पर इस रोग की दवा अधयात्मवाद, आत्मा की एकता, ब्रह्म की व्यापकता आदि की बनावटी पुकार नहीं है। इसका एक मात्र उपाय चराचर के बीच 'एक हृदय' की सच्ची अनुभूति तथा मनुष्य तक ही नहीं उसके बाहर भी भावों का सामंजस्यपूर्ण प्रसार है।
अब तक जो कविता हुई है उसमें मनुष्येतर प्राणियों केवृक्ष, पशु, पक्षी आदि केप्रति स्पष्ट रूप में प्रेम की व्यंजना कम पाई जाती है। यह प्रेम स्वाभाविक और वास्तविक है, इसका अनुभव थोड़ा बहुत तो सबको होगा। लड़कपन में जिस पेड़ के नीचे कभी हम खेला करते थे उसे बहुत दिनों पीछे देखने पर हमारी दृष्टि कुछ देर उसपर अवश्य थम जाती है। हम प्रेम से उसकी ओर देखते हुए उसके जीर्ण या बूढ़े होने की बात लोगों से कहते हैं, जिस कुत्तो ने कभी बहुत से कामों में हमारा साथ दिया उसकी याद हमें कभी कभी आया करती है। जो बिल्ली कभी कभी जाड़े की धुम में हमारी छत के मुंडेरे पर लेटकर अपना पेट चाटा करती थी उसके बच्चों को हम कुछ प्रेम के साथ पहचानते हैं। जिन झाड़ियों को हम अपने जन्मग्राम के पास के नाले के किनारे देखा करते थे उन्हें किसी दूर देश में पहले पहल देखकर उनकी ओर कम से कम मुड़ जरूर जाते हैं। पशु भी बदले में प्रेम करते हैंक़ेवल हित अनहित ही नहीं पहचानतेइसके कहने की आवश्यकता नहीं। राम के वन जाने पर उनके प्यारे घोड़ों का हींसना, कृष्ण के मथुरा चले जाने पर गायों का हूँकना, कवियों ने भी कहा है। तपोवन से प्रस्थान करते समय शकुंतला की ऑंखों में अपने पोसे हुए मृगछौने और सींच सींचकर बढ़ाए हुए पोधों को देखकर भी कुछ ऑंसू आएथे।
न जाने क्यों हमें मनुष्य जितना और चर अचर प्राणियों के बीच में अच्छा लगता है उतना अकेले नहीं। हमारे राम भी हमें मंदाकिनी या गोदावरी के किनारे बैठे जितने अच्छे लगते हैं उतने अयोध्याा की राजसभा में नहीं। अपनी अपनी रुचि है। अस्तु, यहाँ पर इतना ही कहना है कि भावसाहित्य में मनुष्येतर चर अचर प्राणियों को थोड़ा और प्रेम का स्थान मिलना चाहिए। वे हमारी उपेक्षा के पात्र नहीं हैं। हम ऐसे आख्यान या उपन्यास की प्रतीक्षा में बहुत दिनों से हैं जिनमें मनुष्यों के वृत्त के साथ मिला हुआ किसी कुत्तो बिल्ली आदि का भी कुछ वृत्त हो, घटनाओं के साथ किसी चिरपरिचित पेड़, झाड़ी आदि का भी कुछ संबंध दिखाया गया हो।
कहीं कहीं विलायती काव्यसमीक्षाओं में यह लिखा मिलेगा कि प्रकृति का केवल यथातथ्य चित्रण काव्य तो है, किंतु प्रारंभिक दशा का, उन्नत दशा या ऊँची श्रेणी का नहीं। इस कथन का अर्थ अगर बहुत दूर न घसीटा जाय, अपनी ठीक सीमा के भीतर रखा जाय, तो यही होगा कि प्रकृति के रूपों के चित्रण के अतिरिक्त उनकी व्यंजना पर भी ध्याथन देना चाहिए, प्रकृति के नाना वस्तुव्यापार कुछ भावों, तथ्यों और अंतर्दशाओं की व्यंजना भी करते ही हैं। यह व्यंजना ऐसी अगूढ़ तो नहीं होती कि सब पर समन रूप से भासित हो जाय, किंतु ऐसी अवश्य होती है कि निदर्शन करने पर सहृदय या भावुक मात्र उसका अनुमोदन करें। यदि हम खिली कुमुदिनी को हँसती हुई कहें, मंजरियों से लदे आम को माता और फूले अंगों न समाता समझें, वर्षा का पहला जल पाकर साफ सुथरे और हरे पेड़ पोधों को तृप्त और प्रसन्न बताएँ, कड़कड़ाती धूप से तपते किसी बड़े मैदान के अकेले ऊँचे पेड़ को धूप में चलते प्राणियों को विश्राम के लिए बुलाता हुआ कहें, पृथ्वी को पालती पोसती हुई स्नेहमयी माता पुकारें, नदी की बहती धारा को जीवन का संचार सूचित करें, गिरिशिखर से स्पष्ट झुकी हुई मेघमाला के दृश्य में पृथ्वी और आकाश का उमंग भरा शीतल सरस और छायावृत्त आलिंगन देखें, तो प्रकृति की अभिव्यक्ति की सीमा के भीतर ही रहेंगे।
इसी प्रकार अभिव्यक्ति की प्रकृत प्रतीति के भीतर, प्रकृति की सच्ची व्यंजना के आधार पर, जो भाव, तथ्य या उपदेश निकाले जायँगे वे भी सच्चे काव्य होंगे। उदाहरण के लिए ऍंगरेज कवि वर्ड्सवर्थ की 'एक शिक्षा' (ए लेसन) नाम की कविता लीजिए। इसमें एक फूल का वर्णन है, जो बहुत ठंड, मेह या ओले पड़ने पर संकुचित होकर अपने दल समेट लेता है। कवि ने एक बार इस फूल को इस युक्ति से अपनी रक्षा करते देखा था। फिर कुछ दिनों पीछे देखा तब वह जीर्ण हो गया था, उसमें दल समेटने की शक्ति नहीं रह गई थी। वह मेह और ओले सह रहा था। उसका वर्णन कवि ने इस प्रकार किया
आइ स्टाप्ड ऐंड सेड विद इन्ली मटर्ड वायस।
इट डथ नाट लव दि शावर, नार सीक दि कोल्ड,
दिस नाइदर इज इट्स करेज नार इट्स च्वायस,
बट इट्स नेसेसिटी इन बीइंग ओल्ड।
'मैं रुक गया और मन ही मन कहने लगायह न तो इस झड़ी को चाहता है, न इस ठंड ही को। न तो यह इनका साहस ही है, न रुचि। यह जरावस्था की अवशता है।'
प्रकृति की ऐसी ही सच्ची व्यंजनाओं को लेकर अन्योक्तियों का विधान होता है, जो इतनी मर्मस्पर्शिणी होती हैं। साहित्यमीमांसकों के अनुसार अन्योक्ति में प्रस्तुत वस्तु व्यंग्य होती है अर्थात् जो प्राकृतिक दृश्य सामने रखे जाते हैं उनसे किसी दूसरी वस्तु की, विशेषत: मनुष्य जीवन संबंधी किसी मर्मस्पर्शी तथ्य की, व्यंजना की जाती है। अन्योक्तियों में ध्यातन देने की बात यह है कि व्यंग्य तथ्य पूर्णतया ज्ञात होता है और हृदय को स्पर्श कर चुका रहता है; इससे प्रकृति के दृश्यों को लेकर जो व्यंजना की जाती है वह बहुत ही स्वाभाविक और प्रभावपूर्ण होती है। संस्कृत की जितनी अन्योक्तियाँ मिलती हैं, सब इसी ढंग की होती हैं। उनके आधार पर बाबा दीनदयाल गिरि ने अपने 'अन्योक्तिकल्पद्रुम' में बड़ी सुंदर अन्योक्तियाँ कही हैं। पर दो एक ऐसी अन्योक्तियाँ भी उस पुस्तक में मिलेंगी जिनमें परोक्ष, अव्यक्त या अज्ञात तथ्य की व्यंजना का अनुकरण किया गया है, जैसे
चल चकई! तेहि सर विषे जहँ नहिं रैनि बिछोह।
रहत एकरस दिवस ही सुहृद हंस संदोह।
सहृद हंस संदोह कोह अरु द्रोह न जाको।
भोगत सुख अंबोह, मोह दुख होय न ताको।
बरनै दीनदयाल भाग बिनु जाय न सकई।
पिय मिलाप नित रहै ताहि सर तू चल चकईड्ड
अज्ञात या परोक्ष तथ्य की व्यंजना की यह हवा कबीर आदि निर्गुणपंथी संतों की बानी की है, जिसका एक आधा झोंका व्यक्तिगत एकांत उपासना में लीन रहनेवाले सूरदासजी को भी लगा था। गोस्वामी तुलसीदासजी इससे बचे रहे। अन्योक्ति द्वारा अव्यक्त, परोक्ष या अज्ञात तथ्य की व्यंजना को हम कृत्रिम और काव्यगत सत्य (पोएटिक ट्रघथ) के विरुद्धा समझते हैं। जिस तथ्य का हमें ज्ञान नहीं, जिसकी अनुभूति से वास्तव में कभी हमारे हृदय में स्पंदन नहीं हुआ, उसकी व्यंजना का आडंबर रचकर दूसरों का समय नष्ट करने का कोई अधिकार नहीं। जो कोई यह कहे कि अज्ञात और अव्यक्त की अनुभूति से हम मतवाले हो रहे हैं, उसे काव्यक्षेत्र से निकलकर मतवालों (सांप्रदायिकों) के बीच अपना हाव भाव और नृत्य दिखाना चाहिए। वही ऐसी अनुभूति पर विश्वास करनेवाले मिलेंगे। खैर, इस बात को अभी हम यहीं छोड़ते हैं और प्रस्तुत प्रसंग पर आते हैं।
प्रकृति की सच्ची अभिव्यंजना द्वारा गृहीत तथ्यों का रमणीय वर्णन भी काव्य का एक बहुत आवश्यक अंग है, यह ऊपर कहा जा चुका है। अब हमें यह कहना है कि वैसा ही आवश्यक अंग प्रकृति के दृश्यों का यथातथ्य संश्लिष्ट चित्रण भी है। दोनों अलग अलग अंग हैं। दोनों का विधान भिन्न भिन्न दृष्टियों से होता है। प्रकृति के केवल यथातथ्य संश्लिष्ट चित्रण में कवि प्रकृति के सौंदर्य के प्रति सीधा अपना अनुराग प्रगट करता है। प्रकृति के किसी खंड के ब्योरों में वृत्ति रमाना इसी अनुराग की बात है। प्रकृति की व्यंजना द्वारा गृहीत तथ्यों, उपदेशों आदि में कवि की दृष्टि मनुष्य जीवन पर रहती है। इस भेद को अच्छी तरह ध्यावन में रखना चाहिए। दोनों विधानों का महत्तव बराबर है। इनमें से किसी एक को उच्च और दूसरे को मध्येम कहना एक ऑंख बंद करना है। यही एकांगदर्शिता योरपीय समीक्षकों का बड़ा भारी दोषहै। 1
यदि यूरोप के कवि उनकी बातों पर चलते तो वहाँ से कविता या तो अपना डेरा डंडा उठा लिए होती या लूली लंगड़ी हो जाती। तथ्य ग्रहण में अत्यंत निपुण शेली, वर्ड्सवर्थ, मेरिडिथ आदि बड़े बड़े कवियों ने वाल्मीकि, कालिदास, भवभूति आदि संस्कृत के प्राचीन कवियों की शैली पर कोरे प्राकृतिक दृश्यों का बिना किसी दूसरे तथ्यविधान के बड़ा ही सूक्ष्म और संश्लिष्ट चित्रण किया हैअौर बहुत अधिक किया है। वे इसके लिए प्रसिद्ध हैं।
प्रकृति की ठीक और सच्ची व्यंजना के बाहर जिस भाव, कथ्य आदि का आरोप हम प्रकृति के रूपों और व्यापारों पर करेंगे वह सर्वथा अप्रस्तुत अर्थात् अलंकार मात्र होगा, चाहे हम उसे किसी अलंकार के बँधो साँचे में ढालें या न ढालें। उनका मूल्य एक फालतू या ऊपरी चीज के मूल्य से अधिक न होगा। चाहे हम कोई उपदेश निकालें, चाहे सादृश्य या साधार्म्य के सहारे कोई नैतिक या 'आध्यानत्मिक' तथ्य उपस्थित करें, चाहे अपनी कल्पना या भावना का मूर्त विधान करें, वह उपदेश, तथ्य या विधान प्रकृति के किसी वास्तविक मर्म का उद्धाटन न होगा। अंत:करण की किसी अनुभूति का उद्धाटन भी वह तभी होगा जब किसी सच्चे भाव से प्रेरित और संबद्धा जान पड़ेगा। ऐसे तथ्य कल्पना या विचार का यदि उसकी कुछ सत्ता होगीमूल्य पहले उसकी सूक्ष्मता, गंभीरता, रमणीयता, नवीनता आदि की पृथक् परीक्षा द्वारा, प्राकृतिक रूपयोजना को अलग हटाकर ऑंका जायगा। जब उसमें कुछ सार ठहरेगा तब प्राकृतिक रूपयोजना के साथ उसके साम्य (एनालजी) की रमणीयता का विचार होगा। बनावटी आडंबरवाली कविताओं की परीक्षा के लिए इस पद्धाति का बराबर स्मरण रखना चाहिए। इसके द्वारा अप्रस्तुत आरोप मात्र अलग हो जायगा और यह पता चल जायगा कि कुछ विचारात्मक या भावात्मक सार या सचाई है या नहीं।
कोरे अप्रस्तुत आरोप मात्र पर यदि कोई हृदय की लंबी चौड़ी उछल कूद दिखाएगा तो या तो वह काव्यगत सत्य से बहुत दूर होगी, हृदय के किसी सच्चे भाव की व्यंजना न होगी अथवा जिसे वह प्रस्तुत बताता है, वह ज्ञात या अज्ञात,एक ओट या बहाना मात्र होगा। सत्य सबकी सामान्य संपत्ति होता है, झूठ हर एक का अलग अलग होता है। यही बात काव्यगत सत्यासत्य के संबंध में ठीक समझनी चाहिए।
1. रिचर्ड्स ने योरपीय समीक्षाक्षेत्र के अर्थशून्य वागाडंबर और गड़बड़झाले पर बहुत खेद प्रकट किया है। उन्होंने संक्षेप में उसका स्वरूप इन शब्दों में सूचित किया है'ए फ्यू कंजेक्चर्स, सप्लाई आव एडमानिशंस, मेनी ऐक्यूट आइसोलेट आब्जर्वेशंस सम ब्रिलिएंट गेसेज, मच ओरेटरी ऐंड एप्लाइड पोएट्री, इनएक्जास्टिबुल कन्फ्यूजन, ए सफिशैसी आव डाग्मा; नो स्माल स्टाक आव प्रेज्यूडिसेज, ह्निग्सीज ऐंड क्राचेट्स, एप्रोफ्यूजन आवमिस्टिसिज्म, ए लिटिल जेनुइन स्पेक्युलेशंस, संड्री स्ट्रे इंरिपरेशंस आव सच ऐज दीज इज एक्स्टैंट क्रिटिकल थिअरी कंपोज्ड।'
विलायती समीक्षा क्षेत्र में 'कल्पना', 'कल्पना' की पुकार बहुत बढ़ जाने पर प्रकृति की सच्ची अभिव्यक्ति से विमुख करनेवाले कई प्रकार के प्रवाद प्रचलित हुए। कल्पना के विधायक व्यापार पर ही पूरा जोर देकर यह कहा जाने लगा कि उत्कृष्ट कविता वही है जिसमें कवि अपनी कल्पना का वैचित्रयपूर्ण आरोप करके प्रकृति के रूपों और व्यापारों को कुछ और ही रमणीयता प्रदान करे या प्रकृति की रूपयोजना की कुछ भी परवा न करके अपनी अंतर्वृत्ति से रूपचमत्कार निकाल निकालकर बाहर रखा करे। पहली बात के संबंध में हमें केवल यही कहना है कि कल्पना की यह कार्रवाई वहीं तक उचित और कविकर्म के भीतर होगी जहाँ तक भावप्रेरित होगी और उसके आच्छादन से प्रस्तुत दृश्य पर से हमारे भाव का लक्ष्य हटने न पाएगा। दूसरी के संबंध में हमारा वक्तव्य यह है कि न तो सच्ची कल्पना तमाशा खड़ा करने के लिए है और न कोई अजायबघर है। कविता में कल्पना को हम साधन मनते हैं, साध्यक नहीं।
प्रकृति के रूपों और व्यापारों का उपयोग साधन रूप में भी होता है, जैसे अलंकारों में। अलंकार प्रस्तुत वस्तु या तथ्य की अनुभूति को तीव्र करने के लिए ही प्रयुक्त होते हैं; पर प्रकृति के रूप और व्यापार का व्यवहार प्रस्तुत के स्वरूप के गोचर प्रत्यक्षीकरण के लिए भी बराबर होता है। तीव्र अंतर्दृष्टिवाले कवि अपने सूक्ष्म (ऐब्स्ट्रैक्ट) विचारों का बड़ा ही रमणीय मूर्त प्रत्यक्षीकरण करते हैं। यह बात गूढ़ और सूक्ष्म अर्थगर्भित कविताओं में बराबर पाई जाती है। ऊपर जिस प्रकार की आडंबरी कविता का उल्लेख हुआ है उसका इस प्रकार की कविता से लेशमात्र संबंध नहीं। इसकी अन्यायपूर्ण व्याख्या होने पर विचार जगमगाते हुए बाहर निकलते आते हैं। उसकी तह में विचारधारा का नाम तक नहीं रहता।
सूक्ष्म भावना (ऐब्स्ट्रैक्ट) के मूर्त (कांक्रीट) प्रत्यक्षीकरण का विधान लक्षणा द्वारा भी होता है और 'साध्य वसान रूपक' द्वारा भी। लक्षणा व्यंग्य प्रयोजन सिद्ध करने के अतिरिक्त प्रस्तुत भावना के स्वरूप का प्रत्यक्षीकरण भी करती है। लोभ से चंचल मन को यदि कहा जाय कि 'किसी ओर लपक रहा है' तो उसकी वृत्ति का स्वरूप गोचर होकर हमारे सामने आ जाता है। सूक्ष्म को मूर्त जिस प्रकार कवि लोग करते हैं उसी प्रकार कभी कभी मूर्त को सूक्ष्म भी करते हैं। जब उन्हें किसी गोचर तथ्य के संबंध में अपने पाठकों की दृष्टि का अत्यंत प्रसार करके उन्हें विचारोन्मुख और उनकी मनोवृत्ति को गंभीर करना वांछित होता है तब वे उस तथ्य की स्थूलता या गोचरता हटाकर उसे सूक्ष्म भावना (ऐब्सट्रैक्ट) के रूप में रखते हैं। ये दोनों विधान उच्चकोटि की कविता में जिसमें सूक्ष्म विचारों का गूढ़ अंतर्न्यास रहता है, बहुत ही प्रभाववर्धाक होते हैं। पर इनका दुरुपयोग भी बहुत होता है। इस 'अभिव्यंजनावाद' (एक्सप्रेशनिज्म) का आगे उल्लेख किया जायगा।
पहले हम कह आए हैं कि सच्ची कविता किसी 'वाद' को लेकर नहीं चलती, जगत् की अभिव्यक्ति को लेकर ही चलती है। वादग्रस्त काव्य अधिकतर काव्याभास ही होता है। उसमें प्रकृति के नाना रूप और व्यापार किसी वाद या संप्रदाय के घेरे में निरूपित बातों को मूर्त रूप में स्पष्ट करने या काव्य की भावात्मक शैली को मनोरंजक बनाने के लिए, साधन रूप में ही व्यवहृत होते हैं। वे अधयवसान मात्र होते हैं। यदि कोई कहे कि किसी 'वाद' या संप्रदाय के भीतर निरूपित बातों की अनुभूति मेरे हृदय में वैसी ही होती है जैसी उन गोचर रूपों या व्यापारों की जिन्हें अभिव्यंजना के लिए मैं सामने रखता हूँ तो एक दूसरा 'वादी' या संप्रदायी उन्हीं रूपों और व्यापारों को अपने संप्रदाय की बिलकुल उलटी बातों की अनुभूति प्रदर्शित करने के लिए रखेगा। इस प्रकार कविता के सांप्रदायिक हो जाने पर प्रकृति के रूप और व्यापार अपने सच्चे अभिव्यक्ति क्षेत्र से बाहर घसीटे जाकर सांप्रदायिकों की खींचतान में पड़े रहेंगे और अपना असली प्रभाव खो बैठेंगे।
काव्य को प्रस्तुत वस्तु या तथ्य विचार और अनुभव से सिद्ध, लोकस्वीकृत और ठीक ठिकाने का होना चाहिए, क्योंकि व्यंजना उसी की होती है। हमारे यहाँ दर्शन के नाना वादों को काव्यक्षेत्र में घसीटने की प्रथा नहीं थी। अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धद्वैत इत्यादि अनेक वेदांती वाद प्रचलित हुए पर काव्यक्षेत्र से भक्ति काव्य मेंभी, वे दूर ही रखे गए। निर्गुण संप्रदायवाले ही सूफियों की नकल पर अद्वैतवाद, छायावाद, प्रतिबिंबवाद इत्यादि की व्यंजना तरह तरह के रूपकों, साध्य वसान रूपको। 1 अन्योक्तियों इत्यादि द्वारा चित्ताकर्षिणी मूर्तिमत्ताा के साथ करते रहे। ब्रह्म, माया, पंचेंद्रिय, जीवात्मा, विकार, परलोक आदि को लेकर कबीरदास ने अनेक मूर्तस्वरूप खड़े किए हैं।
इन मूर्त रूपकों में ध्या,न देने की बात यह है कि जो रूपयोजना केवल अद्वैतवाद, मायावाद आदि वादों के स्पष्टीकरण के लिए की गई है उसकी अपेक्षा वह रूपयोजना जो किसी सर्वस्वीकृत, सर्वानुभूत तथ्य को भावक्षेत्र में लाने के लिए की गई है, कहीं अधिक मर्मस्पर्शिणी है। उदाहरण के लिए मायावादसमन्वित अद्वैतवाद के स्पष्टीकरण के लिए कबीर की यह उक्ति लीजिए
जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहरि भीतरि पानी।
फूटा कुंभ, जल जलहि समाना, यह तत कथो गियानीड्ड
यह वेदांत ग्रंथों में लिखा हुआ दृष्टांत कथन मात्र है। अच्छा, इसी ढंग की एक दूसरी कुछ और विस्तृत रूपयोजना देखिए
1. इसे रूपकातिशयोक्ति से भिन्न समझना चाहिए जिसमें अधयवसान आतिशय्य की व्यंजना के लिए होता है, साध्य वसान रूपक (ऐलिगरी) में अधयवसान केवल मूर्त प्रत्यक्षीकरण के लिए होता है, आतिशय्य की व्यंजना के लिए नहीं। साध्य वसान रूपक एक भद्दी चीज है इसे विलायती रहस्यवादी ईट्स तक स्वीकार करते हैं।
मन न डिगै ताथैं तन न डराई।
अति अथाह जल गहिर गँभीर, बाँधिा जँजीर जलि बोरे हैं कबीर।
जल की तरंग उठी, कटी है जँजीर, हरि सुमिरत तट बैठे हैं कबीरड्ड
इसमें ज्ञानोदय द्वारा अज्ञान का बंधन कटने और भवसागर के पार लगने का संकेत है। यह बंधन हरि की कृपा से कटा है, इससे कबीरदास अब उनका स्मरण करते और गुण गाते हैं। यह एक निरूपित सिद्धांत का वास्तव में घटित तथ्य के रूप में चित्रणमात्र है। 'ज्ञान से मुक्ति होती है और ज्ञान ईश्वर के अनुग्रह से होता है।' यह एक 'वाद' या सिद्धांत है। कबीरदासजी इस बात को इस रूप में सामने पेश करते हैं मानो यह सचमुच हुई हैवे भवसागर के पार हो गए हैं और फूले नहीं समा रहे हैं। हम जानते हैं कि इसकी व्याख्या के लिए ऐसे बँधो और मँजे हुए वाक्य मौजूद हैं कि 'यह तो साधक की उस दिव्य अनुभूति की दशा है जिसमें वह अपने को इस भौतिक कारागार से मुक्त और ब्रह्म की ओर अग्रसर देखता है।' पर यदि कोई कहे कि 'यह सब कुछ नहीं; यह एक सांप्रदायिक सिद्धांत का काव्य के ढंग पर स्वीकार मात्र है', तो हम उसका मुँह नहीं थाम सकते।
अब देखिए कि उक्त उक्तियों की अपेक्षा कबीरदासजी की नीचे दी हुई दो उक्तियाँ, जो लोकमत या अनुभवसिद्ध तथ्यों को सामने रखती हैं, कितनी मर्मस्पर्शिणी हैं। देहावसान सबसे अधिक निश्चित एक भीषण तथ्य है। उसके निकट होने की कैसी मूर्तिमान् चेतावनी इस साखी में है
बाढ़ी आवत देखि करि तरिवर डोलनलाग।
हमें कटे की कुछ नहीं, पंखेरू घर भाग।
'हवा में हिलता पेड़ मानो बढ़ई को आता देख काँपता हैबुढ़ापे से हिलता शरीर मानो काल को पास पहुँचता देख थर्राता है। शरीर कहता है कि हमारे नष्ट होने की परवा नहीं; हे आत्मा! तू अपनी तैयारी कर।
मेरो हार हिरानो मैं लजाउँ।
हार गुह्यो मेरो राम ताग, बिचि बिचि मनकि एक लाग।
पंच सखी मिली हैं सुजान, 'चलहुस जइए त्रिवेनी न्हान'।
न्हाइ धाोइ के तिलक दीन्ह, ना जानूँ हार किनहि लीन्ह।
हार हिरानो, जन बिलम कीन्ह, मेरौ हार परोसिनी आहि लीन्ह।
यह उस मन के खो जाने का पछतावा है जो ईश्वर का स्मरण किया करता था। जीवात्मा कहता है कि 'मुझे पंचेद्रियाँ बहकाकर त्रिगुणात्मक प्रवाह में अवगाहन कराने ले गईं जहाँ मेरा मन फँस गया। उसी मन के प्रेम को लेकर मुझे उस प्रिय के पास जाने का अधिकार था। अब उसके बिना जाते नहीं बनता। इंद्रियों ने मुझे बेतरह ठगा'। इस पद में ईश्वर और परलोक मननेवाले मनुष्य मात्र की सामान्य भावना का अनुसरण करके बड़ा ही मधुर मूर्त विधान है। कुछ खटकनेवाला शब्द 'त्रिवेणी' (त्रिगुणात्मक प्रवाह) है। क्योंकि प्रकृति के तीन गुण एक दर्शन विशेष के भीतर की निरूपित संख्या है। पर इस शब्द से अधयवसान में बड़ा सुंदर समन्वय हो गया है।
अन्योक्ति पद्धाति का अवलंबन कबीरदासजी ने कम ही किया है। अधिकतर स्थानों में उन्होंने विकारों, भूतों, इंद्रियों, चक्रों, नाड़ियों इत्यादि की शास्त्रों में बाँधी हुई केवल संख्याओं का उल्लेख साध्य,वसान रूपकों में करके पहेली बुझाने का काम किया है। उनकी जो अन्योक्तियाँ या अधयवसान प्रहेलिका के रूप में नहीं और वादमुक्त हैं वे शुद्ध काव्य के अंतर्गत आ सकती हैं। वाद या सिद्धांत के रूप में प्रतिपादित बातों को स्वभाव सिद्ध तथ्य के रूप में चित्रित करना और उनके प्रति अपने भावों का वेग प्रदर्शित करके औरों के हृदय में उस प्रकार की अनुभूति उत्पन्न करने की चेष्टा करना, हम सच्चे कवि का काम नहीं मनते; मतवादी का काम मनते हैं। मनुष्य का हृदय अत्यंत पवित्र वस्तु है। उसे प्रकृत मार्ग से यों ही उधर उधर भटकाने की चेष्टा, चाहे वह निष्फल ही क्यों न हो, उचित नहीं।
मनुष्य जीवन की वर्तमन और भविष्य स्थिति के संबंध में सूक्ष्म विचार द्वारा उपलब्ध तथ्यों और भावनाओं का मूर्त प्रत्यक्षीकरण आजकल यूरोप के काव्य क्षेत्र की सामान्य प्रवृत्ति है। सभ्यता की वर्तमन अवस्था में, जबकि मनुष्य का ज्ञान विचारात्मक होकर बहुत विस्तृत हो गया है, ऐसा होना बहुत उचित और स्वाभाविक है। यहाँपर यह दिखाने के लिए कि सूक्ष्म विचार और व्यापक दृष्टिवाले जीवित योरोपीय कवियोंकी कविता भी कभी कभी वादग्रस्त होकर किस प्रकार अपना स्वरूप बहुत कुछ खो देतीहै, हम ऍंगरेजी के आजकल के एक अच्छे कवि अबरक्रोंबे को लेते हैं, जो संकुचित दृष्टि के सिध्दांती रहस्यवादी न होने पर भी अधयात्म की ओर झुककर कभी कभी रहस्योन्मुख हो जाते हैं।
अबरक्रोंबे में यूरोप के वर्तमन कवियों की थोड़ी बहुत सब प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं। कभी वे मिलों, कल कारखानों आदि में काम करनेवाले मजदूरों की दुरवस्था पर, उनके साथ होनेवाले अन्याय और अत्याचार पर, करुणा और रोष प्रकट करते हैं; कभी जगत्, जीवन आदि के संबंध में तत्वयचिंतन करते हैं; कभी शरीर, आत्मा, असीम ससीम की जिज्ञासा की प्रेरणा से रहस्यभावना में प्रवृत्त होते हैं। इसी जिज्ञासा के क्षेत्र में उन्होंने कहीं कहीं परोक्ष संबंधी किसी वाद का प्रत्यक्षीकरण या 'अज्ञात' के अभिलाष का काव्यात्मक प्रतिपादन किया है।'मूर्ख का अनुसंधान साहस' (दिफूल्स ऐडवेंचर) में उन्होंने 'तत्व मसि' के निरूपण के लिए जीवात्मा और ब्रह्म का एक खासा संवाद कराया है। एक जिज्ञासु ईश्वर (ब्रह्म) की खोज में मन और आत्मा का सारा प्रदेश छान डालता है और पहले विश्व की आत्मा तक पहुँचता है और उसी को ब्रह्म मन लेता है। इसपर एक ब्रह्मज्ञानी इस प्रकार उसकी भूल सुझाताहै
...पुअर फूल,
ऐंड डिड्स्ट दि थिंक दिस प्रेजेंट सेंसिबुल वर्ल्ड
वाज गुड?
इट इज ए नेम...
दि नेम लार्ड गाड चूजेज टू गो बाइ, मेड इन
लैंग्वेज आव स्टार्स ऐंड, हेवेन्स ऐंड लाइफ।
'अरे मूर्ख, तूने क्या इस प्रस्तुत गोचर जगत् को ब्रह्म समझा था? यह तो आकाश, नक्षत्रा और जीवनरूपी भाषा में व्यक्त एक नाम है जो अपने लिए उसने रख लिया है।'
अंत में चराचर की सीमा पर पहुँचकर वह अपने अंतस् के अदृश्य अधिष्ठाता से पूछता है
सीकरदेन दाउ आर्ट गाड?
विदिनएे मेनी काल मी सो।
ऐंड येट, दो वर्ड्स वेयर नेवर लार्ज एनफ टु टेक मी मेड;
आई हैव ए बेटर नेम।
सीकरदेन टघ्रली हू आर्ट दाउ?
विदिनअाइ ऐम दाइ सेल्फ।
जिज्ञासुतो फिर तू ही ब्रह्म है?
अंतर्वाणीहाँ बहुत लोग ऐसा ही कहते हैं। फिर भी, यद्यपि शब्दों के भीतर मेरा स्वरूप नहीं आ सकता, मेरा इससे अच्छा नाम भी है।
जिज्ञासुफ़िर तू है कौन?
अंतर्वाणीमैं तू ही हूँ (तेरी आत्मा हूँ)।
उसी प्रकार 'तुरीयावस्था' (दि ट्रैंस) नाम की कविता में उन्होंने ब्रह्मानुभूति का वर्णन इस प्रकार किया है
'मैं निश्चय (जिसका संबंध बुद्धि या विचार से होता है) के ऊपर उठ गया था, काल से परे हो गया था। दिक् के ज्योतिष्क मंडलों से तथा उस कोने से जिसे चेतना या ज्ञान कहते हैं, बिलकुल बाहर हो गया था। उस दशा में हे प्रभो! क्या मैं तुम्हारे बीच में नहीं था?'1
यहाँ पर हम यह स्पष्ट कह देना चाहते हैं कि उक्त ज्ञानातीत (टैं्रसेडेंटल) दशा सेचाहे वह कोई दशा हो या न होक़ाव्य का कोई संबंध नहीं है। स्वयंअबरक्रोंबे
1. आइ वाज एक्जाल्टेड अबव श्योरिटी
ऐंड आउट आव टाइम डिड फाल।
× × ×
आइ स्टुड आउट साइड दि बर्निंग रिम्स आव प्लेस,
आउटसाइड दैट कार्नर, कांशसनेस।
देन वाज आइ नाट इन दि मिड्स्ट आव दि
लार्ड गाड?
ने ही अपनी एक दूसरी कविता, 'शरीर और आत्मा' (सोल एंड बाडी) में, काव्य की वास्तविक भूमि क्या है, इसका आभास दिया है। उस कविता में, आत्मा इस 'चेतना के तंग घेरे' से बाहर होने के लिए मनोमय कोश (ज्ञानेंद्रियाँ और मन जिनसे सांसारिक विषयों की प्रतीति होती है) को फेंका ही चाहती है कि शरीर उसको चेतावनी देता है कि ऐसा करने से
'तू इस विस्मयपूर्ण आनंद को खो बैठेगा जिसे मैंने अपनी विषयविधायिनीइंद्रियों द्वारा इस प्रिय जगत् में खड़ा कर रखा है। फिर यह नीलहरित, यह सौरभ,यह संगीत कहाँ? फिर यह शाद्वलप्रसार, यह मंद प्रशांत अनिलस्पर्श और ढलते सूर्य का स्वर्णाभविराम कहाँ? फिर ये ऊँची उठी हुई पर्वतों की चोटियाँ कहाँ' जो ऑंखों पर कुहरे की पट्टी बाँधो (धयानावस्थित हो) मानो नित्य और दिव्य अनाहतस्वरसुनरहीहै। । 1
मनोमय कोश ही प्रकृति काव्यभूमि है, यही हमारा पक्ष है। इसके शरीर की वस्तुओं की कोई मनमानी योजना खड़ी करके उसे इससे बाहर के किसी तथ्य काज़िसका कुछ ठीक ठिकाना नहींसूचक बताना हम सच्चे कवि का क्या, सच्चे आदमी का काम नहीं समझते।
अब थोड़ा 'अज्ञात की लालसा' का विचार भी कर लेना चाहिए जिसका निरूपण अबरक्रोंबे ने मजहबी ढंग पर अपने 'संत थूमा का आत्मविक्रय' (सेल आव सेंट टॉमस) नामक काव्य में किया है। ईसाइयों में एक प्रवाद प्रचलित है कि ईसा के चेले थूमा दक्षिण भारत में उपदेश करने आए थे। उसी प्रवाद के आधार पर यह कविता रची गई है। ईसा थूमा को भारतवर्ष में प्रचार के लिए भेजते हैं और वे भाग भाग आते हैं। जब वे दूसरी बार भागने पर होते हैं, तब हजरत ईसा उनसे कहते हैं
'थूमा! अपना पाप समझो। तुम डर से नहीं भागे हो न, आदमी एक बार डर से सिटपिटाता है, पर फिर साहस करके सब प्रकार की आपत्तियाँ झेलने के लिए तैयार हो जाता है। तुम जागे हो अपनी बुद्धिमानी और दूरदर्शिता के कारण। यह बुद्धिमानी भी बड़ा भारी पाप है क्योंकि यह मनुष्य की अंत:प्रकृति में निहितअज्ञात शक्तिपथों पर विश्वास नहीं करने देती। उनकी प्रेरणाओं को यह सस्ते अनुभवलब्धा
1. दाउ विल्ट मिस दि वंडर आइ हैव मेड फार दि
आव दिस डिअर वर्ल्ड विद माइ फैशनिंग ससेज
दि ब्ल्यू, दि फ्रैग्रैंस, दि सिंगिग ऐंड दि ग्रीन।
× × ×
ग्रेट स्पेसेज आव ग्रासी लैंड, ऐंड आल दि एअर
वन क्वाएट दि सन टेकिंग गोल्डेन ईज
अपान ऐन आफ्टरनून टाल हिल्स दैट स्टैंड इन वेदर ब्लाइंडेड ट्रेसेज
ऐज इफ दे हर्ड, ड्रान अपवर्ड ऐंड हेल्ड देयर
सम गाड्स एटर्नल टयून।
विवेचन के पलड़े पर रखकर तोलती है। यह लालसा को ज्ञान या विचार के घेरे में डालकर संकुचित करती है। पर यह समझ रखो कि मनुष्य उतना ही बड़ा हो सकता है जितना बड़ा उसका अभिलाष होगा। अत: आत्मदृष्टि उतनी ही दूर तक बँधीन रखो जितनी दूर तक तुम्हारे ज्ञान और बुद्धि के दीपक का प्रकाश पहुँचता है। अपनी लालसा को अज्ञात के अंधकार की ओर छानबीन करने के लिए बढ़ाओ। संभव को जानकर उसके बाहर अनहोनी बातों और असंभव लक्ष्यों की ओर बढ़ो। धीरे धीरे तुम देखोगे कि तुम्हारी ज्ञात की लालसा का क्षेत्र भी आपसे आप वैसा ही व्यापक हो जायगा।'
इस प्रकार हजरत ईसा के मुँह से रहस्यवाद के सिद्धांत पक्ष का निरूपण कराया गया है। इसका निचोड़ यही है कि लालसा को व्यक्त और ज्ञात के बाहर अव्यक्त और अज्ञात तक ले जाना चाहिए। इस कथन पर विचार करने के पहले लालसा या अभिलाष का स्वरूप निश्चित कर लेना चाहिए। लालसा ऐसी वस्तुओं की प्रति होती है जिसकी प्राप्ति या साक्षात्कार से सुख और आनंद होता है। इस जगत् में सुख या आनंद दु:ख और क्लेश के साथ मिलाजुला पाया जाता है। दूसरी बात यह है कि जितना सुख सौंदर्य इस जगत् में देखा जाता है उतने से मनुष्य की भावना परितृप्त नहीं होती। वह सुख सौंदर्य को अधिक पूर्ण रूप में देखना चाहती है। भावना या कल्पना को इस पूर्णता के अवस्थान के लिए चार क्षेत्र मिल सकते हैं
(1)इस भूलोक के बाहर, पर व्यक्त जगत् के भीतर ही किसी अन्य लोकमें।
(2)इस भूलोक के भीतर ही, पर अतीत के क्षेत्र में।
(3)इस भूलोक के भीतर ही, पर भविष्य के गर्भ में।
(4)इस गोचर जगत् के परे अभौतिक और अव्यक्त के क्षेत्र में।
1. इन चारों क्षेत्रों के भीतर ले जाकर मनुष्य अपनी सौंदर्य और मंगल की भावना को पूर्णता या पराकाष्ठा तक पहुँचाने का थोड़ा या बहुत प्रयत्न करता रहा है। इनमें से प्रथम क्षेत्र की ओर मनुष्य जाति का ध्याान स्वभावत: सबसे पहले गया। पृथ्वी पर रहकर भी मनुष्य ने व्यक्त जगत् की अनंतता का प्रत्यक्ष अनुभव किया। अनंत आकाश के बीच नक्षत्राों के रूप में अनंत लोकों का निश्चय उसे सहज में हो गया। वहीं पर कहीं उसकी भावना ने स्वर्ग आदि पुण्य लोकों का अवस्थान किया जहाँ जरा मृत्यु का भय नहीं, दु:ख, क्लेश, भय का नाम नहीं, आनंद ही आनंद हैअानंद भी ऐसा वैसा नहीं, नंदनकानन का विहार। लोकसामान्य धर्म व्यवस्था और काव्य दोनों में इस भावना का उपयोग हुआ।
2. द्वितीय क्षेत्र में सुख सौंदर्य की पूर्णता की भावना उस समय से हुई जब प्राचीन इतिहास, कथा पुराण आदि का मौखिक प्रचार मनुष्य जाति के बीच हुआ। इन कथाओं में पूर्वकाल की वीरता, धीरता धर्मपरायणता, सुख समृद्धि आदि का बहुत ही मनोरंजक और अत्युक्त वर्णन रहता था जिसे सुनते सुनते भूतकाल के बीच सुख सौंदर्य की पूर्णता की सामान्य धारणा और पुष्ट होती रही। यह धारणा पूरबी (एशियाई) जातियों में अब तक मूलबद्धा है।
3. तृतीय क्षेत्र में सुख सौंदर्य की पूर्णता की भावना बिलकुल आधुनिक है। इसका प्रादुर्भाव मनुष्य जाति की स्थिति पर व्यापक दृष्टि से विचार करने की वर्तमन प्रवृत्ति के साथ साथ हुआ है। धर्म नीति, राजनीति, व्यापार नीति आदि के कारण मनुष्य जाति के भीतर फैली हुई विषमता, क्लेश, ताप, अन्याय, अत्याचार इत्यादि के परिहार की भावना और प्रयत्न के साथ आशा और उत्साह का संयोग करने के लिए कवियों की वाणी भी अग्रसर हुई। इस प्रकार की कविता का प्रचार योरपीय देशों में सुख समृद्धि और स्वातंत्रय के संगीत के रूप में शेली के समय से लेकर अब तक जारी है। भविष्य का सुख स्वप्न वर्तमन योरपीय कविता के प्रधान लक्षणों में हैं। यह मंगलाशा बहुत ही प्रशस्त भाव है, इसमें संदेह नहीं, पर इसके संबंध में कुछ अस्वाभाविक और कृत्रिम चर्चा का प्रचार भी देखा जाता है। यह सुख स्वप्न 'भविष्य की उपासना या भविष्य का प्रेम' कहा जाता है। वास्तव में यह प्रस्तुत जीवन का प्रेम है। आशा इसी प्रेम के संचारी के रूप में उठकर इस जीवन के पूर्ण सौंदर्य का दर्शन इसे भविष्य के क्षेत्र में ले जाकर कराती है। भविष्य के सुख सौंदर्य के चित्रण की प्रवृत्ति का यही मूल है।
यह चित्रण भी उसी हद तक पहुँचा दिया जाता है जिस हद तक किसी परलोक के सुख सौंदर्य का चित्रण। अबरक्रोंबे ने इस जीवन के साथ 'नित्य का संयोग' (दि एटर्नल वेडिंग) किसी भविष्य काल में निर्विशेष और निरपेक्ष आनंद का स्वप्न देखते हुए, इस प्रकार कराया है
...सी वी आर ड्रिबेन
आनवर्ड एंड अपवर्ड, इन ए विंड आव ब्यूटी,
अन्टिल मैन्स रेस बी बील्डेड बाइ इट्स जाय
इन्टु सम हाइ इन्कंपेयरेबुल डे,
ह्नेअर परफेक्ट्ली डिट्लाइट मे नो इटसेल्फ
नो लांगर नीड ए स्ट्राइफ टु नो इटसेल्फ
ओन्ली बाइ प्रिबेलिंग ओबर पेन।
'हम सौंदर्य की वायु में पड़े बराबर आगे और ऊँचे बढ़ते जाते हैं। इस प्रकार मनुष्य जाति अंत में वह अनुपम दिन देखेगी जब आनंद अपनी अनुभूति आप अकेले कर लेगाइस अनुभूति के लिए उसे किसी प्रकार द्वंद्व की अपेक्षा न होगी।' आनंद स्वयंप्रकाश होगा केवल क्लेश के परिहार के रूप में न होगा।'
पर यह कहना कि अब 'भूत के प्रेम' के स्थान पर 'भविष्य के प्रेम' ने घर किया है, एक प्रकार की रूढ़ि (कन्वेंशन) या बनावट ही है। हृदय की दीर्घ वंश परंपरागत वासना का उल्लेख हम पहले कर चुके हैं। इस वासना के संघटन में इतिहास, कथा, आख्यान आदि का भी बहुत कुछ योग रहता है। एक भावुक योरपियन के लिए एथंस, रोम आदि नामों में तथा एक भावुक भारतीय के लिए अयोध्याि, मथुरा, दिल्ली, कन्नौज, चित्तौड़, पानीपत इत्यादि नामों से कितना मधुर प्रभाव भरा है! अतीत का यह राग कहाँ तक उपयोगी है, इसका विचार करने हम नहीं बैठे हैं। उपयोगिता अनुपयोगिता का विचार छोड़ शुद्ध कला की दृष्टि से हम मनुष्य की रागात्मिका प्रकृति के स्वरूप का विचार कर रहे हैं। मनुष्य का हृदय वास्तव में जैसा है वैसा मनकर हम चल रहे हैं। हमारे कहने का अभिप्राय केवल यही है कि 'अतीत का राग' एक बहुत ही प्रबल भाव है। उसकी सत्ता का अस्वीकार किसी दशा में हम नहीं कर सकते। मनुष्य शरीर यात्रा के संकीर्ण मार्ग में मैले पड़े हुए अपने भावों को अतीत की पुनीत धारा में अवगाहन कराकर न जाने कब से निर्मल और स्वच्छ करता चला आ रहा है। अतीत का और हमारा साहचर्य बहुत पुराना है। उसे हम जानते हैं, पहचानते हैं; इसीलिए प्यार करते हैं। भविष्य को हम नहीं जानते, उसकी हमारी जान पहचान तक नहीं। उसके साथ प्रेम कैसा? परिचय के बिना प्रेम हम नहीं मनते। प्रेम के लिए परिचय चाहिए चाहे पूरा, चाहे अधूरा।
4. अब इस गोचर जगत् के परे अभौतिक, अव्यक्त और अज्ञात क्षेत्र को लीजिए। सुख सौंदर्य की पूर्ति के लिए जो तीन क्षेत्र ऊपर निर्दिष्ट किए गए उनमें सबसे अज्ञात भविष्य का क्षेत्र है। उसके अंतर्गत हम दिखा चुके हैं कि जो 'भविष्य का प्रेम' कहा जाता है वह वास्तव में प्रस्तुत जीवन का प्रेम है जो आशा का संचरण कराके कवि को भविष्य सुख सौंदर्य के चित्रण में प्रवृत्त करता है। वही बात यहाँ भी है। वास्तव में यह जगत् सुख के सौंदर्य की आसक्ति या प्रेम है जो संचारी के रूप में आशा या अभिलाष का उन्मेष करके, इसी सुख सौंदर्य को किसी अज्ञात या अव्यक्त क्षेत्र में ले जाकर पूर्ण करने की ओर प्रवृत्त करता है। अत: तत्व्दृष्टि से, मनोविज्ञान की दृष्टि से, साहित्य की दृष्टि से 'अज्ञात की लालसा' कोई भाव ही नहीं है। यह केवल 'ज्ञात की लालसा' है जो भाषा की छिपानेवाली वृत्ति के सहारे 'अज्ञात की लालसा' कही जाती है।
अपने सुख सौंदर्य की भावना को पूर्णता पर पहुँचाने के लिए इस क्षेत्र की ओर पहले पहल दृष्टि करनेवाले सूफी थे। उनकी भावुकता इस जगत् की ऐसी विचित्र और रमणीय रूपविभूति को केवल ईश्वर की कृति या रचना मनने से तृप्त नहीं हुई। किसी के बनाए खिलौने की सुंदरता देख हम चाहे जितने मुग्ध होंइतने मुग्ध हों कि बनानेवाले का हाथ चूमने को जी चाहेपर हमारा प्रेम उस (बनानेवाले) से दूर ही दूर रहेगा। इससे सूफियों ने इस प्रत्यक्ष रूपविभूति को ईश्वर की कृति न कहकर उसकी छाया या प्रतिबिंब कहा। किस प्रकार इस 'प्रतिबिंब' के साथ 'अभिव्यक्तिवाद' का संयोग करके उन्होंने अपने काव्यक्षेत्र में कृत्रिमता न आने दी, इसका वर्णन हम आगे चलकर करेंगे। यहाँ प्रस्तुत विषय है, सुख सौंदर्य की भावना को अव्यक्त और अभौतिक क्षेत्र में ले जाकर पूर्णता को पहुँचाना। इस संबंध में यह अच्छी तरह समझ रखना चाहिए कि सूफी कविता इस काया के बीच में हीइस दृश्य जगत् के भीतर हीउस प्रियतम की झलक देखने दिखाने में प्रवृत्त रही है। अव्यक्त के क्षेत्र में सौंदर्य का अनंत सागर, आनंद की अपरिमित राशि, प्रेम वासना की असीम तृप्ति का विवरण देने बहुत ही कम गई है। भारतवर्ष में निर्गुण संप्रदाय के भीतर जो सूफी भावना प्रकट हुई उसमें अलबत यह प्रवृत्ति कुछ दिखलाई पड़ती है। कारण यह है कि भारतीय काव्यक्षेत्र में उसे अरबी फारसी के काव्यक्षेत्र की अपेक्षा अधिक रमणीय और प्रचुर रूपविधान मिला। पर 'कलावाद' के सहारे अव्यक्त और अज्ञात की सबसे अधिक झांकियाँ विलायती 'रहस्यवाद' में ही खोली गईं।
विलायती काव्यक्षेत्र में सुख सौंदर्य की भावना को अज्ञात और अव्यक्त के क्षेत्र में ले जाकर पूर्णता पर पहुँचाने का इशारा किधार से मिला, थोड़ा यह भी देख लेना चाहिए। यह इशारा जर्मन दार्शनिकों के 'प्रत्ययवाद' (आइडियलिज्म) से मिला, जिसके प्रवर्तक काँट थे। उन्होंने मनुष्य के ज्ञान की विस्तृत परीक्षा करके यह प्रतिपादित किया कि इंद्रियों की सहायता से मन को जिन रूपों का बोध होता है वे उसी के रूप हैं किसी वाह्य वस्तु के नहीं। परमार्थ पक्ष(क्रीटिक आव प्योर रीजन) में ईश्वर, जगत् और आत्मा का पक्ष विपक्ष दोनों के प्रमाणों के खंडन द्वारा, असिद्ध ठहराकर, व्यवहार पक्ष (क्रीटिक आव प्रैक्टिकल रीजन) में उन्होंने ईश्वर, अमर आत्मा और अनंत जीवन सबका प्रतिपादन किया। उन्होंने कहा कि शुद्ध अमर आत्मा और ईश्वर का अस्तित्व मिल जाता है। जीवन का चरम मंगल क्या है? न अकेला धर्म, न अकेला सुख। धर्म का सुख से कोई स्वत:सिद्ध संबंध नहीं। जीवन के चरम मंगल में धर्म और सुख दोनों की पराकाष्ठा है। अब इन दोनों का संयोग कैसे होता है। कोई मध्यगस्थऔ चाहिए। इसलिए ईश्वर का अस्तित्व मनना पड़ता है। ईश्वर दोनों के बीच संयोग स्थापित करता है। इसी विचारपद्धाति से आत्मा का अमरत्व भी मनना पड़ता है। धर्म की पराकाष्ठा और सुख की पराकाष्ठा के साधन के लिए यह अल्पकालिक जीवन काफी नहीं है। अत: अनंत जीवन मनकर चलना पड़ता है। 1
कट्टर दार्शनिक काँट के इस व्यवहार पक्ष निरूपण पर वैसी आस्था नहीं रखते। काँट अपने परमार्थ पक्ष निरूपण के लिए ही प्रसिद्ध हैं। विचार करने पर यह स्पष्ट प्रतीत होगा कि काँट का व्यवहार पक्ष निरूपण उसी दृष्टि से हुआ है जिस दृष्टि से शंकराचार्य का; पर दोनों में उतना ही अंतर है जितना भारत और यूरोप में। व्यवहारपक्ष में शंकराचार्य ने जिस उपासनागम्य ब्रह्म का अवस्थान किया है वह सोपाधिा या सगुण ब्रह्म है; अव्यक्त पारपार्थिक सत्ता नहीं। अव्यक्त, निर्गुण, निर्विशेष (ऐब्सोल्यूट) ब्रह्म उपासना के व्यवहार में सगुण ईश्वर हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है किउपासना
1. विशेष देखिए, 'विश्वप्रपंच' की भूमिका।
जब होगी तब व्यक्त और सगुण की ही होगी; अव्यक्त और निर्गुण की नहीं। 'ईश्वर' शब्द ही सगुण और विशेष का द्योतक है, निर्गुण और निर्विशेष का नहीं। उसके भीतर सेव्य सेवक भाव छिपा हुआ है। स्थूल आकार मात्र हटाकर दया, अनुग्रह, प्रेम, सौंदर्य इत्यादि में यूरोपवाले चाहे अभौतिक, अगोचर, अव्यक्त या पूरी सत्ता की प्राप्ति समझ लें; पर सूक्ष्म भारतीय दार्शनिक दृष्टि इन सबको प्रकृति के भीतर ही लेगी। दया, अनुग्रह, औदार्य, माधुर्य आदि भूतों के गुण हैं। ये सब गोचर के अंतर्भूत हैं, क्योंकि मन, जो इनका बोध करता है, भीतरी इंद्रिय ही है। भारतीय और योरोपीय दृष्टि के इस भेद को ध्या न में रखना चाहिए।
भारतीय दृष्टि के अनुसार अज्ञात और अव्यक्त के प्रति जिज्ञासा हो सकती है, अभिलाष या लालसा नहीं। यदि कहा जाय कि 'मोक्ष' की इच्छा का फिर क्या अर्थ होगा? इसका उत्तर यह है कि मोक्ष या मुक्ति केवल अभावसूचक (निगेटिव) शब्द है, जिसका अर्थ है छुटकारा। जिससे मोक्षार्थी छुटकारा चाहता है वह दु:ख, क्लेशादि का संघात उसे ज्ञात होता है। छुटकारे के पीछे क्या दशा होगी, इसका न तो उसे कुछ ज्ञान होता है, न अभिलाष हो सकता है। इसी से हमारे यहाँ के भक्त लोग, ब्रह्म के सगुण रूप में आसक्त होते हैं, मुक्ति के मुँह में धूल डाला करते हैं। जिज्ञासा और लालसा में बड़ा भेद है। जिज्ञासा केवल जानने की इच्छा है। उसका ज्ञेय वस्तु के प्रति राग, द्वेष, प्रेम, घृणा इत्यादि का कोई लगाव नहीं होता। उसका संबंध शुद्ध ज्ञान के साथ होता है। इसके विपरीत लालसा या अभिलाष रतिभाव का एक अंग है। अव्यक्त ब्रह्म की जिज्ञासा और व्यक्त सगुण ईश्वर या भगवान के सान्निधय का अभिलाष, यही भारतीय पद्धाति हैA अव्यक्त, अभौतिक और अज्ञात का अभिलाष यह बिलकुल विदेशी कल्पना है और मजहबी रुकावटों के कारण पैगंबरी मत मननेवाले देशों में की गई है। इसकी सांप्रदायिकता हम आगे चलकर दिखाएँगे। यहाँ इतना ही कहने का प्रयोजन है कि अव्यक्त, अगोचर ज्ञानकांड का विषय है। हमारे यहाँ न वह उपासनाक्षेत्र में घसीटा गया है, न काव्यक्षेत्र में। ऐसी बेढंग जरूरत ही नहीं पड़ी।
उपासना के लिए इंद्रिय और मन से परे ब्रह्म को पास लाने की जरूरत हुई। कहीं तो वह ईश्वर के रूप में केवल मन के पास लाया गया अर्थात् उसमें रूप, आकार आदि की भावना न करके केवल दया, दाक्षिण्य, प्रेम, औदार्य आदि की ही भावना की गई। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह केवल अंत:करणग्राह्य भावना भी गोचर भावना ही है। कहीं इसके आगे बढ़कर विष्णु, शिव इन देवरूपों मेंअर्थात्मनुष्य से ऊँची कोटि मेंवाह्यकरणग्राह्य भावना भी हुई। भारतीय भक्तिभावना यहीं तक पुष्ट न हुई। बड़े साहस के साथ आगे बढ़कर उसने नर में ही नारायणत्व का दर्शन किया। राम और कृष्ण को लेकर भक्तिकाव्य का प्रवाह बड़े वेग से चल पड़ा। सारांश यह कि सान्निधय का अभिलाष व्यक्त और ज्ञात की ओर ही आकर्षित होता हुआ बढ़ा है और उसी को उसने अपना चरम लक्ष्य भी रखा है। यहाँ के भक्तों का साध्यह कैवल्य नहीं रहा।
अब यह देखना चाहिए कि मनुष्य अपनी सुख सौंदर्य भावना को जब पूर्णता के लिए चरम सीमा पर पहुँचाता है तब क्या वह सचमुच व्यक्त, भौतिक या प्राकृतिक के परे हो जाता है? उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि वह इसके भीतर ही रहता है। भावना या कल्पना में आई हुए संघटित रूपयोजना चाहे वह कितनी ही दूरारूढ़ हो, व्यक्त प्रकृतिविकार ही रहेगी। अब रही असीम ससीम और नित्य अनित्य की बात। हम पहले कह चुके हैं कि समष्टि रूप में यह विश्व या व्यक्त जगत् अनंत और शाश्वत है। ब्रह्म के मूर्त, अमूर्त दो रूपों में मूर्त और सत्1 को जो मर्त्य कहा है वह केवल सतत गतियुक्त या परिवर्तनशील के अर्थ में, सत्ता के अभाव के अर्थ में नहीं। अत: असीम और नित्य के लिए अव्यक्त और अगोचर में जाने की कोई जरूरत नहीं। ब्रह्म के दोनों रूप असीम और नित्य हैं। इस मूर्त विराट् के भीतर न जाने कितने लोक, ब्रह्मांड, सौरचक्र, बनते बिगड़ते रहते हैं, पर इसकी रूपसत्ता ज्यों की त्यों रहती है। अबरक्रोंबे ने अपनी 'निकास' (ऐन एस्केप) नाम की कविता में असीम के अभिलाष के जिस द्वंद्व का वर्णन बड़े स्मरणीय रूपविधान के साथ किया है, वह वास्तव मेंभारतीय दृष्टि सेव्यक्त और गोचर के भीतर ही है। 2
हमारा कहना यही है कि हृदय का अव्यक्त और अगोचर से कोई संबंध नहीं हो सकता। प्रेम, अभिलाष जो प्रकट किया जायगा वह व्यक्त और गोचर ही के प्रति होगा। प्रतिबिंबवाद, कल्पनावाद आदि वादों का सहारा लेकर इन भावों को अव्यक्त और अगोचर के प्रति कहना और अपने काल्पनिक रूपविधान को ब्रह्म या पारमार्थिक सत्ता की अनुभूति बताना काव्यक्षेत्र में एक अनावश्यक आडंबर खड़ा करना है। यदि यह कहा जाय कि सदा बदलते रहनेवाले इस दृश्यप्रसार की तह में सदा एकरस
1. द्वेवाव ब्रह्मणोरूपं मूर्तद्बचैवामूर्तद्बच, मर्त्यद्बचामृतद्बच, स्थितद्बच यच्च, सच्च, त्यच्च।मूर्तमूत्तााब्राह्मण (बृहदारण्यकोपनिषद्)। दृश्य या मूत्ता के लिए 'सत्' शब्द का प्रयोग उपनिषदों में बहुत जगह हुआहै।
2. डिजायर आव इनफिनिट थिंग्ज, डिजायर आव फाइन इटटिज दि रेसज आव दि ट्वेन मेक्समेन।
एेज टू यंग विंड्स स्कूल्ड अमंग दि स्लोप्स ऐंड वोब्ज आव राइवल
हिल्स दैट ईच टू अदर लुक।
ऐक्रास एसंकेन टार्न ए स्टिल डे,
रन फोर्थ फ्राम देयर संडर्ड नर्सरीज, एंड मीट
इन दि मिडिल एअर
ऐंड ह्नेन दि क्लोज, देअर स्ट्रगल इज काल्ड मेन।
डिस्ट्रेसिंग विद हिज स्ट्राइफ ऐंड फ्लरी दि ब्लैड
पूल आव ऐक्जिस्टेंस, दैट ले क्वाएट बिफोर
होल्ंडिग दि काम वाच आव एटर्निटी।
रहनेवाली अव्यक्त सत्ता ही है, अत: जिस अनुराग के साथ प्रकृति की भव्य रूपयोजना की जाती है उसे उसी अव्यक्त शक्ति या सत्ता के प्रति कहने में क्या हर्ज है, तो इसका उत्तर यह है कि इससे भावक्षेत्र में असत्य का प्रचार होता और पाखंड का द्वार खुलता है। यदि कोई चटोरा आदमी कोई बहुत ही मीठा फल खाकर जीभ चटकारता हुआ उसका बड़े प्रेम से वर्णन करे और पूछने पर कहे कि मेरा लक्ष्य उस फल की ओर नहीं, उस वृक्ष के मूल या बीज की ओर है जिसका फल है, तो उसके इस कथन का क्या मूल्य होगा? जो यह भी नहीं जानता कि 'ब्रह्मवाद' और 'कविता' किन चिड़ियों के नाम हैं, जो ऍंगरेजी की अंधी नकल पर बनी बँगला की कविताओं तथा वैष्णव कवियों की बंग समीक्षाओं तक ही सारी दुनिया खतम समझता है, वह यदि मुँह बना बनाकर कहने लगे कि 'जब मैं ब्रह्मवाद की कोई कविता देखता हूँ तब हर्ष से नाच उठता हूँ' तो एक सुशिक्षित सुननेवाले पर क्या असर होगा?
अब यहाँ पर थोड़ा यह भी विचार करने की आवश्यकता प्रतीत होती है कि भाव के क्षेत्र में परोक्ष की 'जिज्ञासा' का क्या उपयोग हो सकता है। स्वाभाविक रहस्यभावना मेंज़िसका किसी वाद के साथ कोई संबंध नहींइसका कभी कभी बहुत सुंदर उपयोग होता है। वहाँ पर यह प्रकृति के क्षेत्र के किसी अभिव्यक्त सौंदर्य या माधुर्य से उठे हुए आह्लाद की अनुभूति की व्यंजना करता है, जैसे शिशु की मधुर मुसकान पर मुग्ध होकर यदि कोई कवि कहे कि 'इसके अधारों पर किस आनंदलोक की मधुर स्मृति संचरित हो रही है?' सौरभपूर्ण कुसुमविकास देख यदि कहा जाय कि 'यह सुख सौंदर्य की अनंत राशि से चोरी करके भाग आया है', तो प्रस्तुत माधुर्य या सुख सौंदर्य के प्राचुर्य के निमित्त बड़ा सुंदर औत्सुक्य व्यंजित होगा। यह औत्सुक्य या अभिलाष अव्यक्त या अज्ञात प्रेम के प्रति कभी नहीं कहा जा सकता, यह व्यक्त या ज्ञात के प्रति ही होगा। कवि को अपने सामने उपस्थित माधुर्य या सुख सौंदर्य इतना अच्छा लग रहा है कि भूलोक के अतिरिक्त किसी औरव्यक्त और गोचर हीलोक की भावना करता है जहाँ इस प्रकार के सुख सौंदर्य का दर्शन इतना विरल न हो; बराबर चारों ओर देखने को मिला करे। इसमें न कहीं असीम का अभिलाष है, न अज्ञात की लालसा। यह उसी पुरानी स्वर्ग भावना का आधुनिक सभ्यता के अनुकूल पड़ता हुआ रूप है। स्वर्ग के पुराने निश्चित विवरण में, आधुनिकपरिष्कृत रुचि के अनुसार, जो भद्दापन है वह इस अनिश्चित भावना में दूर हो जाता है।
शेली ने अपनी 'जिज्ञासा' (दि क्वेश्चन) नाम की कविता बड़ी सुंदर जिज्ञासा के साथ समाप्त की है। स्वप्न में वह वसंत विकास और सौरभ से पूर्ण एक अत्यंत रमणीय नदी तट पर पहुँचते हैं। उस व्यक्त और गोचर स्थल का ही बहुत संबद्धा और संश्लिष्ट चित्रण सारी कविता में हुआ है। अंत में जाकर वे कहते हैं कि मैंने फूलों को चुन चुनकर बहुत सुंदर स्तबक तैयार किया और बड़े आह्लाद के साथ वहाँ दौड़ा गया जहाँ से आया था कि उसे अर्पित करूँ। 'पर अरे! किसे?' इस 'किसे' में अद्वैत का कैसा सुंदर आभास मात्र है। 'वाद' का कोई विस्तार नहीं है।'
आइ मेड ए नोजगे...
केप्ट दीज इंप्रिजंड चिल्ड्रेन आव दि हाउस
विदिन माइ हैंड;एेंड देन इलेट ऐंड गे;
आइ हेसेंड टु स्पाट फ्राम ह्नेन्स आइ हैड कम,
दैट आइ माइट देअर प्रेजेंट इटअो! टु हूम?
इस प्रकार की स्वाभाविक और सच्ची रहस्य भावना का माधुर्य प्रत्येक सहृदय स्वीकार करेगा। पर जब किसी वाद के सहारे वेदना की तरी पर सवार होकर अंधाड़ और अंधकार के बीच असीम की ओर यात्रा होगी, सामने अलौकिक ज्योति फूटती दिखाई देगी, लोकलोकांतर और कल्पांतर के समाहृत अरुणोदय में असीम ससीम के मिलन पर विश्व हृदय की तंत्राी के सब तार झंकारोत्सव करने लगेंगे, आप ही आपको खोजने का स्वप्न टूटने पर अट्टहास होने लगेगा, तब सहृदयता भावुकता तो कोई और ठिकाना ढूँढेंग़ी; हाँ अज्ञानोपासना सिद्धता का मुकुट या पैगंबरी का चौगोशिया ताज पहनने के लिए ठहरे तो ठहरे।
सारांश यह कि जहाँ तक अज्ञात की ओर अनिश्चित संकेत मात्र रहता है वहाँ तक तो प्रकृत काव्यदृष्टि रहती है पर जब उसके आगे बढ़कर उस अज्ञात को अव्यक्त और अगोचर कहकर उसका चित्रण होने लगता है, उसका पूरा ब्योरा दिया जाने लगता है, तब लोकोत्तार दिव्य दृष्टि का दावा सा पेश होता हुआ जान पड़ता है। इस दावे का हृदय पर बड़ा बुरा प्रभाव है। एक ओरश्रोता या पाठक के पक्ष मेंइससे अज्ञानप्रियता का अनुरंजन होता है; दूसरी ओरक़वि के पक्ष मेंउस अज्ञानप्रियता से लाभ उठा अहंकारतुष्टि का अभ्यास पड़ता है। पहुँचे हुए सिद्ध या ब्रह्मदर्शी बननेवाले बहुत से साधु शास्त्रों की सुनी सुनाई बातों कोउनकी कुछ अगाड़ी पिछाड़ी खोलपहेली के रूप में करके गँवारों को चकित किया करते हैं। यह प्रवृत्ति शिक्षितों और पढ़े लिखे लोगों में और भी अनर्थ खड़ा करती हैं। यदि कोई व्यक्ति अभिज्ञानशाकुंतल की आध्यारत्मिक व्याख्या करे, मेघ की यात्रा को जीवात्मा का परमात्मा में लीन होने का साधन बताए, तो कुछ लोग तो विरक्ति से मुँह फेर लेंगे, पर बहुत से लोग ऑंखें फाड़कर काष्ठ कौशिक की तरह ताकते रह जायँगे।
कौन कविता सच्ची रहस्यभावना को लेकर चली है और कौन वादग्रस्त आडंबर मात्र है, यह पहचानना कुछ कठिन नहीं है। ऊपर जो पहचान बताई गई है वह वर्ण वस्तु (मैटर) के संबंध में है। वर्णन प्रणाली (फार्म) की कुछ पहचान आगे कही जायगी।
एक ही कवि कभी वादग्रस्त होकर अपने को लोक से परे प्रकट करने का शब्दप्रयत्न करता है, कभी भाव की स्वच्छ भूमि पर विचरण करता है। वही अबरक्रोंबे जो कभी वादग्रस्त होकर 'चेतना नामक कोने से बाहर' की बात कहने जाता है, जब लोकवादी (ह्यूमैनिटेरिअन) के रूप में हमारे सामने आता है विशुद्ध काव्यदृष्टि का प्रमाण देता है, तब उसकी सच्चाई में संदेह करने की कोई जगह नहीं रह जाती। यही बात श्री रवींद्रनाथ ठाकुर के संबंध में भी ठीक समझनी चाहिए। उनकी रहस्यवाद की वे ही कविताएँ स्मरणीय हैं जो लोकपक्षसमन्वित हैं, जैसे'ग़ीतांजलि' का यहपद
जो कुछ दे तू हमें उसी से काम हमारा सरता है।
कभी न होती उसमें कुछ वह पीछे तुझपर फिरता है।
सरिताएँ सब बहती बहती जग हित आतीं जातीं।
अविच्छिन्न धारा से तेरे पद धाोने को फिर आतीं।
सभी कुसुम अपने सौरभ से सकल सृष्टि को महकाते।
तेरी पूजा में वे अपना महायोग हैं रच पाते।
जग वंचित हो जिससे ऐसी तेरी पूजनवस्तु नहीं।
जग हित में आई न वस्तु जो तव पूजन की नहीं, नहीं।
'तू ने मुझे असीम बनाया है' ऐसी कविताओं में यह बात नहीं है। इस ढंग की कविताओं के स्वरूप का कुछ उद्धाटन स्वर्गीय द्विजेंद्रलाल राय ने अपनी समीक्षाओं में किया था।
भारतीय काव्यदृष्टि के निरूपण में हम दिखा चुके हैं कि भारतवर्ष में कविता इस गोचर अभिव्यक्ति को लेकर ही बराबर चलती रही है और यह अभिव्यक्ति उसकी प्रकृत भूमि है। मनुष्य के ज्ञानक्षेत्र के भीतर ही उसका संचार होता है। 'चेतना के कोने के बाहर' न वह झाँकने जाती है, न जा ही सकती है। वहीं पर हम यह भी कह चुके हैं कि अभिव्यक्ति के क्षेत्र में स्थिर और निर्विशेष (स्टैटिक एंड ऐब्सोल्यूट) सौंदर्य या मंगल कहीं नहीं है। वह केवल किसी वाद के भीतर ही मिल सकता है। अभिव्यक्ति के क्षेत्र में गत्यात्मक सौंदर्य गत्यात्मक मंगल ही है। सौंदर्यमंगल की यह गति नित्य है। गति की यही नित्यता जगत् की नित्यता है। रवींद्र बाबू के दोस्त ईट्स एक ओर कट्टर देशभक्त और आयरलैंड की अनन्य आराधाना प्रवर्तित करनेवाले हैं, दूसरी ओर ब्लेक के सांप्रदायिक और सिध्दांती रहस्यवाद का पूरा समर्थन करनेवाले। वे भी जब वादमुक्त होकर काव्य की शुद्ध सामान्य भूमि पर आए हैं तब भारतीय दृष्टि के अनुसार सापेक्ष गत्यात्मक (डाइनैमिक) सौंदर्य की नित्यता और अनंतता का अनुभव करते हैं। अपनी 'गुलाब' शीर्षक कविता में एक स्थान पर वे साफ कहते हैं
रेड रोज, प्राउड रोज, सैड रोज आव आल माइ डेजन।
×××
कम नियर, दैट नो मोर ब्लाइंडेड बाइ मैन्स फेट,
आइ फाइंड अंडर दि बाउज आव लव ऐंड हैड हेट,
इन आल पुअर फूलिश थिंग्स दैट लिव ए डे,
एटर्नल ब्यूटी वांडरिंग आन हर वे।
'लाल गुलाब, गर्वीले गुलाब, मेरे सब दिन के उदास गुलाब! पास आओ, जिसमें मनुष्य की गति देखकर मुझमें जो अंधापन आ जाता है वह दूर हो और मैं राग और द्वेष की नाना शाखाओं के तले बैठा हुआ बेचारा इन सब क्षण भर रहनेवाली मुग्ध वस्तुओं में अनंत सौंदर्य की अनंत गति का दर्शन करूँ।'
कविता के मूल में भाव या मनोविकार ही रहते हैं, काव्य की आत्मा रस ही है, यह बात इतनी पुरानी पड़ गई है कि नवीनता के बहुत से अभिलाषी तथ्यातथ्य की बहुत परवा छोड़; इसके स्थान पर कोई और बात कहने का प्रयत्न करते आ रहे हैं। जगन्नाथ पंडितराज ने रस के स्थान पर 'अर्थ की रमणीयता' ग्रहण की; पर रमणीयता भी रसात्मकता से संबद्धा है। मन का रमना किसी भाव में लीन होना ही है। हृदय के प्रभावित होने का नाम ही रसानुभूति है। विलायती साहित्य में 'कल्पना' शब्द की बड़ी धुम देख कुछ लोग कभी कभी कह देते हैं कि 'रसात्मक वाक्य काव्य होता है' इस लक्षण में कल्पना पक्ष बिलकुल छूट गया है; केवल भावपक्ष (इमोशन) आया है। पर जो लोग रसपद्धाति को अच्छी तरह समझते हैं और आधुनिक मनोविज्ञान द्वारा निरूपित भाव (इमोशन, सेंटिमेंट) के स्वरूप से भी परिचित हैं, उनके निकट इस कथन का कोई अर्थ नहीं है, यह ठीक वृत्तिचक्र (सिस्टम) है जिसके अंतर्गत प्रत्यय (काग्निशन); अनुभूति (फीलिंग), इच्छा (कोनेशन), गति या प्रवृत्ति (टेंडेंसी), शरीरधर्म (सिंप्टम्स), सबका योग रहता है। हमारे यहाँ रस निष्पन्न करनेवाली पूर्ण भावपद्धाति में ये सब अवयव रखे हुए हैं। विभावों और अनुभावों की प्रतिष्ठा कवि की कल्पना द्वारा ही होती है और श्रोता या पाठक भी उनकी मूर्ति या रूप का ग्रहण अच्छी कल्पना के बिना पूरा पूरा नहीं कर सकता। विभाव और अनुभाव कल्पनासाध्य हैं।
किसी भाव की रसात्मक प्रतीति उत्पन्न करने के लिए कविकर्म के दो पक्ष होते हैंअनुभावपक्ष और विभावपक्ष। अनुभावपक्ष में आश्रय के रूप, चेष्टा और वचन का और विभावपक्ष में आलंबन के रूप, चेष्टा और वचन का विन्यास होता है। इस दृष्टि से ऋंगाररस में स्त्रियों के जो हाव या अलंकार माने गए हैं वे विभावपक्ष के अंतर्गत होंगे; अनुभावपक्ष के नहीं। नायिकाओं में अलंकार की योजना उनकी मनमोहकता बढ़ाने के लिएउन्हें और मनोहर रूप प्रदान करने के लिए होती है, भाव की व्यंजना के उद्देश्य से नहीं। नायिका को आलंबन मनकर, उद्दीपन की दृष्टि से ही, उसमें उन चेष्टाओं का विधान होता है जो हाव और अलंकार कहलाती हैं। अनुभाव और विभाव दोनों पक्षों के विधान के लिए भी और सम्यक् ग्रहण के लिए भी कल्पना शक्ति अपेक्षित है। विधान के लिए कवि में 'विधायक कल्पना' अपेक्षित होती है और सम्यक् ग्रहण के लिए पाठक या श्रोता में 'ग्राहक कल्पना'।
रसात्मक प्रतीति एक ही प्रकार की नहीं होती। दो प्रकार की अनुभूति तो लक्षणग्रंथों की रसपद्धाति के भीतर ही सूक्ष्मता से विचार करने से मिलती है। भारतीय भावुकता काव्य के दो प्रकार के प्रभाव स्वीकार करती है
(1) जिस भाव की व्यंजना हो, उसी भाव में लीन हो जाना।
(2) जिस भाव की व्यंजना हो उसमें लीन न होना; पर उसकी व्यंजना की स्वाभाविकता और उत्कर्ष का हृदय से अनुमोदन करना।
दूसरे प्रकार के प्रभाव को मध्यकम स्थान प्राप्त है। पूर्णरस की अनुभूति प्रथम प्रकार का प्रभाव है। जिन्हें साहित्य में स्थायी भाव कहते हैं केवल उन्हीं की अनुभूति पूर्णरस के रूप में होती है। वे ही ऐसे भाव हैं जो व्यंजित होने पर पाठक या श्रोता के हृदय में भी उत्पन्न होते हैं। यह नहीं है कि चाहे जिस भाव का विभाव, अनुभाव और संचारी द्वारा विधान किया जाय, वह पूर्णरस के रूप में अनुभूत होगा। असूया या ब्रीड़ा को यदि हम स्वतंत्र भाव के रूप में लेकर उसका विभाव, अनुभाव और संचारी के द्वारा वर्णन करें तो भी सुननेवाले को ईर्ष्याे या लज्जा का अनुभव न होगा। इनकी अच्छी से अच्छी व्यंजना को भी वह उसी रूप में ग्रहण करेगा कि 'हाँ! बहुत ठीक है। ईर्ष्याे या ब्रीड़ा में ठीक ऐसे ही वचन मुँह से निकलते हैं, ऐसी ही चेष्टाएँ होती हैं, ऐसी ही वृत्ति हो जाती है।' सारांश यह कि श्रोता या पाठक भाव की व्यंजना का अनुमोदन मात्र करेगा, उस भाव की अनुभूति में मग्न न होगा।
पूर्णरस की अनुभूतिअर्थात् जिस भाव की व्यंजना हो उसी भाव में लीन हो जानाक्यों उत्तम या श्रेष्ठ है, इसका भी कुछ विवेचन कर लेना चाहिए। काव्यदृष्टि में जब हम जगत् को देखते हैं तभी जीवन का प्रकृत रूप प्रत्यक्ष होता है। जहाँ व्यक्ति के भावों के पृथक् विषय नहीं रह जाते, मनुष्यमात्र के भावों के आलंबनों में हृदय लीन हो जाता है, जहाँ हमारी भावसत्ता का सामान्य भावसत्ता में लय हो जाता है, वही पुनीत रसभूमि है। आश्रय के साथ वह तादात्म्य, आलंबन का वह साधाणीकरण, जो स्थायी भावों में होता है, दूसरे भावों मेंचाहे वे स्वतंत्र रूप में भी आएँनहीं होता। दूसरे भावों की व्यंजना का हम अनुमोदन मात्र करते हैं। इस अनुमोदन में भी रसात्मकता रहती है, पर उस कोटि की नहीं।
आश्रय के साथ तादात्म्य और आलंबन के साथ साधाणीकरण सर्वत्रा व्यंजना की प्रगल्भता और प्रचुरता पर ही अवलंबित नहीं होता। या तो आलंबन स्वभावत: ऐसा हो, या उसका चित्रण इस रूप में हो अथवा लोक में उसकी ख्याति ऐसी हो कि वह मनुष्यमात्र के किसी भाव को आकर्षित कर सके तभी पूर्ण रसानुभूति के उपयुक्त साधाणीकरण होगा। अधिकतर कविता स्वभावत: अत्यंत सामान्य आकर्षणवाले विषयों या आलंबनों को लेकर होती है। दांपत्य प्रेम या ऋंगार की कविता की अधिकता का एक यह भी कारण है कि अत्यंत सामान्य रूप में उनका आलंबनपुरुष के लिए स्त्रीि, स्त्रीभ के लिए पुरुषमनुष्य क्या प्राणिमात्र को आकर्षित करता है। उसकी आलंबनता स्त्री जाति और पुरुष जाति के बीच नैसर्गिक आकर्षण की बड़ी चौड़ी नींव पर ठहरी है। यहाँ तक कि वर्णन न होने पर भी उनका आक्षेप सहज में हो जाता है। दूसरे भावों के आलंबनों में कुछ विशिष्टता अपेक्षित होती ही, पर साधाणीकरण शीघ्र हो जाता है। क्रोध के आलंबन का साधाणीकरण सब दशाओं में नहीं होता। यह आवश्यक नहीं है कि सर्वत्रा आश्रय के क्रोध का पात्र मनुष्यमात्र के क्रोध का पात्र हो। रौद्ररस में आलंबन का साधारण्ाीकरण पूरा तभी हो सकता है जबकि वह अपनी क्रूरता, अन्याय, अत्याचार आदि के कारण मनुष्यमात्र के क्रोध का पात्र बनाया जा सके।
पूर्णरस में लीन करनेवाले वाग्विधान में भी यह बात देखी जाती है कि जहाँ वह धारा के रूप में कुछ दूर तक चलता है वहीं पूरी तन्मयता प्राप्त होती है। जहाँ सहृदय और सुकंठ कथावाचक सहस्रों श्रोताओं को किसी भाव में बहुत देर तक मग्न किए रहते हैं, जहाँ आल्हा गानेवाले सैकड़ों सुननेवालों को घंटों वीरदर्प से पूर्ण किए रहते हैं, वहाँ भेदभूमि से परे एक सामान्य हृदयसत्ता की झलक दिखाई पड़ती है। भावों का ऐसा ही अभ्यास शीलनिर्माण में सहायक होता है। रामायण, भागवत आदि की कथा सुनकर लौटे हुए लोगों के हृदयों पर भावों का कुछ प्रभाव कुछ काल तक रहता है। खेद है कि हृदय के व्यायाम और परिष्कार के लिए जो संस्थाएँ हमारे समाज में प्रतिष्ठित थीं उनकी ओर से हम उदासीन हो रहे हैं।
मुक्त कविताओं में इस प्रकार मग्न करनेवाली रसधारा नहीं चलती, छींटें उछलते हैं। उनका प्रभाव क्षणिक, अत: अधिकतर मनोरंजन या दिलबहलाव के रूप में होता है। राजाओं की सभा में जाकर जब से कवि लोग उनके मनबहलाव का काम करने लगे तब से हमारे साहित्य में उक्तिवैचित्रयपूर्ण मुक्तकों का प्रचार बढ़ने लगा। भोज ऐसे राजाओं के सामने बात बनानेवाले पद्यकार बातों की फुलझड़ी छोड़कर लाखों रुपये पाने लगे। जब क्षणिक मनोरंजन या दिलबहलाव मात्र उद्देश्य रह गया तब कुछ अधिक कुतूहलवर्धाक सामग्री अपेक्षित हुई। फारसी की महफिली शायरी का सा ढंग यहाँ की कविता ने भी पकड़ा। पर फारस की शायरी अत्युक्तिपूर्ण होने पर भी संवेदनात्मक रही, उसमें भावपक्ष की प्रधानता रही। किंतु यहाँ बाहरी आडंबरों की अधिकता हुई; हृदयपक्ष बहुत कुछ दब गया, फुटकल कविता अधिकतर सूक्ति रूप में आ गई।
इसी संबंध में लगे हाथों यह भी विचार कर लेना चाहिए कि रीति, लक्षणा, अलंकार आदि काव्य में किस रूप में सहायक हो सकते हैं और किस रूप में बाधक। पहली बात तो ध्याेन देने की यह है कि लक्षणग्रंथों के बनने के बहुत पहले से कविता होती आ रही थी। उन्हीं कविताओं को लक्ष्य करके लक्षण बनाए गए। इससे स्पष्ट है कि वाक्य की रचना उनपर अवलंबित नहीं। ये लक्षण आदि वास्तव में काव्य चर्चा की सुगमता के लिए बने। पर बहुत सी काव्यरचना हमारे यहाँ इन्हीं लक्षणों के भीतर आ जाने को ही सब कुछ मनकर होने लगी। कुछ सजीवता न रहने पर भी श्लेष, यमक, उपमा, उत्प्रेक्षा इत्यादि की कसी हुई भरती तथा विभाव, अनुभाव और संचारी की रस्मअदाई पर ही वाह वाह करने की चाल पड़ गई। कुछ कुछ इसी प्रकार की दशा जब यूरोप में हुई और किसी काव्य की उत्तमता का निर्णय साहित्य की बँधीहुई रीतिविधिा के अनुसार होने लगी तब प्रभाववादी (इंप्रेशनिस्ट्स) उठ खड़े हुए, जिन्होंने सुझाया कि किसी काव्य की उत्तमता की सच्ची परख यही है कि वह हृदय पर कैसा प्रभाव डालता है, उससे किस प्रकार की अनुभूति उत्पन्न होती है।
प्रभाववादियों के अनुसार किसी वाक्य की ऐसी आलोचना कि 'यहाँ पद्य का निर्वाह बहुत अच्छा हुआ है, यहाँ गतिभंग है, यहाँ रसविरोध है, यहाँ पूर्णरस है, यहाँ च्युतसंस्कृति या पतत्प्रकर्ष है' कोई आलोचना नहीं। मन लीजिए कि कोई सुंदर काव्य हमारे सामने है। उसे पढ़ने में हमें आनंद की गहरी अनूभूति हो रही है। बस यही हमारा आनंद ही हमारा निर्णय है। इससे बढ़कर और निर्णय क्या हो सकता है? इसके आगे हम बहुत करेंगे तो उस आनंद की विवृत्ति करेंगे कि उक्त काव्य का हमारे हृदय पर यह प्रभाव पड़ता है, उससे ये अनुभूतियाँ उत्पन्न होती हैं। यह ठीक है कि दूसरे लोग उसी काव्य से दूसरे प्रकार की अनुभूतियाँ प्राप्त करेंगे और उन्हें और ही ढंग से प्रकट करेंगे। करें; प्रत्येक सहृदय को अधिकार है कि वह उसके संबंध में अपनी अनूभूतियाँ प्रकट करे। इस प्रकार एक ही काव्य पर भिन्न भिन्न प्रकार के और कई कला ग्रंथ तैयार हो जायँगे। वे सब ग्रंथ उस काव्य से और ही वस्तु होंगे, यह अवश्य है। पर यही आलोचना कला है। इनके आगे आलोचना जायगी कहाँ?
प्रभाववादी के उपर्युक्त कथन पर यदि कोई कहे तो कह सकता है कि हमें तुमसे प्रयोजन नहीं, उस काव्य से है। तुम्हारे भीतरी स्वास्थ्य को जानने में हमें उस काव्य के रसानुभव में क्या सहायता पहुँचेगी। तुम्हारी आलोचना तो हमारा ध्याोन उस काव्य पर से हटाकर तुम पर और तुम्हारी अनुभूतियों पर ले जाती है।' इस पर शायद वह यह कहे कि 'इसी प्रकार तो और ढंग की समालोचनाएँनिर्णयात्मक (ज्यूडिशियल), ऐतिहासिक (हिस्टारिकल), मनोवैज्ञानिक (साइकोलाजिकल) इत्यादि1 भी ध्याआन हटाती हैं।' यों यह वाद प्रतिवाद और भी आगे बढ़ सकता है। पर हम
1. इन सब प्रकार की आलोचनाओं के विवरण के लिए देखिए हमारा 'हिन्दी साहित्य का इतिहास'।
समझते हैं कि उसे यहाँ पर आकर रुक जाना चाहिए कि समालोचना के लिए विद्वता और प्रशस्त रुचि दोनों अपेक्षित हैं। न रुचि के स्थान पर विद्वता काम कर सकती है और न विद्वता के स्थान पर रुचि। अत: विद्वता से संबंध रखनेवाली निर्णयात्मक आलोचना (ज्यूडिशल क्रिटिसिज्म) और रुचि से संबंध रखनेवाली प्रभावात्मक समीक्षा दोनों आवश्यक हैं। एक पुरुष है, दूसरी स्त्री । एक सक्रिय है, दूसरी निष्क्रिय, एक प्रतिष्ठित आदर्श को लेकर किसी काव्य की परीक्षा में प्रवृत्त होता है और उसके भाव में न आकर अपनी क्रिया में तत्पर रहता है। दूसरा उस काव्य के प्रभाव को चुपचाप ग्रहण करती हुई उसी में मग्न हो जाती है। 1
यह तो आवश्यक है कि काव्य में अनुभूति या प्रभाव ही मुख्य है। पर इस अनुभूति को एक हृदय से दूसरे हृदय तक पहुँचाना रहता है अत: साधानों की अपेक्षा होती है। निर्णयात्मक आलोचना इन साधनों की उपयुक्तता की दृष्टि से परीक्षा करती है कि जब साधन ही ठीक न होंगे तब सिद्ध कहाँ से हो सकता है! प्रभावात्मक आलोचना केवल यही कहती है कि साध्य सिद्ध हो गया है। यदि एक ओर साधन के संबंध में जो रीति, लक्षण, नियम आदि बने हैं उनमें पूर्णता होती और दूसरी ओर आलोचना के समय यदि हृदय लोक सामान्य भाव भूमि पर सदा पहुँच जाया करताअपनी विशेष प्रकृति के बद्धा न रहतातो इन दोनों प्रकार की आलोचनाओं में कोई झगड़ा न होता। पर ऐसा प्राय: होता है कि एक का निर्णय दूसरी के अनुमोदन से भिन्न पड़ता है। हृदय और बुद्धि दोनों के साथ साथ चलने से ही इन दोनों का सामंजस्य हो सकता है। सभ्य और शिक्षित समाज में निर्णयात्मक आलोचना का व्यवहारपक्ष भी है। उसके द्वारा साधनहीन अधिकारियों की यदि कुछ रोकटोक न रहे तो साहित्यक्षेत्र कूड़ा करकट से भर जाय।
जैसा कि हम पहले कह आए हैं, साहित्य के शास्त्रपक्ष की प्रतिष्ठा काव्य चर्चा की सुगमता के लिए मननी चाहिए, रचना के प्रतिबंध के लिए नहीं। इस दृष्टि से जब हम अपने साहित्यशास्त्र को देखते हैं, तब उसकी अत्यंत व्यापक और प्रौढ़ व्यवस्था स्वीकार करनी पड़ती है। शब्दशक्ति और रसपद्धाति का निरूपण तो अत्यंत गंभीर है। उसकी तह में एक ऐसे स्वतंत्र और विशाल भारतीय समीक्षाभवन के निर्माण की संभावना छिपी हुई है जिसके भीतर लाकर हम सारे संसार के सारे साहित्य की आलोचना अपने ढंग पर कर सकते हैं।
1. इन ऐव्री एज इंप्रेशनिज्म (आर एंजायमेंट) ऐंड डायमैटिज्म (आर जजमेंट) हैव ग्रैपल्ड विद वन ऐनदर। दे आर दि टू सेक्सेज आव क्रिटिसिज्म; + + + + दि मैस्क्युलिन क्रिटिसिज्म, दैट मे आर मे नाट फोर्स इट्स ओन स्टैंडर्ड आन लिटरेचर, बट दैट नेवर; ऐट आल ईवेंट्स इज डामिनेटेड बाइ दि आब्जेक्ट आव इट्स स्टडीज, ऐंड दि क्रेमिनिन क्रिटिसिज्म, दैट रेस्पांड्स टु दि ल्योर आव आर्ट विद ए काइंड आव पैसिव एक्स्टैसी।
ज़ें. इ. स्पिनगर्न, दि न्यू क्रिटिसिज्म।
कई प्रकार के साहित्यवादसाहित्य के बाहर के 'वाद' नहींहमारे यहाँ भी चले हैं; जैसेरसवाद, अलंकारवाद, ध्वकनिवाद, रीतिवाद इत्यादि। बहुत से बालरुचिवाले चमत्कारवादी कवि भी हुए हैं और आचार्य भी। नारायण पंडित ने तो यहाँ तक कह डाला है कि
रसे सारश्चमत्कार: सर्वत्रााप्यनुभूयते।
तच्चमत्कारसारत्वे सर्वत्रााप्यद्भुतो रस:ड्ड
'जबकि रस में चमत्कार ही सार है, काव्य में सर्वत्रा अनूठापन ही अच्छा लगता है, तब सर्वत्रा अद्भुतरस ही क्यों न कहा जाय?' पंडितजी ने इस बात पर ध्यावन न दिया कि रस के भेद प्रस्तुत वस्तु या भाव के विचार से किए गए हैं; अप्रस्तुत या साधन के विचार से नहीं। ऋंगाररस की किसी उक्ति में उनके शब्दविन्यास आदि में जो विचित्रता होगी वह वर्णन प्रणाली की विचित्रता होगी, प्रस्तुत वस्तु या भाव की नहीं। अद्भुतरस के लिए स्वत: आलंबन विचित्र या आश्चर्यजनक होना चाहिए। ऋंगार का वर्णन कौतुकी कवि लोग कभी कभी वीररस की सामग्रीअलंकार रूप में रखकर किया करते हैं। क्या ऐसे स्थलों पर ऋंगाररस न मनकर वीररस मनना चाहिए?
उक्ति वैचित्रय या अनूठेपन पर जोर देनेवाले हमारे यहाँ भी हुए हैं और यूरोप में भी आजकल बहुत जोर पर हैं, जो कहते हैं कि कला या काव्य में अभिव्यंजना (एक्सप्रेशन) ही सब कुछ है, जिसकी अभिव्यंजना की जाती है वह कुछ नहीं। इस मत के प्रधान प्रवर्तक इटली के क्रोचे महोदय हैं। अभिव्यंजनावादियों (एक्सप्रेशनिस्ट्स) के अनुसार जिस रूप में अभिव्यंजना होती है उससे भिन्न अर्थ आदि का विचार कला में आवश्यक है। जैसे वाल्मीकि रामायण की इस उक्ति में
न स स(घचित: पन्था येन बाली हतो गत:।
कवि का कथन यही वाक्य है, 'यह नहीं कि जिस प्रकार बाली मारा गया उसी प्रकार तुम भी मारे जा सकते हो।' एक और नया उदाहरण लीजिए। यदि हम पर कभी कविता करने की सनक सवार हो और हम कहें कि
भारत के फूटे भाग्य के टुकड़ो! जुड़ते क्यों नहीं?
तो हमारा कहना यही होगा, यह नहीं कि 'हे फूट से अलग अभागे भारतवासियो! एकता क्यों नहीं रखते? यदि तुम एक हो जाओ तो भारत का भाग्योदय हो जाय।'
अभिव्यंजनावादियों के काव्यसंबंधी उपर्युक्त कथन में जो वास्तविक तथ्य है उसकी ओर हमारे यहाँ के आचार्यों ने अपने इस ढंग पर पूरा ध्या न दिया है। रसवादियों ने रस को और ध्वँनिवादियों ने काव्यवस्तु को व्यंग्य कहा है। उनके अनुसार रस की या वस्तु की व्यंजना होनी चाहिए, अभिधा द्वारा सीधा कथन नहीं। 'रस व्यंग्य होता है' यह कथन कुछ भ्रामक अवश्य है। इससे यह भ्रम होता है कि जिस भाव की व्यंजना होती है वही भाव रस है। वही बात वस्तु व्यंजना के संबंध में भी समझिए। 'व्यंजना में अर्थात् व्यंजक वाक्य में रस होता है' यही कहना ठीक है और यही समझा भी जाता है। केशव की यह उक्ति लीजिए
क्रूर कुठार निहारि तज्यो, फल ताको यहै जो हियो जरई।
आज ते तो कहँ, बन्धाु! महाधिाक, छत्रिन पै जो दया करईड्ड
यह उक्ति ही कविता है; न कि 'परशुराम ने क्रोध किया' यह व्यंग्य या अभिप्राय। व्यंजक वाक्य ही काव्य होता है; व्यंग्य भाव या वस्तु नहीं। 'व्यंग्य' शब्द के प्रयोग में कहीं गड़बड़ी होने पर भी इस बात को सब लोग जानते हैं। पर इसका मतलब यह नहीं कि व्यंग्य अर्थ या लक्ष्य अर्थ का कोई विचार ही नहीं होता। व्यंजक या लक्षक वाक्य का जब तक व्यंग्यार्थ के साथ सामंजस्य न होगा तब तक यह उन्मत्ता प्रलाप या जानबूझकर खड़ा किया हुआ धोखा ही होगा।
'अभिव्यंजनावाद' अनुभूति या प्रभाव का विचार छोड़ केवल वाग्वैचित्रय को पकड़कर चला है; पर वाग्वैचित्रय का हृदय की गंभीर वृत्तियों से कोई संबंध नहीं है। यह केवल कुतूहल उत्पन्न करता है। अभिव्यंजनावाद के अनुसार ही यदि कविता बनने लगे तो उसमें विलक्षण वाक्यों के ढेर के सिवा और कुछ न होना चाहिएन विचारधारा, न भावों की रसधारा। पर इस प्रकार की ऊटपटांग कविता यूरोप में भी न बनी है, न बनती है।
यूरोप के समीक्षा क्षेत्र में उठते रहनेवाले वादों के संबंध में यह बात पक्की समझनी चाहिए कि वे एकांगदर्शी होते हैं। वे या तो प्रतिवर्तन (रिएक्शन) के रूप में अथवा प्रचलित मतों में कुछ अपनी विलक्षणता या नवीनता दिखाने की झोंक में, जोर शोर के साथ प्रकाशित किए जाते हैं, इससे उनमें अत्युक्ति की मात्रा बहुत अधिक होती है। वे प्राय: अव्याप्ति या अतिव्याप्तिग्रस्त होते हैं। अपनी कसौटी पर बिना उनकी कड़ी परीक्षा किए उनका राग अलापना अंधोपन का प्रचार करना है। 'प्रभाववाद' (इंप्रेशनिज्म) और 'अभिव्यंजनावाद (एक्सप्रेशनिज्म) दोनों की एकांगदर्शिता ऊपर के विवरणों से स्पष्ट है। यही स्वरूप वहाँ के और वादों का भी समझिए।
हमारे यहाँ के पुराने ध्वोनिवादियों के समन आधुनिक 'अभिव्यंजनावादी' भी भावव्यंजना और वस्तुव्यंजना दोनों में काव्यतत्वय मनते हैं। उनके निकट अनूठे ढंग से की हुई वस्तुव्यंजना भी काव्य ही है। इस संबंध में हमारा यही वक्तव्य है कि अनूठी से अनूठी उक्ति काव्य तभी हो सकती है जबकि उसका संबंधक़ुछ दूर का सहीहृदय के किसी भाव या वृत्ति से होगा। मन लीजिए कि अनूठे भंग्यंतर से कथित किसी लक्षणापूर्ण उक्ति में सौंदर्य का वर्णन है। उस उक्ति में चाहे कोई भाव सीधा सीधा व्यंग्य न हो, पर उसकी तह में सौंदर्य को ऐसे अनूठे ढंग से कहने की प्रेरणा करनेवाला रतिभाव या प्रेम छिपा हुआ है। जिस वस्तु की सुंदरता के वर्णन में हम प्रवृत्त होंगे वह हमारे रतिभाव का आलंबन होगी। आलंबन मात्र का वर्णन भी रसात्मक माना जाता है और वास्तव में होता है।
यूरोप का यह 'अभिव्यंजनावाद' हमारे यहाँ के पुराने 'वक्रोक्तिवाद'वक्रोक्ति: काव्यजीवितम्क़ा ही नया रूप बिलायती उत्साह है। अंतर इतना ही है कि भंग्यंतर के लिए हमारे यहाँ व्यंजना का अधिक सहारा लिया जाता है और यूरोप में लक्षणा का। यूरोप की भाषाओं में लाक्षणिक चपलता अधिक होती है। अनूठेपन का वाक्य में क्या स्थान है, यह बात अब विचार के लिए सामने आती है।
जगत् की नाना वस्तुओं, व्यापारों और बातों को ऐसे रूप में रखना कि वे हमारे भावचक्र के भीतर आ जायँ, यही काव्य का लक्ष्य होता है। विश्व की अनंतता के बीच जिस प्रकार ज्ञान अपना प्रसार चाहता है, उसी प्रकार हृदय भी। वह भी अपने रमने के लिए नई भूमि चाहता है। अनूठापन कहीं तो किसी भाव या मनोवृत्ति की व्यंजना मेंअर्थात् जिन वाक्यों में उस भाव की व्यंजना होती है उनमेंअौर कहीं उस वस्तु या तथ्य में ही जिसकी ओर कवि अपने चित्रणकौशल में भाव को प्रवृत्त करता है, होता है। सुबीते के लिए एक को हम भावपक्ष का अनूठापन कह सकते हैं, दूसरे को विभावपक्ष का।
अनूठापन काव्य के नित्य स्वरूप के अंतर्गत नहीं है, एक अतिरिक्त गुण है जिसमें मनोरंजन की मात्रा बढ़ जाती है। इसके बिना भी तन्मय करनेवाली कविता बराबर हुई है और होती है। पद्माकर की इस सीधी सादी उक्ति में'नैन नचाय कह्यो मुसकाय, लला! फिर अइयो खेलन होरी'पूरी रमणीयता है जो लोग मनोरंजन को हीक़िसी भाव में लीन होने को नहींक़ाव्य का चरम समझते हैं, वे सब जगह कुछ कुतूहल की सामग्री ढूँढ़ते हैं। पर काव्य केवल कुतूहल उत्पन्न करनेवाली वस्तु नहीं है। भिन्न भिन्न भावों में लीन करनेवाली, रमानेवाली वस्तु है। अत: वही वक्रोक्ति (वक्रोक्ति अलंकार नहीं, उक्ति का बाँकपन या अनूठापन), वही वचनभंगी जो किसी न किसी भाव या मनोवृत्ति द्वारा प्रेरित होगी, काव्य के अंतर्गत होगी। ऐसी वस्तुव्यंजना जिसकी तह में कोई भाव न हो, चाहे कितने ही अनूठे ढंग से की गई हो, चाहे उसमें कितना ही लाक्षणिक चमत्कार हो, प्रकृत कविता न होगी, सूक्ति मात्र होगी। सारांश यह कि भाव या मनोविकार की नींव पर कविता की इमारत खड़ी हो सकती है। कुतूहल भी एक मनोवृत्ति है, पर वह अकेले काव्य का आधार नहीं हो सकती। तमाशा देखना और कविता सुनना एक ही बात नहीं है।
इस 'अभिव्यंजनावाद' के प्रभाव से मूर्तविधान का बड़ा ही दुरुपयोग होने लगा है। ऍंगरेजी में तो कम, पर बँगला मेंज़ो हर एक विलायती ताल सुर पर नाचने के लिए तैयार रहती हैयह बात बहुत भद्दी हद तक पहुँची। कहीं लालसा मधाुपात्र लिए हृत्तांत्राी के नीरव तार झनझना रही है; कहीं स्मृतिवेदना करवटें बदलकर ऑंखें मल रही है, इत्यादि इत्यादि। इस प्रकार लड़कों के खेल से निराधार विधान वहाँ चल पड़े, जिनकी नकल हिन्दी में भी बड़ी धुम से हो रही है। 'छायावाद' समझकर जो कविताएँ हिन्दी में लिखी जाती हैं उनमें से अधिकांश का 'छायावाद' या 'रहस्यवाद' से कोई संबंध नहीं होता। इनमें से कुछ तो विलायती 'अभिव्यंजनावाद' के आदेश पर रची हुई बँगला कविताओं की नकल पर, और कुछ ऍंगरेजी कविताओं के लाक्षणिक चमत्कारपूर्ण वाक्य शब्द प्रतिशब्द उठाकर, जोड़ी जाती हैं। इनके जोड़नेवाले यह नहीं जानते कि 'छायावाद' या 'रहस्यवाद' शब्द काव्यवस्तु (मैटर) का सूचक हैं, अत: जहाँ काव्यवस्तु में कोई 'वाद' नहीं है, केवल व्यंजनाशैली के वैचित्रय का अनुकरण है, वहाँ 'अभिव्यंजनावाद' की नकलज़ैसे और सब नकलेंबँगला में शुरू हुईं। अत: हिन्दीवालों में कुछ बेचारे तो बंग पदावली के अवतरण से ही संतुष्ट रहते हैं और कुछज़िन्हें ऍंगरेजी का भी थोड़ा बहुत परिचय रहता हैसीधा ऍंगरेजी से, जहाँ से बंगाली लेते हैं, लाक्षणिक पदावली बैठाया करते हैं। यही कारण है कि उनकी रचनाओं में उस अन्विति (यूनिटी) का सर्वथा अभाव रहता है, जिसके बिना कला की कोई कृति खड़ी ही नहीं हो सकती। इधर उधर से बटोरे वाक्यों का एक असंश्लिष्ट और असंबद्धा ढेर सा लगा दिखाई पड़ता है। बात यह है कि अपनी किसी अनुभूति, भावना या तथ्य की व्यंजना के लिए अपने उद्भावित वाक्य ही एक में समन्वित हो सकते हैं।
भिन्न भिन्न देशों की प्रवृत्ति की पहचान यदि हम काव्य के भाव और विभाव दो पक्ष करके करते हैं तो बड़ी सुगमता हो जाती है। 'भाव' से अभिप्राय संवेदना के स्वरूप की व्यंजना से है; विभाव से अभिप्राय उन वस्तुओं या विषयों के वर्णन से है जिनके प्रति किसी प्रकार का भाव या संवेदना होती है। भारतीय साहित्य में दोनों पक्षों का समविधान पाया जाता है। वन, पर्वत, नदी, निर्झर, मनुष्य, पशु, पक्षी इत्यादि जगत् की नाना वस्तुओं का वर्णन आलंबन और उद्दीपन दोनों की दृष्टि से होता रहा है। प्रबंध काव्यों में बहुत से प्राकृतिक वर्णन आलंबन रूप में ही हैं। कुमारसंभव के आरंभ का हिमालयवर्णन और मेघदूत के पूर्वमेघ का नाना प्रदेश वर्णन उद्दीपन की दृष्टि से नहीं कहा जा सकता। इन वर्णनों में कवि ही आश्रय है जो प्राकृतिक वस्तुओं के प्रति अपने अनुराग के कारण उनका रूप निवृत्त करके अपने सामने भी रखता है और पाठकों के भी। जैसा पहले कहा जा चुका है, केवल आलंबन का वर्णन ही रसात्मक होता है। नखशिख वर्णनों में आलंबनों के रूप का वर्णन रहता है पर वे रसात्मक होते हैं। विभाव के समन भावपक्ष का भी पूरा विधान हमारे यहाँ मिलता है। उक्ति, चेष्टा और शरीरधर्म तीनों प्रकार के अनुभावों द्वारा भावों की व्यंजना होती आई है।
फारस की शायरी भाव पक्ष प्रधान है। उसमें विभाव पक्ष का विधान नहीं या नहीं के बराबर हुआ। भावपक्ष में भी केवल रतिभाव का ही सम्यक् ग्रहण पाया जाता है। इसी के अलौकिक उत्कर्ष की व्यंजना अलग अलग एक एक पद्य की गँठी हुई उक्ति में होती है। वेदना की विवृति की चाल फारसी और उर्दू की शायरी में बहुत अधिक है। विभाव और भाव के संबंध का स्पष्टीकरण न होने सेइस बात का ध्या न न होने से कि मन में लाए हुए रूप किस प्रकार रस में सहायक या बाधक होते हैंवेदना की यह विवृति कभी कभी बड़े बीभत्स दृश्य सामने लाती है। आबले फूटना, मवाद बहना, कलेजा चिरना, खून के कतरे टपकना, कबाब की तरह इधर उधर भुननावेदना का इस प्रकार का ब्योरा ऋंगार का पोषक नहीं हो सकता। खेद है कि उर्दू की देखादेखी वेदना की ऐसी विवृति की नकल हिन्दी की कविताओं में भी कुछ हुई है और अब भी कुछ नए ढंग पर होती है। संस्कृत के कवियों में वेदना की विवृति भवभूति में ही सबसे अधिक पाई जाती है; पर वह भारतीय काव्यशिष्टता की मर्यादा के भीतर है। वेदना की अधिक विकृति हम काव्यशिष्टता के विरुद्धा समझते हैं। हमें तो वेदना का अधिक ब्योरा पढ़ने पर ऐसा ही जान पड़ता है जैसे कोई भारी रोगी किसी वैद्य के सामने अपने पेट के भीतर की शिकायतें बता रहा हो। प्रेम को व्याधि के रूप मे ंदेखने की अपेक्षा हम संजीवनी शक्ति के रूप में देखना अधिक पसंद करते हैं।
अश्रु, स्वेद आदि का उल्लेख हमारे काव्य में भी हुआ है, पर जमीन से आसमन तक उनकी गंदी नदी नहीं बहाई गई है। जैसे अपनी प्रकृति का, अपने शरीरधार्मों का बहुत अधिक वर्णन बातचीत की सभ्यता के विरुद्धा समझा जाता है वैसे ही अब काव्य की शिष्टता के विरुद्धा समझा जाना चाहिए।
हम विभावपक्ष को कविता में प्रधान स्थान देते हैं। 'विभाव' से अभिप्राय लक्षणग्रंथों में गिनाए हुए भिन्न भिन्न रसों के आलंबन मात्र से नहीं है, यह पहले सूचित किया जा चुका है। जगत् की जो वस्तुएँ, जो व्यापार या प्रसंग हमारे हृदय में किसी भाव का संचार कर सकें उन सब का वर्णन आलंबन का ही वर्णन माना जाना चाहिए। विश्व की अनंतता के भीतर, मनुष्य जाति के ज्ञानप्रसार के बीच, ऐसे वस्तु व्यापार योग और ऐसे प्रसंग भी हमारी पहुँच के हिसाब से अनंत ही हैं। जिस मर्मस्पर्शिणी वस्तु व्यापार योजना का ज्ञानेंद्रियों द्वारा या कल्पना के सहारे हमने साक्षात्कार किया हो उसे अपना प्रभाव उत्पन्न करने के लिए औरों तक ठीक ठीक पहुँचाकर यदि हम अलग हो जायँ, तो भी कविकर्म कर चुके। यदि लोक के मर्मस्थलों की पहचान हममें होगी तो हमारी उपस्थित की हुई योजना सहृदय मात्र को भावमग्न करेगी। यदि उस योजना में लोकहृदय को स्पर्श करने की क्षमता न होगी, तो भावानुभूति का हमारा सारा प्रदर्शन भाँड़ों की नकल सा होगा। भावप्रधान कविता मेंएेसी कविता में जिसमें संवेदना की विवृति ही रहती हैअालंबन का आक्षेप पाठक के ऊपर छोड़ दिया जाता है। विभावप्रधान कविता मेंएेसी कविता में जिसमें आलंबन का ही विस्तृत रमणीय चित्रण रहता हैसंवेदना पाठक के ऊपर छोड़ दी जाती है।
अपनी अनुभूति या संवेदना का लंबा चौड़ा ब्योरा पेश करने की अपेक्षा उन तथ्यों या वस्तुओं को पाठक की कल्पना में ठीक ठीक पहुँचा देना, जिन्होंने यह अनुभूति या संवेदना जगाई है कवि के लिए हम अधिक आवश्यक समझते हैं। सहृदय या भावुक पाठक अपनी अनुभूति का पथ बहुत कुछ आप से आप निकाल लेते हैं। इसी प्रकार सच्चे कवियों की अनुभूति का आभास बहुत कुछ उनकी वस्तुयोजना की शब्दभंगी में ही मिल जाता है।
भावों के लिए आलंबन आरंभ में ज्ञानेंद्रियाँ उपस्थित करती हैं; फिर ज्ञानेंद्रियों द्वारा प्राप्त सामग्री से कल्पना उनकी योजना करती है। अत: यह कहा जा सकता है कि ज्ञान ही भावों के संचार के लिए मार्ग खोलता है। ज्ञानप्रसार के भीतर ही भावप्रसार होता है। आरंभ में मनुष्य की चेतन सत्ता इंद्रियज ज्ञान की समष्टि के रूप में ही अधिकतर रही। पीछे ज्यों ज्यों सभ्यता बढ़ती गई है त्यों त्यों मनुष्य की ज्ञानसत्ता बुद्धिव्यवसायात्मक होती गई है। अब मनुष्य का ज्ञान क्षेत्र बुद्धिव्यवसायात्मक या विचारात्मक होकर बहुत विस्तृत हो गया है। अत: उसके विस्तार के साथ हमें अपने हृदय का विस्तार भी बढ़ाना पड़ेगा। विचारों की क्रिया से वैज्ञानिक विवेचन और अनुसंधान द्वारा उद्धाटित परिस्थितियों और तथ्यों के मर्मस्पर्शी पक्ष का मूर्त और सजीव चित्रण भीउसका इस रूप में प्रत्यक्षीकरण कि वह हमारे किसी भाव का आलंबन हो सकेक़वियों का काम होगा।
ये परिस्थितियाँ बहुत ही व्यापक होंगी, ये तथ्य न जाने कितनी बातों की तह में छिपे होंगे। यदि अत्याचार होगा तो उसका फैलाव औरंगजेब के अत्याचार का सा न होगा, रावण के अत्याचार का सा होगा। हाहाकार होगा तो जगद्व्यापी होगा। हाय होगी तो पृथ्वी के एक कोने से दूसरे कोने तक होगी, पर एक हाय करनेवाला दूसरे हाय करनेवाले से इतनी दूर होगा कि सम्मिलित हाय की दारुणता केवल बाहरी ऑंखों की पहुँच के बाहर होगी। यदि प्राणियों की किसी सामान्य प्रवृत्ति का चित्रण होगा, तो सामग्री कीटाणुओं की दुनिया तक ले जाई जा सकती है। जगत् रूपी घनचक्कर और गोरखधांधो की महत्ताा और जटिलता से चकित होने की चाह में हम अपनी अंतर्दृष्टि के सामने एक ओर अणुओं परमाणुओं और दूसरी ओर ज्योतिष्क पिंडों के भ्रमणचक्रों तक को ला सकते हैं।
रूखे और (वाह्य कारणों को) अगोचर को सरस और गोचर रूप में लाने का व्यवसाय काव्यक्षेत्र में बढ़ेगा। ये गोचर रूप झूठे रूपक न होंगे किसी तथ्य के मार्मिक मूर्त उदाहरण होंगे। कितने गूढ़, ऊँचे और व्यापक विचारों के साथ हमारे किसी भाव या मनोविकार का संयोग कराया जा सका है, कितने भव्य और विशाल तथ्यों तक हमारा हृदय पहुँचाया जा सका है, इसका विचार भी कवियों की उच्चता स्थिर करने में हुआ करेगा।
काव्य के संबंध में भाव और कल्पना, ये दो शब्द बराबर सुनते सुनते कभी कभी यह जिज्ञासा होती है कि ये दोनों समकक्ष हैं या इनमें कोई प्रधान है। यह प्रश्न या इसका उत्तर, जरा टेढ़ा है, क्योंकि रसकाल के भीतर इसका युगपद् अन्योन्याश्रित व्यापार होता है। रस की स्थिति श्रोता या पाठक में मानी जाती है। अत: श्रोता या पाठक की दृष्टि से यदि विचार करते हैं तो उनमें सहृदयता या भावुकता अधिक अपेक्षित होती है, कल्पनाक्रिया कम। कवि की विधायक कल्पना रस की तैयार सामग्री उनके सामने रख देती है। कविकर्म में कल्पना की बहुत आवश्यकता होती है, पर यह कल्पना विशेष प्रकार की होती है; इसकी क्रिया कवि की भावुकता के अनुरूप होती है। कवि अपनी भावुकता की तुष्टि के लिए ही कल्पना को रूपविधान में प्रवृत्त करता है। रस की प्रतीति, पूर्ण व्यंजना होने पर ही, काव्य के पूर्ण हो जाने पर ही, मानी गई है, व्यंजना के पहले नहीं। अत: कवि अपनी स्वभावगत भावुकता की जिस उमंग में रचना करने में प्रवृत्त होता है और उसके विधान में तत्पर रहता है, उसे यदि हम कुछ कहना चाहें तो रसप्रवणता या रसोन्मुखता कह सकते हैं।
जब भाव की उमंग ही कल्पना को प्रेरित करती है तब कवि का मूल गुण भावुकता अर्थात् अनुभूति की तीव्रता है। कल्पना उसकी सहयोगिनी है। पर ऐसी सहयोगिनी है जिसके बिना कवि अपनी अनुभूति को दूसरे तक पहुँचा ही नहीं सकता। अनुभूति को दूसरे तक पहुँचाना ही कविकर्म है। अत: हम कह सकते हैं कि कल्पना और भावुकता कवि के लिए दोनों अनिवार्य हैं। भावुक जब कल्पना संपन्न और भाषा पर अधिकार रखनेवाला होता है तभी कवि होता है। पर यह भी निश्चय समझना चाहिए कि जिस रूप में अनुभूति कवि के हृदय में होती है, उसी रूप में व्यंजना कभी हो नहीं सकती। उसे प्रेषणीय बनाने के लिएदूसरों के हृदय तक पहुँचाने के लिएभाषा का सहारा लेना पड़ता है। शब्दों में ढलते ही अनुभूति बहुत विकृत हो जाती है, और की और हो जाती है। इसी से बहुत सी दिव्य और सुंदर अनुभूतियों को कवि यों ही छोड़ देते हैं, उनकी व्यंजना का प्रयास नहीं करते। वे जीवन भर एक प्रकार के मूक कवि बने रहते हैं। बहुत सी कविता अनुभूति दशा में नहीं होती, स्मृति दशा में होती है। जो यह कहे कि जो कुछ हमारे भीतर था सब हमारी कविता में आ गया है, उसमें काव्यानुभूति का अभाव समझना चाहिए और उसकी कविता को कवियों की वाणी का अनुकरण मात्र।
जैसे कवि वैसे ही पाठक या श्रोता भी कभी कभी रसप्रवण होते हैं। लोग कभी कहते हैं कि 'वीर रस की कोई कविता सुनाइए', कभी कहते हैं 'ऋंगार रस की कोई कविता सुनाइए', इसका मतलब यही है कि कभी उनमें उत्साह का उन्मेष रहता है, कभी प्रेम का, कभी किसी और भाव का। इस प्रकार रसोन्मुख होने पर वे अपने अंतस् में ऐसी वस्तु लाना चाहते हैं जिसपर भावविशेष टिके; उस वस्तु के ऐसे विवरणों में अंतर्दृष्टि रमाना चाहते हैं जिनसे वह भाव उद्दीप्त रहे; ऐसी उक्तियाँ सुनाना चाहते हैं जो उस भाव द्वारा प्रेरित या अनुप्राणित समझ पड़ें।
'अभिव्यंजना ही कला या काव्य है' इसका अर्थ यहाँ तक कभी नहीं घसीटा जा सकता कि व्यंजना या व्यंजक उक्ति से भिन्न काव्यानुभूति कोई वस्तु ही नहीं। काव्यानुभूति ही वह प्रधान वृत्ति है जो व्यंजना की प्रेरणा करती है। बात यह है कि पाठक या श्रोता के पास कवि की अंतर्वृत्ति तक पहुँचने का कोई अचूक साधन नहीं होता जिससे वह यह देख सके कि अनुभूति के अनुरूप व्यंजना हुई है या नहीं। इससे वह व्यंजना या उक्ति से ही प्रयोजन रखता है। पर जब हम पूरे कविकर्म पर विचार करते हैंक़ेवल उसके फल पर ही नहींतब उसके मूल में काव्यानुभूति की सत्ता मननी पड़ती है। यह दिव्य अनुभूति समय समय पर थोड़ी बहुत सबको हुआ करती है : इसका प्रधान लक्षण है अपने खास सुख दु:ख, हानि लाभ आदि से उद्विग्न न होना, अपनी शरीरयात्रा से संबद्धा न होना। प्रेमियों के प्रेमव्यापार, दुखियों के दु:ख, अत्याचारियों की क्रूरता देख सुनकर जो रति, करुणा और क्रोध जागृत होता है, छूटे हुए स्वदेश की अतीत काल के दृश्यों की जो प्रीतिस्निग्ध स्मृति जागृत होती है, लोकरंजक महात्माओं के प्रति जिस श्रद्धा भक्ति का उदय होता है, उन सबकी अनुभूति शुद्ध भावक्षेत्र की अनुभूति है। जब तक इस प्रकार की अनुभूति में कोई लीन रहे, तब तक उसपर अव्यक्त काव्य का आवेश समझना चाहिए।
रसानुभूति या काव्यानुभूति की उपर्युक्त विशेषता के कारण उसे लोकोत्तार, जीवन से परे आदि कहने की चाल चल पड़ी है। पर वास्तव में वह जीवन के भीतर की ही अनुभूति है; आसमन से उतरी हुई कोई वस्तु नहीं है। इसी प्रकार कविता और कवि की स्मृति में जो बहुत से अलंकारपूर्ण वाक्य इधर कुछ दिनों से कहे, सुने और लिखे जाने लगे हैं, उन्होंने अर्थशून्य शब्दों का एक ऐसा झूठा परदा खड़ा कर दिया है जिनके कारण काव्यभूमि बहुत कुछ अंधकार में पड़ती जाती है। कविता स्वर्ग से गिरती हुई सुधाधारा है। नंदनवन के कुसुमों से टपकी मकरंद की बूँद है; अनंत के दिव्य संगीत की स्वरलहरी है; कवि इस लोक का जीव ही नहीं है; वह पार्थिव जीवन से परे है; उसका एक दूसरा ही जगत् है; वह पैगंबर है, औलिया है, रहस्यदर्शी हैएेसी ऐसी लचर बातें काव्य समीक्षा के नाम से कही जाने लगी हैं। बुद्धि को रुग्ण करनेवाली, पाखंड का प्रचार करनेवाली यह हवा ऍंगरेजी से बँगला में और बँगला से हिन्दी में आई। आजकल मासिक पत्रिकाओं में किसी कवि या काव्य की समीक्षा के वेश में कभी कभी बहुत सी ऐसी अर्थशून्य पदावलीज़ो ऍंगरेजी या बँगला से उठाई हुई होती हैछपा करती है। निरर्थक शब्दों की इस ऑंधी से ऊबकरएक सूक्ष्मदर्शी ऍंगरेज समालोचक को यहाँ तक कहना पड़ा कि “भाषा अभी तक उनसब वस्तुओं के स्वरूप को छिपाने ही में कृतकार्य हुई है जिनकी हम चर्चा किया करतेहैं।”1
1. लैंग्वेज हैज सक्सीडेड अनटिल रीसेंट्ली इन हाइडिंग फ्राम अस आलमोस्ट आल दि थिंग्ज वी टाक एबाउट।
अाई. ए. रिचर्ड्स, प्रिंसिपल्स आव लिटरेरी क्रिटिसिज्म।
कविता के संबंध में कई प्रवाद जो कुछ दिनों से यूरोप में प्रचलित चले आ रहे हैं, उनकी नकल हिन्दी में भी इधर उधर सुनाई पड़ने लगी है। इन प्रवादों में एक यह भी है कि कला का उद्देश्य कला ही है, या 'काव्य का उद्देश्य काव्य ही है' इस उक्ति के अनुसार कविता का क्षेत्र जीवनक्षेत्र से बिलकुल अलग है। कविता का विचार करते समय जीवन की बातों को तो लाना ही नहीं चाहिए। कला की कृति का मूल्य निर्धारित करने में बाहरी बातों के मूल्य का विचार व्यर्थ है। । 1 कला का तो अपना मूल्य अलग ही है। कला संबंधी यह वाद सन् 1866 ई. से फ्रांस में चला। साहित्यसमीक्षा के नए नए वाद फ्रांस ही में सबसे अधिक उठाए गए हैं। इस क्षेत्र में वही एक प्रकार से यूरोप का गुरु रहा है। ऍंगरेजी में उपर्युक्त मत का बहुत स्पष्ट प्रतिपादन डॉक्टर ब्रैडले ने अपनी पुस्तक (आक्सफर्ड लेक्चर्स आन पोएट्री) में किया है। हर्ष की बात है कि इस मत का तथा इसी प्रकार के और प्रचलित प्रवादों का, निराकरण रिचर्ड्स ने अपने 'काव्यसमीक्षा के सिद्धांत' में बहुत अच्छी तरह कर दिया है। 2 जो काव्यों का अनुशीलन और जनता पर उनके प्रभाव का अन्वीक्षण करते आ रहे हैं, वे अच्छी तरह जानते हैं कि कविता जीवन ही से उत्पन्न है और जीवन के भीतर ही अपनी विभूति का प्रकाश करती है। उसे जीवन से विच्छिन्न बताना कहीं की बात कहीं लगाना है।
हम कह चुके हैं कि यूरोप में जो साहित्यिक वाद या प्रवाद चलते हैं उनमें से अधिकतर प्रतिवाद की धुन में अर्थात् प्रतिवर्तन (रिऐक्शन) के रूप में उठते हैं। सबमें कोई स्थायी मूल्य या तत्वे नहीं होता; होता भी है तो बहुत थोड़ा। इसी से बहुत से 'वाद' जिनका कुछ दिनों तक फैशन रहता है, आगे चलकर हवा हो जाते हैं। विज्ञान के वादों में ईमनदारी और सच्चाई से काम लिया जाता है, साहित्यिक वादों में नहीं। साहित्य के क्षेत्र में हर एक अपनी अलग हवा बहाने के फेर में रहता है और जरा सा बढ़ावा पाने पर किसी एक बात को लेकर हद से बहुत दूर निकल जाता है। 'कला का उद्देश्य कला है' इस वाद का प्रसार भी फ्रांस में प्रतिवर्तन के रूप में ही हुआ था। काव्य की पुरानी बँधीरूढ़ियों को हटाकर, केवल मुक्त कल्पना और भावों की अप्रतिबद्धा गति को लेकर यूरोप में स्वच्छंदतावाद (रोमैंटिसिज्म) का प्रचार हुआ। वह जब हद के बाहर जाने लगा और काव्य के विषय ऊटपटाँग तथा वर्णनशैली शिथिल और अशक्त होने लगी तब सन् 1866 ई. में उसके प्रतिवाद के रूप में 'कला का उद्देश्य कला' का सिद्धांत लेकर कुछ लोग खड़े हुए। ये लोग पारनेसियन कहलाए। इनका उद्देश्य काव्य में अधिक समीचीन प्रेरण्ाा, सुडौल योजना और चित्ताकर्षक शैली का प्रचार करना था।
1. टु ऐप्रिशिएट ए वर्क आव आर्ट वी नीड ब्रिंग विद अस नथिंग फ्राम लाइफ, नो नालेज इट्स आइडियाज ऐंड अफेयर्स, नो फैमिलिऐरिटी विद इट्स इमोशंस। क्लाइव बेल आर्ट।
2. इस मत के विशेष विवरण और खंडन के लिए देखिए हमारा 'हिन्दी साहित्य का इतिहास।'
इन पारनेसियनों के पीछे सन् 1885 ई. में 'प्रतीकवादियों' (सिंबलिस्ट्स या डीकेडेंट्स) का एक संप्रदाय फ्रांस में खड़ा हुआ जिसने अनूठे 'रहस्यवाद' और 'भावोन्मादमयी भक्ति' का सहारा लिया1। हमारे यहाँ के श्री रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपनी 'गीतांजलि' का ऍंगरेजी अनुवाद प्रकाशित करके इस संप्रदाय के सुर में सुर मिलायाथा। कहने की आवश्यकता नहीं कि बंग भाषा के प्रसाद से हिन्दी में इस वर्ग की प्रवृत्ति का अनुकरण खूब चल पड़ा है। बंग भाषा के काव्यक्षेत्र के तो एक कोने ही में इस रहस्यवाद या छायावाद की तंत्राी बजी, मराठी, गुजराती को हर एक विलायती तालसुर पर नाचने की आदत नहीं, पर हिन्दी में तो इसकी नकल पर तूफान सा आ गया।
यह 'प्रतीकवाद' सिद्धांत रूप में यद्यपि आध्यायत्मिक 'रहस्यवाद' के साथ संबद्धा होकर उठा है, पर प्रतीक रूप में वस्तुओं का व्यवहार अच्छी कविता में बराबर होता आया है। 2 किसी देवता का प्रतीक सामने आने पर जिस प्रकार उसके स्वरूप और उसकी विभूति की भावना चट मन में आ जाती है उसी प्रकार काव्य में आई हुई कुछ वस्तुएँ विशेष मनोविकारों या भावनाओं को जागृत कर देती हैं; जैसे'क़मल' माधुर्यपूर्ण कोमल सौंदर्य की भावना जागृत करता है; 'कुमुदिनी' शुभ्र हास की; 'चंद्र' मृदुल आभा की; 'समुद्र' प्राचुर्य विस्तार, 'सर्प' से क्रूरता और कुटिलता का, 'अग्नि' से तेज और क्रोध का, वीणा से वाणी या विद्या का, 'चातक' से नि:स्वार्थ प्रेम का संकेत मिलता है। प्रतीक दो प्रकार के होते हैं। कुछ तो मनोविकारों या भावों को जगाते हैं (इमोशनल सिंबल्स) और कुछ भावनाओं या विचारों को (इंटेलेक्चुअल सिंबल्स)। भावना या कल्पना जगानेवाले प्रतीकों के साथ भाव या मनोविकार भी प्राय: लगे रहते हैं।
ऊपर जिन प्रतीकों के नाम आए हैं वे सब ऐसे हैं जिनके स्वरूप में ही कुछ न कुछ व्यंजना है। पर उनमें इतनी अधिक शक्ति के संचय का कारण यह भी है कि वे कई सहस्र वर्षों से कम से कम भारतीय जनता की कल्पना के अंग और भावों के विषय रहते आए हैं। वे परंपरागत प्रतीक हैं। काव्य में ऐसे ही प्रतीकों का व्यवहार होता आया है और हो सकता है। यह तो प्रत्यक्ष है कि थोड़े से ही
प्रतीक सार्वभौम हो सकते हैं। भिन्न भिन्न देशों की परिस्थिति और संस्कृति के
1. फालोइंग अपान दि पारनेसिअंस, एबाउट 1885 केम दि सिंबलिस्ट्स आर डीकेडेंट्सए मूवमेंट आव डेक्स्चरस मिस्टिसिज्म ऐंड 'सेंटिमेंटल रेलिजासिटी' टू रीसेंट फार सैटिस्फेक्टरी हिस्टारिकलइन्वेस्टिगेशन।
ग़ेली ऐंड कुट्र्ज: मेथड्स ऐंड मैटीरिअल्स आव लिटरेरी क्रिटिसिज्म।
2. सिंबलिज्म ऐज सीन इन दि राइटर्स आव अवर डे, वुड हैव नो वैल्यू इफ इट वेअर नाट सीन आल्सो, अंडर वन गाइज आर ऐनदर, इन एव्री ग्रेट इमैजिनेटिव राइटर।
अार्थर साइमन्स : दि सिंबलिस्ट मूवमेंट इन लिटरेचर।
अनुसार प्रतीक भी भिन्न भिन्न हुआ करते हैं। 'गुल बुलबुल' से जिस भावना का संकेत फारसवाले को मिलता है उस भावना का संकेत भारतवासी को नहीं; 'चातक' से जिस भावना का संकेत भारतवासी को मिलता है उस भावना का योरोपीय को नहीं। क्रूस से जैसी पवित्रता और स्वर्गीय शांति का संकेत एक ईसाई को मिलेगा, हिंदू या बौद्धा को नहीं। प्रकृति के नाना रूपों को भिन्न भिन्न देशों ने भिन्न भिन्न भावों से देखा है। सघन वन, पर्वत आदि भारतीय या योरोपीय हृदय को चाहे रमावें पर फारसी दृष्टिवाले को वे कष्ट या विपत्ति ही के सूचक होंगे। अधिकतर कुहरे और बदली से आच्छन्न रहनेवाले यूरोप में 'चमचमाती धूप' आनंद और सुख समृद्धि का संकेत हो, पर भारत के लिए नहीं हो सकती। 'स्निग्ध श्यामल घटा में जो उदार और शीतल माधुर्य भारतीय देखता है, योरोपीय नहीं। जाड़े की संध्याे कुछ मनहूस और उदासी लिए होती है; इससे विलायतवाले उसे शोक और उदासी का प्रतीक मानें तो ठीक है। पर हिंदुस्तान में जाड़ा बहुत थोड़े दिनों रहता है। यहाँ तो दिन में ऑंख तिलमिलाने वाली चमक के पीछे संध्याज की मधुर आभा मृदुलता का संकेत करती है। हाँ! 'अंधकार' या 'ऍंधोरी रात' शोक और उदासी का प्रतीक अवश्य मानी जाती है। जायसी ने रत्नसेन के परलोकवास पर ऍंधोरी रात ही लीहै
सूरुज छपा रैनि होइ गई। पूनो ससि सो अमावस भई।
यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि प्रतीकों का व्यवहार हमारे यहाँ के काव्य में बहुत कुछ अलंकार प्रणाली के भीतर ही हुआ है। पर इसका मतलब यह नहीं कि उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा इत्यादि के उपमन और प्रतीक एक ही वस्तु है। प्रतीक का आधार सादृश्य या साधार्म्य नहीं, बल्कि भावना जागृत करने की निहित शक्ति है। पर अलंकार में उपमन का सादृश्य या साधार्म्य ही माना जाता है। अत: सब उपमन प्रतीक नहीं होते। पर जो प्रतीक भी होते हैं वे काव्य की बहुत अच्छी सिद्धि करते हैं। अलंकारों में कभी कभी किसी एक विषय के सादृश्य या साधार्म्य के विचार से ही बहुत से उपमन ऐसे रख दिए जाते हैं जिनमें कुछ भी प्रतीकत्व नहीं होता, जैसेक़टि की उपमा के लिए सिंह या भिड़ की कमर। ऐसे उपमानों से हम सच्चे काव्य की कुछ भी सिद्धि नहीं मनते। किसी वस्तु के मेल में उपमन खड़ा करने का उद्देश्य यही होता है कि उस वस्तु के सौंदर्य आदि की जो भावना हो उसे और उत्कर्ष प्राप्त हो। अत: सच्ची परखवाले कवि अप्रस्तुत या उपमन के रूप में जो वस्तुएँ लाते हैं उनमें प्रतीकत्व होता है। हंस, चातक, मेघ, सागर, दीपक, पतंग इत्यादि कुछ विशेष वस्तुओं पर अन्योक्तियाँ क्यों इतनी मर्मस्पर्शिणी हुई हैं? इसलिए कि उनमें प्रतीकत्व है। उनके नाम मात्र हमारे हृदय में कुछ बँधीहुई भावनाओं का उद्बोधान करते हैं। इसी प्रकार फारसी की शायरी में बुलबुल, शमा, परवाना, शराब, प्याला आदि सिद्ध प्रतीक हैं।
यहाँ तक तो काव्य में प्रतीकों के सर्वसम्मत सामान्य व्यवहार का उल्लेख हुआ; पर यह कायदे की बात है कि जब कोई बात 'वाद' के रूप में किसी संप्रदाय विशेष के भीतर ग्रहण की जाती है तब वह बहुत दूर तक घसीटी जाती हैइतनी दूर कि वह सबके काम की नहीं रह जातीअौर उसे कुछ विलक्षणता प्रदान की जाती है। रहस्यवाद को लेकर जो 'प्रतीकवादी' संप्रदाय यूरोप में खड़ा हुआ उसने परोक्षवाद (आकल्टिज्म) का सहारा लिया। प्रतीक के रूप में गृहीत वस्तुओं में भावों के उद्बोधान की शक्ति कैसे संचित हुई इसका वैज्ञानिक उत्तर यही होगा कि कुछ तो उन वस्तुओं के स्वरूपगत आकर्षण से, कुछ चिरपरिचित आरोप के बल से और कुछ वंशानुगत वासना की दीर्घ परंपरा के प्रभाव से। पर रहस्यवादी इसका उत्तर दूसरे ढंग से देंगे।
वे कहेंगे कि 'हमारे मन का विस्तार घटता बढ़ता रहता है और कभी कभी कई मन संचरित होकर एक दूसरे में मिल जाते हैं और इस प्रकार एक मन या एक शक्ति का उद्धाटन करते हैं। हमारी स्मृति का विस्तार भी ऐसे ही घटता बढ़ता रहता है और उस महास्मृति का, प्रकृति की स्मृति का एक अंग है। 1 इस महामन और महास्मृति का आह्नान प्रतीकों द्वारा उसी प्रकार हो सकता है जिस प्रकार तांत्रिकों के विविधा चक्रों या यंत्राों द्वारा देवताओं का2। इस प्रवृत्ति के अनुसार वे रचना में प्रवृत्त करनेवाली कवियों की प्रतिभा के जगने को वही दशा कहते हैं, जिसे सूफी 'हाल आना' कहते हैं, जिसमें कुछ घड़ियों के लिए कवि की अंतस्सत्ताा ईश्वरीय सारसत्ता (डिवाइन एसेंस) में मिल जाती है।
इस धारणा के अनुसार काव्य का लक्ष्य इस जगत् और जीवन से अलग हो जाता है। प्रकृति के जिन रूपों और व्यापारों का कवि सन्निवेश करेगा वे 'प्रतीक' मात्र होंगे। कवि की दृष्टि वास्तव में उन प्रतीकों के प्रति न मानी जाकर उन अज्ञात और परोक्ष शक्तियों या सत्ताओं के प्रति मानी जायगी जिनके वे प्रतीक होंगे। यदि वे प्रकृति का वर्णन करें तो उनका अनुराग प्रकृति पर न समझना चाहिए, प्रकृति के नाना रूपों के परदे के भीतर छिपी हुई अज्ञात और अव्यक्त सत्ता के प्रति समझना चाहिए। वे भरसक इस बात का प्रदर्शन करेंगे कि उनके भावोद्गार और उनके वर्णन व्यक्त और पार्थिव के संबंध में नहीं हैं, अव्यक्त और अपार्थिव के संबंध में हैं।
1. (1) दैट दि बार्डर्स आव अवर माइंड एवर शिफ्ंटिग, दैट मेनी माइंड्स कैन फ्लो इंटू वन ऐनदर, ऐज इट वेअर, ऐंड क्रिएट ऐंड रिवील ए सिंगल माइंड, ए सिंगल एनर्जी।
(2) दैट दि बार्डर्स आव अवर मेमरीज आर ऐज शिफ्ंटिग, ऐंड दैट अवर मेमरीज आर ए पार्ट आव वन ग्रेट मेमरी आव नेचर हरसेल्फ।
2. दैट दिस ग्रेट माइंड ऐंड ग्रेट मेमरी कैन बी इवोक्ड बाई सिंबल्स।
ड़ब्ल्यू. बी. ईट्स : आइडियाज आव गुड ऐंड ईविल।
समझनेवाले चाहे जो समझें। यदि कोई बाबाजी किसी रमणी के प्रेम में उसके रूप माधुर्यआदि का बड़े अनूठेपन के साथ वर्णन करके कहें कि 'मेरा प्रेम उसके व्यक्त भौतिक शरीर सेउसकी रूपरेखा, वर्ण चेष्टा आदि सेनहीं है बल्कि उस भौतिक शरीर के भीतर छिपी अव्यक्त आत्मसत्ता से है जो नित्य अनंत और सर्वव्यापक है', तो कह सकते हैं। पर कहाँ तक लोग ऐसा समझेंगे यह बात दूसरी है। हाफिज के शराब और प्याले को सूफी चाहे जो कहें, पर बहुत से पहुँचे हुए विद्वान् उन्हें शराब और प्याला ही मनते हैं।
बात यह है कि हृदय का कोई भाव यदि व्यंजित किया जायगा तो वह ज्ञात को ही लेकर होगा और गोचर के ही प्रति होगा। मनोविज्ञान की दृष्टि से यदि 'भाव' (इमोशन) के स्वरूप पर विचार किया जाय, तो उसके अंतर्गत ज्ञानात्मक अवयव का विशिष्ट विन्यास पाया जायगा। उसके बिना भाव का स्वरूप ही न पूर्ण होगा। यदि यह कहा जाय कि ईश्वर को किसी ने नहीं देखा है, पर ईश्वर भक्ति बराबर होती आई है और उसकी सच्चाई में कोई संदेह नहीं हुआ है, तो इसका उत्तर यह है कि ईश्वर को ज्ञेय बनाकर ही उसकी उपासना और भक्ति का आरंभ हुआ है। ईश्वर को प्रेमपूर्ण दयालु पिता या स्वामी के रूप में अंत:करण के सामने रखकर ही प्रेम या भक्ति का चरम आलंबन मनुष्य जाति ने खड़ा किया है। रही मूर्त भावना, वह भी इतने गुणों का आरोप हो जाने के कारण प्रेमानुभूति के समय भक्त के मन में कुछ न कुछ हो ही जाती है। तात्पर्य यह है कि भाव के पूर्ण परिपाक के लिए आलंबन की निर्दिष्ट भावना आवश्यक है।
अभिव्यक्ति को ही काव्यदृष्टि के भीतर मननेवाले विशुद्ध कवि और सांप्रदायिक या रहस्यवादी कवि की मनोवृत्ति में यही भेद है कि एक बड़ी सच्चाई के साथ जिसपर उसका भाव टिका होगा उसे स्वीकार करेगा और दूसरा उसे स्वीकार न करके, इधर उधर ताक झाँक करेगा। वह वेदांतियों के 'प्रतिबिंबवाद' का सहारा लेकर कहेगा कि ये सब रूप तो छाया हैं; हम जो प्रेम प्रकट करते हैं उसे इस छाया पर न समझो, जिसकी वह छाया है उसपर समझो। शायद वह यह दृष्टांत भी दे कि जैसे पूर्वराग में चित्र देखकर ही अनुराग उत्पन्न होता है, पर उस चित्र के प्रति जो अनुराग प्रकट किया जाता है वह उस चित्र के प्रति न होकर, जिसका वह चित्र होता है उसके प्रति होता है। पर पूर्वराग में जो अभिलाष होता है वह इस बात का होता है कि जिसे चित्र आदि छाया के रूप में देखते हैं उसे पूर्ण गोचर रूप मेंदर्शन, श्रवण, स्पर्श आदि सबके विषय के रूप मेंदेखें। पर रहस्यवाद पूर्णगोचर को सामने पाकर अगोचर, अभौतिक आदि की ओर अपना अभिलाष बनाता है, जो वास्तव में अभिलाष के स्वरूप के सर्वथा विरुद्धा है। जिस प्रकार पूर्वराग में आलंबन अज्ञात नहीं रहता, चित्र आदि द्वारा अंशत: ज्ञात रहता है, उसी प्रकार जिसे रहस्यवादी अज्ञात कहता है वह भी, छाया या प्रतिबिंब के द्वारा सही, अंशत: ज्ञात रहता है। पर यदि रहस्यवादी 'अज्ञात', 'अगोचर', 'अभौतिक' का नाम न ले तो उसका 'वाद' कहीं नहीं रह जाता, जो उसे इतना प्रिय है। इस अज्ञात या अभौतिक के कारण उसे अपनी रचना में आडंबर खड़ा करना पड़ता है, बात बात में असीम राग अलापना पड़ता है।
अनिर्दिष्ट और धुधंली झलक या भावना में भी एक विशेष प्रकार का आकर्षण होता है जो स्निग्ध विस्मय औत्सुक्य या अभिलाष उत्पन्न करता है। घने कुहरे या जाली के बीच किसी के रूपमाधुर्य की हलकी सी झलक मात्र पाकर हम केवल उत्सुक होंगे। इसी औत्सुक्य की सतत प्रेरणा से उसका रूप निर्दिष्ट करने के लिए हमारी कल्पना प्रवृत्त रहा करेगी। रहस्यवादी अपनी यही स्थिति बतलाते हैं। वे भी प्रकृति के क्षेत्र से कुछ रूपों को चुनकर उनकी विलक्षण और दूरारूढ़ योजना कल्पना के भीतर करते हैं। अपना यह प्रयत्न वे 'अज्ञात के औत्सुक्य' द्वारा प्रेरित बताते हैं। यहीं तक कहकर रह जाते तो ज्यादा खटकने की बात न थी। इसके आगे बढ़कर वे यह भी सूचित करते हैं कि अपनी दूरारूढ़ रूपयोजना या भावना में वे अगोचर और अव्यक्त सत्ता का साक्षात्कार करते हैं। कुहरे या जाली के बीच में किसी के रूपमाधुर्य की हलकी झलक पानेवाला पीछे मन से उसके रूप की जो तरह तरह की कल्पना किया करता है, उसे उसी का रूप न समझता है, न कहता है। यदि कल्पना में आया हुआ रूप ही बिंब या पारमार्थिक वस्तु है तब तो कल्पनात्मक रूप ही आलंबन ठहरे। सारा अभिलाष, सारा औत्सुक्य उन्हीं के लिए समझना चाहिए।
कल्पनात्मक रूपों के इसी आलंबनत्व की प्रतिष्ठा करके सांप्रदायिक 'रहस्यवाद' काव्यक्षेत्र में खड़ा हुआ। इंगलैंड के पूर्ववर्ती रहस्यवादी कवि ब्लेक (विलियम ब्लेक 17571827) ने कल्पना का बड़े जोर से पल्ला पकड़ा और उसे नित्य पारमार्थिक सत्ता के रूप में ग्रहण करके कहा
'कल्पना का लोक नित्य लोक है। यह शाश्वत और अनंत है। उस नित्य लोक में उन सब वस्तुओं की नित्य और परमार्थ सत्ताएँ हैं जिन्हें हम प्रकृतिरूपी दर्पण में प्रतिबिंबित देखते हैं।'1
इस प्रकार ब्लेक ने भक्तिरस में दृश्यजगत् की रूपयोजना को आलंबन न कहकर, कल्पनाजगत् की रूपयोजना को आलंबन कहा। इस युक्ति से एक बड़ी भारी मजहबी रुकावट दूर हुई। इधर कविता प्रकृति के क्षेत्र में नाना रूप, रंग और मूर्त पदार्थ लिए बिना एक कदम आगे बढ़ने को तैयार नहीं। इधर मजहब कागजी ऑंखें निकाले काले अक्षरों में घूर रहा था कि 'खबरदार! स्थूल इंद्रियार्थों के प्रलोभन
1. दि वर्ल्ड आव इमैजिनेशन इज दि वर्ल्ड आव एटर्निटी...दि वर्ल्ड आव इमैजिनेशन इज इनफाइनाइट ऐंड एटर्नल ह्नेअरऐज दि वर्ल्ड आव जेनरेशन आर वेजिटेशन इज फाइनाइट ऐंड टेंपोरल। देअर एक्जिस्ट इन दि एटर्नल वर्ल्ड रिऐलिटीज आव एव्रीथिंग ह्निच वी सी रिफ्लेक्टेड इन दि वेजिटेबुल ग्लास आव नेचर।
में न पड़ना। मूर्त पूजा का पाप मन में न लाना।' ब्लेक को कल्पना में वस्तुओं का सूक्ष्म रूप (यहाँ के पुराने लोगों के 'लिंगशरीर' के समन) मिल गया। स्थूलता के दोष का परिहार हो गया। मन भी छठी इंद्रिय है, यह भावना स्पष्ट होने से इंद्रियासक्ति (सेंसुऐलिज्म) के दोषारोपण की संभावना भी दूर हुई समझी गई । भक्त कवियों को नाना मनोहर रूपों के प्रति अनुराग प्रकट करने का लाइसेंस मिल गया। पूछताछ होने पर वे कह सकते थे कि 'वाह! हम तो छाया के प्रेम द्वारा सारसत्ता का प्रेम प्रकट कर रहे हैं। एक हिसाब से बड़ा भारी काम हुआ। पर खुदा का कौन सा ऐसा काम है जिसमें शैतान न कूदे? कल्पना की ईश्वरीय सारसत्ता के समन ही शैतानी सारसत्ता का आना जाना भी रहता ही है। अपने सूक्ष्म रूप के कारण दोनों नित्य ही होंगी।
यह सब जाने दीजिए। यह देखिए की कल्पना की नित्यता के प्रतिपादन में उसे पारमार्थिक सत्ता बनाने में, प्रकृति और कल्पना के प्रत्यक्ष संबंध में कितना विपर्यय करना पड़ा है। यह तो प्रत्यक्ष बात है कि कल्पना के भीतर जो कुछ रहता है या आता है वह प्रकृति के ही विशाल क्षेत्र से प्राप्त होता है। अत: जब तक हम किसी 'वाद' का सहारा न लें तब तक यही कहेंगे कि कल्पना में आए हुए रूप ही प्रकृति के नाना रूपों के प्रतिबिंब हैं; प्रकृति के रूप कल्पना के प्रतिबिंब नहीं। इस 'कल्पनावाद' का कोई आभास न तो वेदांत के प्रतिबिंबवाद में है; न कांट से लेकर हेगल तक जर्मन दार्शनिकों के 'प्रत्ययवाद' (आइडियालिज्म) में। 'प्रत्ययवाद' इस दृश्यगोचर जगत् को ही प्रत्यय या भावना (आइडिया) कहता है। यह 'कल्पनावाद' वास्तव में सूफियों के यहाँ से गया है, यह हम आगे चलकर दिखाएँगे।
सूफियों के कल्पनावाद की गंधपाकर ब्लेक ने, कुछ बर्कले के इशारे पर 'परम आत्मा' के समन दृश्य जगत् से परे 'परम कल्पना' का प्रतिपादन किया और मनुष्य कल्पना को उस 'परम कल्पना' का अंग या अंशलब्धिा माना, प्रकृति के नाना रूप जिसकी छाया हैं। कल्पना को उसने इलहाम बनाया और कवियों को खासे पैगंबर। इस प्रकार उसने काव्य के परम पुनीत क्षेत्र में पाखंड का रास्ता सा खोल दिया।
साहित्यपक्ष भी कुछ देखना चाहिए। रचना के समय कवि के हृदय में कल्पना के रूप में आलंबन आदि रहते या आते ही हैं। जबकि यही काल्पनिक रूप ही वस्तुओं की सारसत्ता है, ब्रह्म का रूप है, तब अभिलाष की जगह कहाँ रही? अभिलाष को साक्षात्कार की इच्छा है। वह साक्षात्कार हो ही जाता है। प्रकृति के क्षेत्र में जिसकी हम छाया मात्र देखते हैं, उसे हम कल्पना में मूल रूप में देख ही लेते हैं। भली बुरी किसी प्रकार की कल्पना मन में आई कि ईश्वर का दर्शन हुआ। इस प्रकार रहस्यवादी कवि के लिए वियोगपक्षज़िसकी इतनी दूरारूढ़ व्यंजना हुआ करती हैरह ही नगया।
अब संयोग पक्ष में व्यंजित भावों की सच्चाई की परीक्षा कीजिए। यह हम बार बार कह चुके हैं कि कल्पना में आए हुए रूप प्रकृति ही के हैं, बाहर ही के हैं और गोचर हैं। कल्पना की सारी रूपसामग्री वाह्य जगत् की होती है। कल्पना उसकी केवल तरह तरह की योजना किया करती है। प्रकृति के बाहरी रूप, रंग आदि हमें मुग्ध कर चुके रहते हैं तभी उनकी काल्पनिक योजना में हमारी वृत्ति रमती है। यदि कोई मनुष्य जन्म से ही एक घर में बंद रखा जाय, तो उसकी कल्पना में दीवारों और खंभों के 'सिवा' और कुछ नहीं आ सकता। इससे सिद्ध है कि हमारे भाव वास्तव में वाह्य प्रकृति के गोचर रूपों ही के प्रति होते हैं, इसलिए कल्पना में उनकी छाया भी हमें भावमग्न करती है। हमारे हृदय का सीधा लगाव वाह्य प्रकृति के गोचर रूपों से ही होता है।
इस दृष्टि से यदि देखा जाय तो रहस्यवादी जो कुछ सुंदर, रमणीय और भव्य रूपयोजना करेगा वह वास्तव में या तो वाह्य प्रकृति के प्रेम द्वारा प्रेरित होगी अथवा प्रेम द्वारा प्रेरित ही न होगी। पर उसमें इस बात को स्वीकार करने का साहस ही नहीं होता। इससे पाठक के मन में वह यह झूठी प्रतीति उत्पन्न करना चाहेगा कि उसके भाव इन छायात्मक रूपों के प्रति बिलकुल नहीं हैं; इनके परे जो अगोचर और अव्यक्त पारमार्थिक सत्ता है उसके प्रति है। वह यह कहकर ही रह जाता तब तो कला के क्षेत्र में वैसी गड़बड़ी न होती पर यह प्रतीति उत्पन्न करने के लिए वह अपनी रचना का स्वरूप भी कुछ विशेष प्रकार का रखेगा, उसमें कुछ अलौकिकता, अस्वाभाविकता, देश काल का अतिक्रम, अनुभूति की विचित्रताज़ो बिलकुल झूठी होगीलाने का भरपूर प्रयत्न करेगा। बातचीत में वह इस प्रयत्न तक को अस्वीकार करेगा; कहेगा कि सब भावना इसी रूप में परोक्ष जगत् से आकर मेरे हृदय में जबरदस्ती घुस गई है। पर वह वास्तव में इसकी प्रतीति उत्पन्न करने के लिए भी कि भावना इसी रूप में एकबारगी आई है, उसे पूरा श्रम करना पड़ता है, जैसे कि घोर रहस्यवादी कवि ईट्स तक ने कहा है। 1
हमारे हृदय का सीधा लगाव गोचर जगत् से है, इसी बात के आधार पर सारे संसार में रसपद्धाति चली है और सच्चे स्वाभाविक रूप में चल सकती है। मजहबी सुबीते के लिए अनुभूति के स्वाभाविक क्रम का विपर्यय करने सेमूल आलंबनों को छाया और छाया को मूल आलंबन बनाने सेक़ला के क्षेत्र में कितना
आडंबर खड़ा हुआ है, इसका अंदाजा ऊपर के ब्योरे से लग सकता है।
1. आइ सेड 'ए लाइन विल टेक अस आवर्स मे बी;
येट् इफ इट डज नाट सीम ए मोमेंट्स थाट,
अवर स्टिचिंग ऐंड अनस्टिचिंग हैज बीन नाट।'
ईट्स ने इस बात का खंडन जोर के साथ किया है कि कवियों में भावना एकबारगी आती जाती है और वे लिखते जाते हैं। स्वयं ईट्स अपनी कविताओं की बहुत काट छाँट किया करते हैं; यहाँ तक कि दूसरे संस्करण में बहुत सी कविताएँ बदली हुई मिलती हैं।
कल्पना की यह लोकोत्तार व्याख्या ब्लेक की अपनी उपज नहीं है, यह हम पहले कह आए हैं। यह उसने सूफियों से ज्यों की त्यों ली थी। शाहजहाँ के पुत्रा दाराशिकोह ने सूफियों के सिद्धांत पर जो एक छोटी सी पुस्तक (रिसालए हकनुमा) संकलित की थी उसमें साफ यही बात लिखी है; देखिए
'दृश्य जगत् में जो नाना रूप दिखाई पड़ते हैं वे तो अनित्य हैं, पर उन रूपों की जो भावनाएँ या कल्पनाएँ होती हैं वे अनित्य नहीं हैं। वे कल्पनाचित्र नित्य हैं। इसी कल्पनारूपी चित्र जगत् (आलमे मिसाल) से इस आत्मजगत् को जान सकते हैं जिसे 'आलमेगैब' और 'आलमेख्वाब' भी कहते हैं। ऑंख मँदने पर किसी वस्तु का जो रूप दिखाई पड़ता है वही उस वस्तु की आत्मा या सारसत्ता है। अत: यह स्पष्ट है कि मनुष्य की आत्मा उन्हीं रूपों की है जो रूप बाहर दिखाई पड़ते हैं। भेद इतना ही है कि अपनी सारसत्ता में स्थित रूप पिंड या शरीर से मुक्त होते हैं। सारांश यह कि आत्मा और वाह्य रूपों का बिंबप्रतिबिंब संबंध है। स्वप्न की अवस्था में आत्मा का यही सूक्ष्म रूप दिखाई पड़ता है उस अवस्था में ऑंख, कान, नाक सबकी वृत्तियाँ रहती हैं, पर स्थल रूप नहीं रहते। 'ब्लेक ने पैगंबरी झोंक में रहस्यवाद की बहुत सी कविताएँ लिखी जिनमें 'येरूशलम' मुख्य है इसके संबंध में उसने लिखा'इसके रचयिता तो नित्यलोक में हैं, मैं तो केवल सेक्रेटरी या खासकलम हूँ। मैं इसे संसार का सबसे भव्य काव्य समझता हूँ।' पर दुनिया की राय इससे उलटी हुई और वही राय ठीक ठहरी। ब्लेक की और कविताएँ अच्छी हुईं; पर रहस्यवाद की रचनाएँ निकम्मी ठहराई गईं। 1
ब्लेक के 58 वर्ष पीछे सन् 1885 में जो नया 'प्रतीकरहस्यवाद' उठा उसकी प्रवृत्ति भी प्राय: यही चली आती है। कल्पना को एक प्रकार का इलहाम कहना, एक की कल्पना का दूसरे के अंत:करण में अज्ञात रूप में प्रवेश बताना, बैठे बैठे अन्य देश और अन्य काल की घटनाएँ देखना, असीम ससीम का राग अलापना, ये सब बातें आजकल के रहस्यवादी कवि ईट्स की पुस्तक (आइडियाज आव गुड ऐंड ईविल) में मौजूद हैं। यह सांप्रदायिक प्रवृत्ति कहाँ तक शुद्ध काव्यदृष्टि प्रदान करने में सहायक हो सकती है, विचारने की बातहै।
यह ठीक है कि भिन्न भिन्न रहस्यवादी कवियों की दृष्टि में थोड़ा बहुत भेद रहता है, कुछ कवि 'लोकवाद' भी लिए रहते हैं पर यह भी उतना ही ठीक है कि सब इस
1. आव दिस, ही सेड, ही वाज मियर्ली दि सेक्रेटरी; 'दि आथर्स आर इन एटर्निटी। आइ कंसिडर इट दि ग्रैंडेस्ट पोएम दिस वर्ल्ड कंटेन्स'।
अनफार्चुनेट्ली दि वर्ल्ड्स ओपीनियन वाज रैडिकली डिफरेंट, ऐंड इट्स ओपीनियन वाज एंटायर्ली करेक्ट। दि मिस्टिक राइटिंग्ज ह्निच फार्म सो लार्ज ए पार्ट आव ब्लेक्स आउटपुट वेयर वैल्यूलेस।
ए. बी. डी.मिल : लिटरेचर इन दि सेंचुरी।
(दि नाइनटींथ सेंचुरी सीरीज)
दृश्य और गोचर जगत् से परे एक अभौतिक जगत् की ओर झाँकने का दावा करते हैं। इस संप्रदाय के वर्तमन कवियों में एक मिस मकाले (रोज मकाले) हैं जिन्होंने सन् 1913 ई. में 'दो अंधा देश' (दि टू ब्लाइंड कंट्रीज) नाम की एक छोटी सी पुस्तक में अपनी कविताओं का संग्रह निकाला है। इसमें उन्होंने नाना सुंदर रूपों और व्यापारों से जगमगाते हुए इस भौतिक जगत् का बड़ी सहृदयता से निरीक्षण किया है, पर इसे चारों ओर वेष्ठित किए हुए एक दूसरा मंडल या जगत् भी उन्हें दिखाई पड़ा है, जो भौतिक न होने पर भी सत्य है। इस अभौतिक जगत् का उन्हें इतना प्रत्यक्ष आभास मिलता है कि कभी कभी वे संदेह में पड़ जाती हैं कि वे दोनों में से किस जगत् की हैं। उनके देखने में नाना कौतुकपूर्ण रूपों से युक्त इस छायामय जगत् में आत्मा एक परदेसी की तरह घूमती फिरती आ जाती है। यहाँ वह ज्ञानद्वार की दूसरी ओर से (अर्थात् अगोचर जगत् से) किसी और ही जगत् के लोगों की परदे में दबी हुई सी वाणी आती हुई सुना करती है। 1
हम समझते हैं कि इतने से इस प्रकार की कविता का सांप्रदायिक रूप स्पष्ट हो गया होगा। अत: रहस्यवाद की कविता के संबंध में हिन्दीवालों के बीच यह भ्रांति फैलाना कि सारे यूरोप में इसी प्रकार की कविता हो रही है, यही वर्तमन युग की कविता का स्वरूप है, घोर साहित्यिक अपराध है। रहस्यवाद की कविता एक छोटे से संप्रदाय के भीतर की वस्तु है। इंगलैंड आयरलैंड को ही लीजिए। मेरी स्टर्जन ने अभी वर्तमन ऍंगरेजी कवियों का जो परिचय (स्टडीज आव कंटेंपरेरी पोएट्स) प्रकाशित किया है, उसमें बीस बाईस कविज़िसमें सरोजनी नायडू भी हैंविशेष विवरण के साथ लिए गए हैं। इनमें रहस्यवादी केवल दो या तीन हैं।
पाश्चात्य साहित्यक्षेत्र में रहस्यवाद किस प्रकार एक सांप्रदायिक वस्तु समझा जाता है और उसके प्रति अधिकांश साहित्यिकों और शिक्षित पाठकों की कैसी धारणा
1. ओन्ली थ्रू ऐ क्रीक इन दि डोर्स ब्लाइंड फेस
ही वुड रीच ए थीविंग हैंड,
टु ड्रा सम क्ल्यू टु हिज ओन स्ट्रेंज प्लेस
फ्राम दि अदर लैंड।
बट हिज क्लोज्ड हैंड केम बैक एंप्टिली,
ऐज ए ड्रीम ड्राप्स फ्राम हिम हू वेक्स;
एंड नाट माइट ही नो बट हाउ ए मफल्ड सी
इन ह्निस्पर्स ब्रेक्स।
आन आइदर साइड आव ए ग्रे बैरिअर,
दि टू ब्लाइंड कंट्रीज लाइ;
बट ही न्यू नाट ह्निच हेल्ड हिम प्रिजनर,
नार येट नो आई।
रहती है, इसका पता एक इसी बात से लग सकता है कि मेरी स्टर्जन की उपर्युक्त पुस्तक (स्टडीज आव कंटेंपरेरी पोएट्स) में मिस मकाले की कविता के परिचय के आरंभ में उसे 'रहस्यवाद' की बताकर यह भी कहना पड़ा है कि
'पर इससे (रहस्यवाद की कविता होने से) किसी को यह आशंका न होनी चाहिए कि अब निम्न कोटि की कविता का पाखंड सामने रखा जायगा। 1
रहस्यवाद की कविताओं में सबसे अधिक विरक्तिजनक दो बातें होती हैंभावों में सच्चाई का अभाव (इनसिनसिऐरिटी) और व्यंजना की कृत्रिमता (आर्टिफिशैलिटी)। उनमें व्यंजित अधिकांश भावों को कोई हृदय के सच्चे भाव नहीं कह सकता। अत: उनकी व्यंजना की उछलकूद भी एक भद्दी नकल सी जान पड़ती है। भावों की झूठी नकल का पता जल्दी लग जाता है। प्रत्येक सहृदय सच्ची कविता पढ़ते समय कवि या आश्रय के साथ तादात्म्य का अनुभव करता है। जहाँ अधिकांश पाठकों में इस प्रकर तादात्म्य का अभाव देखा गया कि बनावट का निश्चय स्वभावत: हो जाता है। पर साथ ही यह बात भी है कि चाहे किसी प्रकार की रचना हो, वह एक फैशन के रूप में चला दी जाती है तब कुछ लोग बिना किसी प्रकार की अनुभूति के यों ही रसज्ञ समझे जाने के लिए ही, वाह वाह कर दिया करते हैं। इस प्रकार के लोग सब दिन रहे और रहेंगे। ऐसे ही लोगों के लिए उर्दू के एक पुराने शायरशायद नासिखने कुछ ऊटपटाँग शेर बना रखे थे। जो उनके पास शेर सुनने की इच्छा से जाता था, उसे पहले वे ही शेर सुनाते थे। यदि सुननेवाला 'वाह वाह' कहने लगता तो वे जान लेते थे कि वह मूर्ख है और उठकर चले जाते थे।
मनुष्य लोकबद्धा प्राणी है। उसका अपनी सत्ता का ज्ञान तक लोकबद्धा है। लोक के भीतर ही कविता क्या किसी कला का प्रयोजन और विकास होता है। एक की अनुभूति को दूसरे के हृदय तक पहुँचाना, यही कला का लक्ष्य होता है। इसके लिए दो बातें अपेक्षित होती हैं। भावपक्ष में तो अनुभूति का कवि के अपने व्यक्तिगत संबंधों या योगक्षेम की वासनाओं से मुक्त या अलग होकर लोक सामान्य भावभूमि पर प्राप्त होना (इंपर्सनैलिटी एंड डीटैचमेंट); कला या विधानपक्ष में उस अनुभूति के प्रेषण के लिए उपयुक्त भाषाकौशल। प्रेरणा के लिए कवि में अनुभूति का होना पहली बात है, इसमें संदेह नहीं; पर उस अनुभूति को जिस रूप में कवि प्रेषित करता है वह रूप उसे बहुत कुछ इस कारण दिया जाता है कि उसे प्रेषित
1. इट (दि बुक) इज क्यूरिअस्ली इंटरेस्ंटिग; सिंस इट मे बी रिगाडेड ऐज दि टेस्टामेंट आव मिस्टिसिज्म फार दि इयर आव इट्स ऐपिअरेंस, नाइनटीन हंड्रेड फोर्टीन। दैट इज इनडीड दि मोस्ट इंपाटेंट फैक्ट एबाउट इट; नो वन नीड बिगिन टु फिअर दैट ही इज टू बी फाब्ड आव विद इनफीरिअर पोएट्री आन दैट एकाउंट।
करना रहता है। 1 यह हम पहले कह चुके हैं कि जिस रूप में कवि के हृदय में अनुभूति होती है, ठीक उसी रूप में शब्दों द्वारा प्रेषित नहीं की जा सकती।
इस विलायती 'प्रतीकरहस्यवाद' के क्षेत्र में प्रकृति का क्या स्थान है, यह स्पष्ट है। जबकि प्रकृति के नाना रूपों और व्यापारों को हम उसकी छाया मनकर चलेंगे, जिसके प्रति हमारा प्रेम उमड़ रहा है, तब वे रूप और व्यापार उद्दीपन मात्र होंगे। काव्य में उद्दीपन दो प्रकार के होते हैंवाह्य और आलंबनगत। यदि हम छाया को वस्तु के बाहर न मनकर, उसी का कुछ मानें, तो भी वह आलंबनगत उद्दीपन मात्र होगी। इस प्रकार प्रकृति के साथ हमारा सीधा प्रेमसंबंध यूरोप के इस रहस्यवाद के काव्य में न माना जायगा।
यह समझ रखना चाहिए कि काव्यगत रहस्यवाद की उत्पत्तिभक्ति की व्यापक व्यंजना के लिए ही फारस, अरब तथा यूरोप में हुई जहाँ पैगंबरी मतों के कारण मनुष्य का हृदय बँध बँध ऊब रहा था। जिस प्रकार मनुष्य की बुद्धि का रास्ता रुका हुआ था, उसी प्रकार हृदय का भी। प्रकृति के प्रति भक्तों के भाव जिस हद तक और जिस गहराई तक जाना चाहते थे, नहीं जाने पाते थे। प्रकृति के मूर्त पदार्थों के प्रति अपने गहरे से गहरे भाव की व्यंजना पूरे धार्मिक या भक्त ऐसे ही शब्दों में कर सकते थे'उस परमात्मा की कारीगरी भी क्या ही अद्भुत है कि कैसे कैसे रूप, कैसे कैसे रंग उसने सजाए हैं।' अपने भावों को सीधा अर्पित करते हुए उन्हें नरपूजा, वस्तुपूजा या मूर्तिपूजा के पाप का ध्याीन होता था। पर उक्त प्रकार की व्यंजना से ही मनुष्य की भावतुष्टि कहाँ तक हो सकती थी? यहूदियों और पुराने ईसाइयों में धर्मसंबंधी बातों को मूर्त रूप में प्रकट करने के लिए साध्योवसान रूपकों (एलिगरीज) का प्रचार था। पर साध्य वसान रूपक एक भद्दा विधान है। इसी से अद्वैतवाद, सर्ववाद (पैनथेइज्म), प्रतिबिंबवाद आदि कई वादों का मिलाजुला सहारा लेकर उन्होंने अपने हृदय की स्वाभाविक वृत्तियों के लिए गोचर भूमि तैयार की। उन्होंने प्रकृति के नाना रूपों के साथ परमात्मा के कर्तृत्वसंबंध के स्थान पर थोड़े बहुत स्वरूपसंबंध की स्थापना कीपर किस प्रकार डरते डरते, यह पूर्व विवरण से स्पष्ट है।
फारस की सूफी शायरी में वाह्य जगत् की सुंदर वस्तुओं का प्रतीक 'बुत' (देवमूर्ति) रहा। बुतपरस्ती के इल्जाम के डर से भक्त कवि लोग अपने प्रेम को सीधा बुतों (प्रकृति की सुंदर वस्तुओं) के प्रति न बताकर 'बुतों के परदे में छिपे हुए खुदा' के प्रति बताया करते थे। फारस में वाह्य प्रकृति के सौंदर्यप्रसार की
1. ऐन एक्स्पीरिऐंस हैज टु बी फार्म्ड, नो डाउट बिफोर इट इज कम्युनिकेटेड; बट इट टेक्स दि फार्म इट इज, बिकाज इट मे हैव टु बी कम्युनिकेटेड।
अाई. ए. रिचर्ड्स : प्रिंसिपुल्स आव लिटरेरी क्रिटिसिज्म
ओर दृष्टि बहुत परिमित रही। इससे वहाँ प्रतीक इने गिने रहे। सुंदर मनुष्य का ही प्रतीक लेकर वे अधिकतर चले। पर यूरोपवालों के प्रकृतिनिरीक्षण का विस्तार बहुत बड़ा था। इससे वहाँ जब रहस्यवाद गया तब वहाँ की विस्तृत काव्यदृष्टि के अनुसार उसमें मूर्त विधान अधिक वैचित्रयपूर्ण हुआ। ब्लेक को रूपात्मक वाह्य जगत् और मनुष्य की कल्पना के प्रत्यक्ष संबंध के विपर्यय का सिद्धांत रूप में, जोर शोर से प्रतिपादन करना पड़ा। भक्तिकाव्य में रहस्यवाद की उत्पत्तिके धार्मिक और सामाजिक कारण पर जो विचार करेगा उसे यह लक्षित हो जायगा कि यह सब द्राविड़ी प्राणायाम मजहबी तहजीब, धार्मिक शिष्टता (रेलिजस कर्टसी) के अनुरोध से करना पड़ा।
भारतीय भक्तिकाव्य को 'रहस्यवाद' का आधार लेकर नहीं चलना पड़ा। यहाँ भक्त अपने हृदय से उठे सच्चे भाव भगवान् की प्रत्यक्ष विभूति को बिना किसी संकोच और भय केबिना प्रतिबिंबवाद आदि वेदांती वादों का सहारा लिएसीधाअर्पित करते रहे। मुसलमानी अमलदारी में रहस्यवाद को लेकर जो 'निर्गुण भक्ति' की बानी चली वह बाहर सेअरब और फारस की ओर सेअाई थी। वह देशी वेश में एक विदेशी वस्तु थी। इधर ऍंगरेजों के आने पर ईसाइयों के आंदोलन के बीच जो ब्रह्मसमाज बंगाल में स्थापित हुआ उसमें भी 'पौत्तालिकता'1 का भय कुछ कम न रहा। अत: उसकी विनय और प्रार्थना जब काव्योन्मुख हुई तब उसमें भी 'रहस्यवाद' का सहारा लिया गया। सारांश यह है कि रहस्यवाद एक सांप्रदायिक वस्तु है; काव्य का कोई सामान्य सिद्धांत नहीं।
भारत में काव्यक्षेत्र इस प्रकार के वादों से बिलकुल अलग रखा गया। यहाँ 'रहस्य' और 'गुह्य' योग, तंत्रा आदि के भीतर ही रहे। भक्तिमार्ग के सिद्धांत प्रतिपादन में भी इधर उधर इनकी झलक रही। पर कविता में भक्तों की वाग्धाारा ने स्वाभाविक भावपद्धाति का ही अनुसरण किया। उसके भीतर न तो उन्होंने रहस्यवाद का सहारा लिया, न प्रतिबिंबवाद कायद्यपि वेदांत के और वादों के साथ प्रतिबिंबवाद का निरूपण पहले भारतीय दर्शन में ही हुआ। महाभारत के समय में ही यहाँ भक्ति की प्रतिष्ठा हुई। वासुदेव या भागवत संप्रदाय के भीतर नरनारायण या भगवान्के
1. इस शब्द का प्रचार ब्रह्यसमाज में खूब था। यह ऍंगरेजी के 'आइडोलेट्री' शब्द का अनुवाद है। इसी प्रकार महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर द्वारा प्रवर्तित 'सत्यं, शिवं, सुंदरम्' भीज़िसे आजकल कुछ लोग उपनिषद्वाक्य समझकर 'हमारे यहाँ भी कहा है' कहकर उद्धृत किया करते हैंअँगरेजी के 'दि ट्रुथ, दि गुड ऐंड दि ब्यूटिफुल' का अनुवाद है। इस पदावली का प्रचार यूरोप के काव्य समीक्षा क्षेत्रमें पहले बहुत रहा है, जैसा कि रिचर्ड्स ने कहा है
'दस ऐराइजेज दि फैंटम प्राब्लेम आव दि ए इस्थेटिक मोड आर ए इस्थेटिक स्टेटए लिगैंसी फ्राम दि डेज आव ऐब्स्ट्रेक्ट इनवेस्टिगेशन इंटू दि गुड, दि ब्यूटिफुल ऐंड दि ट्रयू।'
हमें तो सब प्रकार की गुलामी से 'साहित्यिक गुलामी' का दृश्य सबसे खेदजनक प्रतीत होता है।
अवतार श्रीकृष्ण की उपासना चली। नर में नारायण की पूर्ण कला का दर्शन आरंभ मं 'गुह्य' या रहस्य के रूप में ही कुछ लोगों ने किया, यह ठीक है। पर 'रहस्य' की समाप्ति वहीं पर हो गई। अवतारवाद मूल में तो रहस्यवाद के रूप में रहा,
पर आगे चलकर वह पूर्ण प्रकाशवाद के रूप में पल्लवित हुआ। रहस्य का उद्धाटन हुआ, राम और कृष्ण के निर्दिष्ट रूप और लोकविभूति का विकास हुआ। उसी प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति या कला को लेकर हमारा भक्तिकाव्य अग्रसर हुआ; छिपे रहस्य को लेकर नहीं।
श्रीकृष्ण ने नर या नरोत्ताम के रूप में आकर कहा कि सब भूतों के भीतर रहनेवाली आत्मा मैं हूँ। 1 अर्जुन को इस रहस्य पर विस्मय हुआ। पर एक ओर का वह रहस्य और दूसरी ओर का वह विस्मय, भक्ति या काव्यमयी उपासना के आधार नहीं हुए। उसके लिए भगवान् को फिर कहना पड़ा कि 'मैं पर्वतों में मेरु हूँ, ऋतुओं में वसंत हूँ और यादवों में वासुदेव हूँ'2 इस प्रकार जब प्रकृति की विशाल वेदी परअव्यक्त रूप में उसके भीतर (इंमैनेंट) या बाहर (टैं्रसेंडेंट) नहींभगवान् के व्यक्त और गोचर रूप की प्रतिष्ठा हो गई तब काव्यमयी उपासना या भक्ति की धारा फूटी जिसने मनुष्यों के संपूर्ण जीवन कोउसके किसी एक खंड या कोने को ही नहींरसमय कर दिया।
श्रीकृष्ण के पूर्वोक्त दोनों कथनों के भेद पर सूक्ष्म विचार करने पर भारतीय भक्तिकाव्य का स्वरूप खुल जायगा। पहले कथन में दो बातें हैं'सब भूतों के भीतर मैं हूँ' और 'अव्यक्त रूप में हूँ। ये दोनों बातें मनुष्यहृदय के संचरणक्षेत्र से दूर की थीं। जिज्ञासापूर्ण नर ने पूछा, 'जिसके भीतर आप हैं, जो नाना रूपों में हमें आकर्षित किया करता है, वह क्या है?' उत्तर मिला 'वह मैं ही हूँमैं छिपा हुआ भी हूँ और तुम्हारे सामने भी हूँ। मेरे दोनों रूप शाश्वत और अनंत हैं!' नर ने कहा 'बस इसी सामनेवाले रूप की नित्यता और अनंतता जरा मुझे दिखा दीजिए'। नारायण ने दिक्काल का परदा हटाकर अपना व्यक्त, गोचर और अव्यक्त विश्वरूप सामने कर दिया। 3
सारा वाह्य जगत् भगवान् का व्यक्त स्वरूप है। समष्टि रूप में वह नित्य है, अत: 'सत्' है; अत्यंत रंजनक़ारी है, अत: आनंद है। अत: इस 'सदानंद' स्वरूप का वह प्रत्यक्ष अंश जो मनुष्य की रक्षा में (बना रहने देने अर्थात् सत् को चरितार्थ करने में) और रंजन में (सुख और रंजन का विधान करने में) अपार शक्ति के साथ प्रवृत्त दिखाई पड़ा, वही उपासना के लिए, हृदय लगाने के लिए, लिया गया।
1. अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित:।ग़ीता, 10।20।
2. मेरु: शिखरिणामहम् ऋतूनां कुसुमाकर:। वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि। ग़ीता, 10।
3. देखिए, गीता, अधयाय 11, विश्वदर्शनयोग।
जिसमें शक्ति, शील और सौंदर्य तीनों का योग चरमावस्था में दिखलाई पड़ा वही प्राचीन भारतीय भक्तिरस का आलंबन हुआ। कर्मक्षेत्र में प्रतिष्ठित यह आलंबन मनुष्य के अनेक भावात्मक हृदय के साथ पूरा पूरा बैठ गया, कोई कोना छूटने न पाया। 'मैं ऋतुओं में वसंत हूँ, शास्त्रधारियों में राम हूँ,1 यादवों में कृष्ण हूँ' का संकेत यही है। राम और कृष्ण की व्यक्त और प्रत्यक्ष कला को लेकर ही भारतीय भक्तिकाव्य अब तक चला आ रहा है, ब्रह्म की अव्यक्त या परोक्ष सत्ता को लेकर नहीं।
इस संबंध में यह भी ध्याान देने की बात है कि भक्तिक्षेत्र में राम या कृष्ण की प्रतिष्ठा का रहस्य बतानेवाले 'सद्गुरु' या स्वर्ग का संदेशा लानेवाले पैगंबर के रूप में नहीं है, लोक के भीतर अपनी शक्तिमयी, शीलमयी और सौंदर्यमयी कला का प्रकाश करनेवाले के रूप में है। इसी लोकरक्षक और लोकरंजक रूप पर भारतीय भक्त मुग्ध होते आए हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी से जब किसी ने पूछा कि 'आप कृष्ण की उपासना क्यों नहीं करते जो सोलह कला के अवतार हैं?राम की उपासना क्यों करते हैं जो बारह ही कला के अवतार हैं?' तब उन्होंने बड़े भोलेपन के साथ कहा कि 'हमारे राम अवतार भी हैं, यह हमें आज मालूम हुआ?' इस प्रकार (अपने) उत्तर द्वारा गोस्वामीजी ने भारतीय भक्ति का स्वरूप अच्छी तरह स्पष्ट कर दिया।
ऊपर के विवेचन से स्पष्ट है कि यहाँ भक्तिकाव्य के क्षेत्र में भी अभिव्यक्तिवाद ही रहा, रहस्यवाद, प्रतिबिंबवाद आदि नहीं। जो तुलसी, सूर आदि भारतीय पद्धाति के भक्तों में भी रहस्यवाद सूँघा करते हैं उन्हें रहस्यवाद के स्वरूप का अधययन करना चाहिए, उसके इतिहास को देखना चाहिए। व्यक्ताव्यक्त, मूर्तामूर्तब्रह्म के इन दो रूपों या पक्षोंमें से भारतीय भक्तिरस के भीतर व्यक्त और मूर्तपक्ष ही, जिसका हृदय के साथ सीधा लगाव है, लिया गया। इस रसविधान में जगत् या प्रकृति ब्रह्म का रूप ही रही है, छाया, प्रतिबिंब, आवरण आदि नहीं। जो मनोहर रूपयोजना सामने लाई जाती है, हृदय के भाव ठीक उसी के प्रति होते हैं, उसके भीतर (इंमैनेंट) या उसके बाहर (टैं्रसेंडेंट) रहनेवाले किसी हाव के प्रति नहीं।
यह दिखाया जा चुका है कि यह योजना प्रकृति के रूपों को लेकर ही होती है। कल्पना भी वाह्य जगत् के रूपों या उनके संवेदनों की छाया है। सीधा उन रूपों से या रूपात्मक संवेदनों से हम प्रेम कर चुके रहते हैं तभी उनकी छाया अर्थात् कल्पना में हमारा हृदय रमता है। जगत् का यह व्यक्त प्रसार ही भाव के संचरण का वास्तविक क्षेत्र है। इससे अलग मनुष्यकल्पना की कोई वास्तव सत्ता नहीं, वह असत् है। क्षणिक विज्ञानवादी ह्यूम का यह सिद्धांत बहुत पक्का है कि इंद्रियज ज्ञान (इंप्रेशंस) ही सब प्रकार के ज्ञान के मूल हैं, वे ही विचार होते हैं जो उनके आधार पर संघटित होते हैं। भाव के क्षेत्र में भी व्यक्त प्रसार की अनुभूति ही मूल है।
1. रामोशस्त्रभृतामहम्ग़ीता 10।31।
यदि 'कल्पना' शब्द बहुत प्रिय हो तो यों कह सकते हैं कि यह नित्य और अनंत गत्यात्मक दृश्य जगत् ही ब्रह्म की कल्पना है। मनुष्य की कल्पना तो इसी की एक विकृत और परिमित छाया है। अनंत का जितना अंश पृथ्वी से लेकर आकाश तक बिना दूरबीन के दृष्टि दौड़ाने में ही हमारे सामने आ जाता है, उसका शतांश भी एक बार में कल्पना के भीतर नहीं आ सकता। केवल 'असीम' और 'अनंत' शब्द रखने या रटने से यह कभी नहीं कहा जा सकता कि असीम या अनंत कल्पना के भीतर आया हुआ है, उसकी सचमुच अनुभूति हो रही है।
यह ठीक है कि किसी के सामने न रहने पर उसके प्रति जो प्रेमानुभूति है उसमें आलंबन के स्थान पर उसकी कल्पनात्मक मूर्ति ही रहती है; पर उस मूर्ति या रूप का ग्रहण चित्रवत् होता है। उसके प्रत्यक्ष अर्थात् अधिक गोचर रूप में दर्शन, स्पर्श आदि की वासना बनी रहती है जिसकी अभिव्यक्ति कभी कभी अभिलाष के रूप में होती है। राम या कृष्ण का ध्याहन करनेवाले भक्त को भी ध्यालन में आई हुई काल्पनिक मूर्ति का आना ही साक्षात्कार नहीं समझ पड़ता। यदि ऐसा होता तो ध्याानपूर्वक अभिलाष का कुछ अर्थ ही नहीं होता। सारांश यह कि भारतीय भक्तिकाव्य अनुभूति की स्वाभाविक और वास्तविक पद्धाति को लेकर ही चला है, उसमें किसी 'वाद' के द्वारा विपर्यय करके नहीं : वह अभिव्यक्त या प्रकाश की ओर उन्मुख है, रहस्य या छिपाव की ओर नहीं।
अच्छी तरह विचार करने पर यह प्रकट होगा कि 'अज्ञान का राग' ही अंत:वृत्ति को रहस्योन्मुख करता है। मनुष्य की रागात्मिका प्रकृति में इस अज्ञान के राग का भी ठीक उसी प्रकार एक विशेष स्थान है जिस प्रकार ज्ञान के राग का। ज्ञान का राग बुद्धि को नाना तत्तवों के अनुसंधान की ओर प्रवृत्त करता और उनकी सफलता पर तुष्ट होता है। अज्ञान का राग मनुष्य के ज्ञान प्रसार के बीच बीच में छँटे हुए अंधकार या धुधंलेपन की ओर आकर्षित करता है तथा बुद्धि की असफलता और शांति पर तुष्ट होता है। अज्ञान के राग की इस तुष्टि की दशा में मनसिक श्रम से कुछ विराग सा मिलता जान पड़ता है और उस अंधकार या धुधंलेपन के भीतर मन के भीतर चिरपोषित रूपों की अवस्थिति के लिए दृश्य सागर के बीच अवकाश मिल जाता है। शिशिर के अंत में उठी हुई धूल छाई रहने के कारण किसी भारी मैदान में क्षितिज से मिले हुए छोर पर वृक्षावली की जो धुधंली श्यामल रेखा दिखाई पड़ती है उसके उस पार किसी अज्ञात दूर देश का बहुत सुंदर और मधुर आरोप स्वभावत: आपसे आप होता है। मनुष्य की सुंदर आशा के गर्भ में भरी हुई रमणीयता की वैसी मनोहर और गोचर व्यंजना उसके द्वारा होती है
धुधंले दिगंत में विलीन हरिदाभ रेखा,
किसी दूर देश की सी झलक दिखाती है।
जहाँ स्वर्ग भूतल का अंतर मिटा है चिर,
पथिक के पथ की अवधिा मिल जाती है।
भूत और भविष्यत् की भव्यता भी सारी छिपी,
दिव्य भावना सी वही भासती भुलाती है।
दूरता के गर्भ में जो रूपता भरी है वही,
माधाुरी ही जीवन की कटुता मिटाती हैड्ड
इसी प्रकार दूर से दिखाई पड़ती हुई पर्वतों की धुधंली नीली चोटियाँ भी मनोवृत्ति को रहस्योन्मुख करती हैं और अपने भीतर कल्पना को रूपविन्यास करने का अवसर देती हैं। पश्चिम दिगंचल की सांधय स्वर्णधारा के बीच धाूम्र, कपिश घनद्वीपों से होकर आता हुआ स्वर्ग का मार्ग सा खुला दिखाई पड़ता है। विश्व की विशाल विभूति के भीतर न जाने कितने ऐसे दृश्य हमारी अंत:वृत्ति को रहस्योन्मुख करते हैं।
स्वाभाविक रहस्यभावना बड़ी रमणीय और मधुर भावना है, इसमें संदेह नहीं। रसभूमि में इसका एक विशेष स्थान हम स्वीकार करते हैं। उसे हम अनेक मधुर और रमणीय मनोवृत्तियों में से एक मनोवृत्ति या अंतर्दशा (मूड) मनते हैं। जिसका अनुभव ऊँचे कवि और अनुभूतियों के बीच कभी कभी प्रकरण प्राप्त होने पर, किया करते हैं। पर किसी 'वाद' के साथ संबद्धा करके उसे हम काव्य का एक सिद्धांतमार्ग (क्रीड) स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं।
यूरोप के जिस 'रहस्यवाद' का संक्षिप्त परिचय हमने दिया है वह सिध्दांती या सांप्रदायिक रहस्यवाद है : स्वाभाविक रहस्यभावना उक्त वाद से सर्वथा भिन्न है। किसी 'वाद' के ध्या्न से, सांप्रदायिक सिद्धांत के ध्यासन से, जो कविता रची जायगी उसमें बहुत कुछ अस्वाभाविकता और कृत्रिमता होगी। 'वाद' की रक्षा या प्रदर्शन के ध्यांन में कभी कभी क्या, प्राय: रससंचार का प्रकृत मार्ग किनारे छूट जायगा।
सिध्दांती या सांप्रदायिक रहस्यवादियों के अतिरिक्त यूरोप के प्रसिद्ध कवियों में भी बहुत से ऐसे कवि हुए हैं जिनकी कुछ रचनाओं के बीच बीच में बड़ी सुंदर स्वाभाविक रहस्यभावना पाई जाती है। वर्ड्सवर्थ और शेली इसी प्रकार के कवि थे। इनकी रहस्यभावना स्वाभाविक पद्धाति पर होने के कारण हृदय में सच्ची अनुभूति उत्पन्न करती है। जिन तथ्यों या दृश्यों को लेकर इनकी वृत्ति रहस्योन्मुख हुई है उनके समक्ष सहृदय मात्र रहस्य का अनुभव कर सकते हैं। बात यह है कि ये कवि रहस्यवादी नहीं। ये रहस्य को 'वाद' के रूप में लेकर नहीं चले हैं। इन्होंने सच्ची स्वाभाविक रहस्यभावना की व्यंजना की है। इनकी भावना अभिव्यक्ति का सूत्र ग्रहण करके ही कभी कभी रहस्योन्मुख हुई है। जगत् रूपी अभिव्यक्ति से तटस्थ कल्पना की झूठी कलाबाजी, भावों की नकली उछल कूद और वैचित्रयविधायक कृत्रिम शब्दभंगीज़ो आधुनिक रहस्यवादियों में अभिव्यंजनावादियों (एक्स्प्रेशनिस्ट्स) के प्रभाव से आई हैवर्ड्सवर्थ और शेली की कविता का लक्षण नहीं है।
वर्ड्सवर्थ की कविता ब्रह्म की प्रत्यक्ष विभूति प्रकृति से सीधा प्रेमसंबंध रखती है। कहीं कहीं उसमें सर्ववाद (पेनथेइज्म) की भी झलक है, परोक्ष जगत् की ओर भी इशारा है, पर उसकी विचरण भूमि प्रकृति का प्रकाशित क्षेत्र ही है। दूर तक फैले मैदान में कहीं धूप कहीं छाया बारी बारी से पड़ती देख वर्ड्सवर्थ ने अपने लिए प्रकाश का क्षेत्र चुना और उनके साथ कालरिज ने छाया का। पर कालरिज की छाया इस जगत् पर, इस जीवन पर, पड़ी हुई छाया थी। वह किसी 'वाद' के अनुरोध से सारे जगत् को छाया और अपनी कल्पना को ईश्वरीय सत्ता बताता हुआ नहीं चला। उसका कहना यह था कि मनुष्य चारों ओर एक अज्ञात रहस्य से घिरा हुआ है, जिसका परोक्ष रहस्य उसके जीवन का रंग बदला करता है। कालरिज का प्रस्तुत विषय जीवन है; परोक्ष रहस्य उसके बदलते हुए रंगों की हेतुभावना के रूप में है। इससे कालरिज को भी हम सिध्दांती रहस्यवादी न कहकर स्वाभाविक रहस्यभावना संपन्न कवि मनते हैं।
इधर हिन्दी में कभी कभी रहस्यवाद के संबंध में जो लेख निकलने लगे हैं उनमें से बहुतों में एक साथ बहुत से नामों की उद्धारणी, जैसेवर्ड्सवर्थ, शेली, कालरिज, ब्राउनिंग यहाँ तक कि कीट्स भीमिलती है। इसमें वर्ड्सवर्थ तो प्रकृति के सच्चे उपासक थे। वे प्रकाश या अभिव्यक्ति को लेकर चले थे। उसका 'रहस्यवाद' से कोई संबंध नहीं। प्राकृतिक दृश्यों के प्रति जैसी सच्ची भावुकता उनकी थी, ऍंगरेजीे के पिछले कवियों में किसी की न थी। एक छोटी सी कविता में उन्होंने इस बात पर बहुत खेद प्रकट किया है कि ऐसे मधुर और प्रिय रूपों को नित्य प्रति सामने पाकर भी अब लोगों के हृदय उनकी ओर आकर्षित नहीं होते। उन्होंने यहाँ तक कहा है कि 'इससे अच्छा तो यह था कि हम लोग ईसाई न होकर पुराने मूर्तिपूजक ही रहते और प्रकृति के नाना रूपों के साथ अपने हृदय के योग का अनुभव करते।' उनका प्रकृतिप्रेम कुतूहल, विस्मय और सुखविलास की मनोवृत्ति से संबद्धा न था। वे अलौकिक, असामान्य अद्भुत और भव्य चमत्कार ढूँढ़नेवाले न थे। नित्यप्रति सामने आनेवाले चिरपरिचित सीधा सादे सामान्य दृश्यों के प्रति अपने सच्चे अनुराग की व्यंजना जैसी वर्ड्सवर्थ ने की है, और जगह नहीं मिलती। जो एक पुरानी गढ़ी के आसपास लगे पेड़ों के झुरमुट के कटवाने पर दुखी होता है, ऐसे सच्चे प्रकृतिप्रेमी कवि को 'रहस्यवादी' कहना उसकी अप्रतिष्ठा करना है। 'एक पथिक की शिक्षा' (ऐडमानिशन टु ए ट्रैवेलर) नाम की एक छोटी सी कविता में वर्ड्सवर्थ ने एक नागरिक पथिक की किसी ग्राम में छोटे से नाले के तट पर, थोड़ी सी गोचारण भूमि के बीच खड़े एक छोटे से झाेंपड़े को ललचाती ऑंखों से देखते देखकर कहा है'उस घर का लालच न कर। बहुत से तेरे ऐसे लोग इसी तरह ताकते और सोचते विचारते रह जाते हैं। उनकी चले तो वे प्रकृति की पुस्तक के इस बहुमूल्य पन्ने को अपवित्र निष्ठुरता से नोंच फेंकें। यह समझ रख कि यह यदि आज तेरा हो जाय तो जो कुछ आकर्षण इसमें है वह सब हवा हो जाय। इसकी छत, खिड़की, दरवाजे, चढ़ी हुई फूल की लताएँ सब दोनों की पवित्र वस्तुएँ हैं।' प्रकृति के प्रति जो भाव वर्ड्सवर्थ का था उसी को मैं सच्चे कवि का भाव मनता हूँ : सदा असामान्य, अद्भुत और भव्य चमत्कार ढूँढ़नेवाली दृष्टि को मैं मार्मिक काव्यदृष्टि नहीं मनता।
जैसा पहले कहा जा चुका है, केवल कहीं कहीं वर्ड्सवर्थ ने प्रकृति की अंतरात्मा1 (स्पिरिट आव नेचर) की ओर संकेत किया है; एक आधा जगह प्रकृति के ही किसी तथ्य के भीतर परोक्ष जगत् का भी आभास दिया है, जैसे'बाल्यावस्था की स्मृति द्वारा अमरत्व का संकेत' (ओड आन इंटिमेशंस आव इंमार्टैलिटी फ्राम रिकलेक्शंस आव अर्ली चाइल्डहुड) नाम की कविता में कवि कहता है
'हमारा जन्म एक प्रकर की निद्रा या विस्मृति है। जीवन के नक्षत्रा हमारी आत्मा काज़िसका उदय हमारे साथ होता हैविधान कहीं अन्यत्र ही हुआ करता है, वह किसी दूर देश से आती है। आने में न तो हममें एकदम विस्मृति ही रहती है, न शुद्धरूपता ही। ईश्वर के पास से हम दिव्य और भव्य घनखंडों में से होते हुए आते हैं। बचपन में हमारे चारों ओर स्वर्ग का आभास कुछ कुछ बना रहता है। पर ज्यों ज्यों बालक बढ़ता जाता है त्यों त्यों इस भव्य कारागार की छाया में
1. अवर बर्थ इज बट ए स्लीप ऐंड फारगटिंग
दि सोल दैट राइजेज विद अस, अवर लाइफ्स स्टार।
हैथ हैड एल्सव्हेयर इट्स सेटिंग,
ऐंड कमेथ फाम ए फार,
नाट इन एंटायर फरगेंटफुलनेस,
ऐंड नाट इन अटर नेकेडनेस,
बट ट्रेलिंग क्लाउड्स आव ग्लोरी डू वी कम
फ्राम गाड हु इज अवर होम :
हेवेन लाइज ऐबाउट अस इन अवर इनफैंसी!
शेड्स आव दि प्रिजन हाउस बिगिन टु क्लोज
अपान दि ग्रोइंग बाइ,
बट ही बिहोल्ड्स दि लाइट ऐंड ह्नेंस इट फ्लोज
ही सीज इट इन हिज ज्वाय;
दि यूथ, हू डेली फार्दर फ्राम दि ईस्ट
मस्ट ट्रैवेल, स्टिल इन नेवर्स प्रीस्ट
ऐंड बाइ दि विजन स्प्लेंडिड।
इन आन हिज वे ऐटेडेड,
ऐट लेंथ दि मैन पर्सीब्स इट डाई अवे,
ऐंड फेड इंटु दि लाइट आव कामन डे।
बंद होता जाता है। फिर भी उस ज्योति का आभास कुछ कुछ बना रहता है। युवावस्था की ओर बढ़ता हुआ वह यद्यपि अपने उदय की दिशा से दूर होता जाता है, पर प्रकृति का पुजारी तब तक भी बना रहता है। उसका मार्ग दिव्य सौंदर्य की भावना से जगमगाता है। अंत में जब वह बढ़कर पूरा मनुष्य हो जाता है तब आनंद की वह आभा जीवन के मधयाद्द के प्रखर ताप में विलीन हो जाती है।
कैसी स्वाभाविक रहस्य भावना है! इसका संकेत कवि को अभिव्यक्ति केक्षेत्र के भीतर ही मिला है इसमें किसी 'वाद' के भीतर निरूपित तथ्य की व्यंजना प्रकृतिके रूपों और व्यापारों से जबरदस्ती नहीं कराई गई है। न असीम और ससीम का द्वंद्व दर्शन है; न अव्यक्त और अगोचर की झाँकी है; न वेदना का अट्टहास और उन्मत्तानृत्य है। जिस आनंदलोक की ओर संकेत है वह केवल लोकोत्तार है। यह संकेत जीवन के जिस वास्तव तथ्य से कवि को मिला है, उसका स्पष्ट उल्लेख आगे चलकरहै
'अपने लड़कपन के दिनों का स्मरण कीजिए! वे ही हरे भरे मैदान, अमराइयाँ और नाले आदि जो अब साधारण दृश्य जान पड़ते हैं, कैसी आनंदमयी दिव्य प्रभा से मंडित दिखाई पड़ते थे! फूल अब भी सुंदर लगते हैं, चंद्रमा अब भी शरदाकाश में सुहावना लगता है, पर इन सबकी वह दिव्य आभा अब पृथ्वी पर कहाँ जो लड़कपन में हृदय को आनंदोल्लास में भर देती थी।'
शेली की मनोवृत्ति वर्ड्सवर्थ की मनोवृत्ति से बहुत भिन्न थी। उनकी वृत्ति प्रकृति के असामान्य, अद्भुत, भव्य और अधिक प्राचुर्यपूर्ण खंडों में रमती थी, इसी से उनमें कल्पना का आधिक्य है। सामान्य से सामान्य चिरपरिचित दृश्यों के माधुर्य की मार्मिक अनुभूति उनमें न थी। दूसरी बात यह है कि वे कुछ अपने बँधो हुए विचार मन में लेकर प्रकृति के क्षेत्र में प्रवेश करते थे। वे मनुष्य जाति की वर्तमन स्थिति में सिर से पैर तक उलट फेर चाहते थे। राजनीतिक, सामाजिक, सांप्रदायिक सब प्रकार की व्यवस्थाओं और बंधानों को वे छिन्न भिन्न देखना चाहते थे। पर इस प्रकार की कुछ विशेष प्रवृत्तियाँ रहते हुए भी प्रकृति की रूपविभूति का ऐसा ऋंखलाबद्धा और संश्लिष्ट चित्रण थोड़े से इने गिने कवियों में ही मिल सकता है।
'अ लास्टर' (लास्टर या स्पिरिट आव सालिटयूड) में एकांत सुख शांति का अन्वेषी एक कवि सारे भूमंडल पर अकेला भ्रमण करता है। शेली उसे ऐसी ऐसी भव्य विशाल, अदृश्यपूर्व और अद्भुत चमत्कारपूर्ण दृश्यावली के बीच से ले गए हैं कि पाठक पढ़कर उनमें गड़ सा जाता है। प्रकृति के ऐसे गूढ़ गह्नरों तथा अनुपम और कमनीय क्रीड़ाक्षेत्रों में वह कवि द्वारा पहुँचाया गया है जहाँ मनुष्य ने कभी पैर नहीं रखा। एक नमूना देखिए
'प्रकृति के गुप्त से गुप्त पथों में वह उसकी छाया की तरह जाता हैज़हाँ ज्वालामुखी से उठी लपट की रक्त आभा तुषारमंडित पर्वतशिखर के ऊपर छाई हुई है।...जहाँ ऐसी ऍंधोरी गुप्त गुफाएँ हैं, जो ज्वलंत और विषाक्त धाराओं के बीच चक्कर खाती बड़ी दूर तक चली गई हैं और जिनमें अब तक न लोभ मनुष्य को ले गया है, न साहस का अभिमन। गुफा के भीतर बड़े बड़े दीवानखाने पड़े हैं, जिनके ऊपर फैली हुई छत हीरे और सोने से जड़ी है। स्फटिक के ऊँचे ऊँचे खंभे खड़े हैं? बीच बीच में उज्ज्वल मुक्तामयी वेदियाँ दिखाई पड़ती हैं। पुष्पराग के सिंहासन इधर उधर पड़े झलकते हैं।'
कोहकाफ (काकेशस) की ऐसी ऐसी दुर्गम घाटियों के भीतर घूमती फिरती उस कवि की छोटी सी नाव बहती जाती है जिसके दोनों ओर ऊपर तो गगनस्पर्शी शिखर और नीचे जल में घुसी बेडौल चट्टानों पर अपनी जड़ों का जाल फैलाए हुए वृक्षों की निविड़ और सघन राशि! प्रकृति के खंडों के ऐसे ऐसे संश्लिष्ट और ऋंखलाबद्धा चित्रण उनके 'इस्लाम का विप्लव' (रि रिवोल्ट आव इस्लाम) आदि काव्यों में भरे पड़े हैं जैसे कहीं किसी रहस्यवादी कवि की रचना में नहीं मिल सकते। रहस्यवादी की काव्यदृष्टि एक बार में इतने विस्तार तक पहुँचती ही नहीं या पहुँचाई ही नहींजाती।
शेली की पिछली रचनाओं में ही कहीं कहीं रहस्यभावना का उन्मेष पाया जाता है। 'सौंदर्यबुद्धि की स्तुति' (हाइम टु इनटेलेक्चुअल ब्यूटी) नाम की कविता में शेली ने उस नित्य गतिशील सौंदर्यसत्ता का स्तवन किया है जो समय समय पर वाह्य प्रकृति को वसंतविकास के रूप में अपने नाना रंगों से जगमगाया करती है और मनुष्य के हृदय को प्रेम, आशा और गर्व से प्रफुल्ल किया करती है। कहने की जरूरत नहीं कि यह भावना गत्यात्मक सौंदर्य की अभिव्यक्ति को ही लेकर चली है। स्त्रीकत्व का आध्या त्मिक आदर्श व्यंजित करनेवाली 'एपिसिडियन' नाम की कविता भी इसी ढंग की है। 'जिज्ञासा' का उल्लेख पहले हो चुका है। ऐसी ही कुछ थोड़ी सी छोटी छोटी कविताओं में रहस्यभावना पाई जाती है; पर ऐसी नहीं जो रहस्यवादियों के काम की हो। मेरे ध्याहन में तो शेली की एक ही ऐसी छोटी सी कविता आती है जिसमें रहस्यवादियों के काम की कुछ सामग्री है। वह है 'क़विस्वप्न' (दि पोएट्स ड्रीम) जिसमें कवि के संबंध में कहा गया है कि
'वह प्रभात से सायंकाल तक झील में झलमलाती धूप और इश्कपेचों के फूलों पर बैठी पीली मधुमक्खियों को देखता रहेगा। इसकी परवा न करेगा कि इन वस्तुओं की सत्ता क्या है। वह इन रूपों के द्वारा ऐसे रूप (कल्पना में) संघटित करेगा जो अमरत्व के अंगज होंगे और जिनकी सत्ता मनुष्यसत्ता में भी वास्तविक होगी।'1
1. ही विल वाच फ्राम डान टु ग्लुम
दि लेक रिफ्लेक्टेड सन इल्युम,
दि येलो बीज इन दि आइबीब्लुम,
नार हीड नार सी ह्नाट थिंग्स दे बी;
बट फ्राम दीज क्रिएट ही कैन,
फार्म्स मोर रिअल दैन लिविंग मैन
नर्सलिंग्स आव इंमार्टैलिटी।
पर एक आधा जगह मिलनेवाली 'वाद' की ऐसी सामग्री शेली को रहस्यवादी कवियों में नहीं ढकेल सकती। शेली पर जो समीक्षा पुस्तकें निकली हैं उनमें शेली रहस्यवादी कवि नहीं निरूपित हुए हैं।
इधर समय समय पर हिन्दी पत्रापत्रिकाओं में रहस्य या छायावाद की जानकारी कराने के लिए जो लेख निकलने लगे हैं उनमें से किसी किसी में बेचारे कीट्स तक का नाम घसीटा जाता है, जिनसे रहस्यवाद का नाममात्र का भी लगाव नहीं। ऍंगरेजी साहित्य का थोड़ा परिचय रखनेवाला भी जानता है कि कीट्स प्राचीन यूनानी काव्य का आदर्श लेकर नए ढंग (रोमैंटिक) पर चले हैं जिसमें रहस्यवाद की गंधतक नहीं। यह दिखाया जा चुका है कि रहस्यवाद की उत्पत्तिपैगंबरी (सेमिटिक) मतों के भीतर हुई है। प्राचीन आर्य काव्य मेंक्या भारत के, क्या यूरोप केरहस्यवाद का नाम तक नहीं, सीधा देववाद है। कीट्स की कल्पना बहुत ही तत्पर थी इससे उनमें मूर्तविधान (इमैजरी) का विलक्षण प्राचुर्य है। वे अपने इंद्रियार्थवाद (सेंचुऐलिज्म) के लिए प्रसिद्ध हैं; रहस्यवाद के साथ तो उनका नाम कहीं लिया ही नहीं जाता। कहीं ईट्स के धोखे में उनका नाम न आ जाता हो?
एक दूसरी कोटि के कवि भी होते हैं जिन्हें कभी कभी भ्रांतिवश कुछ लोग रहस्यवादी कह दिया करते हैं। ऍंगरेजी कवि ब्राउनिंग इसी तरह के कवि थे। उनकी कविता में बुद्धिव्यापार का बहुत योग है। विचारों की ऐसी सघनता बहुत कम कवियों में पाई जाती है। कहीं कहीं विचारों की गति इतनी क्षिप्र होती है कि पाठक साथ साथ नहीं चल पाता और उसे दुर्बोधाता या अस्पष्टता का अनुभव होता है। कहीं कहीं इसी प्रकार की अस्पष्टता की प्रतीति के कारण स्थूल दृष्टि से देखनेवालों को रहस्यवाद का धोखा होता है। पर ब्राउनिंग की अस्पष्टता में और रहस्यवादी की बनावटी अस्पष्टता में कौड़ी मुहर का फर्क है। दोनों की उत्पत्तिसर्वथा भिन्न कारणों से है। एक ही अस्पष्टता विचारऋंखला की सघनता और जटिलता के कारण होती है और दूसरे की विचारऋंखला के सर्वथा अभाव के कारण। एक में बुद्धित्व (इंटेलेक्चुऐलिटी) के साथ पूरा साहचर्य और दूसरे में विच्छेद। दोनों एक दूसरे के विरुद्धा हैं।
काव्यक्षेत्र में ब्राउनिंग का लक्ष्य बहुत ही उच्च था। उनका लक्ष्य था गूढ़ और ऊँचे विचारों के साथ हृदय के भावों का संयोग करना। जैसा हम पहले कह आए हैं अब मनुष्य का ज्ञानक्षेत्र बुद्धि व्यवसायात्मक या विचारात्मक होकर अत्यंत विस्तृत हो गया है। अत: उसके विस्तार के साथ हमें अपने हृदय का विस्तार भी बढ़ाना पड़ेगा। कितने गहरे ऊँचे और व्यापक विचारों के साथ हमारे किसी भाव या मनोविकार के संयोग कराया जा सका है, कितने भव्य और विशाल तथ्यों तक हमारा हृदय पहुँचाया जा सका है, इसका विचार भी कवियों की उच्चता स्थिर करने में बराबर रखना पड़ता है। ब्राउनिंग का आदर्श यही था। वे कविकर्म को बहुत गंभीर समझते थे, मनबहलाव या कुतूहल की सामग्री नहीं। चित्रकला, मूर्तिकला आदि हलकी कलाओं के साथ कविता के बिलकुल मिलाकर जो काव्य समीक्षा यूरोप में चली उसने काव्य के लक्ष्य की धारणा बहुत हल्की और संकुचित कर दी।
सच्ची स्वाभाविक रहस्यभावनावाले कवि और सांप्रदायिक या सिध्दांती रहस्यवादी की पहचान के लिए काव्यवस्तु (मैटर) का भेद आरंभ में ही हम दिखा आए हैं। विधानविधि (फार्म) का भेद ऊपर सूचित किया गया। स्वाभाविक रहस्यभावनासंपन्न कवि प्रकृति का कोई खंड लेकर व्यापार की संश्लिष्ट और ऋंखलाबद्धा योजना द्वारा पूर्ण दृश्य का विधान करते चलते हैं। उनकी रूपयोजना विस्तीर्ण और जटिल होती है तथा कुछ दूर तक अखंड चलती है, पर सांप्रदायिक या सिध्दांती रहस्यवादी कुछ बँधीहुई और इनी गिनी वस्तुओं की ठीक उसी प्रकार अलग अलग झलक दिखाकर रह जाते हैं जिस प्रकार हमारे पुराने शृंगारी कवि, ऋतुओं के वर्णन में, उद्दीपन सामग्री दिखाया करते हैं। इसीलिए स्वाभाविक रहस्यभावनावाले कवि चरितकाव्य वा प्रबंध काव्य का भी बराबर आश्रय लेते हैं; पर सांप्रदायिक रहस्यवादी मुक्तकों या छोटे छोटे रचनाखंडों पर ही संतोष करते हैं। प्रथम कोटि के कवियों में दृश्य के संश्लिष्ट प्रसार के साथ साथ विचार और भाव बड़ी दूर तक मिली हुई एक अखंड धारा के रूप में चलते हैं। पर दूसरी कोटि के कवियों में यह अन्विति (यूनिटी) और मनोहर प्रसार अत्यंत अल्प या नहीं के बराबर होता है। अत: इस दूसरी कोटि में वर्ड्सवर्थ और शेली क्या कालरिज भी नहीं आ सकते जिनकी रचनाओं में बहुत ही संश्लिष्ट और जटिल दृश्यविधान प्रस्तुत रूप मेंरहस्यवादियों के समन अप्रस्तुत रूप में नहींपूरी मूर्तिमत्ताा के साथ दूर तक चलते पाए जाते हैं।
पाश्चात्य रहस्यवाद और पाश्चात्य स्वाभाविक रहस्यभावना का थोड़ा विस्तृत उल्लेख इसीलिए करना पड़ा कि आजकल विचारों की पराधीनता के कारण यूरोप ही 'जगत्' समझा और कहा जाता है। जो कुछ अब तक कहा गया उससे इतना स्पष्ट हो गया होगा कि यूरोप का सिध्दांती रहस्यवाद, जो ब्लेक और ईट्स आदि में पाया जाता है, वह अरब और फारस के सूफियों के यहाँ से गया है। उसके पहले यहूदियों और कैथलिक संप्रदाय के ईसाइयों में जो रहस्यभावना प्रचलित थी वह ईश्वरवाद (थेइज्म) के भीतर थी। उसमें उस प्रेमपूर्ण परमपिता के दया दाक्षिण्य का आभास जगत् की नाना वस्तुओं और व्यापारों में रहस्यपूर्ण दृष्टि से देखा जाता था। सूफियों के रहस्यवाद में सर्ववाद (पैनथेइज्म) या अद्वैतवाद (मोनिज्म) के साथ प्रतिबिंबवाद का योग था। वेदांत में सर्ववाद और प्रतिबिंबवाद एक ही नहीं हैं। सर्ववाद वेदांत का पुराना रूप है। उसके उपरांत विवर्तवाद, दृष्टिसृष्टिवाद, अजातवाद आदि जो कई वाद ब्रह्म और जगत् के संबंधनिरूपण में चले, उनमें प्रतिबिंबवाद भी एक है।
सर्ववाद का अभिप्राय यह है कि व्यक्ताव्यक्त, मूर्तामूर्त, चिदचित् जो कुछ है सब ब्रह्म ही है। पुराने वाद के अनुसार जगत् जिस रूप में हमारे सामने है उसमें ब्रह्म ही का प्रसार है। प्रतिबिंबवाद के अनुसार जिस रूप में जगत् हमारे सामने है उस रूप में ब्रह्म तो नहीं है, हाँ उसकी छाया या प्रतिबिंब अवश्य है। सूफियों ने आत्मा और ब्रह्म के संबंध में प्रतिबिंबवाद को अपनाया। इस प्रतिबिंबवाद को लेकर सिद्धांतपक्ष में उन्होंने उस 'कल्पनावाद' की उद्भावना की जिसका वर्णन हम कर आए हैं और जिसे काव्यपक्ष में लेकर ब्लेक आदि विलायती रहस्यवादियों ने साहित्य में एक विलक्षण आडंबर खड़ा किया। पर सूफियों ने अपने उस 'कल्पनावाद' को केवल ध्या न के लिए साधना या सिद्धांतपक्ष में ही रखा, काव्यक्षेत्र में नहीं घसीटा।काव्यक्षेत्र में उन्होंने प्रतिबिंबवाद के साथ 'अभिव्यक्तवाद' का मेल किया जिससे उनकी कविता का रंग वैसा ही स्वाभाविक और हृदयग्राही रहा जैसा और कविता का।
सूफी कवि इस बाहर फैले हुए परदे के बीच बीच में हीछाया के बीच बीच में हीअपने प्रियतम की झलक पाते रहे; अपने भीतर की उल्टी सीधी, अव्यवस्थित कल्पना में नहीं। बाहरी जगत् के जिस रूप में उन्हें उसके सौंदर्य, हास, औदार्य, प्रेम क्रीड़ा इत्यादि की छटा का आभास मिला उसे वे पीछे कल्पना में धारण करके भी रसमग्न होते रहे। सारांश यह कि सबके सामने वाह्य जगत् के रूपों और व्यापारों में कुछ सच्चा आभास या संकेत पाकर, तब वे उसके अनुरूप भावव्यंजना करते थे। इसमें सामान्य भावभूमि पर प्राप्त होकर श्रोता या पाठक का हृदय भी उनके भाव को अपना लेता था। इसके विपरीत विलायती या रहस्यवादी या उनके अनुयायी वाह्य जगत् की स्वच्छ और सच्ची अभिव्यक्ति से जो मनुष्य मात्र के लिए कल्पना और भाव ग्रहण करने का सामान्य और अक्षय्य भंडार है, ऑंखें मूँदकर अपनी वात पित्ताग्रस्त कल्पना के कोने में इकट्ठे किए हुए रोड़े अकस्मात् लुढ़काकर भावों के उन्मादभार से हलके होने का अभिनय किया करते हैं।
क्यों सूफी भाव की कविता हृदय को विकसित करनेवाली होती है और विलायती रहस्यवाद की कविता का अनुकरण, या उसके अनुकरण का अनुकरण हृदय की अनुभूति से दूर अपनी लपक झपक दिखाया करती है, इसके एक बड़े भारी कारण का पता तो ऊपर लिखी बातों से लग जाता है। पर कुछ और कारण भी हैं। यूरोप के काव्य समीक्षा क्षेत्र में प्रचलित 'अभिव्यंजना' (एक्स्प्रेशनिज्म) और 'कला का उद्देश्य कला ही है' का पूरा प्रभाव आधुनिक विलायती रहस्यवाद पर है। प्रभाव है क्या, कहना चाहें तो कह सकते हैं कि उक्त रहस्यवाद तीनों वादों के मेल सेब्लेक द्वारा अंगीकृत 'कल्पनावाद' के साथ 'अभिव्यंजनावाद' और 'कला का उद्देश्य' कलावाद के मेल सेसंघटित है।
'कल्पनावाद' के अवलंबन से उत्पन्न विषमता का उल्लेख तो हो चुका। रहा पिछले दो वादों से ग्रस्त विलायती रहस्यवाद के अनुकरण, या अनुकरण के अनुकरण का फल, वह भी सुगमता से अनुमन में आ जाता है। 'अभिव्यंजनावाद' की प्रवृत्ति वाग्वैचित्रय या शब्दभंगी की ओर अधिक है। वाग्वैचित्रय का उचित स्थान काव्य में क्या है, यह हम पहले दिखा आए हैं। यहाँ हिन्दी में उसके अनुकरण में जो और विशेष विरूपता दिखाई पड़ती है उसी का यहाँ विचार करना है। योरोपीय भाषाओं में वाग्वैचित्रय का विधान अधिकतर उन भाषाओं की लाक्षणिक चपलता के बल पर होता है। प्रत्येक भाषा की लाक्षणिक प्रवृत्ति उसके बोलनेवालों की अंत:प्रकृति और संस्कारों के अनुरूप हुआ करती है अत: एक भाषा के लाक्षणिक प्रयोग दूसरी भाषा में बहुत कम काम दे सकते हैं।
विलायती रहस्यवाद की कविताओं में बाहरी विशेषता जो दिखाई पड़ी, वह थी लाक्षणिक प्रगल्भता और वाग्वैचित्रय। अत: उनका अनुकरण सबसे पहले और अधिक उतावली से हुआ; इससे ठीक ढंग पर न चला। अधिकतर तो अनुकरण न होकर अवतरण हुआ जिससे वैचित्रय की तत्काल सिद्धि दिखाई पड़ी। एक भाषा के पदविन्यास, लाक्षणिक प्रयोग और मुहावरे इत्यादि यदि शब्द प्रतिशब्द दूसरी भाषा में रख दिए जायँ तो यों ही एक तमाशा खड़ा हो जाता है। ऍंगरेजी के किसी एक साधारण पैराग्राफ का शब्द प्रतिशब्द अनुवाद करके सामने रखिए और उसकी विचित्रता देखिए। तुर्की या चीनी का ऐसा ही अवतरण सामने रखिए तो और बहार दिखाई दे। विलायती रहस्यवाद जब बंग भाषा साहित्य के एक कोने से होता हुआ हिन्दी में आ निकला तब उसपर दो भाषाओं के अजनबीपन की छाप दिखाई पड़ी। बहुत कुछ वैचित्रय तो इस अजनबीपन में ही मिल गया। पर यदि लाक्षणिक विधान अपनी भाषा की गतिविधि के अनुसार होता तो क्या अच्छी बात होती!
अभिव्यंजनावाद के प्रसंग में हम दिखा चुके हैं कि उसके अनुकूल विलायती रचना के अनुकरण को हद से बाहर घसीटने के कारण छायावाद समझकर लिखी जानेवाली कविताओं में अप्रस्तुत वस्तु व्यापारों की बड़ी लंबी लड़ी के अतिरिक्त और कुछ सार नहीं होता। सब मिलाकर पढ़ने से न कोई सुसंगत और नूतन भावना मिलेगी, न कोई विचारधारा और न किसी उद्भावित सूक्ष्म तथ्य के साथ भाव संयोग, जिसका कुछ स्थायी संस्कार हृदय पर रहे। अप्रस्तुत विधान, चाहे वे किसी रूप में रखे जायँ, वास्तव में अलंकार मात्र होंगे। अत: ऐसी कविताओं की परीक्षा करने पर उपमन वाक्यों के ढेर से अतिरिक्त और कुछ नहीं बचता। किसी एक कविता के भीतर विचारों या भावनाओं का इधर उधर भिन्न दशाओं में प्रसार न होते चलने के कारण अप्रस्तुत वस्तुओं में भी पूरी विभिन्नता नहीं होती। एक प्रकार से ढेर भी समन रंग ढंग की वस्तुओं का ही होता है। अत: एकान्विति (यूनिटी) और संबंध (कोहेरेंस) की, सच पूछिए तो, जगह ही नहीं होती।
पर इन दोनों के बिना अच्छी से अच्छी सामग्री का बिखरा हुआ ढेर कला की कृति नहीं कहला सकता। सामग्री परस्पर जितनी ही भिन्न और अनेकांगस्पर्शिणी होगी उतना ही उनका सामंजस्यपूर्वक अन्वय कला का उत्कृष्ट विधान कहा जायगा। 'छायावाद' का पास लेकर काव्यक्षेत्र में आनेवाली अधिकांश रचनाओं में कोई भावना उठकर कुछ दूर तक सांगोपांग चलती नहीं दिखाई पड़ती। यह वास्तव में उपर्युक्त अवतरण व्यापार का ही परिणाम है। वैचित्रय के लोभ में भिन्न भिन्न स्थलों से संगृहीत वाक्यों और पदविन्यासों को एक में समन्वित करना भी तो कठिन ही है।
किसी प्रकृत आलंबन से सीधा लगाव न रखने के कारण भावों में जो सच्चाई का अभाव (इनसिनसिऐरिटी) या कृत्रिमता (आर्टिफिशैलिटी) रहती है वह तो मूल ही से आई है। यह बात मैं उन रचनाओं के संबंध में कहता हूँ जो वास्तव में रहस्यवाद या छायावाद के अंतर्गत होती हैं।
एक चौथी बात जिसकी चर्चा छायावाद की कविता के साथ हुआ करती है, वह छंदबंधन का त्याग और लय (रिद्म) का अवलंबन है। पर यह एक बिलकुल दूसरी हवा है जो अमेरिका की ओर से आई है। इसका रहस्यवाद या छायावाद से कोई संबंध नहीं है। इसे एक आंदोलन के रूप में खड़ा करनेवाला अमेरिका का वाल्ट ह्निटमैन था जिसने सन् 1855 ई. में 'घास के पत्तो' (लीब्ज आव ग्रास) नाम की एक कविता केवल लय पर चलनेवाली बिना छंद की पंक्तियों में निकाली। इसके पीछे इस तरह की और बहुत सी कविताएँ उसने लिखीं जिनमें समीक्षकों ने काव्यत्व, कलाविधान और साहित्यिक शिष्टता की बहुत कमी बताई। एक समीक्षक ने बहुत थोड़े में अपनी राय इस प्रकार दी
'अनुभूतियों का गड़बड़झाला, भावों और विचारों का बिखरा हुआ ढेर, सामने रख दिया गया हैबिना तुक तुकांत के, जो कोई त्रुटि नहीं; बिना छंद के, जो त्रुटिहै।
'यह सूचित करना आवश्यक है कि उत्तम काव्य के सब लक्षणों की दृष्टि से उसका विधान दूषित है। जैसा कि किसी ने कहा है, यदि शेक्सपियर, कीट्स और गेटे कवि हैं तो ह्निटमैन कदापि नही। । 1 और विलायती हवाओं की तरह यह हवा भी बँगला से होती हुई हिन्दी में आई है और छायावाद के साथ उसकी विलक्षणता बढ़ाने के लिए जोड़ी गई है। पर यह अच्छी तरह समझ रखना चाहिए कि इसका रहस्यवाद से कोई संबंध नहीं। अत: इसके संबंध में हम यहाँ कुछ अधिक नहीं कहना चाहते। छंद और लय (रिद्म के विषय में विचार करते समय इतना अवश्य ध्यानन रखना चाहिए कि कविता एक बहुत ही पूर्ण कला है। इस पूर्णता के लिए
1. ए केआस आव इंप्रेशन, थाट आर फीलिंग्स थ्रोन टुगेदर विदाउट राइम, ह्निच मैटर्स लिटिल, विदाउट मीटर ह्निच मैटर्स मोर, ऐंड आफेन विदाउट रीजन ह्निच मैटर्स मच।
इट मस्ट बी प्वाइंटेड आउट, हाउएवर, दैट आल दि कैनन्स आव गुड पोएट्री कनडेम हिज मेथड्स। ऐज सम हैज सेड, शेक्सपियर, कीट्स ऐंड गेटे वेअर पोएट्स ह्निटमैन नाट।
ए. बी. डिमिल : लिटरेचर इन दि सेंचुरी (दि नाइनटींथ सेंचुरी सीरीज)
वह संगीत और चित्रकला दोनों की पद्धाति का थोड़ा बहुत सहारा लेती है। दोनों की रमणीयता का योग उसकी रमणीयता के भीतर रहता है। जिस प्रकार रूप विधान में वह चित्रविधा का कुछ अनुसरण करती है, उसी प्रकार नादविधान में संगीत का। छंद वास्तव में बँधी हुई लय के भीतर भिन्न भिन्न ढाँचों (पैटर्न्स) का योग है जो निर्दिष्ट लंबाई का होता है। लय स्वर के चढ़ाव उतार के छोटे छोटे ढाँचे ही हैं जो किसी छंद के चरण के भीतर व्यस्त रहते हैं।
छंद द्वारा होता यह है कि इन ढाँचों की मिति और इसके योग की मिति दोनों श्रोता को ज्ञात हो जाती है जिससे वह भीतर ही भीतर पढ़नेवाले के साथ ही साथ उसकी नाद की गति में योग देता चलता है। गाना सुनने के शौकीन गवैये के मुँह से किसी पद के पूरे होते उसे किस प्रकार लोक लेते हैं, यह बराबर देखा जाता है। लय तथा लय के योग की मिति बिलकुल अज्ञात रहने से यह बात नहीं हो सकती। जब तक कवि आप ही गाकर अपनी लय का ठीक ठीक पता न देगा तब तक पाठक अपने मन में उसका ठीक ठीक अनुकरण न कर सकेगा। अत: छंद के बंधन के सर्वथा त्याग में हमें तो अनुभूत नादसौंदर्य की प्रेषणीयता (कम्युनिकेबिलिटी आव साउंड इंपल्स) का प्रत्यक्ष द्रास दिखाई पड़ता है। हाँ! नए नए छंदों के विधान को हम अवश्य अच्छा समझते हैं।
प्रेष्य भाव या विचारधारा की छोटाई बड़ाई के हिसाब से छोटे बड़े चरणों की पूर्वापर स्थिति होनी चाहिए, यह प्राय: कहा जाता है, इसपर पहली बात तो यह पेश हो सकती है कि किसी भाव या विचार की पूर्णता का संबंध वाक्य से होता है और वाक्य के लिए आजकल की पद्यपद्धाति के अनुसार यह आवश्यक नहीं कि वह चरण के अंत में ही पूरा हो। वह बीच में भी पूरा हो सकता है। यह आवश्यक है कि चरण के बीच में एक वाक्य का अंत और दूसरे का आरंभ होने से कविता चुपचाप बाँचने के ही अधिक उपयुक्त होती है; लय के साथ जोर से सुनाने के उपयुक्त नहीं होती। जिन्होंने अच्छी लय के साथ किसी सुकंठ के मुँह से कविता का पाठ सुना है वे मनते हैं कि किसी कविता का पूर्ण सौंदर्य उसके जोर से पढ़े जाने पर ही प्रकट होता है। छंदों की चलती लय में कुछ विशेष माधुर्य होता है। हमें तो यह माधुर्य उस्तादों के पक्के गाने से, जिसके 'आ आ आ' के आगे बड़े बड़े आलसियों का आसन डिग जाता है, कहीं अधिक आनंदमग्न करता है। प्रसिद्ध रहस्यवादी कवि ईट्स ने भी अपनी ऐसी ही रुचि प्रकट की है
'पक्के गाने में कुछ ऐसी बात होती है जो मुझे सब दिन से बुरी लगती आई है। इसी तरह कोई कविता कागज पर छपी हुई मुझे अच्छी नहीं लगती है।
अब इसका कारण खुला। मैंने एक व्यक्ति को ऐसी सुंदर लय और भाव के पूरे अनुसरण के साथ कविता पढ़ते सुना है कि यदि मेरे कहने के अनुसार कुछ लोग कविता पढ़ने की कला सीख लेते तो मैं कोई कविता की पुस्तक बाँचने के लिए कभी खोलता ही न।'1
जिन्होंने स्वर्गीय श्री सत्यनारायण कविरत्न को कभी 'या लकुटी अरु कामरिया' पढ़ते सुना है वे यह अवश्य समझ गए होंगे कि किसी कविता का पूर्ण सौंदर्य उसके सुंदर लय के साथ पढ़े जाने पर ही प्रकट होता है। हाँ, ऊपर छोटे बड़े चरणों की बात चली थी। छोटे बड़े चरणों की योजना करनी हो तो भिन्न भिन्न छंदों के दो दो चरण रखते हुए बराबर चले चलने में हम कोई हर्ज नहीं समझते। यह हमारा प्रस्ताव मात्र है।
लय भी तो एक प्रकार का बंधोज ही है। जब तक नादसौंदर्य का कुछ भी योग कविता में हम स्वीकार करेंगे तब तक बंधोज कुछ न कुछ रहेगा ही। नादसौंदर्य की जितनी मात्रा आवश्यक समझी जायगी उसी के हिसाब से यह प्रतिबंध रहेगा। इस बात का अनुभव तो बहुत से लोगों ने किया होगा कि संस्कृत के मंदाक्रांता, स्रग्धारा, मालिनी, शिखरिणी, इंद्रवज्रा, उपेंद्रवज्रा इत्यादि वर्णवृत्तों में
नादसौंदर्य की पराकाष्ठा है पर उनका बंधन बहुत कड़ा होता है। अत: भावधारा या विचारधारा पूरी स्वच्छंदता के साथ कुछ दूर तक उनमें नहीं चल सकती इसी से हिन्दी में मात्रिक छंदों का ही अधिक प्रचार रहा है। वर्णवृत्तों में सवैये इसलिए ग्रहण किए गए कि उनमें लय के हिसाब से गुरुलघु का बंधन बहुत कुछ शिथिल हो जाता है।
जो कविता में उतने ही नादसौंदर्य की जरूरत समझते हैं जितना केवल लय (रिद्म) के द्वारा सिद्ध हो जाता है उनसे हमें कुछ कहना नहीं है। हम अधिक की जरूरत समझते हैं और शायद बहुत से लोग ऐसा ही समझते हों। रही यह बात कि छंद के बंधन से विचार के पैर बँध जाते हैं और कल्पना के पर सिमट जाते हैं। इसकी जाँच के लिए कवियों की रचना का इतना बड़ा मैदान खुला हुआ है। हिंदुस्तानी कवियों की बात छोड़िएक्योंकि विलायत की अंधाधाुंधा नकल से घबराकर ही यह सारा निबंध लिखा गया हैअँगरेजी के कवियों को लीजिए। क्या वर्ड्सवर्थऔर शेली की ऊँची से ऊँची छंदोमुक्त कविता उनके टक्कर में रखी जा सकती है?
अब तक जो कुछ लिखा गया उससे यह स्पष्ट हो गया कि हिन्दी में आ
1. आइ हैव आलवेज नोन दैट देअर वाज समथिंग आइ डिस्लाइक्ड ऐबाउट सिंगिंग ऐंड आइ नैचुरली डिसलाइक प्रिंट ऐंड पेपर, बट नाउ ऐट लास्ट आइ अंडरस्टैंड ह्नाई, फार आइ हैव फाउंड समथिंग बेटर। आइ जस्ट हर्ड ए पोएम स्पोकेन विद से डेलिकेट एसेस आव इट्स रिद्म विद सो परफेक्ट ए रेस्पेक्ट फार इट्स मीनिंग, दैट इफ आइ वेअर वाइज मैन ऐंड कुड परसुएड ए फ्यू पीपुल टु लर्न दि आर्ट आइ कुड नेवर ओपेन ए बुक आव वर्सेज अगेन।
अाइडियाज आव गुड ऐंड ईविल
निकला हुआ यह 'छायावाद' कितनी विलायती चीजों का मुरब्बा है। जैसा हम पहले दिखा आए हैं, 'रहस्यवाद' या 'छायावाद' काव्यवस्तु (मैटर) से संबंध रखता है और 'अभिव्यंजनावाद' का संबंध विधानविधि (फार्म) से होता है। 'अभिव्यंजनावाद' के साथ संयुक्त होकर बँगला से हिन्दी में आने के कारण साधारणत: 'छायावाद' के स्वरूप की ठीक भावना बहुत से रचयिताओं को भी नहीं होती। वे केवल ऊपरी रूपरंग (फार्म) का अनुकरण करके समझते हैं कि हम 'रहस्यवाद' या 'छायावाद' की कविता लिख रहे हैं। पर वास्तव में उनकी रचना में केवल अभिव्यंजनावाद' का अनुसरण रहता है। 'छायावाद' या 'रहस्यवाद' के अंतर्गत उन्हीं रचनाओं को समझना चाहिए जिनकी काव्यवस्तु 'रहस्यवाद' के अनुसार हो। रहस्यवादी काव्यवस्तु की पहचान हम पहले बता आए हैं।
यहाँ पर यह सूचित कर देना भी आवश्यक प्रतीत होता है कि छायावाद के अंतर्गत बहुत सी रचनाएँ ऐसी भी हुई हैं जिसमें 'अभिव्यंजनावाद' के अज्ञात अनुकरण के कारण बहुत सुंदर लाक्षणिक चमत्कार स्थान स्थान पर मिलता है। भावना का बहुत ही साहसपूर्ण संचालन, मूर्तिमत्ताा का बहुत ही आकर्षक विधान और व्यंजना की पूरी प्रगल्भता पाई जाती है। ऐसी रचना करनेवाले कवियों से आगे चलकर बहुत कुछ आशा है। अपनी इस आशा की सफलता के लिए हम अत्यंत प्रेमपूर्वक उनसे दो तीन बातों का अनुरोध करते हैं। पहली बात तो यह कि वे 'वाद' का सांप्रदायिक पथ छोड़कर, अपनी सब विशेषताओं के सहित, प्रकृत काव्यभूमि पर आएँ जिसपर संसार के बड़े बडे क़वि रहे हैं और हैं। दूसरी बात यह कि अनुकरण के लिए वे बँगला, ऍंगरेजी आदि दूसरी भाषाओं की ओर ताकना बिलकुल छोड़ दें और अपनी भाषा की स्वाभाविक शक्ति से पूरा काम लें। इस बात का पूरा ध्याभन रखना चाहिए कि जिस भाव से कोई शब्द लाया गया है उसके साथ वह ठीक बैठता है या नहीं।
इसी 'छायावाद' के भीतर कुछ लोगों की कविताएँ ऐसी भी मिलती हैं जिनका स्वरूप विलायती नहीं होता, जो कुछ थोड़ा सा बँगलापन लिए हुए सूफियों के तर्ज पर होती हैं। इनमें लाक्षणिकता भी पूरी रहती है, पर वह अपनी भाषा की प्रकृति के अनुसार होती है ऍंगरेजी से उठाई हुई नहीं होती। ऐसी कविता लिखनेवाले वे ही हैं जो हिन्दी काव्य परंपरा से पूर्णतया परिचित हैं, जिन्हें अपनी भाषा पर पूरा अधिकार है और जो हिन्दी में 'छायावाद' प्रकट होने के पहले से अच्छी कविता करते थे। इनकी 'छायावाद' की रचनाओं में भी भावुकता और रमणीयता रहती है। थोड़ा खटकनेवाली बात जो मिलती है वह है फारसी शायरी के ढंग पर वेदना की अरुचिकर और अत्युक्त विवृति। शरीरधार्मों का अधिक विन्यास (ऐनिमैलिटी) काव्यशिष्टता के विरुद्धा पड़ता है, यह शायद हम पहले कहीं कह आए हैं। जो हो, कोरे विलायती तमाशे से हम इसे सौ दर्जे अच्छा समझते हैैं। यद्यपि रहस्य की ओर भारतीय काव्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं, पर हिन्दी काव्यक्षेत्र में उसकी प्रतिष्ठा बहुत दिनों पहले से बड़े हृदयग्राही रूप में हो चुकी है। इसके प्रवर्तक यद्यपि मुसलमन थे, पर वे सूफी 'रहस्यवाद' को भारतीय रूप देने में पूर्णतया सफल हुए थे। कबीर आदि निर्गुणपंथियों और जायसी आदि सूफी प्रेममार्गियों ने 'रहस्यवाद' की जो व्यंजना की है वह भारतीय भावभंगी और शब्दभंगी को लेकर।
ऍंगरेजी लाक्षणिक वाक्यों के अवतरण द्वारा विलायती तमाशा खड़ा करनेवालों का आदि रूप बीस बाईस वर्ष पीछे मुझे आज स्मरण आ रहा है। उस समय हिन्दी के प्रेम में बहुत से छात्रा मेरे तथा मेरे साहित्यप्रेमी मित्रों के पास भी कविता सीखने की उत्कंठा प्रकट करते हुए, ऍंगरेजी की स्कूली किताबों में आई हुई कविताओं का प्राय: पद्यबद्धा शब्दानुवाद लेकर दिखाने आया करते थे। मैं उनसे बराबर यही कहता था कि 'कविता के अभ्यास का यह मार्ग नहीं है। पहले खड़ी बोली और ब्रजभाषा दोनों की कविताएँ पढ़कर अपनी काव्यभाषा की प्रकृति से पूर्णतया परिचित हो जाओ और इस प्रकार क्रमश: अपनी भाषा पर अधिकार प्राप्त करो। इसके पीछे रचना में हाथ लगाओ। ऍंगरेजी कविताओं के अनुवाद से हिन्दी कविता करना नहीं आ सकता। ऍंगरेजी कविता करना क्या कोई हिन्दी कविताओं का अनुवाद करके सीख सकता है? ऐसे छात्राों को मैं बराबर उनके अनुवाद सहित लौटा दिया करता था। पर कुछ दिनों पीछे उन पद्यानुवादों में से कई एक मासिक पत्रिकाओं में छपे दिखाई पड़ते थे। जब यह प्रवृत्ति कुछ बढ़ती दिखाई पड़ने लगी तब मेरे मन में यह बात आई थी कि इसका परिणाम आगे चलकर अच्छा न होगा। आज वही परिणाम 'गद्यमय जीवन' (प्रोजेइक लाइफ), 'सुवर्णस्वप्न' (गोल्डेन ड्रीम), 'स्वप्न अनिल' (ड्रीमीऐटमास्फिअर), 'स्वप्निल आभा' (ड्रीमी स्प्लेडर) आदि के रूप में झलक रहाहै।
अत: हिन्दी काव्यक्षेत्र में यदि 'रहस्यवाद' के लिए कुछ अधिक स्थान करना है तो स्वाभाविक रहस्यभावना काउसके वादग्रस्त या सांप्रदायिक रूप का नहींअवलंबन करना चाहिए और उसकी व्यंजना के लिए अपनी भाषा कीविदेशी भाषा की नहींसब शक्तियाँ लगानी चाहिए। भद्दे अनुकरण के अभ्यास का अनिष्ट प्रभाव कई तरफ पड़ता है। यहाँ पर हमसे बिना यह कहे आगे नहीं बढ़ा जाता है कि 'छायावाद' की कविताओं की अपेक्षा हमें तो रहस्यभावनापूण्र्ा जो दो एक गद्यकाव्य निकले हैं वे अधिक भावुकतापूर्ण और रमणीय जान पड़ते हैं, विशेषत: राय कृष्णदासजी की 'साधना'। इसमें न तो सांप्रदायिक 'रहस्यवाद' के शाबर मंत्र हैं, न 'अभिव्यंजनावाद' का अभिनय और न शब्दों की विलायती कलाबाजी। इसका हृदय भी भारतीय है, वाणी भी भारतीय है। जिन अनुभूतियों की व्यंजना है वे कहीं भीतर से आती हुई जान पड़ती हैं; आसमन से उतारी जाती हुई नहीं। पदविन्यास में जो सरलता और प्रांजलता है वह भी हमारी है। जिन मधुर 'प्रतीकों' का व्यवहार हुआ है वे भी हमारे हृदय के सगे हैं।
अब तो कदाचित् इस बात के विशेष विवरण की आवश्यकता न होगी कि जो 'छायावाद' नाम प्रचलित है वह वेदांत के पुराने 'प्रतिबिंबवाद' का है। यह 'प्रतिबिंबवाद' सूफियों के यहाँ से होता हुआ यूरोप में गया जहाँ कुछ दिनों पीछे 'प्रतीकवाद' से संश्लिष्ट होकर धीरे धीरे बंगसाहित्य के एक कोने में आ निकला और नवीनता की धारणा उत्पन्न करने के लिए 'छायावाद' कहा जाने लगा। यह काव्यगत 'रहस्यवाद' के लिए गृहीत दार्शनिक सिद्धांत का द्योतक शब्द है। इसके इतिहास की ओर ध्यालन न देने के कारण अनेक प्रकार की मनमानी व्याख्याएँ हिन्दी पत्रा पत्रिकाओं में समय समय पर निकला करती हैं, जिनमें कहीं 'रहस्यवाद' और 'छायावाद' का कल्पित भेद समझाया जाता है; कहीं छायावाद ही के अर्थ में एक और 'बिंबवाद' खड़ा करके दोनों का 'वस्तुवाद' (?) के साथ विरोध कुछ शब्दाडंबर के साथ दिखाया जाता है। ऐसे लोगों को शब्दों का प्रयोग करते समय शास्त्रपक्ष का कुछ पता रखना या कम से कम लगा लेना चाहिए। उन्हें समझना चाहिए कि 'बिंब' 'छाया' का बिलकुल उल्टा है और उसी अर्थ में आता है जिस अर्थ में उन्होंने 'वस्तु' शब्द का प्रयोग किया है। जो मूल वस्तु प्रतिबिंब या छाया फेंकती है शास्त्री य भाषा में वही बिंब कहलाती है। जिस रियलिज्म शब्द के लिए उन्होंने 'वस्तुवाद' शब्द बनाया है वह दार्शनिक भाषा में 'वाह्यार्थवाद' कहलाता है।
यहाँ पर हम यह स्पष्ट कह देना चाहते हैं कि हिन्दी काव्य क्षेत्र में हम 'रहस्यवाद' की भी एक शाखा चलने के विरोधी कभी नहीं हैं। हमारा कहना केवल यही है कि वह वाद के रूप में न चले; स्वाभाविक रहस्य भावना का आश्रय लेकर चले। छायावाद का रूप रंग बनाकर आजकल जो बहुत सी कविताएँ निकली हैं उनमें कुछ तो बहुत ही सुंदर, स्वाभाविक और सच्ची रहस्य भावना लेकर चली हैं; कुछ वादग्रस्त और कृत्रिम हैं और अधिकांश कुछ भी नहीं हैं। शुद्ध काव्य दृष्टि का प्रचार हो जाने पर पूर्ण आशा है कि कूड़े करकट के ढेर में सच्ची स्वाभाविक रहस्य भावना अपना मार्ग अवश्य निकाल लेगी और हिन्दी काव्य क्षेत्र की यह शाखा भी अपनी एक स्वतंत्र भारतीय विभूति का प्रकाश करेगी। अनुकरण युग का अंत होगा, इसका हमें पक्का भरोसा है।
'अभिव्यंजनावाद' किस प्रकार व्यंजनाप्रणाली की एकता और विलक्षणता पर ही जोर देता है, यह हम देख चुके। यह हमारे यहाँ का पुराना 'वक्रोक्तिवाद' ही है, यह भी हम निरूपित कर आए। उसके कारण शब्दाडंबर की कितनी अधिकता हुई है, यह बात भी हम देख रहे हैं। यह कई बार हम सूचित कर चुके हैं कि यूरोप के समीक्षा क्षेत्र में जितने 'वाद' निकलते हैं सब एकांगदर्शी होते हैं; किसी एक ही दिशा में ऑंख मूँदकर हद के बाहर बढ़ते चले जाते हैं। उनमें सामंजस्यबुद्धि का अभाव होता है। अत: इस 'अभिव्यंजनावाद' से हम केवल इतना ही तथ्य ग्रहण कर सकते हैं कि हमारी काव्यभाषा में व्यंजना प्रणाली के और अधिक प्रसार और चित्ताकर्षक विकास की बहुत आवश्यकता है।
हमारी पुरानी कविता में व्यंजनाप्रणाली के प्रसार और चमत्कार के लिए अलंकारों का ही विधान अधिकतर होता था। पर अलंकारों के अधिक प्रयोग से कविता इतनी भाराक्रांत और कहीं कहीं कितनी भद्दी हो जाती है, इसके उदाहरण केशवदासजी की रचनाओं में बिना ढूँढ़े मिलेंगे। अलंकार बहुत जगह लेते हैं और बहुत दूर तक भावना को एक ढाँचे के भीतर बंद किए रहते हैं। अत: उनका संयत प्रयोग वहीं होना चाहिए जहाँ विचार या भावना के पूर्ण प्रसार या भाव की यथेष्ट व्यंजना के लिए व्यासविधान अपेक्षित हो। अब इस समय हिन्दी काव्यभाषा में मूर्तिमत्ताा की समासशक्ति का, लक्षणाशक्ति का अधिक विकास अपेक्षित है। काव्य में अधिकतर सादृश्य या साधार्म्यमूलक अलंकारों का व्यवहार होता है। पर बहुत से स्थलों पर उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा इत्यादि के बँधो हुए लंबे चौड़े ढाँचे की अपेक्षा लक्षणा से बहुत अधिक रमणीयता और वाग्वैचित्रय का संपादन हो सकता है। लाक्षण्0श्निाकता के सम्यक् और स्वाभाविक विकास द्वारा भाषा भावक्षेत्र और विकासक्षेत्र दोनों में बहुत दूर तक, बहुत ऊँचाई तक और बहुत गहराई तक प्रकाश फेंक सकती है। छायावाद समझकर लिखी हुई कविताओं में से बहुतों में, अनुकरणवश सही, लाक्षणिकता की ओर अधिक प्रवृत्ति देख बड़ी प्रसन्नता होती है।
लाक्षणिकता के अधिक विधान की आवश्यकता किसी शाखाविशेष के भीतर ही नहीं, समूचे हिन्दी काव्यक्षेत्र के भीतर है। पर यह विधान खूब समझ बूझकर होना चाहिए। न तो अपनी भाषा की प्रकृति की इतनी अवहेलना होनी चाहिए कि ऍंगरेजी के लाक्षणिक प्रयोग शब्द प्रति शब्द रख लिए जायँ और न उर्दूवालों की तरह मुहावरे से फिसलने का इतना डर छाया रहना चाहिए कि बिलकुल उड़ने से कुछ पहले की अवस्था सूचित करने के लिए 'खबर फड़फड़ा रही है' लिखते हाथ रुक जाय। सामंजस्यबुद्धि से काम लेते हुए अग्रसर होना होगा। मुहावरे लाक्षणिक प्रयोग ही हैं, पर बँधो हुए। उनसे किसी भाषा की लाक्षणिक प्रवृत्ति के स्वरूप का पता चलता है। अत: उनका सूत्र पकड़े हुए लक्षणा इधर उधर अच्छी तरह बढ़ सकती है। उदाहरण के लिए 'लालसा जगना' लीजिए। इसके इशारे पर 'लालसा सोती है' हम बेधड़क कह सकते हैं। पर बहुत आगे बढ़कर 'लालसा का ऑंख मलना, करवट बदलना, ऍंगड़ाइयाँ लेना', मुँह का कमल को लात मारना हो जाएगा। लाक्षणिक मूर्तिमत्ताा गुड़ियों का खेल न होने पाए। हमारा मतलब यह नहीं कि मुहावरों के रास्ते के भीतर ही लक्षणा अपने हाथ पैर फैलाए। तात्पर्य इतना है कि अपनी भाषा की प्रकृति परखकर और सुरुचि का ध्याफन रखकर चला जाय।
'छायावाद' या 'रहस्यवाद' के संबंध में जानबूझकर अज्ञानवश तरह तरह की भ्रांति हिन्दी पाठकों के बीच फैलाने की चेष्टा की जाती है, वह असभ्यतासूचक है। यह कहना कि 'रहस्यवाद' ही वर्तमन युग की कविता है और यूरोप में चारों ओर यही कविता हो रही है, या तो घोर अज्ञान है या छल। ब्लेक आदि के पीछे सन् 1885 में जो प्रतीकवादमिश्रित नूतन रहस्यवाद फ्रांसीसी साहित्यक्षेत्र के एक कोने में प्रकट हुआ जिसकी नकल बँगला से होती हुई हिन्दी में आईयह किस दृष्टि से देखा जाता है, यह हम अच्छी तरह दिखा चुके हैं। दूसरी बात लीजिए। हम नहीं समझते कि बिना हिन्दीवालों की खोपड़ी को एकदम खोखली माने उसके बीच इस प्रकार के अर्थ शून्य वाक्य छायावाद के संबंध में कैसे कहे जाते हैं कि 'यह नवीन जागृति का चिद्द है, देश के नवयुवकों के हृदय की दहकती हुई आग है इत्यादि, इत्यादि'। भला देश की नई 'जागृति' से देशवासियों की दारुण दशा की अनुभूति से और असीम ससीम के मिलन, अव्यक्त और अज्ञात की झाँकी आदि का क्या संबंध! क्या हिन्दी के वर्तमन साहित्यक्षेत्र में शब्द और अर्थ का संबंध बिलकुल टूट गया है? क्या शब्दों की गर्दभरी ऑंधी विलायत के कलाक्षेत्र से धीरे धीरे हटती हुई अब हिन्दीवालों का ऑंख खोलना मुश्किल करेगी?
यदि ऐसा नहीं है तो मासिक पत्रिकाओं में कभी कभी यूरोप की काव्यसमीक्षा की पुस्तकों की केवल आलंकारिक पदावली बिना किसी विचारसूत्र के काव्य या कला की आलोचना के नाम से कैसे निकला करती है? किसी ऍंगरेजी या बँगला के कवि के संबंध में लिखी हुई लच्छेदार उक्तियाँ किसी नए-पुराने हिन्दी कवि के संबंध में नई आलोचनाओं के रूप में कैसे भिड़ा दी जाती है? ऐसी कार्रवाइयाँ हिन्दी साहित्य के स्वतंत्र विकास में बाधक हो रही हैं। हिन्दी पाठकों को इस प्रकार अंधा मन लेना हम बड़े अपमन की बात समझते हैं।
यह अच्छी तरह समझ रखना चाहिए कि हमारे काव्य का, हमारे साहित्यशास्त्र का, एक स्वतंत्र रूप है जिसके विकास की क्षमता और प्रणाली भी स्वतंत्र है। उसकी आत्मा को, उसकी छिपी हुई भीतरी प्रकृति को पहले हम जब सूक्ष्मता से पहचान लेंगे तभी दूसरे देशों के साहित्य के स्वतंत्र पर्यालोचन द्वारा अपने साहित्य के उत्तारोत्तार विकास का विधान कर सकेंगे। हमें अपनी दृष्टि से दूसरे देशों के साहित्य को देखना होगा, दूसरे देशों की दृष्टि से अपने साहित्य को नहीं। जब तक हम इस विचारसामर्थ्य का संपादन न कर लेंगे तब तक अफ्रीका के जंगलियों की तरह जो ऍंगरेजों के उतारे कपड़े बदन पर डालकर स्ववर्गियों के बीच बड़ी ऐंठ से चला करते हैंभद्दी नकल को ही नवीनता मनकर संतोष करते रहेंगे और सभ्यजगत् के उपहासभाजन बने रहेंगे। हमारी ऑंख अपना स्वरूप तक न देख सकेगी, विदेशी दर्पण की आवश्यकता होगी। विदेशी लोग जैसा हमें बतावेंगे वैसा ही अपने को मनकर हम उसके प्रमाण उनके सामने रखा करेंगे। यूरोप ने कहा 'भारतवासी बड़े आध्याेत्मिक होते हैं, उन्हें भौतिक सुख समृद्धि की परवा नहीं होती'। बस, दिखा चले अपनी आध्या्त्मिकता। देखएि, हमारे काव्य में भी आध्यानत्मिकता है; यह देखिए हमारी चित्रविद्या की आध्यादत्मिकता, यह देखिए हमारी मूर्तिकला की आध्याात्मिकता।
जितनी बातें आजकल काव्यक्षेत्र में 'नवीनता' कहकर पेश की जाती हैं, एक एक करके सबका मूल हम यूरोप के नए पुराने प्रचलित प्रवादों में दिखा चुके हैं। सब नकल की नकल हैं। इस नकल की प्रवृत्ति बंगाल में ही सबसे अधिक रही। वहीं के साहित्य में एक एक बात की नकल शुरू हुई। नकल से किसी जाति के साहित्य का असली गौरव नहीं हो सकता। इससे उसकी अपनी संस्कृति, अपनी सभ्यता और अपनी उद्भावना का अभाव ही व्यंजित होता है। जिसकी नकल की जाती है वह और भी उपेक्षा की दृष्टि से देखता है। बंग भाषा के साहित्य में योरपीय साहित्य की प्रवृत्तियों की यह भद्दी नकल देखकर जार्ज ग्रियर्सन ने अपनी 'भाषाओं की जाँच' में स्पष्ट विरक्ति प्रकट की है। एक जगह की प्रचलित और सामान्य वस्तुओं को दूसरी जगह विकृति रूप में रखकर नवीनता की विज्ञप्ति करना किसी सभ्य जाति को शोभा नहीं देता। यह नवीनता नहीं हैअपने स्वरूप का घोर अज्ञान है, अपनी शक्ति का घोर अविश्वास है, अपनी बुद्धि और उद्भावना का घोर आलस्य है, पराक्रांत हृदय का घोर नैराश्य है, कहाँ तक कहें? घोर साहित्यिक गुलामी है। जब तक इस गुलामी से छुटकारा न होगा तब तक नवीनता के दर्शन कहाँ? नकल के भीतर की नवीनता भी नकल ही के पेट में समा जाती है।
दुनिया जानती है कि जब से फारसी और संस्कृत के काव्यों के अनुवाद यूरोप के भिन्न भिन्न देशों में होने लगे तभी से पूरबी रंग (ओरिएंटलिज्म) की बहुत कुछ झलक वहाँ की कविताओं में दिखाई पड़ने लगी। इस पर बाहरी रंग को उन्होंने अपने रंग में ऐसा मिला लिया कि इसकी पृथक् सत्ता कहीं से लक्षित नहीं होती। उनके अपने विचारों का ऐसा स्वतंत्र और सघन प्रसार था कि बाहर से आते हुए विचार उसी में समाते गए। उनकी अपनी विचारधारा इतनी सबल थी कि बाहर से आकर मिले हुए सोते अपनी उछलकूद अलग न दिखाकर, उसी के वेग को बढ़ाते रहे। इसका नाम है स्वतंत्र 'प्रगति' और स्वतंत्र 'विकास'।
अंत में हम इतना ही कहकर अलग होते हैं कि हम सारा काव्यक्षेत्र देव, मतिराम और बिहारी आदि के घेरे के भीतर देखनेवाले पुरानी लकीर के फकीर न कभी रहे हैं और न हैं। हम अपने हिन्दी काव्य को विश्व की नित्य और अनंत विभूति में स्वच्छंदतापूर्वक, अपनी स्वाभाविक प्रेरणा के अनुसार, अपनी ऑंख खोल कर विचरण करते देखना चाहते हैं। पर वह दिन तभी आ सकता है जब हमारी अंतर्दृष्टि को आच्छन्न करनेवाले परदे हटेंगे और हमारे विचारों में बल आएगा। इसके पहले हम बाहर के न नाना वादों और प्रवादों की ओर ऑंखें मूँदकर लपका करेंगे; अपने विचार के परीक्षालय में उनकी पूरी जाँच न करके उनके अनुकरण में ही अपने को धन्य माना करेंगे।
इस परीक्षालय की नूतन प्रतिष्ठा के लिए हमें अपनी रसनिरूपण पद्धाति का आधुनिक मनोविज्ञान आदि की सहायता से खूब प्रसार संस्कार करना पड़ेगा। इस पद्धाति की नींव बहुत दूर तक डाली गई है। इसके ढाँचों का नए नए अनुभवों के अनुसार, अनेक दिशाओं में फैलाव बहुत जरूरी है। यूरोप के साहित्यिक वादों और प्रवादों के संबंध में यह अच्छी तरह समझ रखना चाहिए कि ये प्रतिवर्तन (रिऐक्शन) की झोंक में उठते हैं और किसी ओर हद के बाहर बढ़ते चले जाते हैं। उनमें सत्य की मात्रा कुछ न कुछ रहती अवश्य है; पर किसी हद तक ही। हमें देखना चारों ओर चाहिए, पर सब देखी हुई बातों का सामंजस्यबुद्धि से समन्वय करना चाहिए। जैसा हम आरंभ ही में कह चुके हैं, यही सामंजस्य भारतीय काव्यदृष्टि की विशेषता है। यही सामंजस्य अनेक रूपात्मक जीवन और अनेक भावात्मक काव्य की सफलता का मूलमंत्र है।
(साहित्यभूषण कार्यालय, काशी से 1929 ई. में पुस्तकाकार प्रकाशित)
[चिन्तामणि, भाग-2]