काश! हम भी कुँआरे होते / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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मरियल बैल और साँड में जो अन्तर होता है, वही अन्तर एक गृहस्थ एवं कुँआरे में होता है। जिस प्रकार बैल के गले में रस्सा और नाक में नाथ पड़ी होती है, उसी पकार विवाहित पुरुष के गले में परिवार की आवश्यकताओं का रस्सा और पत्नी की हिदायतों की नाथ पड़ी होती है। ऐसा बेचारा व्यक्ति भला किसकी दया का पात्र नहीं होगा? मुझे कुँआरों से जितनी ईर्ष्या है, उतनी ईर्ष्या अपने शत्रुओं से भी नहीं रही। किसी कुँआरे को देखकर मेरे सीने पर साँप लोटने लगता है। कुँआरे जहाँ चाहें विचरण करें, चाहे जिसकी ओर ताक-झाँक करें, इन्हें रोकने वाला कोई रस्सा नहीं। रस्से के बिना इन्हें कोई किस खूँटे से बाँधे?

कुँआरे को हर खूबसूरत लड़की के चेहरे में अपनी प्रेमिका के दर्शन होते हैं। बेचारा, क़िस्मत का मारा शादीशुदा व्यक्ति हर चेहरे में अपनी पत्नी का रणचण्डी रूप देखता है। पच्चीस साल की अवस्था तक अपने राम, कुँआरे के रूप में मटरगश्ती करते रहे। बुरा हो मेरे उन ईर्ष्यालु दोस्तों का, जिन्हें मेरी मौज-मस्ती फूटी आँखों नहीं सुहाई। मुझे विश्वास में लेकर सबने मेरी शादी का षड्यन्त्र रच डाला। विवाह की वेदी मेरे लिए बलिवेदी प्रमाणित हुई। इस षड्यन्त्र के चक्रव्यूह को तोड़ने के लिए मेरे कुँआरे मन ने पहले-पहल बहुत हाथ-पाँव पटके। तीन पुत्रों का पिता हो जाने पर मेरे मन का अभिमन्यु ऐसा धराशायी हुआ कि सरी हेकड़ी भूल गया। समझौता करते-करते और आश्वासन देते-देते मेरी हालत दल-बदलू नेता जैसी हो गई। अक्खड़ और फक्खड़ बनकर घूमने वाले कबीर ने गृहस्थी के प्रपंच को अच्छी तरह समझा था, तभी तो उन्होंने कहा था-

"कबिरा तिन की क्या गति, जे नित नारी संग।"

वह गति केवल दुर्गति हो सकती है। मुझे लगता है कि कबीरदास मुझ जैसों का भविष्य जानते थे।

घर-गृहस्थी के लिए नून-तेल-लकड़ी जुटाने में कमर धनुष की तरह झुक गई। चेहरे की ताज़गी आश्वासन की तरह उड़ गई; लेकिन मन में आवारा घूमने की ललक बनी रही। रस्सी जलने पर भी सने बल नहीं जाते हैं। मेरी चोर दृष्टि यदि पत्नी की उपस्थिति में किसी सलोने मुख को देखने लगे, तो उनकी दृष्टि बॉस का तीसरा नेत्र बनकर मुझे घूरने लगती है। उस समय मेरी हालत अखाड़े में हारे पहलवान जैसी हो जाती है। इस तरह न चाहकर भी मुझे शाकाहारी पति का लबादा ओढ़ना पड़ता है। किसी सलोनी उपस्थिति में तनिक मुस्करा दूँ या खुलकर हँस पडूँ, तब तो ईश्वर भक्त न रहते हुए भी उपवास करना पड़ेगा। बहुत से बर्तनों को उनकी पटखनी झेलनी पड़ेगी। बच्चे यदि पास में हुए, तो उन्हें भी दो-दो थप्पड़ लग ही जाएँगे।

मधुर आकृति के चले जाने पर उनकी वाणी मुझ पर शब्दों के प्रक्षेपास्त्र चलाने लगेगी-"मेरे सामने आप साल भर में एक बार भी मुश्किल से हँस पाते हैं और उस कलमुँही के सामने कितनी मीठी मुस्कान बिखेर रहे थे?" अब यदि कोई उनसे पूछे कि हे सौभाग्यवती कर्कशा पत्नी! बाघिन के सामने बँधा हुआ बकरा हँसेगा या अपनी जान की खैर माँगेगा? उसके प्राण तो वैसे ही निकल जाएँगे।

सपरिवार कहीं घूमने चलें, तो रिक्शा वाला भी बिदकता है। जो बिदकता नहीं, वह मुँहमाँगे पैसे वसूल करता हैं। दबी बिल्ली चूहों से कान न कटाए, तो क्या करें? गृहस्थी की उम्र क़ैद काटने वालों के लिए मुक्ति की आशा कम ही है। एक रात हम सपना देखते-देखते शामत के मारे हँस पड़े। पत्नी जाग रही थी। हमको झिंझोड़कर जगाया-"क्यों जी, तबीयत ठीक है? क्यों हँस रहे थे?"

मानो हँसना अपशकुन हो या किसी भयानक बीमारी का लक्षण। हमने पहली बार मूर्खतावश सच-सच बता दिया-"सपने में देख रहे थे कि हम किसी के घर अपने रिश्ते के लिए लड़की देखने गए हैं। वह लड़की हमसे हँस-हँसकर बतिया रही थी। इसी कारण हम भी हँस रहे थे।"

"मैं क्या मर गई हूँ, जो आप सपने में भी लड़की देखते फिरते हैं?"-पत्नी पुरानी लालटेन की तरह भभक पड़ी। शृंगार रस के स्थान पर रौद्र रस उमड़ पड़ा।

"यह तुम मुझसे क्यों पूछती हो? उन लोगों से पूछतीं, जो सपने में मुझे अपनी लड़की दिखाने ले गए थे। मैं बिना बुलाए किसी के यहाँ नहीं जाता।" मेरा उत्तर सुनकर वे बहुत देर तक भुनभुनाती रहीं, फिर सुबह तक चुपचाप पड़ी रहीं। सुबह का चाय-नाश्ता सब बन्द। प्रायः इन एकांकी नाटकों का समापन धाराप्रवाह आँसुओं से होता रहा है।

पत्नी का रोना इतना महँगा नहीं पड़ता, जितना उनका हँसना। वे हँसती तभी हैं, जब उन्हें हमारी जेब पर हाथ साफ़ करके हमें फ़कीर बनाना होता है। जेब हल्की होने पर महीने भर फटकचन्द बनकर घूमना पड़ता है। जब मैं गली पार करता हूँ, तो दुकानदार भी मुझ पर काक दृष्टि रखते हैं; उनसे भी बचना पड़ता है। बच्चों की फरमाइशों को अगले महीने पर टालना पड़ता है, मानों अगले महीने मुझे ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने वाला हो। कुँआरे का क्या? किसी भाभी के घर चाय पी, किसी चाची के घर खाना खाया, किसी दोस्त के साथ चुगद की तरह एक ठौर से दूसरे ठौर तक घूमते रहे। 'जैसे काग जहाज़ को सूझै और न ठौर' की तरह इस गृहस्थी काग को जंग खाए और गृहस्थ के खटारा जहाज़ पर ही उड़कर आना पड़ता है। एक सर्द आह निकलकर रह जाती है-"काश! हम भी कुँआरे होते।" लेकिन क्या करें अपने भाग्य में कोल्हू का बैल बनना ही लिखा था।

सब कुछ सोचकर मन में एक संतोष है-यदि मैं शादीशुदा न होता तो दो जून का भोजन भी ठीक तरह से न मिल पाता। हमारी आरावागर्दी हमें अवश्य ले डूबती। हम कमाते रह जाते और हमारे स्वार्थी मित्र हमारी कमाई पर हाथ साफ़ करते रहते। अपनी दिलफेंक आदत के कारण जूते खाने पड़ते, सो अलग। हमें चाहे नरकवास करना पड़े, हमारी पत्नी को अवश्य स्वर्ग प्राप्त होगा, ऐसा उनको विश्वास है। एक दिन हमने कहा-"हमारे जैसे ईमानदार आदमी के साथ निर्वाह करने वाले को स्वर्ग की प्राप्ति अवश्य होगी।" पत्नी ने गम्भीरतापूर्वक कहा-" सो तो होगी ही। हम आपके साथ नरक जो भोग रहे हैं, मरकर स्वर्ग मिलेगा ही; क्योंकि नरक के बाद स्वर्ग ही मिलता है।

उस दिन हमको अपनी असली औक़ात का पता चला। अब मैं यह सोचने के लिए बाध्य हो गया हूँ कि 'नरक' भी भाग्यवान् को ही मिलता है। इसके लिए न जाने कितने कुँआरे लोग तरस कर मर जाते हैं!