काश, उल्टा होता / चित्तरंजन गोप 'लुकाठी'
मैं पलंग पर लेटा, कोई किताब पढ़ने में मगन था। मेरी बेटी प्रज्ञा बाहर खेल रही थी।सहसा वह दौड़ कर आई और बोली-- पापा, पापा,मैं सरकारी स्कूल में पढ़ूँगी।
मेरा कलेजा धक् कर गया। सहमते हुए पूछा-- क्यों?
"सरकारी स्कूल में पैसा मिलता है, पोशाक मिलती है और भोजन भी।"
"मिनी बोल रही थी कि उसे कल पैसा मिलेगा।"
"हाँ, छात्रवृत्ति। सरकार सरकारी स्कूल के बच्चों को अनुदान देती है।"
"आपको भी तो सरकार अनुदान देती है, पापा?"
"नहीं बेटा, वेतन देती है। मैं सरकारी नौकरी करता हूँ न?"
"तब तो और अच्छा होगा, पापा। सरकार आपको वेतन देगी और हमको अनुदान।"कहते हुए उसका चेहरा चमक उठा।
मैंने समझाते हुए कहा, "अरे, नहीं बेटा। जो नौकरी नहीं करते हैं और जिनके पास पैसे नहीं हैं, उन्हीं के बाल-बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं। मैं तो सरकारी नौकरी...।"
"ओ... । अब समझी।"
"तो...।" वह झुंझलाकर बोली, ' तो सीधे-सीधे क्यों नहीं कहते कि सरकारी नौकरी करने वालों के बाल-बच्चों का सरकारी स्कूल में पढ़ना मना है?"
प्रज्ञा कुछ देर के लिए चुप रही। फिर बड़ी मायूसी के साथ बुदबुदाई काश, उल्टा होता !