कासे कहूँ? / कविता वर्मा

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मेरे पिता ने बड़े नाजों से पाला मुझे,सदा सजा सँवार कर रखा मुझे, हरी नीली ओढ़नी पहराई. उस पर अनगिनत रंग बिरंगे फूल सजाये. मेरी चोटी में बर्फ के सफ़ेद फूलों की माला गुंथी. मैं खुश थी इठलाती फिरती थी लहरों के साथ उछलती थी, दिन रात अपनी नीली ओढ़नी को हवा में उड़ाते फूली नहीं समाती थी. वैसे तो कई दोस्त थे मेरे लेकिन मैं एक ऐसा दोस्त चाहती थी जो मुझसे खूब बातें करे मुझे सजाये सँवारे और मुझे सराहे. मेरे पिता भला मेरी इच्छा को कैसे टालते.

मुझे एक दोस्त मिला मेरा अपना दोस्त उसे पा कर बहुत खुश थी मैं. उसे मेरी ओढ़नी में लगे फूल अच्छे लगे मैंने उसे दिए , उसने मेरी सफ़ेद वेणी को पाना चाह मैंने उसे उस तक जाने दिया, लहरों की सवारी से ले कर मेरी सुन्दर ओढ़नी के टुकडे तक कर के उसे दे दिए लेकिन उसके लालच का तो जैसे कोई अंत ही ना था वो मांगता रहा मैं उसे देती रही. वह और माँगता रहा मैं उसे और देती रही. आज मेरा असीमित चीर टुकडे टुकडे हो कर बमुश्किल मेरा तन ढँक पा रहा है. उसका नीला रंग मटमैला हो गया है. और तो और मेरे बालों में गुंथी सफ़ेद फूलों की वेणी भी मसल कुचल दी गयी है. मेरे दोस्त ने ही मेरा स्वरुप विकृत कर दिया जिस पर मैं कभी इठलाती थी अब उस पर सिर्फ रोना आता है. अब मेरा ये दुखवा में कासे कहूँ?