किंगमेकर / पद्मजा शर्मा
आज बेमेल गठजोड़ की विवशता हर पार्टी के लिए आफत बन गई है। इससे पार्टी की विचारधारा और छवि को ठेस पहुंचती है।
सत्तासीन पार्टी ने खुद को बचाने के लिए निर्दलीय दयानन्द का समर्थन हासिल किया। अब दयानन्द खुला कह रहे हैं कि इसकी एवज में मुख्यमंत्री का पद लूँगा। वरना हाथ खींच लूँगा और यह भी कह रहे हैं कि मैं 'किंग मेकर' नहीं 'किंग' बनना चाहता हूँ।
कहने को तो उनके साथ बातचीत चल रही है। पर असल में सौदेबाजी हो रही है। सत्ता सुख के लिए. कुर्सी के लिए. कल किसने देखा। आज जो मिल जाए वह अपना। कुर्सी का साथ बना रहे तो पूरा हो जाए हर सपना।
इस तरह के समझौतों से पार्टियों को तात्कालिक लाभ तो हो जाता है मगर दीर्घकालिक नुकसान होता है। यह सच्चाई जानते हुए भी सभी पार्टियाँ गुड़ पर मक्खियों की तरह दयानन्द के आस-पास मण्डरा रही हैं। जाने दयानन्द किस की झोली में गिरें। ये गिरेंगे तभी वे उठ पाएंगे। उनके साथ खुली चर्चाएँ हो रही हैं। हर दिन के अपडेट्स जनता समाचार पत्रों में पढ़ रही है और अपना माथा धुन रही है। ऐसे हैं उनके नुमाइंदे।
मगर आज का अखबार ऐसी खबर लेकर आया कि जनता की बाछें खिल गई हैं। राजनीति और नेताओं पर घटता विश्वास पुन: पुख्ता होने लगा है। उम्मीद की किरण फूटती दिखाई दे रही है। पार्टी अध्यक्ष ने दूरदर्शिता का परिचय देते हुए निडर होकर साफ शब्दों में बयान दिया है कि 'जनता ने हमें खण्डित बहुमत दिया। हम उसकी कसौटी पर खरे नहीं उतरे। हमारी परफोर्मेंस में निश्चित रूप से कमी रही। उसे हम सुधारने का प्रयास करेंगे। अगर दयानन्द जी हमें बिना शर्त सपोर्ट करेंगे तो उस पर विचार किया जाएगा। अन्यथा नहीं। हो सकता है सरकार अल्पमत में आए. मगर जनता का बहुमत और प्यार ज़रूर मिलेगा। हमारा अनुभव बताता है कि जिस बन्धन की शुरुआत सौदे से होती है उसका अन्त टूटने से होता है। जब अन्त जानते हैं तो ऐसी शुरुआत क्यों की जाए? और दूसरी बात यह कि जो व्यक्ति' किंग मेकर'की भूमिका नहीं निभा सकता वह' किंग'बनने का भी अधिकारी नहीं।'