किं नर ? / ज्योत्स्ना शर्मा
तेज़-तेज़ क़दमों से चलती हुई वह अँधेरी गली के मोड़ तक तो पहुँच गयी। मस्ती में सीटी बजाते दोनों साये नज़दीक आते जा रहे थे। डर के मारे गला सूख गया और जी बैठा जा रहा था। मुँह से आवाज़ निकलती न थी कि लम्बी परछाइयों ने उसे दोनों तरफ़ से घेर लिया। धम्म से नीचे बैठ गई और मुँह को घुटनों में छुपा लिया। तभी तड़ाक की ज़ोरदार आवाज़ आई और फिर ...
किसी ने बाँह से पकड़कर उसे उठाना चाहा। कैसे सख़्त हाथ ...मन फिर से आशंकाओं में घिर गया।
उसने धड़कते दिल से आँखें खोलीं तो साड़ी का बार्डर देख सुकून आया।
हिम्मत बाँधकर उठी और बोली-बहुत अहसान है आपका मुझ पर।
भरी आँखों और रुँधे गले से उन्होंने कहा तुझ पर नहीं बिट्टो ...इन नालायकों पर...! ऐसे ही किसी पाप की सज़ा मैंने भुगती है जो ये करने जा रहे थे और तू ..., बोलना कब सीखेगी, तुझे चिल्लाना चाहिए -कहकर गली की ओर मुड़ गई।
अब कौन उन्हें बताए ऐसी आवाज़ें यहाँ सुनता कौन है?