कितना कंगाल है करोड़पति? / जयप्रकाश चौकसे

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कितना कंगाल है करोड़पति?
प्रकाशन तिथि :01 सितम्बर 2017


टेलीविजन पर 'कौन बनेगा करोड़पति' के ताजा संस्करण का प्रसारण प्रारंभ हो चुका है। अन्य कार्यक्रमों की तरह यह फॉर्मेट भी हमने आयात किया है। मौलिकता की जरूरत भी नहीं समझी जाती और उसके लिए प्रयास भी नहीं किए जाते! इसी कार्यक्रम की तरह 'बिग बॉस' भी आयात किया गया है। अपने प्रारंभिक दौर में दूरदर्शन ने मनोहर श्याम जोशी को विदेश भेजा था कि वे सोप ऑपेरा का अध्ययन करें। इसके प्रायोजक साबुन बनाने वाले हुए हैं, इसलिए इन्हें सोप ऑपेरा कहते हैं और ये गृहणियों के दोपहर के मनोरंजन के रूप में गढ़ा गया है। मनोहर श्याम जोशी की लिखी 'बुनियाद' की गुणवत्ता इस क्षेत्र में मील का पत्थर सिद्ध हुई। प्रथम लोकप्रिय कार्यक्रम 'हमलोग' था, जिसे देखने दुकानदार जल्दी दुकान मंगल करके घर लौट आते थे और बड़की की शादी राष्ट्रीय समस्या की तरह चर्चित थी।

उन दिनों रामानंद सागर की फिल्में असफल हो रही थीं, अत: वे दूरदर्शन की शरण में गए और उन्हें 'रामायण' बनाने का अवसर प्राप्त हुआ। उनके मित्र बलदेवराज चोपड़ा भी तुरंत ही 'महाभारत' बनाने की अनुमति लेकर आ गए। ज्ञातव्य है कि दूरदर्शन का मुख्यालय दिल्ली में मंडी रोड पर बना है और वह शीघ्र ही मनोरंजन क्षेत्र की बड़ी मंडी बन गया तथा रिश्वत दिए बिना सीरियल बनाने की आज्ञा नहीं मिलती थी। मंडी के साथ ही दलाल भी मैदान में आ गए। मंडी बनने के पहले गोविंद निहलानी की 'तमस' विवाद के घेरे में आ गई, क्योंकि देश के विभाजन पर केंद्रित इस कार्यक्रम से धर्म आधारित राजनीति करने वालों को चोट पहुंच रही थी। न्यायाधीश महोदय ने इतवार की छुट्‌टी के दिन अदालत लगाई और 'तमस' को दिखाए जाने की अनुमति मिली। उस प्रकरण का घटनाक्रम मनोरंजक फिल्म की कहानी को जन्म दे सकता है।

प्रतिक्रियावादी ताकतों ने पूरा जोर लगाया कि 'तमस' का प्रदर्शन रुक जाए। इस तरह हम देखते हैं कि विगत दशकों से न्यायालय ही गणतांत्रिक मूल्यों की रक्षा कर रहा है। जिन चार स्तंभों पर गणतंत्र टिकता है, उनमें से न्यायालय ही संघर्ष के समय जागरूक पाया गया है गोयाकि न्याय की जिस देवी की आंख पर पट्‌टी बंधी है, वही सब कुछ देख रही है और दुरुस्त करने का प्रयास भी कर रही है। सत्ता उसमें भी सेंध मारने का प्रयास कर रही है। सत्ता की मनमानी अवाम की उदासीनता से जन्म लेती है और चतुर सुजान ने कुएं में ही भांग डाल दी है। 'तनु वेड्स मनु' में राजशेखर की पंक्तियां हैं, 'खाकर अफीम रंगरेज पूछे ये रंग का कारोबार क्या है, कौन से पानी में कौन-सा रंग तूने घोला…' आजकल यही हाल है।

अदालतें भी सर्वव्यापी चरित्रहीनता की शिकार हुई हैं और ये कोई कल-परसों की बात नहीं है- श्रीलाल शुक्ल के 'राग दरबारी' में एक लंगड़ा व्यक्ति अदालत के चक्कर लगाता है। वह मुकदमा जीत भी गया है परंतु फैसले की प्रति देने वाले क्लर्क को रिश्वत नहीं देता। उसकी मृत्यु के समय फैसले की प्रति उस तक पहुंचती है गोयाकि फैसले की तरह ही महत्वपूर्ण है उसके अमल में होने तक जागरूकता बनाए रखना।

अदालत पर फिल्में भी बहुत बनी हैं। बलदेवराज चोपड़ा ने अपनी 'कानून' नामक फिल्म में जबर्दस्त सस्पेन्स रचा परंतु चोर और जज के हमशक्ल होने की पतली गली का उपयोग करके सारे प्रकरण को ही अर्थहीन बना दिया। कुछ वर्ष पूर्व ही 'जॉली एल.एल.बी.' के दोनों भाग मौजूदा हालात को प्रस्तुत करते हैं। कुछ ही वर्ष पूर्व मराठी भाषा में चैतन्य ताम्हाणे की 'कोर्ट' नामक फिल्म हमें विचलित कर देती है। फिल्म का केंद्रीय पात्र एक लोकगायक है, जो जगह-जगह जन जागरण के प्रेरक गीत गाता है और दलित दमित की पीड़ा को हृदय की गहराई से गाता है। सत्ता उसकी लोकप्रियता से हिल जाती है। शहर की अंडरग्राउंड सीवेज में काम करने वाला एक व्यक्ति भीतर की जहरीली गैस से मर जाता है परंतु सत्ता शिखर पर बैठे लोग यह मुकदमा कायम करते हैं कि लोकगायक के सत्ता के विरुद्ध भड़का देने वाले गीतों के कारण उसने खुदकुशी की है। कविता अगर असरकारक होती तो कबीर, अमीर खुसरो, सूरदास, मीरा इत्यादि के काव्य धरती पर स्वर्ग की रचना कर देते। अब तक कुमार अंबुज और पवन करण पर भी मुकदा कायम कर दिया जाना चाहिए था, परंतु ऐसा नहीं होने के दो कारण हो सकते हैं। पहला यह कि हुक्मरान को कविता पढ़ने या समझने का सलीका नहीं है। दूसरा यह कि हुक्मरान जानता है कि उसने बहुसंख्यक वर्ग को ऐसा बना दिया है कि वह चटखारे लेकर विरोध करता है परंतु मत हुक्मरान के ही पक्ष में देता है, क्योंकि अल्पसंख्यकों के प्रति ऐसी धारणा बना दी गई है कि अगर हुक्मरान हटा तो वे जेहाद कर देंगे। भय की यह हवा बड़ी चतुराई से गढ़ी गई है।

इसकी गढ़न को समझने के लिए इस पर गौर करें कि 'कौन बनेगा करोड़पति' के ताजा संस्करण में सत्ता पक्ष का गरिमागान किया जा रहा है। अधिकतर प्रश्न ऐसे गढ़े गए हैं कि तथाकथित विकास का ढोल पीटा जा सके। मसलन उत्तर प्रदेश में 'रोमियो एक्ट' एक क्रांतिकारी कदम है। रोटी, कपड़ा, मकान की मूल समस्या से ध्यान हटाया जा रहा है। इस कार्यक्रम के एंकर ने जनआक्रोश की छवि वाली भूमिकाओं से सब कुछ पाया परंतु वह स्वयं हमेशा सत्तापक्ष के साथ ही खड़ा था। हर दौर में उसे सत्तापक्ष का सिपहसालार होने की आवश्यकता नहीं है। वह हर तरह से सक्षम है, फिर भी उसे क्या भय है कि वह कभी विरोधी पक्ष में नहीं जाता? कभी उसे यह ख्याल नहीं आता कि पल दो पल को ही सही, अपनी आक्रोश की छवि को जी ले?