कितनी बेड़ियां, कितनी जंजीरें कितनी जेलें / जयप्रकाश चौकसे

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कितनी बेड़ियां, कितनी जंजीरें कितनी जेलें
प्रकाशन तिथि : 15 अगस्त 2014


राकेश रोशन एकमात्र फिल्मकार है जिसके यहां तीन लेखक माहवारी वेतन पर सप्ताह में पांच दिन सुबह दस से बारह बजे तक आपसी चर्चा करते हैं आैर कथा विचारों का आदान प्रदान होता है गाेयाकि विचार तालाब के किनारे मछली पकड़ने की तरह फिल्म बनाने लायक कहानियां खोजते हैं आैर जब कोई फिल्म निर्माणाधीन होती है तो उसी पटकथा को मांजने की कसरत करते रहते हैं। अभी हाल ही में एक मछली फंसी है आैर कथा में मानवीय रिश्तों की गहराई के साथ देशप्रेम के संकेत भी हैं जिन्हें हम बकौल कवि प्रदीप के कह सकते हैं "कि सम्हल कर रहना देश में छुपे गद्दारों से"। यह 'जागृति' का प्रसिद्ध गीत की एक पंक्ति है। बहरहाल विचार कथा की शक्ल में उफक पर पूरी तरह अभी नहीं उभरा है परंतु आकृतियां बहुत अस्पष्ट भी नहीं कि वे अपने सितारा पुत्र रितिक को नहीं सुना पाते। रितिक को कहानी पसंद है आैर उस पर बनी फिल्म की सफलता के प्रति उसके मन में कोई संदेह नहीं है परंतु उसका ख्याल है कि पिता-पुत्र ने लगातार चार सुपरहिट दी है आैर दर्शक की अपेक्षाएं उनसे अब आकाश छू रही हैं, अत विगत चार फिल्मों से अधिक भव्य फिल्म के आकलन में यह कहानी बहुत सार्थक होते हुए भी जमती नहीं। इस तरह भव्य सफलताएं बेड़ियां बन जाती हैं। भव्य, भव्यतर आैर भव्यतम के चक्र में क्या कुछ नहीं पिस जाता। बहरहाल कथा इतनी सशक्त है कि राकेश रोशन किसी अन्य निर्देशक आैर सितारे के साथ यह फिल्म बनाने पर विचार कर रहे हैं परंतु संवेदनशील निर्देशक खोजना कठिन है।

प्राय: कुशल निर्देशक स्वयं ही निर्माता बन जाते हैं। बहरहाल फिल्म की हांडी अभी धीमी आंच पर रखी है आैर जल्दबाजी यूं भी राकेश की फितरत नहीं। गौरतलब यह है कि इस दौर में कोई भी एक भी कदम फूंक कर नहीं रखता। राजकपूर ने बरसात, आवारा, श्री 420 के बाद बच्चों पर केंद्रित अल्प बजट की 'बूट पॉलिश' बनाई आैर 'जागते रहो' जैसी प्रयोगधर्मी फिल्म भी बनाई यह जानते हुए कि उसमें जोखम है आैर वह उनकी लोकप्रिय छवि के विपरीत इतनी संजीदा फिल्म है कि नायक का एकमात्र संवाद फिल्म की आखरी रील में है। वह संवाद भी कमाल था- "गंवई गांव से काम की तलाश में महानगर आए आदमी को बड़े शहर ने क्या सिखाया कि यहां सफलता की दौड़ में नीचे गिरे हुए लोगों की छाती पर पैर रखकर आगे बढ़ो..." क्या आज के दौर का पूर्वानुमान था राजकपूर को ? समय की सतहों के पार देखना रचनाधर्मिता का अनिवार्य अंग है।

बिमल रॉय ने 'देवदास' जैसी प्रशंसित फिल्म के बाद अल्प बजट की 'परख' बनाई आैर उसमें भी आने वाले वक्त की झलक मौजूद थी। गुरुदत्त 'कागज के फूल' की व्यवसायिक असफलता से घबरा कर 'साहब बीबी गुलाम' जैसी फिल्म बनाने से चूके नहीं। उस दौर में छवियां गढ़ी जाती थी आैर उनकी बेड़ियों में स्वयं को जकड़ा नहीं जाता था। किशोर साहू ने 'सिंदूर' जैसी सार्थक सफलता के बाद 'मयूरपंख' जैसा प्रयोग नए कलाकारों के साथ किया। अगले वर्ष किशोर साहू का जन्म शताब्दी वर्ष है। अमिया चक्रवर्ती ने 'दाग' आैर 'सीमा' की सफलता के बाद साहसी 'पत्तियां' बनाई। विजय आनंद ने 'गाइड' सी क्लासिक के बाद 'ज्वेल थीफ' बनाई आैर संजीदा 'तेरे मेरे सपने' की विफलता से नाराज होकर सफल 'जॉनी मेरा नाम' बनाई आैर साबित किया कि उन्हें इस तरह का काम भी आता है। 'जोकर' के बाद दावा करके राजकपूर ने सफल बॉबी रची।

'सत्यकाम' जैसी संजीदा फिल्म के बाद ऋषिकेश मुखर्जी ने 'आनंद' बनाई। पूरे सिने इतिहास में अनेक फिल्मकारों ने किसी किस्म की बेडिय़ों में खुद को नहीं जकड़ा आैर ना ही असफलता के भय के हव्वे से वे लोग डरे। आमिर खान ने उसी परम्परा का निर्वाह करके भव्य 'लगान' के बाद 'तारे जमीं पर' बनाई। विगत बाजार शासित वर्षों में स्वयं सितारे ही अपनी सफल छवि के बाहर नहीं जाना चाहते। सलमान खान अच्छा अभिनेता है परंतु अपनी छवि की सरहदों के बाहर स्वयं में छुपे नए क्षितिज की तलाश में जा नहीं पाते। अजय देवगन ने प्रकाश झा की 'गंगा जल' आैर 'अपहरण' में उन ऊंचाई को छुआ जिसका वादा उसने महेश भट्ट की फिल्म में किया था। संभवत: अपनी महत्वकांक्षी 'राजू चाचा' की असफलता के बाद उन्होंने 'सिंघम' की सुरक्षा में स्वयं को जकड़ रखा है परतु उन्होंने 'गोलमाल' में हास्य में भी सफलता रची। उनसे अभी प्रयोग की उम्मीद की जा सकती है। दरअसल जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी अनेक लोग छवियों से बंधे हैं, जाने कैसी बेडिय़ों में इंसान स्वयं को जकड़ लेता है। कितनी जेलें स्वयं हमने गढ़ी हैं। जीवन का स्वाभाविक प्रवाह किसी बांध में नहीं जकड़ा जा सकता। बकौल शैलेंद्र 'थम गया पानी, जम गई काई, बहती नदिया ही साफ कहलाई'।