कितने आदमी थे ? / जयप्रकाश चौकसे

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कितने आदमी थे ?
प्रकाशन तिथि : 03 सितम्बर 2013


दीप्ताकृति चौधरी की लिखी किताब 'कितने आदमी थे?' 2012 में प्रकाशित हुई है। वेस्टलैंड लिमिटेड ने लगभग 300 पृष्ठ की इस किताब को 275 रुपए प्रति कॉपी मूल्य पर प्रकाशित किया है। यह एक अत्यंत मनोरंजक पुस्तक है, जिसमें फिल्मों के बारे में मजेदार जानकारी है। फिल्म की नामावली से लेकर अंत तक के बारे में पठनीय शैली में लिखी किताब में इस तरह की जानकारी भी है कि फिल्मों में कौन-सी बीमारियों से पात्रों को ग्रसित होते दिखाया गया है, कितने प्रकार के दोस्तों का विवरण है। इसके एक अध्याय में फिल्मों में प्रस्तुत शिक्षक कितने प्रकार के दिखाए जाते हैं और लहजा निहायत ही मजाकिया है, जैसे 'मोहब्बतें' का शिक्षक किस ढंग से 'अनुशासन' उच्चारित करता है और 'मैं हूं ना' में सुष्मिता सेन पढ़ाना छोड़कर सब कुछ करती हैं। जाने कैसे लेखक 'मेरा नाम जोकर' की शिक्षिका सिमी गरेवाल और उनके प्रिय छात्र ऋषि कपूर को भूल गया।

एक अध्याय में हॉलीवुड की 'प्रेरणा' से सात किस्म के प्लॉट चुराए जाने के बारे में जिक्र है और लेखकीय शैली इस तरह है कि इस अध्याय का प्रारंभ ही करण जौहर के कॉफी प्रोग्राम में जावेद अख्तर अपना अनुभव सुनाते हैं कि उनकी एक कहानी निर्माता को पसंद आई, परंतु मौलिक होने के कारण उसने फिल्म बनाने से इनकार कर दिया और अगले ही पेज पर सलीम-जावेद की 'शोले' में कितनी विदेशी फिल्मों से दृश्य लिए गए हैं, इसका विवरण है। दरअसल, यह तरीका भी मखौल उड़ाने से ज्यादा मजाकिया ही माना जाना चाहिए। आश्चर्य की बात यह है कि अकीरा कुरुसावा की 'सेवन समुराई' से 'प्रेरित' फिल्में अनेक देशों ने बनाई हैं और शायद शरतचंद्र के 'देवदास' से भी अधिक बार 'सेवन समुराई' बनाई गई है, परंतु मूल का केन्द्रीय विचार किसी भी संस्करण में दिखाई नहीं देता। गांव 'सभ्यता' है और डाकू 'असभ्य' हैं, परंतु सभ्य लोग अपनी रक्षा के लिए समाज के हाशिए पर खड़े योद्धाओं से सहायता लेते हैं और संकट दूर होते ही अपने मददगारों से मुंह फेर लेते हैं, गोयाकि 'सभ्य लोग' संकट मुक्त होते ही अपने स्वाभाविक टुच्चेपन पर लौट आते हैं।

इसी किताब के एक अध्याय में उन फिल्मों का विवरण है, जो आदरांजलि के तौर पर बनाई गई हैं, जैसे कुंदन शाह एंटोनियोनी की 'ब्लो-अप' के मूल विचार से प्रेरित होकर 'जाने भी दो यारो' बनाते हैं तो पार्क का नाम 'एंटोनियोनी' रखा है। दरअसल 'ब्लो-अप' एक गंभीर दार्शनिक फिल्म है और कुंदन शाह की फिल्म भ्रष्टाचार के खिलाफ पहला सिनेमाई प्रयास है।

चौधरी की यह किताब इस विवरण को भी देती है कि कितनी फिल्मों में किस धर्म के पात्र रचे गए हैं। कुछ महत्वपूर्ण पात्रों की सीधी टक्कर के दृश्यों का वर्णन भी प्रस्तुत किया गया है। यह एक फिल्म प्रशंसक द्वारा लिखी किताब है। लेखक का ब्लॉग है - कलकत्ता क्रोमोसोम (द्धह्लह्लश्च:/स्रद्बश्चह्लड्डद्मद्बह्म्द्बह्ल.ड्ढद्यशद्दह्यश्चशह्ल.ष्शद्व).

हिंदुस्तानी सिनेमा की ताकत ही उसके प्रशंसकों के जुनून से आती है और प्रशंसकों का सही मूल्यांकन फिल्मकार नहीं कर पाते। सितारे भी उस जमीन को अनदेखा करते हैं, जिस पर उनकी लोकप्रियता का भवन खड़ा है।

भारतीय फिल्मकारों का सबसे बड़ा झूठ यह है कि वे अपने प्रशंसकों को कमतर आंकते हैं और श्रेष्ठ फिल्म नहीं रच पाने की अपनी कमजोरी का सारा दोषारोपण दर्शक की 'नासमझी' पर जड़ देते हैं। सच्चाई यह है कि दर्शक समझदार हैं और वे मूर्खतापूर्ण फिल्में भी देखते हैं, क्योंकि इनमें भी मनोरंजन खोजने की उनमें सहज बुद्धि है। फिल्मों पर प्रकाशित किताबों में यह प्रयास अनूठा और अत्यंत पठनीय है। यह किताब फिल्मों के एक दीवाने का शुकराना है और फिल्मकारों को चेतावनी है कि 'ये पब्लिक सब जानती है।'

वर्ष 2000 में प्रदर्शित फिल्म 'मोहब्बतें' के लिए शाहरुख खान को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्म फेयर क्रिटिक्स अवॉर्ड प्राप्त हुआ था।