कितने पाकिस्तान / कमलेश्वर / पृष्ठ 7

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क़ब्रिस्तान और श्मशानों के बीच जीवन की जिरह
समीक्षा : सुधीश पचौरी

कमलेश्वर का यह उपन्यास मानवता के दरवाजे पर इतिहास और समय की एक दस्तक है...इस उम्मीद के साथ कि भारत ही नहीं, दुनिया भर में एक के बाद दूसरे पाकिस्तान बनाने की लहू से लथपथ यह परम्परा अब खत्म हो....।

'कितने पाकिस्तान' उपन्यास एक बड़ा और नए ढंग का उपन्यास है. उसमें एक ज़बर्दस्त जिरह छिड़ी है जो हर एक धर्मतावादी को हिलाकर रख सकती है.

उपन्यास हिंदू, मुसलमान, सिख सबकी तरफ़ लगातार सवाल खड़े करता है कि मित्रता बड़ी है या शत्रुता? प्रेम बड़ा है या घृणा? अपने असाधारण इतिहास बोध के सहारे कमलेश्वर भारत की पाँच हजार साल लंबी परंपरा में इतिहास के उन तमाम विभाजनकारी रक्तरंजित और असह्य प्रसंगों को एक दूसरे में अपनी क़लम की करामात से इस क़दर मिलाकर रख देते हैं कि समग्र मानतावादी विमर्श उठ खड़ा होता है.

दरअसल यह साधारण कहानी भर नहीं है. यह साहित्यकार की एक लोक अदालत है जिसमें हर उस मृत व्यक्ति पर मुक़दमा चलता है जिसने इस महान सभ्यता को तार-तार करने की कोशिश में घृणा के बीज बोए हैं.

यह क़ब्रिस्तान और श्मशानों के बीच जीवन की जिरह है. कोई साहित्यकार यही कर सकता है और फ़ैसला पाठक पर छोड़ दिया जाता है.

इस तरह हिंदी के एक सतत लिबरल लेखक ने लिबरलिज़्म की ताक़त को स्थापित किया है.

यहाँ गिलगमेश, एकिंदू, अशोक, बाबर, औरंगज़ेब से लेकर अशोक सिंघल, गाँधी, जिन्ना और इतिहास के ढेर सारे खलनायक और नायक अदालत में पेश होते हैं.

उपन्यास के असल नायक वक़्त की रवानी में एक दूसरे में इस क़दर पिरो दिए गए हैं कि हिंदू मुस्लिम का अलगाव ठहर नहीं पाता. एक अनमोल साझापन निखर आता है, कमलेश्वर इसी साझेपन को तलाशते रहते हैं.

इस नज़र से यह उपन्यास हिंदी लेखन से भी एक जिरह है.

उस पर भी एक तरह से अभियोग है कि उसने अपना सही काम क्यों नहीं किया. कमलेश्वर की लेखकीय व्यथा इस उपन्यास की हर लाइन में सिसकती नज़र आती है.

भारत यहाँ मिश्रित संस्कृतियों का एक विराट कोलाज है जिसमें लेखक कोई विभक्ति नहीं चाहता और विभाजनकारी इन दिनों में अपनी जिरहवादी जादुई शैली से जवाब देता है कि अगर अब भी कहीं कोई रौशनी बची है और बच सकती हो तो साहित्य और साहित्यकार के लोक में ही बच जाती है.

उपन्यास हिंदी लेखन और लेखक के आगे एक नई एकता क़ायम करने का मानवतावादी एजेंडा रखता है.

उपन्यास के असल नायक वक़्त की रवानी में एक दूसरे में इस क़दर पिरो दिए गए हैं कि हिंदू मुस्लिम का अलगाव ठहर नहीं पाता.

"कमलेशवर ने उपन्यास के बने-बनाए ढाँचे को तोड़ दिया है और लेखकीय अभिव्यक्ति के लिए सब कुछ सम्भव बनाने का दुर्लभ द्वार खोल कर एक नया रास्ता दिखाया है।" - विष्णु प्रभाकर

"यह उपन्नास बीसवीं सदी की उपलब्धि है। अच्छी पुस्तकें हर काल में सामने आती हैं, आती रहेंगी, लेकिन यह पुस्तक जिस मुकाम पर पहुँची है, वहाँ हमेशा बनी रहेगी ।" - अमृता प्रीतम

"एक अविस्मरणीय और महान कृति। हिन्दी में राष्ट्रीय समस्याओं की ऎसी गम्भीर पड़ताल करता हुआ, इतने गहरे बौद्धकि विम्रश वाला उपन्यास अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है।" - इंडिया टुडे

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