किताबें देखी जाती हैं, फिल्में पढ़ी जाती हैं / जयप्रकाश चौकसे

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किताबें देखी जाती हैं, फिल्में पढ़ी जाती हैं
प्रकाशन तिथि : 09 नवम्बर 2019

आज इस कॉलम के लिखे जाने के 24 वर्ष पूरे हो रहे हैं। पाठक और भास्कर परिवार को धन्यवाद देता हूं। इसके लेखन ने मुझे बेहतर इंसान बनाया है। विचार प्रक्रिया में सकारात्मकता आई है। पहले कभी विचार आया था कि एक कत्ल ऐसा करूं कि पुलिस के हाथ कोई सुराग न आए। इससे भी अधिक भयावह विचार आते रहे। भांग की पकौड़ी खाते हुए समय बीत रहा था और अब तो सारे कुओं में ही भांग पड़ गई है। किताबें पढ़ने का शौक हमेशा रहा है, परंतु इस कॉलम को लिखने के लिए दोगुने उत्साह से किताबें पढ़ीं। लेख लिखते समय मेरे सामने मेरे पाठक के बैठे होने का एहसास होता रहा और वह अदृश्य पाठक मुझ पर लगातार निगरानी रखता रहा है कि कहीं चूक न हो जाए, परंतु गलतियां हुई हैं। जैसे कोई परफेक्ट अपराध नहीं किया जा सकता। वैसे ही कोई लेख परफेक्ट नहीं होता। मनुष्य की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि वह अपने अधूरेपन के बावजूद निरंतर सक्रिय बना रहता है।

लेख का विषय खोजने में लेख लिखने से अधिक जद्दोजहद होती है, क्योंकि विषय से संबंधित फिल्म का मिलना जरूरी है। उससे जुड़ी कोई कविता को भी गुम होती हुई याददाश्त में से खंगालना होता है। विचार प्रक्रिया के कूड़ेदान में चीजें बिखेरकर फिर समेटनी होती हैं। ग्राहक का इंतजार करता हुआ दुकानदार अपने तराजू को उलटता-पलटता है। जबकि युक्ति के तहत पलड़े के नीचे चुंबक रख दिया जाता है कि ग्राहक को कम तौलकर दिया जा सके? अपने भीतर कुछ छिपे आलस्य और काइंयापन से जूझना आसान नहीं होता।

एक दुकानदार के यहां उसका कर्जदाता वसूली के लिए प्रतिदिन आता था और दुकानदार नित्य नए बहाने बना देता था। एक दिन उसका पुत्र दुकान पर बैठा था और उसने पिता को बताया कि अब महाजन नहीं आएगा, क्योंकि उसने महाजन से कहा है कि दुकान के सामने लगा पौधा जब वृक्ष बन जाएगा और फल देने लगेगा तब कर्ज अदा करेंगे। पिता ने पुत्र को थप्पड़ मारा और कहा कम्बख्त आखिर तूने उसे कर्जअदायगी का सही समय बता ही दिया। कुछ ऐसी ही परेशानी लिखते समय होती है कि समय पर लेख नहीं पहुंचा तो भास्कर दफ्तर से फोन आ जाएगा।

कुछ फिल्म वालों से बड़ी पुरानी यारी है और उनसे फोन पर रोज ही बातचीत होती है। इसलिए खिचड़ी पकने से पहले उसमें कितनी दाल, कितने चावल डाले गए हैं, इसकी जानकारी बहुत सहायता देती है। विदिशा का एक पाठक गाय का घी दे गया कि सेहत ठीक रहे। उस मिडिल क्लास पाठक ने बताया कि उसे मेरे लेख पूरी तरह समझ नहीं आते, परंतु वह जानता है कि ठीक लिखा गया है। इस बात से समझ में आया कि पूरा समझाना जरूरी नहीं है। इसलिए मुझे टीएस इलियट की 'द वेस्ट लैंड' महान लगी जबकि उसे मैं समझ नहीं पाया। टीएस इलियट को समझने के लिए संस्कृत का ज्ञान आवश्यक है, परंतु विचार आता है कि क्या किसी कविता में छिपे सभी अर्थ समझने के लिए इतना परिश्रम किया जाए? इसी अनुभव के कारण मैंने अपने लेख को सरल बनाने का पूरा प्रयास किया है। पत्रकार मुझे अपनी बिरादरी में शामिल नहीं करते। उनका विचार है कि लेख में किस्से-कहानियां होती हैं। गोयाकि खाकसार किस्सागो है, पत्रकार नहीं। साहित्यकार पांच कहानियों और दो उपन्यासों के प्रकाशित होने के बावजूद मुझे अपनी बिरादरी का सदस्य नहीं मानते, क्योंकि इन रचनाओं में फिल्मों का विवरण है। उदय प्रकाश ने फोन पर एक कहानी की प्रशंसा की थी और फिल्म समावेश को सराहा था। इस तरह पढ़ने-लिखने की दुनिया में खाकसार रूरीटेनिया का निवासी है। रूरीटेनिया एक काल्पनिक स्थान है। इंदौर स्थित विभावरी संस्था के सदस्यों ने मुझे पैर साफ करने की चटाई दी है। जिस पर लिखा है कि इस घर के सारे पात्र काल्पनिक हैं। परी कथाओं के विवरण मुझे तथ्य लगते हैं और घटनाओं की खबरें मुझे काल्पनिक लगती हैं। जनाब जावेद अख्तर साहब ने कहा कि अगर मैंने अंग्रेजी भाषा में लिखा होता तो देश-विदेश से मुझे भाषण देने के लिए निमंत्रित किया जाता, परंतु मेरा विश्वास रहा है कि मनुष्य को उस भाषा में लिखना चाहिए जिसे झाड़ू की तरह इस्तेमाल करके वह अपने अवचेतन में जमा कचरे को बाहर कर सके।