किताबों की अंतिम यात्रा / सुरेश कुमार मिश्रा
फटी, पुरानी, रद्दी अब यही मेरे नाम रह गए हैं। किसी लेखक के पुस्तक विमोचन स्थल से जब मैं पहली बार इस लेखक के घर पर आयी थी, उनका मेरा प्रति स्नेह छिपाये नहीं छिपता था। कभी वे मुझे अपनी अंगुलियों से सहलाते तो कभी थूक की नरमी से मेरे पन्ने पलटते। अब वह बात नहीं रही। घर में प्रवेश करने के कुछ दिन तक मैं उनके हॉल की शोभा बनी रही। चूँकि हॉल में रखी शीशे की अलमारी में जगह सीमित थी, सो वहाँ मुझे अधिक दिन तक रहने का सुख नहीं मिला। जल्द मुझे वहाँ से घसीट बाहर किया गया। कुछ दिन तक घर की अलग-अलग मेजों पर मैंने अपना आसन जमाया। कहते हैं जब ज़िन्दगी घुमक्कड़ बन जाती है तब अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए किसी न किसी तरह मौजूदगी दर्ज करानी पड़ती है। मैं आकार में थोड़ी मोटी थी। मेरा जिल्द रूपी लिबास मज़बूत होने के कारण मैं बहुत सारे काम कर लेती थी। मसलन लेखक या उनकी पत्नी, बच्चे चाय, कॉफी या दूध का कप मेरी पीठ पर रख देते थे। इससे मेरे बदन पर गोल-गोल निशान पड़ जाते थे। मैं पढ़ने में उपयोगी थी या नहीं यह तो लेखक ही बता सकते थे, लेकिन मैं मच्छर, झिंगूर, कीड़े-मकौड़े मारने के एकदम योग्य थी। मेरे अंग-अंग पर उन कीटों के खून के निशान चीख-चीखकर गवाही देते थे। कई बार रद्दी खरीदने वाले के हाथों लेखक की पत्नी मुझे बेचने की कोशिश करती थी। वह तो लेखक थे, जो मुझे एक से दो बार उलट-पुलटकर देखते और फिर से स्टोर रूम में रख देते थे।
यह दीन गाथा केवल मुझ जैसी एक किताब का नहीं स्टोर रूप में पड़ी कई किताबों का था। अक्सर हम सब मिलकर आपस में बात भी करते थे। हम अपने इस दुर्भाग्य पर रोते कि हमें हॉल में रखी शीशे वाली अलमारी में जगह क्यों नहीं मिलती। इसका भी एक दिन पर्दाफाश हो गया। स्टोर रूम में पड़ी एक दुबली-पतली, जिसकी जिल्द फट चुकी थी और अपने जीवन की अंतिम सांसे गिन रही थी, ने बताया–"एक दिन हॉल में मेरे सामने ही लेखक किसी से बात कर रहे थे। सामने वाले ने जब लेखक से पूछा कि आप इतनी सारी पुस्तकें उठा लाते हैं, उन्हें रखते कहाँ है? आपकी विद्वत्ता को भला यह अलमारी क्या संभाल पाएगी?" तो लेखक मुस्कुराते हुए प्रत्युत्तर में कहते हैं–"आप ठीक कहते हैं। अब देखिए न जहाँ कहीं भी चला जाता हूँ कोई न कोई मुझे पुस्तक थमा देता है। कोई समीक्षा लिखने के बहाने थमा देता है तो कोई सैंपल के रूप में। अब मैं आपको क्या बताऊँ किसी को न नहीं कह सकता। इसलिए सबकी किताबें उठा लाता हूँ। घर लाने पर श्रीमती जी की डाँट अलग से खानी पड़ती है। इन किताबों के चलते यह घर, घर नहीं रद्दीखाने-सा लगने लगा है। चूँकि सभी किताबें अलमारी में रखी नहीं जा सकती, इसके लिए मैंने बीच का रास्ता अपनाया है। अलमारी में उपयोगी शब्दकोश और मेरी लिखी किताबों के अतिरिक्त शेष सभी किताबों को स्टोर रूम में रख दिया है (फेंक दिया है) । जब आवश्यकता पड़ती है तब ढूँढ़कर निकाल लेता हूँ।" इतना सुनना था कि स्टोर रूम में पड़ी हम सभी किताबों का घमंड चकनाचूर हो गया। हम इस भुलावे में थे कि लेखक हमसे प्यार करते हैं। वह तो अब जाकर पता चला कि वे हमें मजबूरी में ढो रहे थे।
एक दिन हमारे बीच लेखक का फ़ोन आ बैठा। हमने उससे पूछा कि कहीं तुम भी बेकार तो नहीं हो गए, तो इस पर उसने कहा-"मैं भला बेकार कैसे हो सकता हूँ। लेखक तो मुझे अपनी पत्नी-बच्चों से भी अधिक प्रेम करते हैं। जितना समय मुझ पर बिताते हैं, उतना समय किसी को नहीं देते। वह तो लेखक की लड़की उनसे मज़ाक करने के लिए मुझे यहाँ छिपा रखा है। वरना तुम्हारी इतनी हैसियत कि मेरी बराबरी कर सको। एक बात और आजकल वे सब कुछ पढ़ने लिखने का काम मुझी पर करते हैं। पहले कभी भूल से स्टोर रूप में तुम्हारी ज़रूरत समझकर क़दम रख देते थे, अब तुम्हारी खैर नहीं। अभी कुछ देर पहले ही उनकी रद्दीवाले से मुझ पर बात हुई थी। वह रास्ते में ही होगा। अब इस स्टोर रूम में तुम्हारा कोई काम नहीं है। आज से तुम सबकी छुट्टी।"
इतना सुनना था कि हमारा कलेजा बैठ गया। हमें रद्दीवाले से बहुत डर लगता था। वह हमारी नज़र में किसी कसाई से-से कम नहीं था। जिस तरह कसाई जीव का गला काटकर उसके अंग छिन्न-भिन्न कर देता है, ठीक उसी तरह रद्दीवाला हमें थोक के भाव में खरीदकर हमारी जिल्द और पन्नों के साथ उपर्युक्त व्यवहार करेगा। चूँकि अब यह हमारी अंतिम यात्रा है, तो हम भगवान से केवल इतनी प्रार्थना करते हैं कि हमें अगले जन्म में कुछ भी बना दे, लेकिन किताब हरगिज़ न बनाए।