किताब प्रमोशन और रचना की ताकत / कौशलेन्द्र प्रपन्न
काव्य के प्रयोजन में बताया गया है कि यश, कीर्ति, भार्या सुख, अर्थ आदि की प्राप्ति। इन्हें ही काव्य शास्त्र में प्रयोजन माने गए हैं। इन्हीं तत्वों की प्राप्ति की लालसा में कोई भी रचनाकार अपनी रचना को सिरजता है। आज के संदर्भ में देखें तो कवि, लेखक, कथाकार आदि प्रसिद्धि, अर्थ, कथा जगत में उन्हें सभी जानें, सोशल मीडिया में उन्हें हजारों की तदाद में लाइक्स और कमेंट्स मिलें और उनकी तस्वीरों को खूब पसदं किए जाएं आदि। संदर्भ और समय के साथ यश और कीर्ति के स्वरूप भी बदलने लाजमी हैं। इससे किसी को कोई गुरेज नहीं हो सकता। लेकिन ज़रा ठहर कर विचार करने की आवश्यकता है कि क्या लेखक महज तात्कालिक प्रसिद्धि और प्रचार के लिए ही लिखता है? क्या उसका प्रयोजन अपनी पहचान स्थापित करने की लालसा भर पूरी करनी होती है? आदि। ऐसे कुछ सवाल हैं जिनका जवाब हमें देना होगा। दरअसल पाठकों के कंधे पर जिम्मेदारी डाल कर कुछ भी लिखना लेखकीय दरकार को सीमित करना होता है। जब लेखक लिखता है तो वह अपने समय की तमाम चुनौतियों से टकराने का माद्दा तो रखता ही है साथ ही उससे आगे निकलने की राह भी दिखाने की कोशिश करता है। यदि लेखक सिर्फ़ आनंद प्राप्ति भर के लिए लिख कर आगे बढ़ जाता है तब हम उसे सम्यक प्रयोजन हासिल करने वाली रचना नहीं मान सकते। क्योंकि कहीं न कहीं लेखक अपने परिवेश, समाज और सामाजिक बुनावट को रचना में गुंफित करता है। इस बुनावट में बड़ी सावधानी से लेखक भाषायी भूगोल की भी रचना करता है। जो लेखकीय आनुभविक जमीन से उपजी होती है। लेखकीय अनुभव और रचना प्रक्रिया पर कथाकार, उपन्यासकार प्रियदर्शन ने कहीं लिखा है "कोई भी लेखक अपने समय और समाज से कटकर बड़ा नहीं हो सकता। कोई भी लेखक अगर अपने अनुभव संसार के बाहर जाकर लिखता है, तो वह कुछ कुतूहल भले पैदा कर ले, कुछ वाग्जाल भले खड़ा कर ले, बड़ी रचना नहीं कर सकता। अपने अनुभव की आंच में पककर ही कोई रचना बड़ी होती है।" इन पंक्तियों की रोशनी में जब नीलिमा चौहान की "पतनशील पत्नियों के नोट्य" को देखने-समझने की कोशिश करते हैं तब एक आश्चर्य और उत्सुकता पैदा होती है। उस उत्सुकता का शमन कई बार रोमांच, कई बार हैरानी तो कई बार ताज्जुब पैदा करता है।
लेखिका ने बड़ी बेबाकी से उन क्षणों, परिघटनाओं को चुटकीले अंदाज में बयां किया है जिसे पढ़ने, आत्मसात करने और पचाने में वक्त और तैयारी की आवश्यकता है। चुटकीले अंदाज और भाषायी भूगोल का कुछ ऐसा संयोग है कि एकबारगी महसूस होता है कि लेखिका कितनी जल्दीबाजी व तुरत फुरत में एक बेचैनीयत में शब्दों और भाषा के साथ बरताव किया है। इन पंक्तियों को पढ़ते हुए महसूस होता है कि यह दो पाठक वर्गों के लिए लिखी गई है। पहला वह जो पढ़कर मचल उठे और दूसरा वह वर्ग जो पढ़ते हुए कुढ़े कि स्वछंद और आजाद मना लेखन ऐसा भी होता है। इस लेखन में एक उन्मुक्तता तो है साथ ही ख़ुद को निर्भीक और आजाद ख़्याल लेखिका के तौर पर स्थापित करने की छटपटाहट भी सुनाई देती है। "हाय! अपनी तमाम कोशिशों के बाद भी मैं ख़ुद को भरावदार, बुलंद छातियों के तिलिस्म से आजाद नहीं कर पा रही हूँ। हां कह तो रही हूँ कि मैं भी दूसरी औरतों की तरह अपनी छातियों के उभार, कसाव और आकार को लेकर अभिभूत हूँ।" पेज 34 कुछ इन्हीं रेखाओं में दौड़ती और भी अभिव्यक्तियां इस किताब में मिलेंगी जिसे पढ़ते हुए महसूस हो सकता है कि कितनी बारीक बुनावट और स्पष्ट दिखाई देने वाली पंक्तियां लिखी गई हैं जिसे पढ़ते हुए पाठक रोमांच से भर सकता है। पाठक कुछ देर ठहर कर दुबार पढ़ने के लोभ से बच नहीं सकता। एक और उदाहरण देखिए, "यक़ीनन आपकी कामुक फैंटेसी में भव्य सीने वाली औरत का चेहरा मुझसे मिलता-जुलता-सा होता?" पेज 35.
"बवाल ए जान ब्र्रा" शीर्षक बहुत कुछ कह देता है कि इस शीर्षक किस मुद्दे पर बात की गई होगी। हां यदि आपको ब्रा के विभिन्न बाजारीय चाल, स्वरूपों और आकार प्रकार, नाम नहीं मालूम तो लेखिका बड़ी शिद्दत से आपका ज्ञान वर्द्धन करती हैं। "पूरी दुनिया को बिगर, फुलर, सेक्सियर छातियों से अभिभूत कर देने पर आमादा बाजार। अमांते, एनामोर, कर्वी कोटोर, अंडरवायर ब्रा, मैक्सिमम और डबल पैडिड ब्रा, बैकलेस ब्रा, स्टैपलेस ब्रा, रिवीलिंग ब्रा, मैक्सिमम कवरेज ब्रा, पुशअप ब्रा, कोरसेट ब्रा।" पेज 33 जिस बाजारीय नजरिये की ओर लेखिका पाठकों का ध्यान खींच रही हैं कई बार लगता हैकि वे मर्द निर्मित, संचालित बाज़ार में ब्रा को लेकर किस प्रकार की मार काट है। लेकिन इन्हें पढ़ते हुए एक बार ही सही महसूस होता हैकि क्या इसकी आवश्यकता थी?
पतनशील पत्नियों के नोट्स किताब दरअसल कई छटाओं को छूने की कोशिश है। लेखिका नीलिमा चौहान ने कथा बुनने, नोट्स लिखने, टिप्पणी के बहाने कई बार गहरी चुटकी पुरूष समाज को काटती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो तंजीया अंदाज में बहुत कुछ कह देना और हल्के हो जाने के तर्ज पर लिख दी गई हैं। वहीं दिल्ली के आइएसबीटी, निगम बोध घाट आदि के गाड़ी से गुजरते हुए मुर्दा गाड़ी के गुजरने और आम गाड़ियों के चालकों के रवैए को पकड़ती हैं। जो इस किताब के मिज़ाज जो तय किया गया हैउससे मेल नहीं खाता। 'टेफिक जाम में मुर्दागाड़ी' में हमें मुर्दा की ग़मज़दगी, सूनापन और ज़िंदगी की कांतिहीन चेहरों, एहसासातों को समेटे हुए है। पेज 61
घरेलू महिलाओं को ताकीद करती लेखिका लिखती हैं " असुविधाजनक परिधानों के बंधनों में रपट खाने और उंची हील की खेमे पर लुढकने को नज़ाकत समझने और इस नज़ाकत को सुंदरता समझने के वहम से निकलो। तुम सुंदर बनो पर दूसरों के लिए अपनी आज़ादी और सुख की कीमत पर नहीं। बस अपने लिए संदर बनना शुरू करो। तुम पाओगी कि तुम धीरे-धीरे सुंदर बनी रही हो, सब को सुंदर दिख रही हो। सुंदर और सहज। यहाँ लेखिका ने उन तमाम महिलाओं को समझाने की कोशिश की है कि बिलावजह दूसरो को खुश करने के लिए अपने शरीर और पहनावे में मत उलझ कर रह जाना। बल्कि आजादी की यात्रा मंे यह एक बंध नहीं हैं। जिनसे तुम्हे मुक्त होना होगा।
केंटेंट के बदौलत ही कोई भी रचना याख किया करती है। इस यात्रा में उसकी विवेचना, विश्लेषण, समीक्षाएं हुआ करती हैं। लेखक की शैली, भाषा, कथ्य ज़्यादा मुखर होता है। लेखक कुछ देर के लिए स्मृति पटल से दूर चला जाए किन्तु उसकी रचना और रचना का भूगोल हमेशा पाठकों के सिरहाने हुआ करता है। इस लिहाज से देखें तो पतनशील पत्नियों के नोट्य बहुत लंबी यात्रा तय कर पाएंगी इसमें संदेह है। क्योंकि कंटेंट बेशक महिला विमर्श है लेकिन उसके साथ लेखिक का बरताव बड़ा ही मजाकीए अंदाज में तंज कसते हुए ही रहा है। ऐसा नहीं है कि लेखिका ने लिखते वक्त विचार व योजना न बनाई हो। निश्चित ही बनाई होंगी। उसी रणनीति का परिणाम है कि इस किताब की भाषा एक उलाहने वाली, बतकही वाली है। बातों ही बातों में बल्कि कहना चाहिए लेखिक बातचीत की शैली में उन सवालों का जवाब भी देती हैं जो महिला विमर्श में बड़ी ही ठहराव के साथ कही जाती है। लेकिन एक बात ज़रूर खलती है कि जिन वर्णनों से बचा जा सकता है उसे भी चुटकी लेते हुए कह दी गई है। बिस्तर या कोने में घटित होने वाले कार्यव्यापार को साहित्य में सलीके की जाती रही है किन्तु लेखिका ने यहाँ कुछ ज़्यादा ही खुल कर बयां किया है। वहीं जयश्री राय की दर्दजा को पढ़ते हुए बिस्तर की बातें रोमांच पैदा करने की बजाए एक दर्द, पीड़ा पैदा करती है। माहिरा जिसे सुन्ना जैसी प्रथा से गुजरना पड़ा और खुद बारह तेरह वर्षीय माहिरा को एक साठ साला पति कैसे बिस्तर पर पहली रात ही खरोचता, नोचता और निचोड़ता है इस वर्णन में जयश्री राय बड़ी सधी हुई भाषा का प्रयेाग करती हैं। खुलापन और बिस्तरीय अवस्था की चर्चा वहाँ भी है किन्तु उसकी शैली और भाषा काफी सुचिंतित है। वहीं नीलिमा के यहाँ कई बार वर्णन बगले झांकने पर मजबूर करती है।
किताबें लिखना और उसे बाज़ार तक पहुंचाने, प्रसारित करने ख्याति बटोरने में पहले के लेखक पीछे रहे हैं। लिखते रहे, छपती रहीं और दो चार के पास किताबें आकर मौन सो जाया करती थीं। इसमें लेखक और प्रकाशक दोनों ही कसूरवार माने जा सकते हैं। जब किताब लिखी गई तो उसे पाठकों तक पहुंचाना एक चुनौतिपूर्ण काम है। अब के लेखक, प्रकाशक का ज्वाइट एफ्ट कहिए कि लेखक और प्रकाशक दोनो मिलकर किताब को प्रमोशन किया करते हैं। कुछ-कुछ फ़िल्मी तर्ज है। नई फ़िल्म के प्रमोशन के लिए जैसे फ़िल्म की टीम शहर-शहर शो किया करते हैं। दूसरों के शो में आकर अपने उत्पाद प्रचार करते है। ठीक वैसे ही आज के लेखक-प्रकाशक किताब के छपने की प्रोसेसिंग में ही कवर पेज सोशल मीडिया पर साझा कर पाठकीय सुझाव, प्रतिक्रियाएं और शुभकामनाएं बटोरने लगते हैं। हालांकि पाठकीय सहभागिता में कोई गुरेज नहीं है। लेकिन इस माध्यम की विश्वसनीयता और स्थायीपन पर विचार करने की आवश्यकता है।
किताब का प्रचार उसका कंटेंट स्वयं किया करता है। यह अलग विमर्श का मुद्दा हो सकता है कि अन्य तरीकों से किताबों के प्रचार कितना और किस स्तर पर किताब की गुणवत्ता को पठनीय बना पाती हैं। देखने में तो यह भी आया है कि शहर-शहर लेखक की तस्वीरों वाले होडिंग्स लगाए गए ताकि पाठक एक बार किताब बेशक न पलटे कम से कम तस्वीर देखकर और प्रचार की वजह से ही सही किताब तो खरीदे। किताबों की बिक्री में इजाफा हो इसमें लेखक और प्रकाशक का भला तो है क्या पाठकों को पढ़ने के आनंद में भी बढ़ोत्तरी हो पाएगी। सवालों के जवाब अभी अनुत्तरित हैं।
समीक्ष्य पुस्तक
पतनशील पत्नियों के नोट्य
नीलिमा चौहान
प्रकाशक-वाणी प्रकाशन
वर्ष 2017