किताब लिखने का भूत / प्रमोद यादव
‘गुरूजी.. सुना है कि आप किताब लिखने की सोच रहे हैं..’ गजोधर ने पान चबाते पूछा.
‘हाँ...सोच तो रहे हैं....तो?..’
‘नहीं..यूं ही पूछा ..अचानक... हम कुछ समझे नहीं..’
‘अरे.. समझने वाली क्या बात है?..और अचानक की क्या बात? बड़े-बड़े लोग जब “किताब-किताब” खेल रहे तो हम क्यों पीछे रहें? नेता लिख रहे..राजनयिक लिख रहे.. मंत्री लिख रहे..सलाहकार लिख रहे..इसलिए हम भी लिख रहे...’
‘पर गुरूजी..बड़े लोगों की बड़ी बातें...वे कुछ भी लिख दें तो उनकी पुस्तक का चर्चित होना लाजिमी..मीडिया वाले भी उन्हें सर-आँखों में बिठाए बढ़िया टाईम पास करते हैं..चार लोगों को बिठाकर बहस कराते हैं..पुस्तक में कही बातों की प्रामाणिकता पर हल्ला बोलते हैं.. जिन पर लिखते हैं..उनकी प्रतिक्रिया सुना लोगों का शानदार मनोरंजन करते हैं.. मुफ्त में ही पुस्तक का “प्रोमो” कर लेते हैं.. वैसे लोग कहते हैं कि अक्सर दो ही तरह के लोग किताब लिखते हैं-एक, जो घोर साहित्यिक होते हैं..और दूसरा वे जो दीन-दुनिया से हटे -कटे ‘चूके टाईप” के होते हैं... पार्टी या सत्ता से सताए-तडपाये-निकाले गए होते हैं..दूसरे वाले लेखक किताब लिखकर मन का बरसों पुराना गुबार निकालते हैं..भड़ास निकालते हैं..गड़े मुर्दे उखाड़ कितनों को जड़ से उखाड़ने की कोशिश करते हैं..मजा तब आता है जब आरोपित नायक भी ईंट का जवाब पत्थर से देने की कोशिश में हल्ला बोलता है -किताब का जवाब किताब से देंगे जैसे नारे के साथ कहता है -हम भी अब किताब लिखेंगे....उसमें अपनी प्रतिक्रिया देंगे..पहली किताब के लेखक को लिखने में तो दस साल लगे अब ना जाने दूसरा लेखक अपनी प्रतिक्रिया (किताब) देने में कितने साल लेंगे .. खैर..वे किताब-किताब खेलें..उनसे हमें क्या?..हमें तो ये समझ नहीं आता कि आप किस वजह से और किन बातों को लेकर लिखेंगे? और किस पर भड़ास निकालेंगे? किसकी खाल खींचेंगे? आप न तो “बड़े” लोगों में शुमार हैं..ना ही प्रेमचंद जैसे घोर साहित्यिक लोगों में? ‘
‘कैसी बातें करते हो गजोधर...चलो हमने माना हम बड़ों में शुमार नहीं..पर लेखक तो हैं..प्रेमचंद जैसे न सही..पर हमारे नाम में तो दो-दो बार “प्रेम” है....प्रेम नारायण ‘प्रेम”..और तुम तो जानते हो यदा-कदा हम लिखते भी हैं.. शहर में जो दो पन्ने का सांध्य–दैनिक “पहट” निकलता है,उसमें एक-एक लाईन का “भविष्यफल” हम ही लिखते हैं..मोहल्ले में जब कबड्डी प्रतियोगिता का आयोजन होता है तो मुख्य-अतिथि का भाषण हम ही लिखते है..स्कूल-पत्रिका का सम्पादकीय हम ही लिखते हैं ( ये और बात है कि नीचे प्राचार्यजी अपना नाम छपवा लेते हैं )..पास-पड़ोस में शादियाँ होती है तो सबके निमंत्रण कार्ड का मजनूंन हम ही तैयार करते हैं..चंडी-चौक में गणेश-दुर्गा स्थापित करते हैं तो पूरे नौ दिन का मैटर हम ही लिखते हैं..’
गजोधर ने उन्हें चुप कराते कहा- ‘गुरूजी..इसे लेखन नहीं..पत्र – लेखन कहते हैं..ऐसे पेज-दो पेज का तो हम भी बेखौफ बिना किसी कामा,अल्प विराम के लिख लेते हैं..कभी निगम के नल से पानी नहीं आने पर नल-जल विभाग को पत्र तो कभी बिजली बिल अधिक आ जाने पर बिजली विभाग को पत्र ...ऐसे लेखन में कहीं दूर-दूर तक साहित्य नहीं होता..पर असली लेखन में तो साहित्य का पुट होना एक अनिवार्यता है.. तभी तो पाठक पढेंगे..’
गुरूजी ने तुरंत ही बात काटते सफाई दी- ‘भई गजोधर..लेखन-लेखन होता है..बस इतना जानते हैं- हम लिखते हैं...गैर-साहित्यिक बड़े-बड़े जो पूर्व-अभूतपूर्व नेता-मंत्री लिखते हैं,उनसे तो बेहतर ही लिखते हैं..और फिर भला ऑटो बायोग्राफी (आत्मकथा) लिखने में साहित्यिक होना क्या जरुरी? ‘
‘तो क्या आप आत्मकथा लिख रहे हैं? ‘गजोधर चौंका
‘और नहीं तो क्या? ‘
‘पर गुरूजी..आपके अब तक के पूरे सपाट जीवन को..रिटायरमेंट तक तो हमने अपनी आँखों से देखा-परखा और भोगा है..और अभी भी देख रहे हैं..समझ नहीं आता..आप भला किताब में क्या लिखेंगे? ‘
‘क्या मतलब? ‘गुरूजी ने आँखें ततेरते कहा.
‘मतलब कि चार सौ पेज आप लिखेंगे क्या?किस विषय पर लिखेंगे? किस पर लिखेंगे? ‘
‘अरे जो देखा-सुना-भोगा है..उसी पर लिखेंगे ..’ गुरूजी ने जवाब दिया.
‘लेकिन उसे पढ़ेगा कौन? ‘गजोधर ने फिर सवाल दागा.
‘तुम पढोगे...घरवाली पढेगी.. साली पढेगी..छोटू पढ़ेगा..मुन्नी पढेगी... हमारी सास पढेगी..पड़ोस की रज्जू काकी पढेगी..गुप्ताजी पढेंगे..हमारे पुराने साथी गुरूजी लोग पढेंगे..प्राचार्यजी पढेंगे..हमारे पढाये विद्यार्थी पढेंगे...’
‘बस..बस गुरूजी..पाठकों की तो आपने झड़ी लगा दी.. ठीक है..अब ये भी बता दो कि लिखोगे क्या और इसे छपवाओगे कैसे? ‘
‘देखो गजोधर..कैसे भी करके तीन-चार सौ पेज तो लिख ही लेंगे..पर हमारी इच्छा है कि इसे अंग्रेजी में छपवायें..’ गुरूजी ने अपने मन की बात कही.
‘क्या? पागल तो नहीं हो गए गुरूजी .. अंग्रेजी में भला कौन पढ़ेगा? जितने भी पाठकों के अभी नाम गिनाये,उनमें कितनों को अंग्रेजी आती है? और फिर आप तो खुद अंग्रेजी का ए.बी.सी. नहीं जानते तो लिखेंगे क्या ख़ाक? ‘गजोधर तमकते हुए बोला.
‘यार गजोधर ..तुम समझे नहीं...किताब तो अपनी राष्ट्रभाषा हिंदी में ही लिखेंगे..पर प्रकाशन किसी अंग्रेजी के विद्वान् से अनुदित कराके अंग्रेजी में ही करायेंगे..’ गुरूजी ने खुलासा किया.
‘इस कसबे में भला कौन है जो हिंदी से अंग्रेजी में अनुदित करे? ‘गजोधर ने शंका जताई.
‘अरे वो सिद्दकी सर है न जो कालेज में अंग्रेजी पढ़ाते हैं..उनके पास बिटिया भी ट्यूशन पढ़ती है..उसे यह महती काम सौंप देंगे..दो-चार ट्यूशन का एक्स्ट्रा पेमेंट कर देंगे..’
‘पर गुरूजी..मेरी समझ में ये नहीं आता कि किताब अंग्रेजी में ही क्यों छपवाना है? ‘
‘ऐसा है गजोधर..बड़े-बड़े लोग अंग्रेजी में ही किताब लिखते हैं.जैसे.“डिस्कवरी आफ इंडिया”.. “विंग्स आफ फायर”..”द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर”..” थ्रू द कारीडोर्स आफ पावर”..”वाकिंग विद लायंस”.. आदि-आदि.. अंग्रेजी का एक अलग ही इम्प्रेशन पड़ता है..इसलिए..’
‘अच्छा..ठीक है..पर आप लिखोगे क्या? आपके पूरे सपाट जीवन की अतुकांत कहानी तो इसी कसबे से शुरू होकर इसी कसबे में ख़त्म होती है..बत्तीस साल स्कूल में गुरूजी रहे..डी.ई.ओ. आफिस से ज्यादा दूर कभी कहीं गए नहीं..तो फिर किस पर और क्या लिखेंगे..किसकी तारीफ़ लिखेंगे? किसकी टांग खीचेंगे? ‘गजोधर ने गुस्से से पूछा.
‘गजोधर भैया..इतना परेशांन तो हम नहीं हो रहे जितना तुम हो रहे हो..समझ लो हमने किताब लिख ली..अब तुम जरा प्रकाशन की व्यवस्था में सहयोग कर दो.. हमें नहीं मालूम कि कहाँ छपेगा? कैसे छपेगा? कितने में छपेगा? ‘
‘या कोई छापेगा भी या नहीं? ‘गजोधर ने एक और पंक्ति जोड़ते कहा.
‘अरे यार तुम तो टोक पे टोक ही लगाए जा रहे हो..हमें लिखने के पहले ही हतोत्साहित कर रहे हो..तुम्हारी तरह दो-चार और मिल जाए तो हम तो किताब लिखने से रहे....’ वे उदास हो बोले.
‘यही ज्यादा अच्छा होगा गुरूजी आपकी सेहत के लिए..क्यों रिटायरमेंट के पैसों को बर्बाद करने पर तुले हैं.. आप टी.वी. देखना..समाचार देखना बंद कर दें तो किताब लिखने का भूत वैसे भी उतर जाये.. टी.वी. में चाकलेट का विज्ञापन देख जैसे बच्चे उछलते हैं..वैसे ही आप भी कुछ का कुछ करते रहते हैं..अरे उन्होंने किताब लिखा तो लिखा.. अब उनके दुश्मन लिखे तो लिखे.. इन सबके पास तो कोई काम-धाम नहीं..आपके पास तो है ना?..उनकी नक़ल क्यों कर रहे? ‘गजोधर ने उनकी बिमारी पकड़ समझाईश दी.
‘तो कुल मिलाकर तुम यही कहना चाहते हो कि हम किताब न लिखें? ‘गुरूजी सीरियस हो बोले.
‘बिलकुल..’ गजोधर ने कहा.
‘तो चलो नहीं लिखते ...तुम्ही खुश रहो.. हमें भी भारी टेंशन था कि क्या लिखेंगे? पिछले कई दिनों से सोच-सोचकर पागल हुए जा रहे थे...न सोते बनता था न जागते.. किताब की मार्केटिंग को लेकर भी परेशान थे.. अब हम टेंशन फ्री हैं ..आज चैन की बंशी बजाते..घोड़े बेच सोयेंगे.. ..धन्यवाद यार गजोधर.. हतोत्साहित करने का शुक्रिया....शुभ-रात्रि .. हम चलते हैं.. बड़ी जोरों की नींद आ रही..’
इतना कह गुरूजी पानठेले के बेंच से उठकर चलते बने..और गजोधर मन ही मन हंसते हुए घंटे भर पहले के महान लेखक को जाते देखता रहा...