किताब / लिअनीद अन्द्रयेइफ़ / प्रगति टिपणीस
1.
मरीज़ की नंगी छाती पर आला रखकर डॉक्टर उसके दिल की धड़कन सुनने लगा । मरीज़ का दिल असामान्य रूप से बड़ा था और असमान गति से धड़क रहा था । उसके दिल की धड़कन धीमी थी लेकिन उसका दिल समय-समय पर पसलियों से टकरा रहा था । ऐसा मालूम होता था कि वह दिल सिसक रहा हो, रो रहा हो । डॉक्टर ने मन ही मन यह सोचा कि मौत के क़रीब होने की इससे मनहूस और भद्दी तस्वीर हो ही नहीं सकती, लेकिन बोला :
— आपको तनाव से बचना होगा। आप शायद कोई बहुत ही भारी और मुश्किल काम करते हैं।
— मैं लेखक हूँ, — जवाब देकर रोगी मुस्कुराया और उसने पूछा :
— कोई ख़तरे की बात तो नहीं ?
डॉक्टर ने अपने कंधे उचकाए और बाँहों को फैलाकर बोला :
— ख़तरा तो है, लेकिन उतना ही, जितना किसी भी बीमारी से होता है । आप अभी पंद्रह-बीस साल और जीएँगे । और फिर मज़ाक़िया अंदाज़ में पूछा :
— क्या इतना काफ़ी होगा आपके लिए ?
साहित्य के प्रति आदर भाव दिखाते हुए डॉक्टर ने क़मीज़ पहनने में मरीज़ की मदद की । क़मीज़ पहनते वक़्त मरीज़ के चेहरे पर हलका-सा नीलापन था और यह समझना मुश्किल था कि वह जवान है या बूढ़ा । उसके होंठों पर एक मधुर और संदेहपूर्ण मुस्कान बनी हुई थी । वह बोला :
— आपका तहे दिल से शुक्रिया ।
डॉक्टर से नज़रें चुराते हुए मरीज़ ने मानो किसी अपराधबोध के साथ फ़ीस के पैसे रखने के लिए जगह तलाशनी शुरू की, जो जल्दी ही उसे मिल गई । मेज़ पर स्याही की दवात और क़लमदान के बीच में एक छोटी-सी जगह थी । वहाँ पर उसने तीन रूबल का एक पुराना-सा घिसा-पिटा और मुड़ा-सिकुड़ा नोट रख दिया जो पूरी तरह से बदरंग हो चुका था ।
— शायद अब तीन रूबल के नोट नहीं बनाए जाते। डॉक्टर ने काग़ज़ के उस छोटे हरे टुकड़े को देखते हुए सोचा और न जाने क्यों दुखी अंदाज़ में अपना सिर हिलाने लगा ।
पाँच मिनट के भीतर ही डॉक्टर दूसरे मरीज़ की छाती पर आला रखकर उसकी धड़कन सुन रहा था और पहला मरीज़ तेज़ वासंती धूप में अपनी आँखे मींचता हुआ सड़क पर यह सोचते हुए चला जा रहा था कि भूरे बालोंवाले लोग वसंत के दिनों में छाँव में और गर्मियों के दिनों में धूप में क्यों चलते हैं ? फिर उसके मन में कौंधा वैसे इस डॉक्टर के बाल भी तो भूरे थे । काश ! डॉक्टर ने पाँच या दस साल कहे होते… उसने तो तपाक से बीस साल कह डाले, या’नी मैं जल्दी ही मरने वाला हूँ । थोड़ा डर लग रहा है। नहीं, बहुत डर लग रहा है, लेकिन… उसने अपने दिल की तरफ़ देखा और ख़ुशी से मुस्कुरा उठा । सूरज किस शान से चमक रहा है ! ऐसा लग रहा है मानो वह जवान हो और हँसना चाहता हो या धरती पर ही आना चाहता हो ।
2.
पाण्डुलिपि मोटी थी । उसमें बहुत सारे पन्ने थे । हर पन्ने पर छोटी और समान दूरी पर लिखी पंक्तियाँ थीं । हर पंक्ति लेखक की आत्मा का एक अंश था । पूरी तन्मयता के साथ अपने दुबले हाथ से वह पाण्डुलिपि के पन्ने पलट रहा था और काग़ज़ की सफ़ेदी की छाया उसके चेहरे पर पड़ रही थी और उसे रोशन कर रही थी । उसकी बीवी उसके बग़ल में घुटनों पर बैठी चुपचाप उसके दूसरे हड्डीदार और दुबले हाथ को चूम रही थी और रोती जा रही थी ।
मरीज़ ने उससे गुज़ारिश की :
— रोओ मत, जानम, रोने की कोई ज़रूरत नहीं है, रोने की कोई वजह भी नहीं है ।
— यह तुम्हारा दिल, बड़ा दिल... और मैं इस बड़ी दुनिया में अकेली रह जाऊँगी । अकेली, हे भगवान !
अपने घुटनों पर झुके हुए सिर पर हाथ फेरते हुए लेखक ने कहा :
— इधर देखो ।
आँखों में उमड़े आँसुओं की वजह से वह कुछ देख न पाई । पाण्डुलिपि की पंक्तियाँ उसे टेढ़ी-मेढ़ी और छितरी हुई दिखाई दे रही थीं । उसकी आँखें बिलकुल धुँधली हो गई थीं । बीमार लेखक ने दोबारा कहा :
— देखो ! यह किताब ही मेरा दिल है । और यह हमेशा तुम्हारे साथ रहेगी ।
एक मरता हुआ आदमी अपनी किताब के ज़रिए ज़िन्दा रहने के बारे में सोच रहा था । यह बात इतनी तकलीफ़देह थी कि उसे सुनकर उसकी बीवी की आँखों से लगातार आँसू झरने लगे । बीवी को एक ज़िन्दा और धड़कते हुए दिल की ज़रूरत थी, न कि एक मरी हुई किताब की । वह किताब जिसे हर कोई पढ़ता है, भले उसका लेखक से कोई ताल्लुक़ हो या न हो, वह उसे पसन्द आ रही हो या नहीं ।
3.
किताब की छपाई शुरू हुई । किताब का नाम था - ‘ग़रीबों की हिफ़ाज़त के लिए’ ।
कुछ कम्पोज़िटरों ने किताब की पाण्डुलिपि को कई हिस्सों में बाँट लिया और उसकी कम्पोजिंग करने लगे । बाज़ पन्ने तो ऐसे बाँटे गए थे कि शब्द भी बँट गए थे । मिसाल के तौर पर मुहब्बत शब्द का ‘मुह’ एक पन्ने पर था और ‘ब्बत’ दूसरे पर । लेकिन इससे कम्पोज़िटरों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था, क्योंकि वे कभी वो पढ़ते ही नहीं थे जो कम्पोज़ कर रहे होते थे ।
— इस लिखने वाले का बेड़ा ग़र्क़ हो, यह कमबख़्त लिखाई है या मुसीबत ! — एक कम्पोज़िटर बड़बड़ाया और ग़ुस्से से झुँझलाते हुए उसने अपनी आँखों को हाथों से ढाँप लिया ।
उसके हाथों की उँगलियाँ सीसे की धूल से काली हो गई थीं । उसके जवान चेहरे पर भी सीसे के काले निशान थे। और खाँसने के बाद उसके भीतर से निकलनेवाला बलग़म भी उसी सलेटी और ज़हरीले रंग का होता था ।
एक दूसरा जवान कम्पोज़िटर बहुत तेज़ी और बड़ी निपुणता से खाँचों से ज़रूरी अक्षर निकाल रहा था । वैसे वहाँ पर कोई भी बूढ़ा नहीं था । वह धीमी आवाज़ में गुनगुना रहा था :
ओह, मेरी क़िस्मत काली है क्या?
लोहे के बोझ वाली है क्या ...
उसे गीत के बाक़ी शब्द याद नहीं थे, धुन भी उसकी अपनी थी, बिलकुल नीरस और उदास; बिलकुल पतझड़ के पत्तों के बीच बहती हवा की सरसराहट की तरह ।
बाक़ी चुप थे । वे लगातार खाँस रहे थे और काली लार उगल रहे थे । हर एक के सिर के ऊपर बिजली का एक मद्धम बल्ब जल रहा था ।
कमरे में लगी तार की जालीदार दीवार के पीछे भी बहुत सी छपाई मशीनें थीं । मशीनें इतनी दूर रखी थीं कि वे फ़ौरन दिखाई नहीं देती थीं, लेकिन उनकी छाया उनके वहाँ होने की जानकारी दे देती थी । लग रहा था मानो गन्दे काले फ़र्श पर बैठीं वो सब अपनी बारी के इन्तज़ार में अपनी काली बाँहें बड़ी उम्मीद से फैलाए हुए हों । कमरा इतना छोटा था कि उनकी तादाद बहुत ज़्यादा लग रही थी ।
4.
किताबें अलमारियों में बड़ी बेतरतीब लगी थीं । उनके पीछे की दीवारें दिखाई नहीं दे रही थीं । फ़र्श पर भी किताबों के ऊँचे-ऊँचे ढेर थे । इसके अलावा प्रेस के पीछे के दो अँधेरे कमरे भी किताबों से भरे थे । ऐसा लगता था कि किताबों में क़ैद इनसानी ख़याल उनसे बाहर निकलने के लिए बेताब हैं। किताबों की दुनिया में इसलिए कभी भी सुकून और चैन नहीं होता था ।
वहाँ बैठे सफ़ेद दाढ़ीवाले एक शख़्स के चेहरे पर नेकी झलक रही थी और वो बड़ी शालीनता से फ़ोन पर किसी से बात कर रहा था । लेकिन तभी उसने फ़ोन पर दबी आवाज़ में किसी को ‘बेवक़ूफ़’ कहकर पुकारा और ज़ोर से चिल्लाया :
— मीश्का
और जब मीश्का कमरे में दाख़िल हुआ तो चेहरे के सख़्त भावों और उँगली के इशारे से उस शख़्स ने मीश्का से अपनी नाराज़गी जताई और पूछा :
— तुझे कितनी बार बुलाना पड़ेगा, हरामज़ादे ?
लड़का डर के मारे अपनी आँखें झपकाने लगा, जल्दी ही सफ़ेद दाढ़ीवाला चुप हो गया । उसने अपने पैर और हाथ से किताबों का एक भारी बण्डल मीश्का की तरफ़ धकेला । वो उसे अपने एक हाथ से उठाना चाहता था, लेकिन उठा नहीं पाया । तब उसने बण्डल को फ़र्श पर पटक दिया और उसे आगे की ओर धकेलकर मीश्का से बोला :
— इसे येगोर इवानविच के पास ले जा ।
लड़के ने दोनों हाथों से बण्डल उठाने की कोशिश की, लेकिन वो इतना भारी था कि नन्हा और दुबला मीश्का उसे उठा नहीं पाया ।
— जल्दी कर, — वो शख़्स चिल्लाया ।
लड़के ने किसी तरह वह भारी बण्डल उठाया और उसे लेकर वहाँ से चला गया ।
5.
फ़ुटपाथ पर चलते समय भारी बण्डल की वजह से मीश्का सब राहगीरों से टकरा रहा था। लोग इससे परेशान हो रहे थे, तभी किसी राहगीर ने मीश्का को सड़क पर धकेल दिया । वहाँ पर पड़ी बर्फ़ रेत की तरह भूरी और चिपचिपी थी । भारी बण्डल से उसकी पीठ दबी जा रही थी और वह लड़खड़ाता हुआ बमुश्किल चल रहा था । अब गाड़ीवान उस पर झल्लाने लगे थे । और मीश्का यह सोच रहा था कि उसे अभी कितनी दूर और जाना है । जैसे ही उसे यह अंदाज़ हुआ कि वह जगह बहुत पास नहीं है तो उसके हाथ-पाँव फूल गए और उसे लगा कि वहाँ पहुँचते-पहुँचते तो वो मर जाएगा । उसने किताबों का बण्डल कन्धों से नीचे उतारा और रोने लगा। एक राहगीर ने उससे पूछा :
— तुम रो क्यों रहे हो ?
लेकिन मीश्का रोता रहा । उसे रोता देखकर वहाँ कुछ लोग इकट्ठे हो गए । एक ग़ुस्सैल पुलिसवाला भी भीड़ देखकर अपनी बेंत हिलाता हुआ वहाँ पहुँच गया, और फिर मीश्का को किताबों समेत एक गाड़ी में बिठाकर पुलिस स्टेशन ले गया । वहाँ पर तैनात पुलिस अफ़सर ने रजिस्टर में कुछ लिखते हुए धीरे से अपना सिर ऊपर उठाया और पूछा :
— क्या बात है ?
— जनाब, एक बहुत भारी वज़न के साथ एक बच्चे को लाया हूँ। — यह कहकर पुलिसवाले ने मीश्का को अपने अफ़सर के सामने धकेला ।
पुलिस अफ़सर ने अपनी दोनों बाँहें ऊपर उठाकर एक अंगड़ाई ली और अपने सीने को तान लिया । उसके बाद उसने अपने दोनों पाँव भी एक-एक करके सामने की और फैलाए । पाँवों में चमड़े के चमकते हुए जूते दिखाई दे रहे थे । फिर उसने सामने खड़े मीश्का पर अपनी नज़रें दौड़ाईं और बड़े ध्यान से उसे ऊपर से नीचे तक ताका । उसके बाद उसने सवालों की झड़ी लगा दी :
— नाम क्या है तेरा ? क्या उम्र है तेरी ? कहाँ से आया है ? क्या काम करता है ?
मीश्का ने जवाब दिया :
— साब, मैं मीश्का हूँ, बारह साल का हूँ । एक प्रेस में काम करता हूँ । गाहक को किताबें देने जा रहा था ।
पुलिस अफ़सर बण्डल के पास गया, चलते समय भी वह अपनी छाती ताने हुए था । फिर उसने कसरत-सी करते हुए किताबों के उस बण्डल को उठाना चाहा, जो आसानी से उसके हाथों में आ गया । वह ख़ुश हो गया और ख़ुशी से ख़ुद को शाबाशी देते हुए बोला :
— बहुत खूब, मियाँ !
जिस काग़ज़ में बण्डल लिपटा हुआ था, वह एक जगह से फट गया था । पुलिस अफ़सर ने उस काग़ज़ को थोड़ा और हटाकर किताब का नाम पढ़ा — ‘ग़रीबों की हिफाज़त के लिए’। उसने इशारे से मीश्का को अपने पास बुलाया और कहा :
— इसे पढ़ो ।
मीश्का ने आँखें झपकाकर जवाब दिया :
— साब, मुझे पढ़ना नहीं आता ।
पुलिस अफ़सर ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा, — हा…हा…हा…।
तब तक इलाक़े का पासपोर्ट अधिकारी भी अपने कमरे से निकलकर वहाँ आ पहुँचा । उसकी दाढ़ी नहीं बनी हुई थी और उसके मुँह से वोदका और प्याज़ की बू आ रही थी। वह भी हँसा, — हा…हा…हा…।
उसके बाद उन्होंने एक रिपोर्ट तैयार की, जिसके नीचे उन्होंने मीश्का से उसका अँगूठा लगवा लिया।
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मूल रूसी भाषा से अनुवाद : प्रगति टिपणीस
भाषा एवं पाठ सम्पादन : अनिल जनविजय
मूल रूसी भाषा में इस कहानी का नाम है — क्नीगा (Леонид Андреев — Книга)