किताब / हेमन्त शेष

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{यह निबंध कक्षा 11 के एक प्रतिभावान छात्र की कॉपी से लिया गया है}

किताब की सब से बड़ी विशेषता यह है कि उसे किसी न किसी के द्वारा लिखा जाता है। संसार की एक भी किताब ऐसी नहीं है, जिसे किसी ने न लिखा हो, और वह किताब बन गई हो । दिमाग पर बिना जोर डाले भी यह समझ में आ जाता है कि लिखने का आविष्कार पहले हुआ था, किताब बाद में आई । शायद किसी लिखने वाले को ही कभी लगा हो कि लिखे की भी किताब बनाई जानी चाहिए। पर कोई नहीं जानता- दुनिया की पहली किताब आखिर थी, कौन सी किस ने उसे लिखा, क्यों, और कब? किताब का इतिहास यहां आ कर थोडा. संदिग्ध सा जरूर हो जाता है । पर हर हिंदुस्तानी 'वेदपाठी' की तरह हम कह सकते हैं “अजी वाह! इस में पूछना कैसा? हमारे यहां भारतवर्ष में ही तो।” हिंदुस्तान में दिन भर में हमारा साबका इतनी बार गणेशजी से पड़ता है कि हम यह भी अक्सर भूल जाते हैं कि कई धार्मिक चित्रों में गणेशजी एक किताब लिखते दिखलाई पड़ते हैं। कुछ बताते हैं कि गणेशजी 'मौलिक' लेखक नहीं हैं । वह तो डिक्टेशन मात्र ले रहे हैं : वेद- व्यास का। पर कुछ एक विदेशी गणेशजी की उस भंगिमा से बड़े चमत्कृत होते हैं । मुमकिन है कोई ‘राष्ट्रवादी’ किस्म का विदेशी मन ही मन में गणेशजी से ईर्ष्या सी भी करने लगे। पर गणेश जी तो भगवान हैं । वे उस का भला क्यों बुरा मानने लगे?

इस उदाहरण से यही जाहिर होता है कि किताब निःस्संदेह एक पुरानी चीज़ है। किताब की दूसरी विशेषता यह है कि इस का ताल्लुक पढ़ने से है। फिर भी दुनिया की सारी की सारी किताबें पढ़ ली जाती हों ऐसा होना नामुमकिन है।

फिर भी यह उद्योग चल रहा है। चल रहा है क्या, बल्कि फल-फूल भी रहा है। प्रकाशकों को देखिए। आप को यह बात आसानी समझ में आ जायगी। वे अकसर फूले हुए ही नज़र आते हैं...

किताबें भी दो तरह की होती हैं : एक तो अच्छी और दूसरी बुरी । अच्छी किताब लिखने वाला अच्छा लेखक माना जाता है और आप समझ ही गए होंगे कि दूसरी किस्म की किताब लिखने वाला क्या कहलाता होगा। (हम ही सब समझाएं यह जरूरी तो नहीं।)

ज्यादातर लेखक बुरे ही होते हैं क्यों कि ज्यादातर किताबें अच्छी नहीं होतीं। विडम्बना की बात : फिर भी सारे लेखक अपनी ही किताब को सब से अच्छा समझते हैं। बेचारा पढ़ने वाला ही जानता है कि किताब वास्तव में है कैसी । परंतु यह हम ऊपर देख चुके हैं कि सभी किताबें पढ़ी नहीं जातीं। इसलिए भी लेखक लोगों में यह गलतफहमी बड़ी लोकप्रिय है और निकट भविष्य में इस के दूर होने की आशा नहीं के बराबर है।

किताब की एक और विशेषता यह होती है कि वह किसी न किसी के बारे में ही होती है। संसार की एक भी किताब ऐसी नहीं है जो किताब भी हो और किसी न किसी के बारे में न हो। किताब किस के बारे में होगी यह बात यों तो अक्सर लेखक ही तय करता है। पर कोई दूसरा आदमी भी लेखक से कह सकता है कि किताब किस के बारे में होगी या होनी चाहिए। आप फिर एक बार प्रकाशकों को देखिए। प्रकाशक लेखक से कह सकते हैं। कई कहते भी हैं। और लेखक लोग उनकी फरमाइश अथवा आदेश पर तुरत फुरत किताब लिख डालते हैं। चूंकि यह हम ऊपर देख ही चुके हैं कि सभी किताबें पढ़ी नहीं जातीं अतः प्रकाशकों की राय के बावजूद इस तरह की लिखी सारी की सारी किताबें पढ़ ही ली जाती हों यह जरूरी नहीं। हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है । बिचारी हिन्दी। कुछ लोग पता नही क्यों इसे ‘बिचारी’ कहते हैं? शायद इसलिये कि ‘बुरी से बुरी’ लेखिका को भी ‘महान’ बनाने का काम इसी में भाषा में किया जाता रहा है । अभी भी जारी है । शायद रहेगा भी। ‘परन्तु’ का आना मजबूरी है, परंतु लेखिका की बुरी से बुरी हिन्दी में 'छा' सकती है: अगर उसकी पीठ पर आलोचक या उसकी किसी किताब का हाथ हो। इस तरह के सम्पादक और आलोचक जरूर पहले उक्त प्रकार की लेखिका की पीठ पर हाथ रख देते होंगे। पर सौभाग्य से ‘बुरी’ लेखिका की ‘बुरी’ किताब बुरी ही रहती है । यह हम ऊपर देख ही चुके हैं । हां, लेखिकाएं ऐसी लेखिकाएं हिन्दी में जल्दी अमर हो जाती हैं। हुई हैं। अब आया न समझ में आप के ‘बिचारी’ हिन्दी की बेचारगी का रहस्य।

किताब को पुराने जमाने में भोजपत्र या ऐसी ही किसी चीज़ पर लिखना पड़ता था क्यों कि कागज़ का आविष्कार बाद में हुआ । आजकल भोजपत्र पर कोई नहीं लिखता क्यों कि भोजपत्र कश्मीर में मिलते हैं, जहाँ सालों से आतंक का माहौल है! कागज बनाने के लिये आजकल पेड़ काटे जाते हैं । बुरी किताबें लिखने और छापने वालों को भी यह बात पता नहीं क्यों ध्यान में नहीं रहती । अगर रहे तो कितना अच्छा हो। उबलती हुई इस दुनिया का तापमान थोड़ा सा तो कम हो।

किताब को हमेशा एक तरफ से खुला रखने की प्रथा है ताकि यह आसानी से पढ़ी जा सके पर अश्लील किताबें अक्सर पिनअप कर के कुछ इस ढंग से रखी जाती हैं कि बिना खरीदे आप उन में झांक तक नहीं सकते। कहते हैं कि कुछ किताबें अश्लील होती हैं। पर शायद लेखक ही वैसा होता होगा बिचारी किताब नहीं।

किताबों के पीछे आजकल युद्ध नहीं होते पर किताबें युद्ध को टाल नहीं पातीं। किताब लिखने वाला तो अपने आप को महान कहता और मानता ही है किताब पढ़ने वाला भी खुद को कोई कम तीसमार खां नहीं समझता। किताबें पढ़ने वाला अक्सर स्वभाव से गुरू गंभीर टाइप की सूरत का ही होता है। बहुत ज्यादा किताबें पढ़ने वाला ‘पाठक’ नहीं ‘विद्वान’ कहलाता है । विद्वान तो खैर और भी गंभीर हुआ करते हैं । हंसमुख-विद्वान बहुत कम या नहीं के बराबर ही हैं । वह विद्वान ही क्या जो मजाकिया या खुशमिज़ाज टाइप का हो। संस्कृत के लोग कहते हैं ज्ञान प्राप्त करने के लिये अच्छा तरीका होता है किताब को मांग कर पढ़ना। इस से भी अच्छा किताब को खरीद कर पढ़ना और सब से ज्यादा ज्ञान उन किताबों से प्राप्त होता है जो चुरा कर पढ़ी जाती हैं । किताब की चोरी चोरी की परिभाषा में नहीं आती। वह ज्ञान प्राप्ति का उत्तम साधन है। किताब के उपयोग अनन्त हैं।

इस से पानी का गिलास ढंका जा सकता है। मक्खी मारी जा सकती है । काम न आने की दशा में रद्दी के भाव कबाड़ी को बेचा जा सकता है। छोटे बच्चे खेल समझ कर या खेल-खेल में इसे फाड़ सकते हैं ।

बिजली चले जाने पर इस से हवा की जा सकती है- जैसा अक्सर राष्ट्रपति-भवन के ‘भारत-रत्न अलंकरण समारोह’ में सेनाध्यक्षों की सुन्दर लड़कियाँ और सजी-धजी बॉब्ड-हेयर पत्नियों टी वी पर करती नजर आती हैं ।

इससे पीठ खुजाई जा सकती है। मोटी किताब किसी चीज को दबाने के काम ली जा सकती है। लिखने के लिये इसे कागज के नीचे रखा जा सकता है। जरूरत पड़ने पर तकिया लगाया जा सकता है। बिना पढे. भी अलग-अलग और नई से नई किताबें हाथ में ले कर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर कहलाया जा सकता है। घर के ड्राइंग रूम की शैल्फ में सजा कर मेहमानों पर रौब गालिब किया जा सकता है। भीतर रख कर प्रेमपत्रों का आदान प्रदान भी किया जा सकता है।

कहने का भावार्थ यह कि किताब की इतनी विशेषताएं हैं कि उन पर खुद एक किताब लिखी जा सकती है। पर वैसा करने का मेरा कोई इरादा है नहीं, इसलिए इति-शुभम!