किनारे से किनारे तक / राजेन्द्र यादव

Gadya Kosh से
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नाव किनारे से काफी आगे बढ़ आई थी...।

नदी बाढ़ पर थी और मानिक के मन में कोई बार-बार दुहराए जा रहा था, ‘‘रूबी को पानी में धक्का दे देने का यही मौका है...यही मौका है। फिर ऐसा अवसर नहीं आएगा...।’’ मटमैले पानी के झपटते भंवरों में नाचता नारियल काली-काली गेंद की तरह लहरों के हाथों इस तरह लुढ़कता चला आ रहा था, जैसे मजबूर डूबते आदमी का सिर हो। कभी छिप जाता, कभी निकल आता। रूबी ध्यान से उसे देख रहा था। पूछा, ‘‘वो क्या है, चाचा जी?’’

‘‘कहां? अच्छा, वोऽऽ! वो तो बेटा, नारियल है। कई दिनों से बहकर आ रहा है, इसलिए गलकर काला हो गया है।’’ कुछ चौंककर मानिक ने कहा और हाथ की मूंगफली छीलने लगा।

‘‘पानी में कहां से आ गया, चाचा जी?’’ फिर खुद ही सोचकर बोला, ‘‘जहाज वालों ने डाभ पीकर फेंक दिया होगा। देखिए...देखिए, वो डूब गया...। एऽएऽएऽ व्वो निकल आया...। कैसा बहा जा रहा है, जैसे किसी ने किक मारा हो...।’’

मानिक नारियल को ही देखता रहा। ‘किक तो मैं मारूंगा’...वह निश्शब्द बोला। नारियल लहरों की चपेट में आ जाता तो मटमैली सतह उसे लील लेती। लेकिन लुढ़ककर खड़े हो जाने वाले खिलौने की तरह थोड़ी दूर जाकर, वह फिर निकाल लेता...। बस, जरा-सा धक्का दे देने की जरूरत है...रूबी का सिर भी दो-एक बार यों ही हुगली में डूबे-उतराएगा और जब तक लोग कुछ करें, तब तक तो पता भी नहीं चलेगा। मानिक को सचमुच ही लहरों की खेलती सलवटों के बीच डूबता और दोनों हाथ उठाकर ‘बचाओ...बचाओ’ चिल्लाता रूबी दिखने लगा। जब रूबी इस तरह डूब रहा होगा, तो उसे भी काफी नाटक करना होगा। दोनों हाथ उठाकर वह कूदने-कूदने को हो जाएगा...। नाव में बैठे चीखते-चिल्लाते लोग उसे रोकेंगे, ‘हें, हें, ऐसा मत करो, हुगली में अथाह पानी है।’ फिर मन चाहा इनाम पाने के लालच में मल्लाह अपनी-अपनी लुंग्गियां फेंककर कूदेंगे...। रोता-पीटता वह घर जाकर जैसे मंजू और कांत को सूचना देगा। नहीं, पहले यहीं थाने में कहीं रिपोर्ट करनी होगी...फिर वह पुलिस अफसर से ही कहकर कांत को फोन कराएगा। जैसे ही उन लोगों के सामने पड़ेगा कि बेहोश होकर गिर पड़ेगा। अभिनय पक्का होना चाहिए। और मान लो, रूबी को मल्लाह निकाल लाए, या आगे कहीं जाकर वह बच ही गया, तो? पानी में संयोग से बचा लिए जाने की हजारों घटनाएं सुनी और पढ़ी हैं। फिर अगर रूबी ने कहीं बता दिया कि धक्का उसे मानिक ने ही दिया था, तो...? तो...? माथे पर पसीना नहीं आया था, लेकिन उसने रूमाल से कसकर माथा पोंछा और मूंगफलियां फोड़ने लगा।

अचानक उसे ध्यान आया कि रूबी उसकी बांह हिला-हिलाकर पूछ रहा है, ‘‘चाचा जी...चाचा जी, आप सुनते क्यों नहीं है? हुगली में बहुत बाढ़ आएगी, तो दक्षिणेश्वर का मंदिर भी डूब जाएगा न...?’’

‘‘एऽऽ...?’’ मानिक ने हड़बड़ाकर इधर-उधर देखा। आसपास वालों ने उसके मन की बात ताड़ तो नहीं ली कहीं? लेकिन सभी लोग अपने-अपने में व्यस्त थे-कुछ बच्चों को इधर-उधर की चीजों के बारे में बता रहे थे और कुछ चुपचाप बैठे थे। नाव के किनारे वाली भगतिन हाथ झुका-झुकाकर उस गंदले पानी से ही मुंह-हाथ धो रही थी। डोंगी की छत पर बैठे सैलानी लड़के सिनेमा का प्रचलित गाना गाते, चुरमुर-भाजा रौंधते हुए, बीच में बैठी मुग्धभाव से सारी दुनिया को निहारती लड़की को प्रभावित करने की कोशिश कर रहे थे। लड़की बार-बार अपने बालों पर इस तरह हाथ फेरती थी, जैसे उसके बाल हवा में उड़े जा रहे हों। मानिक ने बुश्शर्ट के कॉलर को जरा उठाकर हिलाया-कितनी उमस है इस कलकत्ता में। जैसे सारे शरीर पर किसी ने तेल मल दिया हो। असल में नाव में भीड़ भी तो बहुत है। कुछ लोगों ने कहा भी था कि बाढ़ के दिनों में नाव इतनी नहीं भरनी चाहिए, अभी-अभी पटना में एक नाव के सारे लोग डूब गए हैं। लेकिन मल्लाहों को जब तक पूरे पैसों की सवारी नहीं मिली, वे नहीं हिले। उन्हें क्या चिंता कि अंधेरा हो जाएगा, तो लोग बैलूर-मठ देख पाएंगे या नहीं। दक्षिणेश्वर के घाट और मंदिरों के खस्ता कलशों के पीछे छूटते ही सामने आर-पार फैला बाली-पुल आ गया था।

जिद करके रूबी नाव के किनारे की तरफ बैठा था और हाथ की टहनी को झुककर लहरों में डुबाए था, दूसरे हाथ से ले-लेकर दांतों से मूंगफली तोड़ता जाता था। लहरों की गति और नाव की चाल से टहनी कांपती-थरथराती झुक जाती, तो रूबी के तन-मन में आनंद की फुरहरी दौड़ जाती। उसका बार-बार मन होता कि टहनी की जगह अपना हाथ लटका दे, तो पांचों फैली उंगलियों के बीच से गुजरता पानी कैसा मजा दे! लेकिन मानिक ही उसे रोके हुए था, ‘‘किसी कछुए-मगर ने पकड़ लिया तो सीधे पानी में खींच ले जाएगा।’’ और तब कोई कहीं की इस प्रकार की घटना सुनाने लगा। वह एक हाथ से रूबी की बांह पकड़े बैठा था। जैसे ही नाव धार में आई, पानी की ओर झुके रूबी को अपनी ओर खींचे रखते हुए पहली बार यह भयानक विचार उसके मन में कौंधा-बस, बांह को जरा-सा झटका देकर छोड़ देने की जरूरत है। और फिर तो धीरे-धीरे उसके अनचाहे ही विचार ऐसा बलवान होता चला गया कि उसे सचमुच डर लगने लगा कि कहीं झटके से वह रूबी को धकेल ही न दे। जाने कैसे उसे यह विश्वास हो गया कि, जैसे ही नाव सामने वाले चौड़े, भारी रेल के पुल के नीचे से गुजरेगी, यह भूत उस पर हावी हो जाएगा और तब कहीं...। नहीं, नहीं, वह पुल आने से पहले ही सिगरेट जला लेगा और अपना ध्यान इधर-उधर देखने में लगा रखेगा; पीछे देखने लगेगा। उसने अंदाज लगाया कि अगर अभी सिगरेट जला ली जाए, तो पुल गुजर जाने तक जरूर जलेगी। जैसे ही सिर उठाकर उसने पुल की लंबाई देखी, हुगली की चौड़ाई की ओर नए सिरे से ध्यान चला गया और तब उन्मत्त पानी के गंदले विस्तार को देखकर भय से मानो, दिल धसका। मन में सोचा कि लहरों की तरफ लगातार देखने से कहीं चक्कर तो नहीं आने लगे हैं? सारे लोगों के साथ-साथ अचानक निगाहें पुल की तरफ उठ गईं। एक अजीब ढंग की गड़गड़ाहट चारों ओर गूंजने लगी थी। ध्यान आया कि रूबी ने मंदिर के डूब जाने जैसी कोई बात पूछी थी।

‘‘आहा जी, मजा आ गया...चाचा जी, रेल आ रही है।’’ सब कुछ भूलकर रूबी उल्लास और उमंग से गरदन उचका-उचकाकर पुल के सिरे पर रेल खोजने लगा। बड़े बच्चे शायद सभी उत्सुक थे कि जब नाव पुल के नीचे से गुजरे, तो ऊपर से रेल जाए। पुल को देखते ही इस संयोग की बात उनके मन में आई थी। रूबी बता रहा था, ‘‘हमको रेल, हवाई जहाज, स्टीमर सब कुछ देखना अच्छा लगता है...अच्छा चाचा जी, अनूप ने स्टीमर देखा है?’’

‘‘हांऽऽ’’ मानिक को नहीं पता कि उसने किस बात का जवाब दिया।

‘‘झूठ! पापा कहते हैं, लखनऊ में स्टीमर ही नहीं चलते, वहां तो ट्राम भी नहीं है...एरोड्राम भी नहीं है,’’ प्रकट अविश्वास से रूबी बोला, ‘‘हमारे जग्गी अंकल हैं न, वो हमारे लिए जापान से ऐरोप्लेन लाएंगे। आपको पता है कि जर्मनी और जापान के लोग मशीनें बनाने में बड़े तेज होते हैं?’’ इतने में पुल के सिरे पर रेल का इंजन दिखने लगा और रूबी ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी।

मानिक के मन में पहली बात आई-कलकत्ता-बंबई में रहने वाले बच्चों की जनरल नॉलिज अपने-आप इतनी बढ़ जाती है कि अपने यहां का एम. ए., बी. ए. जो बातें नहीं जानता, वह यहां का दस साल का बच्चा जानता है। मानिक का अनूप रूबी से एक क्लास आगे है, लेकिन कहां लखनऊ और कहां कलकत्ता! अनजाने ही उसकी निगाहें रेल देखने में डूबे रूबी के चेहरे पर जम गईं-हू-ब-हू वही अंदाज है, वैसा ही मुग्ध विस्मय का भाव है...रूबी की हर चीज अनूप से मिलती है, और वह देर तक अजनबी-सा रूबी को देखता रहा...। बस, एक उत्तेजनाहीन गुस्सा लहर की तरह उसकी नस-नस में पिघलता रहा और रेल की बढ़ती हुई घड़घड़ाहट के साथ यही बात उसके दिमाग में हथौड़े की तरह बजती रही...यही मौका है...यही मौका है! सभी लोग इस समय पुल पर जाती रेल को देख रहे हैं। किसी को भी पता नहीं चलेगा कि मानिक ने धक्का दिया था। बात हो जाएगी कि बच्चा रेल देखने में ऐसा डूब गया कि जाने कब पकड़ छूट गई...यही मौका है...यही मौका है! जल्दी-जल्दी!

धड़-धड़-धड़-धड़-ड़-ढ़! रेल सारे पुल को हिलाती और वातावरण को गुंजाती चली जा रही थी और मानिक का दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। उसे अपने भीतर एक-दूसरे को काटती निरंतर ऊंची होती दो आवाजें साथ सुनाई दे रही थीं-कहीं मैं इस बेचारे को धक्का न दे दूं। धक्का देने का यही मौका है। अगर सचमुच गिरा दिया, तो क्या जवाब दूंगा मंजू और कांत को? इसीलिए घुमाने ले गया था? अजीब हालत थी-जैसे सुनसान गुंबद में सैकड़ों आवाजें, प्रतिध्वनियां, अधूरी तसवीरें एक-दूसरे में गड्डमड्ड हो गई थीं...! ‘‘और यहां देखने लायक क्या-क्या चीजें हैं?’’ उसने तीसरे दिन कांत से पूछा था। कांत दफ्तर जाने के लिए जल्दी-जल्दी टाई बांध रहा था। मंजु ने मेज पर खाना लगा दिया था और अनुरोध कर रही थी, ‘‘आप भी इनके साथ ही आ जाइए न?’’

‘‘नहीं...नहीं, चाचा जी, हमारे साथ खाइए। नहीं तो लड़ाई हो जाएगी।’’ गुसलखाने के भीतर से ही रूबी चिल्लाया।

‘‘अच्छा बेटा, नहीं खा रहे। तुम जल्दी से नहा लो।’’ गद्गद भाव से मानिक बोला, ‘‘आपका रूबी एकदम अपने अनूप जैसा है। वैसे ही बोलता है, वैसे ही जिद करता है, वैसे ही...।’’ अचानक कांत के चेहरे पर निगाह पड़ी, तो जाने क्यों मानिक चुप हो गया। एक बार फिर चुपचाप मंजू और कांत की ओर देखा। खयाल आया, कांत शीशे के सामने खड़ा है-उसे यों देखते हुए जान सकता है। उसकी समझ में न आया कि किधर देखे।

‘‘आपसे तो दो ही दिनों में ऐसा हिल गया है, जैसे बरसों साथ रहा हो।’’ मंजू कटोरियों में सब्जी लगा-लगाकर प्लेट के चारों ओर रखने लगी, ‘‘रात को पूछ रहा था कि ममी, अनूप भाई साहब से कब मिलेंगे? उन्हें यहीं बुला लो न।’’ मंजू वात्सल्य से हंसी। अपनी प्रमिला, मंजू से ज्यादा सुंदर है, उसने सोचा।

कुर्सी खिसकाकर जल्दी से खाने पर बैठते हुए कांत बोला, ‘‘माफ कीजिए, मानिक भाई। क्या बताऊं, दफ्तर में ऐसा काम आ पड़ा है...आप भी सोचेंगे कि दो दिन को आए और मैं घुमा भी नहीं सका...मंजू, तुम चली जाना इनके साथ।’’

‘‘अरे नहीं...नहीं।’’ मानिक उदासी से ऊपर आकर बोला, ‘‘इतने सब तकल्लुफ की क्या बात है। मैं खुद ही कुछ देख-दाख लूंगा, अब कोई बच्चा हूं...।’’ कांत की कनपटियों पर सफेद बाल देखकर जाने क्यों उसे विचित्र किस्म का संतोष हुआ।

तभी उल्टा-सीधा तौलिया लपेटे रूबी पास आ खड़ा हुआ। ‘‘पापा, आप फिकर मत कीजिए...हम चाचा जी को सब कुछ दिखा देंगे। हमने इनसे कह दिया है। आज हमारी छुट्टी है।’’

‘‘हां-हां, यह दिख देगा न।’’ कांत ने निश्चिंत होकर कहा, ‘‘बेटे, चाचा जी को सब दिखा देना, नहीं तो जाकर ये अनूप से शिकायत कर देंगे। जाओ, पहले कपड़े बदल लो, फिर चाचा जी के साथ खाना खा लेना।’’

‘‘हम चाचा जी को सब दिखा देंगे-जू, विक्टोरिया म्यूजियम। और हम पहले बोल देते हैं, दक्षिणेश्वर से बैलूर हम नाव से जाएंगे।’’

कैसा बातचीत का, व्यवहार का सलीका है। कैसा आत्मविश्वास है। अपने अनूप होते, तो या तो खड़े-खड़े झेंपते या कोई बदतमीजी कर डालते-मानिक ने सोचा। वह एक क्षण को भूल गया कि यह लखनऊ नहीं, कलकत्ता है, और सामने अनूप नहीं रूबी है। वही नाक-नक्श, कंधों के वैसे ही पुट्ठे...। फिर दिल की गहराइयां चीरती हुई ठंडी सांस निकल गई। उसे जोर से अनूप की याद आने लगी।

इस भयानक खयाल का तो उस समय नामोनिशान भी नहीं था...। शायद दक्षिणेश्वर मंदिर के घाट की सीढ़ियां उतरकर नाव में सवार होने तक यह बात उसने नहीं सोची थी...वह तो बाढ़ पर आई हुगली में किसी के सिर जैसे नारियल को डूबते-उतराते देखकर ही यह भीषण विचार कौंध गया था...और नारियल रूबी के सिर में बदल गया था।

रेल निकल गई थी और अब एक अजीब सन्नाटा-सा छा गया था। नाव दो चौड़े-चौड़े खंबों के बीच से निकल रही थी...ऊपर दैत्याकार पुल था और उसमें जगह-जगह छेदों और सूराखों से आसमान दिख रहा था। पुल के नीचे अंधेरा था। मानिक को लगा, जैसे नाव किसी अंधेरी, गहरी सुरंग से होकर गुजर रही है। प्रायः सभी लोग पुल के विराट आंतक के नीचे चुप थे। अगर उसे उठाए हुए ये खंभे धसक जाएं तो? यहां अंधेरा है, यही समय है...फिर आगे तो खुला ही दिखता है। यहां पानी भी बहुत होगा। मानिक के मन में शब्दहीन पुकार मची थी।

नहीं, यह बात मटमैले पानी पर लुढ़कते नारियल को देखकर ही उसके दिमाग में नहीं आई थी, यह उसके मन में आज से नहीं, वर्षों से थी...दिन-रात थी। उसे युगों पहले पता था कि वह यों ही कलकत्ता घूमने जाएगा...रूबी को घुमाने ले जाएगा और तब एक ‘दुर्घटना’ हो जाएगी। उसने बात को जाना भले ही आज हो, लेकिन यह सारा संयोग आकस्मिक कतई नहीं है...उसके अंतर्तम में इसकी तैयारियां और उत्कट प्रतीक्षा जाने कब से चल रही थी...कोई था, उसके भीतर बैठा, जो निहायत ही धीरज से इस क्षण की ही तो राह देख रहा था।

‘‘चाचा जी, आपकी तबियत ठीक नहीं है क्या?’’ उसने सुना। रूबी उसकी ओर मुड़कर अनुरोध से पूछ रहा था। वह अभिभावक था न, उसे चाचा जी को सभी कुछ दिखाना ही नहीं था, उनके स्वास्थ्य की चिंता भी करनी थी।

मानिक गौर से, अपलक उसे देखता रहा...और रूबी नहीं, रूबी के पार देख रहा था। रूबी के सवाल से फिर अपने-आपमें लौट आया। पूछा, ‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘आप हमारी बात ही नहीं सुन रहे हो...हम पूछ रहे हैं, उस स्टीम बोट का नाम पढ़ सकते हैं?’’ दूर हावड़ा की तरफ से चौड़ी चिमनी से धुआं उगलती एक स्टीम बोट इसी तरफ तेजी से चली आ रही थी...। नाव अब पुल के नीचे से निकल आई थी। बोट पर लिखे अक्षर सफेद-सफेद बूंदों से लग रहे थे और पढ़े नहीं जाते थे। मानिक हार मानकर बोला, हमसे नहीं पढ़े जाते...। उसके मन में पछतावा हो रहा था कि ऐसा अच्छा अवसर यों ही निकल गया।

‘‘अरे इतना साफ तो लिखा है-भा-र-त।’’ रूबी विजय से बोला।

‘‘यहां तुम्हारी जैसी आंखे नहीं है न।’’ एक गहरी सांस ली।

लेकिन रूबी फिर बात आधी छोड़कर एक बड़ी-सी लहर को अपनी ओर आते देखता रहा। स्टीम बोट के चलने से लहरों का पूरा एक रेला नदी के पाट को घेरता चल रहा था, लेकिन बोट इतनी दूर थी कि यहां आते-जाते दूसरी लहरों जैसा ही रह गया था। फिर भी रूबी और दूसरे बच्चे बड़ी व्याकुलता से उसके आने की राह देख रहे थे। लहर नीचे आई, तो नाव ने झूले की तरह दो-तीन बार हिचकोले खाए। रूबी आनंद से हं-हं करने लगा।

मानिक मुग्ध भाव से उसे देखता रहा। देखो, कैसी निश्चलता से हर चीज पर खुश हो रहा है, उस बेचारे को शायद पता भी नहीं है कि उसकी बांह पकड़ा यह आदमी मन में क्या मनसूबे पका रहा है और किसी भी क्षण एक पागलपन उस पर आ सकता है कि हंसते-खेलते इस बच्चे को धक्का मारकर पानी में धकेल दे। लेकिन क्यों जी, सुनते हैं, बच्चों का सहज ज्ञान बड़ा तेज होता है...वे आदमी की अच्छी-बुरी इच्छाओं को तुरंत भांप जाते हैं। कहीं रूबी को भी तो ऐसा कुछ नहीं लग गया? तभी तो पूछ रहा था कि आपकी तबियत तो खराब नहीं है। अब उसे याद आया कि रूबी ने उससे तबियत की बात पूछी थी-क्यों? उसने फिर ध्यान से रूबी को, मानो पहली बार देखा और एक नया विचार उसके मन में आया-मान लो इसे धक्का दे भी दूं, तो इस गरीब को क्या पता चलेगा कि मैंने ऐसा क्यों किया। और जो दाह मानिक के मन में है, उसके लिए वह कहां जिम्मेदार है।

अकारण ही एक अजीब-सी करुणा उसके मन में उमड़ आई...। उसने प्यार से रूबी के कंधे पर हाथ रखा और आंसू-भरी आंखों से किनारे के बंगलों और घाटों को देखता रहा-नवाबी जमाने में भक्तों और सैलानियों ने बनवाए होंगे। मन-ही-मन बोला : तू ही बता, रूबी बेटे, मैं क्या करूं? इन काई लगी टूटी-फूटी इमारतों में कभी जिंदगी चहकती रहती होगी, इत्र, शराब और धूप की खुशबू उड़ती रहती होगी, रात को जाने कब तब तबला और घुंघरू खनकते रहते होंगे...लेकिन आज तो किसी को खयाल भी नहीं आता कि उन मरे हुए लोगों की छातियों में भी ईर्ष्या, प्रेम, क्रोध, दया की भावनाएं आती-जाती थीं...। लोग शायद खुद मेरे बारे में भी नहीं जान पाएंगे, छह साल-लगातार छह साल मैं कैसी अजीब मद्धिम आग में भुनता रहा हूं...। कोई नहीं जानता...मेरी व्यथा को कोई नहीं जानता-प्रमिला, अनूप, अनुपमा कोई भी नहीं। शायद मैं भी तो खुद उसके वास्तविक स्वरूप को नहीं समझ पाता। बस, व्यथा है कि पुरानी चोट की तरह दुखने लगती है। किससे कहें उसे, किसी से कह भी तो नहीं सकता।

‘‘अबे, ऐसा तैयार बैठा था? थोड़े दिन तो रुकता कम-से-कम। शादी के बाद दो-एक साल तो ये सारी झंझटें पालनी ही नहीं चाहिए।’’ अनूप के जन्म की खबर मिली, तो एक दोस्त ने कंधे पर हाथ मारकर कहा, ‘‘हां यार, मैं तो खुद भी नहीं चाहता था, लेकिन...।’’ वह झेंप गया। वह इसी तरह के आक्षेपों से डर भी रहा था, शादी के दसवें महीने ही बाप बनने की उसकी उतावली पर लोग मजाक नहीं बनाएंगे तो और क्या करेंगे?

उसे एक अनजान खुशी भी थी। बच्चे को पालना तावलत चाहे जितनी हो, लेकिन चलो, इस झंझट से भी छुट्टी मिल गई। अब जब वह पैंतालीस का होगा, तो बाईस-चौबीस साल का जवान लड़का सामने होगा। वह अनूप को गोद में लेता और न जाने किस आश्चर्यलोक में खो जाता...यह कैं-कैं रोता और आंखें मिचमिचाता बच्चा ही एक दिन इतना बड़ा हो जाएगा कि और लड़कों की तरह हाथ छोड़कर साइकिल चलाया करेगा। जाने कितने लोगों ने बताया कि माथा हू-ब-हू मानिक से मिलता है और आंखें और नाक प्रमिला पर गई हैं...ठोड़ी की बनावट पर भी मानिक की झलक है। सोते हुए अनूप को देखकर वह घंटों यही सोचा करता कि बच्चों में मां-बाप का हुलिया आखिर उतर कैसे आता है? उसे अनाम-सी खुशी होती-पालने में सोते इस नन्हे बेवकूफ को क्या पता कि उसका ‘स्रष्टा’ पास खड़ा-खड़ा उसे यों विभोर होकर निहार रहा है? स्रष्टा पिता...वह भी पिता हो सकता है, यह बात तो कभी भी नहीं सोची थी। खून के खिंचाव जैसी भी कोई चीज होती है, या सिर्फ साथ रहने का ही यह अभ्यास है...? ये इतने छोटे बच्चे आखिर सोचते क्या होंगे? छह महीने बाद प्रमिला को दो-तीन महीनों के लिए बनारस जाना पड़ा। मां बीमार थी और अस्थायी रूप से मानिक के लुधियाने जाने की बात हो रही थी। इन दिनों मानिक को दिल्ली की सारी चहल-पहल फीकी लगने लगी...वह फाइल पर झुका होता तो एक मुस्कराता चेहरा सामने आ जाता, या लिखने को तत्पर कागज पर झुकी कलम की निब, दो छोटे-छोटे नन्हे-नन्हे दांतों की शक्ल में बदल जाती...। अब वह विज्ञापनों और अखबारों में छपे बच्चों के चित्रों को मुग्धभाव से देखता और अपने ऊपर आश्चर्य करता कि ये प्यारे-प्यारे नन्हे-नन्हे बच्चे पहले उसे इतने दिलचस्प क्यों नहीं लगते थे? किसी के मुंह से या किसी डाइजेस्ट इत्यादि में बच्चों की बीमारी की बात जानता, तो उससे अनूप का इलाज कराने की चिंता उसे पहले सवार हो जाती...। कोई दवा कंपनी स्वस्थ और सुंदर बच्चों के चित्रों पर इनाम घोषित करती, तो उसे लगता कि यह इनाम सिर्फ अनूप को ही मिलना चाहिए...। फिर दोस्तों के बीच यह कहकर संतोष कर लेता कि यह सब मिलीभगत है, अपने ही किसी मिलने वाले को ये लोग इनाम दे-दिला देंगे। बच्चों के किसी विशेषज्ञ की कोई राय पढ़ते हुए उसके सामने बस अनूप की छाया घूमती रहती। वह बाकायदा लंबे-लंबे नोट्स लेता और तीसरे दिन प्रमिला को पत्र में नई-नई हिदायतें भेजता। सिनेमा में बच्चों को देखकर उसे अनूप की याद आती। अक्सर सोचा करता कि हर साल जन्मदिन पर उसकी फोटो खिंचवाकर एक अलबम बनाऊंगा और जब अनूप की शादी होगी, तो उसे उसकी बीवी को उपहार दूंगा...। साला अपनी नंगी तसवीरें देखकर शर्म से लाल हो जाएगा। बस में, फुटपाथ पर या कहीं भी किसी बच्चे को देखता, तो सब कुछ भूलकर बस उसे ही देखता रहता, ‘‘अपने अनूप से मिलता है, या अपना अनूप बड़ा होकर ऐसा ही हो जाएगा।’’ पहले बच्चा लिए बस में किसी महिला की मुसीबत पर शायद ही उसका ध्यान जाता हो, लेकिन अब सबसे पहले खुद ही सीट छोड़ता और उस बच्चे को देखकर वात्सल्य से मुस्करा देता। सोचता, बच्चे का हंसना चीज ही ऐसी है, जो बरबस आपके चेहरे पर मुस्कराहट खींच लाती है...।

कभी-कभी अपने इस मानसिक परिवर्तन पर खुद आश्चर्य होता। झेंपकर मन-ही-मन आशंकित होता; मैं बाकायदा बाप ही बन गया। जैसे सारे टिपिकल बाप करते हैं, वही हालत मेरी है। और अनूप को झुलाने, गुदगुदाने को कुलबुलाते हाथ लिए वह एक महीने के बाद ही ससुराल जा पहुंचा।

वहां अनजाने ही छोटी साली उमा ने सबसे पहले उसके मन में एक चिनगारी फेंक दी। घर के जनाने और मर्दाने भागों की कड़ी थी, यही बारह साल की उमा। वह सारे दिन बैठक में रहता। दूसरे या तीसरे दिन वह हाथों में अनूप को लिये उछाल रहा था और उमा पास खड़ी उसके खिलखिलाने पर गद्गद हो रही थी। उसने यों ही पूछ लिया, ‘‘अच्छा, उमा, इसकी शक्ल मुझसे ज्यादा मिलती है, या प्रमिला से?’’ फिर अपना सवाल भूलकर अनूप के खिलखिलाने में खो गया। ‘‘सब कहते हैं कि मुझसे मिलती है।’’

‘‘आपसे तो कहीं नहीं मिलती।’’ उमा की जांचती आंखें उसने चेहरे पर महसूस कीं, थोड़ी-बहुत प्रमिला जीजी से जरूर मिलती है।’’

‘‘हिश्! चूहेखानी कहीं की। अनूप बेटे, इस बिल्ली मौसी से कट्टी तो कर लो।’’

‘‘यहां तो सब यही कहते हैं कि आंखें, ठोड़ी और माथा एकदम कांत भाई साहब पर गया है।’’ उमा ने जब देखा कि अविश्वास से वह उसकी ओर मुंह बिराकर अनूप को पालने की तरह झुलाने लगा है, तो गंभीरता से बोली, ‘‘अरे लो, जीजा जी, आप सच्ची ही नहीं मान रहे! इस पर तो हमारी और अम्मा की शर्त हो चुकी है...। आप खुद मिला लो, वो कांत भाई साहब की फोटो लगी है।’’

‘‘देखें...देखें, अनूप बेटे, कौन-से कांत भाई साहब से ये तेरी चूहेखानी मौसी तुझे मिला रही है। कह दो, नई मौछी, हम पापा से मिलते हैं।’’ अनूप से बोलता हुआ, वह उमा के साथ एक ग्रुप-फोटो के नीचे आ खड़ा हुआ। फुटबाल खिलाड़ियों के कपड़े पहने कुछ लड़के कुर्सियों पर बैठे थे और कुछ पीछे खड़े थे। बीच में नीचे शील्ड रखी थी। उमा ने बताया कि विक्रम भैया के पास बैठा है। मानिक ने यों ही गौर से देखा और टाल दिया। अनूप को संबोधित करके बोला, ‘‘तेरी मौछी झुट्टी, तेरी मौछी झुट्टी।’’

उमा बताए जा रही थी, ‘‘फुटबाल के बड़े ही अच्छे प्लेयर थे। विक्रम भैया के साथ ही तो पढ़ते थे। उनकी मां, बहनें और भाभी खूब लड़ती थीं? लेकिन ये सुनते ही नहीं थे।’’ ‘‘अरे होंगे कोई, तेरी बकवासों का कोई ठिकाना है।’’ स्पष्ट ही मानिक की दिलचस्पी अनूप को हंसाने में ज्यादा और कांत भाई साहब में कम थी। उधर उमा को उसकी यह लापरवाही अपने ऊपर अविश्वास जैसी लग रही थी। बोली, ‘‘आपकी भी कैसी कूड़ा याददाश्त है जीजा जी! जब आप लोग मांडे के नीचे बैठे थे, तो बिजली का फ्यूज उड़ गया था। उसे किसने ठीक किया था? वही तो घूम-घूमकर, फ्लैश बल्बों से आप लोगों की तसवीरें ले रहे थे। कलकत्ता से प्रमिला जीजी की शादी के लिए ही तो आए थे।’’

‘‘अरे, आए होंगे। क्यों उनकी जान को रो रही है अब? इतनी देर हो गई, चाय-वाय नहीं पिलवाएगी कुछ? यह शर्त तो तू हार गई, अब देख अपनी जीजी से जाकर कह देना कि सिनेमा जाने के लिए तैयार हो जाए।’’ मानिक ने मुंह बिराकर कहा।

उमा चाय की ट्रे लाई, और साथ में फ्रेम की हुई एक फोटो भी कहीं से उतार लाई, ‘‘लीजिए, ये पिछले ही महीने उनकी भी शादी हुई थी। भाभी जी बरेली की हैं।’’

अखबारों में विवाहों की जैसी तसवीरें छपती हैं, यह तसवीर भी कुछ-कुछ वैसी ही थी...मंजू और कांत। साड़ी बाकायदा माथे पर जरा-सी झुकी थी और कांत सूट-बूट में था। गंभीर और कुछ खोया-सा..।

उमा ने फिर बताया कि बारात जब आई थी, तो इस कांत ने ही उसे बांह पकड़कर घोड़े से उतारा था। तसवीर उसने लौटा दी, लेकिन इस बार कहीं हल्की-सी उदासी जागी। कांत का चेहरा तो स्पष्ट याद नहीं आया, बस, कुछ-कुछ खयाल समझ की पकड़ में आ-आकर छूटता रहा कि शायद इसे देखा तो है। जहां तक अनूप की शक्ल मिलने का सवाल है, सो बच्चों के फीचर्स इतने अधिक बनने की प्रक्रिया में होते हैं कि हर किसी से उनके मिलने का भ्रम हो सकता है। यह शायद अपने ही मन का प्रक्षेपण होता हो। फिर भी कोई संदेह का आभास हुआ। पिछले महीने ही कांत का विवाह हुआ है और प्रमिला यहां एक महीने पहले ही आ गई थी...।

उस रात जब प्रमिला से बात की, तो वह संदेह भी निकल गया। उसने बेझिझक बता दिया, ‘‘यहां बहुत आते-जाते थे। असल में विक्रम भैया के बहुत अच्छे दोस्त हैं। सो उन्हीं के नाते हमें भी मानते हैं। वो जो बनारसी, सुनहरे जरी के सच्चे काम की हरी-हरी साड़ी है न, वो उन्होंने ही हमें दी है। अभी पिछले महीने खुद उनकी शादी हुई है। उमा का क्या है, वो तो बात-बात में शर्त बदती है। जानती है कि हार हो गई, तो कह दूंगी...मैं कमाती थोड़े ही हूं, शर्त कहां से दू? और जीत गई, तो सिर पर सवार। अभी परसों इसी पर तुल गई कि कांत भाई साहब की शक्ल आपसे बहुत मिलती है।’’

मानिक ने हंसकर टाल दिया, ‘‘हां, उमा तो घर भर में बेसऊरी और सिड़बिल्लेपन के लिए प्रसिद्ध ही है। जाने कितनी बेवकूफी की बातें करती है...।’’

लौटा, तो उसे जालंधर जाना पड़ा और वहां उसे आठेक महीने लग गए। प्रमिला की बड़ी अनुरोध और अनुराग-भरी चिट्ठियां आतीं और वह नौकरी को जी भरकर कोसती, जिसके कारण शादी के बाद यों उन्हें अलग-अलग रहना पड़ रहा है। वह लगातार अनूप के बारे में खबर देती रहती। सास-ससुर ने बहुत जोर देकर अनूप के मुंडन पर बुलाया। पत्नी भी चाहती थी कि वह देख जाएं। अनूप साल भर का हो रहा था। ससुर की जिद के कारण मुंडन वहीं रखा था। प्रमिला की इच्छा थी कि जल्दी-से-जल्दी बनारस से हट जाए, लाड़ के मारे नाना-नानी अनूप में ऐसी आदतें डाले दे रहे हैं, जिनसे उसे सख्त नफरत है। वे उसे नंगा घूमने देते हैं और खाने-पीने का कोई ध्यान नहीं रखते। उसकी तोतली बोली में ‘छाले, उल्लू ते पत्थे’ सुनकर वे लोट-पोट हो जाते हैं। प्रमिला का आग्रह था कि उसकी इस समय की शिक्षा-दीक्षा अच्छे ढंग से हो। आखिर खुद उसकी इंटर तक की पढ़ाई किस दिन काम आएगी।

इस बार जब मानिक ने अनूप को देखा, तो सचमुच धक्-से रह गया। वह स्वयं कांत से मिलता है, या नहीं, यह तो नहीं पता; लेकिन अनूप के चेहरे में जरूर कुछ ऐसा था, जो कांत की फोटो की याद दिला देता था। कुछ देर तो वह शायद यह भी भूल गया कि अनूप उसकी गोद में है...कहीं सचमुच...? और बात उसके मन में कोई ठोस आकार ले, इससे पहले ही अनूप को उसने अपनी छाती से चिपका लिया। हालांकि अनूप उसे भूल गया था और चीख-चीखकर रोने लगा था।

दो-तीन महीने बाद जब बदली स्थायी रूप से लखनऊ की हो गई, तो प्रमिला और अनूप दोनों वहीं आ गए...। लेकिन मानिक को अपने भीतर एक अजीब जड़ता और विरक्ति का अहसास होने लगा था। हमेशा उसके मन में एक आशंका धड़कती रहती कि कहीं प्रमिला के सामान, कपड़ों या कागज-किताबों में कांत का कोई पत्र या ऐसी-वैसी चीज न मिल जाए। यों वह साइकिल पर बैठा अनूप को बाजार ले जाता, सुबह देर तक उसके साथ गेंद खेलता और रात को छत पर लेटकर उसे दुनिया भर की कहानियां सुनाता। उसकी हर उल्टी-सीधी जिद पूरी करता, लेकिन कोई चीज थी, जो उसे लगातार भीतर कुरेदती रहती थी। अकारण ही अक्सर एक अनजानी झुंझलाहट का ज्वार-सा उसके भीतर उमड़ आता और इच्छा होती कि अनूप को उल्टा लटका दे। उसकी किसी शैतानी या जिद पर वह ऐसे जोर से तमाचा मार देता कि गालों पर उंगलियों के निशान बन जाते और बाद में कई दिन उसका मन खराब रहता-वह उसे पुचकारता और मनाता...। चौके में खाना बनाती या चटाई पर मशीन चलाती प्रमिला को चुपचाप बिना जताए देखता रहता, और फिर खुद ही सिर झटककर जल्दी-जल्दी अपने गालों पर हजामत का साबुन लगाने लगता, ‘नहीं...नहीं, छिः-छिः मेरे मन में भी जाने क्या-क्या बातें आती रहती हैं...।’

ऑफिस में काम करते-करते उसे जाने क्या होता कि वह उंगलियों पर हिसाब लगाने लगता...अनूप शादी के ठीक साढ़े दस महीने बाद हुआ है, यह भी नहीं कि सात-आठ महीने का ही...। और फिर ऐसी बात सोचने के लिए खुद ही अपने मन को धिक्कारने लगता। लेकिन हमेशा मन में इस धिक्कार के बने रहने के बावजूद, पत्नी के प्रथम मिलन का एक-एक ब्यौरा उसकी आंखों के आगे आता-जाता। बल्कि वह प्रयत्न कर-करके याद करता कि शायद उस दिन की कोई ऐसी बात ध्यान में आ जाए कि मन के संशय को कोई सहारा मिले-प्रमिला के व्यवहार में या सारी स्थिति में...। हो सकता है कि वह उस समय शादी के नशे में खोया रहा हो कि ऐसी बात निगाह से ही चूक गई हो...। अब सोचने से याद आ जाए और किसी नतीजे पर पहुंचने में सहायक हो...। उसके मित्रों और पुस्तकों ने ‘अबोध’ और ‘कुंवारी’ लड़की के जो लक्षण बताए थे, वे तो सब ज्यों-के-त्यों नहीं मिले, लेकिन कुछ ऐसा भी नहीं मिला, जो प्रमिला के ‘अनुभवी’ होने की बात सिद्ध करता हो...। उसके व्यवहार में भी बाद में ऐसा कुछ नहीं पाया कि लगे उसे किसी की याद आती रहती हो...बल्कि अपने पहले मिलन पर मानिक को कहीं गहरा संतोष ही मिला कि प्रमिला एकदम ‘अनाड़ी और बेवकूफ’ है...। बाद में भी अच्छी मनःस्थिति में वह उसके अज्ञान पर उसे चिढ़ाता और उसकी झेंप का मजा लेता रहता था...।

आज भी कोई ऐसी बात ध्यान में नहीं आती, लेकिन मन-ही-मन वह अपनी बात काटता...इन लड़कियों का क्या ठीक है...! एक्टिंग तो इनके खून में मिली रहती है...! बाद में निरंतर होती आत्मभर्त्सना के बावजूद उमा तथा अन्य बच्चों से खोद-खोद कर पता लगाया कि कांत शादी में कब आया था, कितने दिनों रुका, प्रमिला से उसके मिलने के अवसर कौन-कौन से थे और जब एक हफ्ते बाद प्रमिला ससुराल से लौटकर बनारस गई थी, क्या कांत तब तक वहीं था?

सच पूछा जाए तो उसे प्रमिला से कोई शिकायत नहीं थी। उल्टे इन सारे दिनों ट्रांसफरों के दौरान उसकी कमी ही महसूस होती रहती थी। न खाने का ठिकाना, न चाय का...। अब वह प्रमिला को घर में जिस तन्मयता से काम में डूबे देखता, जैसे रच-रचकर वह सब्जी काटती, खिड़कियों की धूल झाड़ती, अनूप की तेल-मालिश करती, खुद का उसका जितना खयाल रखती और जिस तरह उसके आगे-पीछे मंडराती, उससे लगता ही नहीं था कि उसका कभी किसी और के प्रति भी कोई खिंचाव रहा है...और यों घर में बीस लोग आते हैं। मान लो, कांत इनके घर में बहुत आता-जाता भी रहा हो, मगर वहां बात इस हद तक तो आगे बढ़ ही नहीं सकती। छोटा-सा घर है। फिर प्रमिला की मां भी सीधी नहीं है; खूब तेज निगाहें रखती रही होगी। सब मन का ही वहम है, और जहां वहम मन में जमा कि आदमी को पेड़ भी भूत दिखाई देता है। हो सकता है, इसी वहम के कारण उसे अनूप की आंखें, माथा, ठोड़ी सब कांत से मिलते लगते हों...वस्तुतः मिलता कुछ भी न हो। उसने कहीं पढ़ा था कि जब बच्चा पेट में होता है, तो उस पर मां के खाने-पीने, आचार-विचार का बहुत असर पड़ता है, यहां तक कि मां अक्सर जिस व्यक्ति के बारे में सोचती है, या जो उसे बहुत याद आता है, बच्चे का हुलिया और आदतें भी वैसी ही हो जाती हैं। तभी तो हमारे यहां कहा गया है कि गर्भवती को महापुरुषों, अवतारों का ध्यान करना चाहिए। हो सकता है, शुरू में वह कांत को बहुत पसंद भी करती रही हो और अक्सर उसके बारे में सोचती भी रही हो। पढ़ी-लिखी लड़की को इतनी छूट तो देनी ही पड़ती है।

इस प्रकार के निष्कर्षों पर पहुंचने के बाद वह अप्रत्याशित रूप से अनूप और प्रमिला के प्रति बहुत ही उदार हो जाता। उन्हें जरूर कहीं-न-कहीं घुमाने ले जाता, कपड़े बनवाता, लेकिन महीने-दो महीने बाद अचानक ही मन के किसी गहरे से धुआं-सा उठता और सब कुछ बेस्वाद और फीका लगने लगता। प्रमिला की सीधी-सी बात पर झल्लाहट होती, चीजों को फेंकता, अनूप अगर रोता, तो उसकी धुनाई कर देता। घर लौटने का उसका मन ही न करता और सब मिलाकर एक वैराग्य-भावना उसे छा लेती...। एक दिन अचानक पाया कि मन में प्रमिला और अनूप के लिए फिर वही प्यार उमड़ने लगा है...अजीब हालत थी, जैसे उसे दौरे आते हों। इसके बावजूद अन्य बच्चों से अनूप की तुलना और उसके प्रति लाड़ उसे हमेशा अपने मन में महसूस होता था। गुब्बारे या लेमनजूस वाले के सामने से बिना अनूप के लिए कुछ खरीदे उससे हिला ही न जाता।

अनूप तीन साल का हुआ, तो उसकी छोटी बहन आ गई-नाम रखा अनुपमा। तब उसके दिमाग का फितूर एक साथ झटके से दूर हो गया। बात यह थी, विवाह से पहले उसे कई बार एक और संदेह आ दबोचता था और तब प्रायः उसकी समझ में ही नहीं आता कि क्या करे। उसने एक डॉक्टर से भी सलाह ली। उसकी सारी बात सुनकर डॉक्टर ने फीस जेब में रखकर लापरवाही से कहा, ‘कुछ नहीं, कुछ नहीं। तुम्हें वहम हो गया है। पढ़ना-लिखना बंद करो और शादी कर लो...यू आर ए परफेक्ट मैन। इस तरह की आधी बीमारियां सिर्फ दिमागी होती हैं।’ अनुपमा के आने तक यही संदेह उसे कभी-कभी कुरेद जाता था...हो सकता है, उसका भ्रम ही ठीक हो और बात डॉक्टर की समझ में न आई हो। अनुपमा जब पेट में आई, तो उसने खुद आत्मविश्वास से अपनी पीठ ठोंकी, ‘वाकई वह तो भ्रम निकला। आइ एम ए परफेक्ट मैन’। शेख-चिल्लियों जैसी वह बात मेरे मन में आखिर जम कैसे गई...? और उसे लगा जैसे अब जाकर वह नॉर्मल हुआ है। बस, उसे कभी-कभी एक तरह की बेचैनी जरूर महसूस होने लगती थी और कभी उसका बायां कंधा उसके अनचाहे इस तरह फड़कने लगता कि वह उसे चकित होकर देखता रहा। अचानक उसका मन होता कि हाथ की फाइलों को झटके से उछाल-उछालकर फेंक दे, दवात को जोर से जमीन पर दे मारे और सुराही की गरदन पकड़कर मेज पर भड़ाका बुलाए। ऐसे समय वह रद्दी की टोकरी से कोई बेकार लिफाफा निकालकर हवा भरता और मुट्ठी में कसकर ऐसे जोर से दूसरे हाथ का मुक्का मारता कि आसपास के लोग चौंककर उछल पड़ते...।

और इस सारी भीतरी उठा-पटक, कशमकश तथा बाहरी खींचतान के बावजूद न तो उसने कभी प्रमिला के प्रति इस प्रकार के अभद्र संकेत किए और न अनूप के प्रति अपने मन में प्यार की कमी पाई। गुस्सा, शक, दुःख, झुंझलाहट के साथ-साथ दिनों-दिन यह अनुभूति मन में जमती ही चली गई कि अनूप ‘अपना’ ही है-अपनी आत्मा और रक्त का अंश है। इस बात पर कभी-कभी वह खुद अपनी ही सराहना करता कि वह अच्छे संस्कारों वाला शिष्ट व्यक्ति है, वरना और कोई होता तो काटकर प्रमिला के दो टुकड़े कर देता और बच्चे का मुंह तक न देखता। यह तो वही था कि उन भीषण क्षणों को उसने धैर्यपूर्वक निकल जाने दिया। प्रमिला की हर हरकत पर कड़ी निगाह रही, या उसकी तलाशी ली, उसके हर आने-जाने वाले पत्र को सेंसर किया और उसे कतई बनारस नहीं जाने दिया...यह बिल्कुल दूसरी बात है। यह उसका हक था।

कभी-कभी जब वह उंगली पकड़े अनूप को कहीं ले जाता, साथ सुलाता या उसकी गेलिसें बांधता, तो उसके अधिकारपूर्वक किए गए आग्रहों को देखकर एक टीस जैसा विचार कौंधकर रह जाता-जिसकी वह उंगली पकड़े ले जा रहा है, जिसे साथ सुलाता है या जिसकी टांग गोद में रखकर जूते के फीते कस रहा है, या जिसे साबुन से मल-मलकर नहला रहा है, उसे क्या पता कि वह किसका लड़का है? उसका बाप कहां है? इस बात को शायद बाहरवाला कोई आदमी नहीं जानता...हो सकता है कांत या प्रमिला को खुद पता न हो...। जब वह किसी बच्चे को किसी के कंधे पर लदा हुआ जाते देखता, तो मन-ही-मन पूछता-इस गद्गद होकर चले जाते हुए बुद्धू को ही क्या गारंटी है कि उसके कंधे पर चढ़ा, बाल खींचता या आइसक्रीम खाता बच्चा खास उसी का बेटा है? या ये साहब खुद अपने बाप के ही बेटे हैं? फिर वह निहायत ही तटस्थ होकर सोचता-अच्छा मान लो, इस सामनेवाले व्यक्ति का बाप एक्स नहीं वाई था, और एक्स ने जिंदगी भर इसे अपना बेटा मानकर पाला, तो इससे खुद इन्हें कहां फर्क पड़ा? मेरे बाप कपूरचंद न होकर हरिमोहन थे, लेकिन मैं तो जो हूं, सो ही हूं। मेरे लिए यह बात जिंदगी और मौत का सवाल क्यों बने कि अगर कपूरचंद ने मुझे अपना बेटा कहकर पाला है, तो कपूरचंद को ही मेरा ‘स्रष्टा’ भी होना चाहिए...? मेरे आने का निमित्त कपूरचंद हो या हरिमोहन, मेरे लिए तो दोनों ही एक जैसे हैं। जो मेरे सामने है, मुझे तो उसी से मोह है। आदमी को यह ललक क्यों है कि सृजन के उस ‘विशेष क्षण’ में आने वाले बच्चे का ‘निमित्त’ भी वही बने? अच्छा, मान लीजिए, मैं जिंदगी भर, यही विश्वास करके बच्चों को पढ़ाता, पालता-पोसता कि इसके जन्म का ‘निमित्त’ भी मैं ही था, और यह बात आखिर में जाकर खुलती कि मैं जिंदगी-भर भ्रम में रहा, तो इससे सचमुच मेरी सारी जिंदगी निरर्थक कैसे हो गई। मेरे जीवन में पितृत्व के वे सारे गद्गद संवेग और विभोर संवेदन, हर रास्ते चलते बच्चे को देखकर मन में आया हुआ वह तन्मय-विस्मय का भाव और वह अपने अणु-अणु से निछावर हो जाने वाला प्रसन्न समर्पण-वह सब इसी एक ‘ज्ञान’ से अनजिया और झूठा कैसे हो जाएगा? मानिक को जाने कैसे यह विश्वास हो गया था (और अपने इस विश्वास से बड़ा संतोष होता था) कि ये इधर-उधर दीखने वाले कुछ ही बच्चे अपने ‘असली बापों’ के हैं, बाकी तो यों ही किन्हीं दूसरों के नामों से चल रहे हैं...और एक उत्तेजनाहीन गुस्से से इस समस्या का हल रखता कि अगर इनकी मांओं को उल्टा लटकाकर लगातार कोड़ों से धुनाई की जाए, तब शायद वे कबूलें कि कौन किसका बेटा है। दुनिया के भूत और वर्तमान इतिहास में जाने कितने लोग अपने बाप के बेटे होंगे, इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न की ओर पहले उसका ध्यान क्यों नहीं गया था, ताज्जुब तो यह है...!

इस तरह बात को फैलाकर वह उड़ा जरूर देता, लेकिन एक तसवीर इन सारे दिनों उसकी चेतना पर घाव की मक्खी की तरह मंडराती रही है, जो घूम-घूमकर आंखों के सामने आ जाती है। वह बातें कर रहा होता, खाना खा रहा होता, सोने की कोशिश कर रहा होता, तो समय-असमय जाने कहां से अंधेरे में वह तसवीर उभरती चली आती है...

वही मर्दाना कमरा है, जहां अक्सर उसे ससुराल में ठहराया जाता है...। धुंधलके का समय है और घरवाले लोग जाने कहां गए हैं...। निवाड़ के चौड़े पलंग पर दो व्यक्ति लेटे हैं-लंबाई में नहीं चौड़ाई पार करते हुए इस तरह कि दोनों की टांगें सामने की ओर लटकी हैं...। कांत की दी हुई बनारसी हरी साड़ी से घिरी प्रमिला की टांगें हैं। जरी के चौड़े सुनहरे बॉर्डर के नीचे महावर लगे छोटे-छोटे गोरे पंजे झूल रहे हैं। रंगीन सुर्ख सैंडिल नीचे पड़े हैं-शायद सरककर नीचे गिर पड़े हैं। उन पंजों के पास ही ग्रे-पैंट के नीचे पॉलिश से चमकते दो काले डरबी जूते हैं। प्रमिला चित लेटी है और उस पर झुका हुआ है कांत। प्रमिला रो रही है और कांत बार-बार उसके बालों पर हाथ फेरता है; उसके होंठ और पलकें चूमता है। उसके चौड़े-चौड़े हाथों में प्रमिला के मेहंदी-लगे हाथ हैं, जिनकी अंगुलियों में अंगूठियां झिलमिला रही हैं। कलाइयों में हरी-लाल चूड़ियां हैं, सांप के मुंहवाले सोने के कड़े हैं, घड़ी है। प्रमिला ससुराल से लौटकर आई-पराई हो गई है। शायद दोनों रो रहे हैं...। इस तरह कांत जाने कब तक उसकी छाती पर सिर रखे लेटा रहा है। तभी अचानक उठने का प्रयत्न करते हुए वह कहती है, ‘‘नहीं कांत, नहीं...अब यह नहीं...! देखो, अब यह सब नहीं...!’’ वह कहना चाहती है कि अब मेरी शादी हो गई है। लेकिन कांत उसे उठने नहीं देता, होंठों पर होंठ रख देता है, ‘प्रमिला, प्रमिला ‘डार्लिंग’। मुझे रोको नहीं...अब फिर पता नहीं, जिंदगी में कभी मिलना होगा या नहीं, फिर कभी तुम्हें छू भी संकूगा या नहीं...बस, इसी बार....।’

और चित्र इससे आगे नहीं चलता। जैसे रील टूट जाती है। लेकिन इतने ही चित्र को मानिक ने इतनी बार और इतने ब्यौरे के साथ देखा है कि इसकी सच्चाई में अब कोई संदेह नहीं रह गया। उसे अब तो सचमुच यही विश्वास हो गया है कि वह खुद भी कहीं किसी जगह छिपा, किसी सूराख से सारा दृश्य देख-देखकर दांत पीस रहा था...उसने एक-एक बात ध्यान से देखी-सुनी थी। उसे यह तक याद है कि कांत की कमीज के रंग और डिजाइन क्या थे, पतलून किस कपड़े की थी...या जब प्रमिला बेमन से उसे बरज रही थी, तो किस तरक कांत की सांस तेज घौंकनी की तरह चलने लगी थी और कैसे उसका एक हाथ प्रमिला की पीठ पर लटके ब्लाउज के फुंदने से खेलता उसे छाती से चिपकाए था...। हो सकता है, तसवीर की एक-एक बात को उसकी कल्पना ने धीरे-धीरे करके उसके अवचेतन मन में गढ़ दिया हो...या किसी कहानी-उपन्यास के इसी प्रकार के अंश में उसने खुद कांत और प्रमिला को फिट कर लिया हो...मगर यह तस्वीर उसके न चाहने पर भी इतनी तरह से और इतनी बार कौंधती रही है कि उस पर अविश्वास होना बंद हो गया लगता है। वह हिसाब लगाता है कि सुहागरात के बाद प्रमिला अपनी मां के यहां आई थी, तब की यह ‘घटना’ है, यानी दो दिनों का अंतर। यानी तब तो हिसाब ठीक ही बैठ गया...। ऐसी बातों में दस-पांच दिनों का अंतर तो खुद भी नहीं बता सकता...। बस, अगर सच बात कोई बता सकता है, तो वह है प्रमिला...।

अनुपमा के जन्म ने उसके मन के सारे जाले साफ कर दिए और यह तसवीर और इसके साथ जुड़ी सारी शंकाएं और चिंताएं अवचेतन के कबाड़खाने में जाकर डाल दिए गए। अब तो हर क्षण उसे अफसोस और आश्चर्य होता रहता कि कैसे वह निराधार बात उसके मन में जम गई थी? शायद उसी की प्रतिक्रिया थी कि अब न तो वह दफ्तर से देर से लौटता, न कभी बेकार झल्लाता...। अब तो वह था, उसका अनूप था, उसकी अनुपमा थी, और थी, उसकी प्रमिला...। लेकिन अनूप सबसे ऊपर था...। सुबह वह उसको स्कूल छोड़ने जाता। बीच में प्रमिला उसे टिफिन देने जाती और सांझ को स्कूल की ड्रेस में जब वह थैला घुमाता आता और खाने के लिए जल्दी मचाता, तो सारा घर चहक उठता...। मानिक तो एक सांत्वनामयी खुशी थी कि दुनिया-भर की तसवीरों और शंकाओं के बावजूद यह चहक घर में गूंजती रहती थी...गूंजती रहती थी।

यह नहीं कि पहले की कोई बात खयाल आती ही न हो... लेकिन न तो पहले जैसी उसमें हिंस्र कड़वाहट होती, न आत्मघाती दंश। खासकर जिस समय अनूप कुछ असाधारण काम करता या बहुत समझदारी की बात करता, तो कहीं बहुत धुंधला-सा मन में जागता...साला बड़ा इंटेलिजेंट है, वर्णसंकर है न, क्रॉसब्रीड। अपने-आपसे पूछता : ‘अच्छा, इसे वर्णसंकर कहेंगे, या जारज? अरे, हटाओ भी, जारज ही हो गया, तो ऐसी क्या मुसीबत आ गई। इसे जानता कौन है बाहर?’

‘दफ्तर के काम से मुझे कलकत्ता जाना है।’ एक दिन आकर मानिक ने बताया, ‘जाना परसों की गाड़ी से ही होगा। तुम जरा मेरे कपड़ों के बटन-अटन देख देना...।’

प्रमिला खिल उठी, ‘‘पहले से पता होता, तो हम भी चलते। क्या है, थोड़ा-बहुत खर्चा ही होता। बाकी तो ऑफिस से ही मिल जाता। कांत भाई साहब जाने कब से आने को कह रहे है...।’’

मानिक को अच्छा नहीं लगा। उसने तो हर खत को देखा है, कांत भाई साहब ने आने को कब कह दिया। लेकिन इसके बाद प्रमिला ने बेहद आग्रह किया था कि कांत भाई साहब के यहां जरूर जाएं, बल्कि वहीं ठहरें। खास भाई की तरह रखेंगे। कांत को देखने की इच्छा मानिक के मन में भी थी ही। वह तैयार हो गया। शायद उसी दिन प्रमिला ने एक खत लिखा और बाजार जाकर रूबी को देने के लिए नेकर और कमीजों का कपड़ा भी ले आई। सारे समय मानिक को समझाती रही कि कैसे कांत और मंजे को यहां आने का निमंत्रण देना है।

स्टेशन पर लेने खुद कांत आया था। जो आशंका रास्ते-भर उस पर मंडराती रही थी, मानो उससे बचने के लिए वह भगवान से प्रार्थना करता रहा कि कांत न आए...लेकिन जब उसने सिगरेट पीते कांत को प्लेटफार्म पर देखते ही पहचान लिया, तो गाड़ी रुकने से पहले ही सवाल मन में उठा : क्या सचमुच कहीं इतना कुछ परिचित है। फिर खुद ही तर्क दिया : तसवीर तो देखी ही थी। गाड़ी से उतरकर गेट की तरफ आते हुए उसने गौर से देखा, तो कांत खुद ही बोला, ‘‘आपने मुझे पहचाना खूब...! पहले से अब तो बदन भी भारी हो गया है और तब तो वह चश्मा भी नहीं लगाता था।’’ कांत खुद ही हंस पड़ा।

‘‘प्रमिला के घर बनारस में तसवीर तो देखी ही थी। फिर शादी पर भी मिले थे। घर पर भी आपका जिक्र होता ही रहता है...।’’ लेकिन उसका स्वर टूट गया। कांत को देखकर सचमुच घक् ही रह गया...। इतने सीधे-सादे सत्य को कैसे वह झूठे तर्कों से टालता रहा और कैसे अपने-आपको समझाता रहा...?

ऊपर से सारी औपचारिक बातें होती रहीं। वे एक-दूसरे से मिलने पर खुशी जाहिर करते रहे। शादी की बातें याद करते रहे। कांत, अनूप और प्रमिला के बारे में पूछता रहा। अपनी व्यस्तता और असमर्थता की शिकायत करता रहा कि ‘‘आपके बारे में भी हम लोग रोज ही बातें करते थे...।’’ या ‘‘आपने तो लखनऊ बनारस आना ही छोड़ दिया। लेकिन मन-ही-मन अपने-आपसे वार्तालाप चलता रहा...और जब उसने रूबी को देखा, तो सचमुच ही आसमान से गिरा-एकदम जैसे सामने अनूप खड़ा हो!...वही आंखें, वही माथा, वही ठोड़ी और ठीक उसी तरह हंसने का ढंग...इसी हंसी की याद करके वह रास्ते चलते मुस्कराया करता था? उसने अपने-आपसे पूछा-इसी तरह की आंखों की चमक देखकर उसे अपने जीवन की सार्थकता का भ्रम होता था...?

नहीं...नहीं..., वह कभी भ्रम में नहीं रहा...। उसके मन में सुलगती भट्ठी एक दिन को ठंडी नहीं हुई। प्रमिला के झूठे और दिखावे ने उसे एक पल नहीं भरमाया और उमा का गाड़ा हुआ कांटा एक निमिष को टीसना बंद नहीं हुआ। ‘मक्कार, हरामजादी...।’ ये शब्द पता नहीं, किसके लिए उसने दांत पीसकर कहे। सिर्फ एक या दूसरे तर्क और बहानों का सहारा खोज-खोजकर वह अपने को भुलाने की ही कोशिश करता रहा है। कभी यह भुलाने का काम शराब करती थी, और कभी भगवान का कीर्तन या दफ्तर में देर-देर तक बैठना। बस, खींचतान यही रही है कि उस ओर ध्यान न जाए। गलतफहमी उसे कतई नहीं है...।

अकारण ही उसे याद आया कि प्रमिला ने किस प्रकार जिद करके उसे नाना-नानी के यहां से हटा दिया था-अनूप में खराब आदतें पड़तीं हैं। यार का लड़का था न, तभी तो इतना खयाल था कि अपने मां-बाप भी दुश्मन लगे...! होता कहीं मानिक का तो पड़ा रहता कहीं...।

मानिक को होश नहीं रहा कि नाव कब नदी पार करके दूसरे किनारे आ गई और बैलूर की ओर के घाट छूती हुई बढ़ती रही। रूबी की बांह पकड़े वह जाने कहां खोया अपने-आपसे पूछता रहा ‘छह साल! पूरे छह साल रात और दिन, सुबह और शाम मैं मानसिक यातना के अंधेरे कुएं में घुटने की सजा भुगतता रहा...किसलिए? आखिर मेरा अपराध क्या था? और जब बिना अपराध किए ही सजा मैं भुगत रहा हूं, तो दूसरा भी क्यों न भुगते? अब अगर मेरे मन में बदले की, प्रतिहिंसा और प्रतिशोध की बात आती है, तो इसमें बुरा और अस्वाभाविक ऐसा आखिर क्या है? जिन्होंने या जिसने अपराध किया है, वे भी क्यों न जानें कि दंड भी मिलता है...? रूबी तो इस प्रतिरोध का एक साधन-मात्र है।’

‘‘बाबू, पैसे।’’ मल्लाहों ने बैलूर घाट से कुछ दूर पर ही नाव रोककर सारी नाव में घूम-घूमकर किराया वसूल करना शुरू कर दिया था, और केवल घुटनों से ऊंची धोती बांधे एक पक्के रंग का नौजवान मानिक के कंधे पर हाथ रखकर पैसे मांग रहा था।

‘‘चाचा जी...चाचा जी!’’ शायद रूबी ने भी दो-एक बार पुकारा था और तब वह हकबकाकर होश में आ गया था। जेब से पर्स निकालते हुए उसने देखा कि बैलूर के घाटों के ऊपर मंदिर खड़ा था। ‘‘वो सीढ़ियां हैं न, बस, अभी वहां नाव पहुंचेगी और हम एकदम उछलकर घास पर चले जाएंगे...। पिछली बार आए थे, तो हम लोगों ने रबर के रिंग का खेल खेला था।’’ रूबी बता रहा था।

सायं के सूरज की पीली-पीली किरणें पानी और घास पर, पेड़ों और इमारतों की आड़ लेकर आड़े-तिरछे त्रिकोण बना रही थीं, गेरुआ, साफा कुरता और तहमद पहने दो संन्यासी ऊंचे किनारे पर चहलकदमी कर रहे थे। किनारा बहुत ही पास था और पैसों की वसूली के बाद नाव फिर से चली, तो मानिक में मन में आया-मान लो, वह भी संन्यासी हो जाए, तो?...प्रमिला और अनूप का क्या होगा...? यह नहीं कि ऐसा विचार पहले उसके मन में नहीं आया...लेकिन पहले तो कहीं-न-कहीं एक अनिश्चय भी था..? शायद यह सब उसी का वहम हो...। अब तो अनिश्चय की कोई बात नहीं है। फिर वह क्यों न यहीं रहे, यहीं खाए...।

‘‘उतरिए...उतरिए, चाचा जी!’’ नाव एकदम सीढ़ियों के किनारे आकर लग गई थी और लोग जल्दी-जल्दी उतर-उतरकर ऊपर भागे जा रहे थे। नीचे की सीढ़ी पर पानी के कारण काई और बेहद फिसलनी मिट्टी की कीचड़ थी, इसलिए वहां लोग अपनी-अपनी धोतियों, पैंटों को घुटनों तक उठाए थे और बहुत जमा-जमाकर पांव रख रहे थे। फिर भी किसी-न-किसी का पांव फिसलने ही लगता था। एक बच्चे ने जैसे ही नाव से बारह पांव रखा कि उसक जूता दूर तक फिसलता चला गया। साथ वाले व्यक्ति ने झपटकर उसकी बांह पकड़ ली, तो जैसे-तैसे वह गिरते-गिरते बचा, एक तरह लटका-सा रह गया...। ‘‘देखो बेटे, तुम हमारा हाथ पकड़कर उतरो। लो, नहीं तो वैसे ही फिसल जाओगे...। छोटे बच्चों को क्रेप के जूते पहनना किसने बताया?’’ उसका स्वर अप्रत्याशित रूप से मुलायम हो गया, तो वह स्वयं अपने स्वर पर चौंक उठा। साथ ही पहली बार उसके मन में आया कि वे दोनों ही निरपराध हैं और यही एक बात दोनों को आपस में बहुत निकट ले आई है...।

नाव की कगार पर खड़े रूबी को एक हाथ से पकड़े, अपने-आप उतरने में मदद करते हुए मानिक की निगाहें फिर उसके चेहरे की ओर उठ गईं। पीली धूप उसकी एक कनपटी पर तिरछी पड़ रही थी और देर तक उसकी समझ में न आया कि जिसे इतनी सावधानी से वह उतार रहा है, या जिसे उंगली पकड़े एक-एक कदम जमाकर सीढ़ियां चढ़ाता वह ऊपर लिए जा रहा है, वह अनूप है, या रूबी और स्वयं उन दोनों के चढ़ने से पहले, सीढ़ियों पर चढ़ती दो बहुत लंबी-लंबी छायाओं में छोटी वाली छाया के लिए उसके मन मे उठती भावना है, या प्रतिहिंसा...? वही कद...वही उम्र...वही चेहरा...वही ढंग...वही दुलार और वही प्राणांतक टीस...