किरचें / सुकेश साहनी

Gadya Kosh से
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लड़के की लाल सुर्ख आँखें नींद की वजह से मुँदी जा रही थीं। आदि कुमारी पर भक्तों की चौबीसों घंटे की भीड़ के कारण वह कई दिनों से सो नहीं पाया था। वह सोना चाहता था, पर उसके सामने जूठे गिलासों का ढेर लगा हुआ था।

"ओए, जल्दी कर" दुकान वाला थोड़ी-थोड़ी देर बाद चिल्ला पड़ता था। वह पहले जूठे गिलासों को साबुन के घोल के टब में डाल देता था। फिर उसमें से एक-एक गिलास निकालकर स्वच्छ पानी में अच्छी तरह साफ कर एक ओर रखता जा रहा था। वहाँ चाय पी रहे कई लोग लड़के के गिलास साफ करने के अंदाज को प्रशंसा-भरी नजरों से देख रहे थे।

तभी लड़के की आँख झपक गई, झनाक्...की आवाज के साथ गिलास हाथ से गिरकर चूर-चूर हो गया। उसने चौंककर बड़ी मुश्किल से नींद से भारी पलकें उठाकर खोई-खोई आँखों से मालिक की ओर देखा, जो गिलास टूटते ही अपनी जगह से कूदकर उसके सिर पर आ खड़ा हुआ था।

"हाथ टूटे हुए हैं क्या...और कितना नुकसान करेगा?" उसने एक चाँटा तड़ से उसके गाल पर जड़ दिया।

लड़के के कोमल गालों पर अँगुलियाँ छप गईं और नींद से बोझिल आँखों में आँसू तैरने लगे।

"जल्दी-जल्दी हाथ चला। देख, कितने ग्राहक इंतजार में खड़े हैं।" दुकानदार ने कहा और गिलास की किरचों को जूते की मदद से उस लड़के के आस-पास फैला दिया।

"किसी से काँच उठवा दो, बच्चे को लग जाएगा।" एक ग्राहक बोला।

"बाबूजी, आप नहीं जानते, यह बड़ा कामचोर है। ये काँच के टुकड़े न होते, तो साला कब का काम छोड़-छाड़कर यहीं सो जाता।"

लड़का फिर अपने काम में लग गया था। नींद बार-बार उसे दबोच लेती थी और वह एक ओर लुढ़कने से पहले ही चौंककर सीधा हो काम में जुट जाता था। इसी प्रयास में उसका हाथ एक किरच पर पड़ गया और खून निकलने लगा।

उसने उनींदी और उदास आँखों से हाथ से रिसते खून की ओर देखा। एकाएक उसके चेहरे पर क्रूर मुस्कान रेंगी। अब वह बिजली की-सी तेजी से गिलासों को साबुन के घोल से निकाले बगैर पानी में धोकर रखता जा रहा था। देखते-ही-देखते जूठे गिलासों का ढेर धुले गिलासों में बदल गया। अगले ही क्षण वह अपने आस-पास बिखरी किरचों की परवाह किए बिना वहाँ पसरकर बेसुध सो रहा था।