किलेबन्दी / सुशील कुमार फुल्ल
रात के ग्यारह बजे होंगे। शहर मर चुका था और श्मशान में उसकी अधजली लाश भूतों के उग आने का अहसास पैदा कर रही थी! घर में सब सो गये थे। उन्होंने कई बार घर वालों को देखा...कोई नहीं जाग रहा था... फिर लगता शायद सहमे-डरे हुए लोग जागते हुए भी सोने का अभिनय कर रहे हैं...उनको हंसी आ गयी...जीते हुए मर जाना... लेकिन यह मुहावरा तो उन्होंने किसी दूसरे अर्थ में ही पढ़ा था... समय के साथ मुहावरों के भी अर्थ बदलते हैं...सब कुछ बदल जाता है... देस-परदेस हो जाता है...प्रजा बदल जाती है... राजा बदलता इतिहास में उन्होंने अनेक बार सुना था...परन्तु प्रजा को बाँटना पहली बार सुना था...
प्रजा बँट गयी थी... देश बाँट लिया गया था... इधर के लोग उधर तथा उधर के लोग इधर...क्या अजीब जनून था...धरती तो वहीं की वहीं रहती है... बस... महत्वकांक्षी इन्सान... कुर्सी और राजसी ठाठ-बाट का भूखा इन्सान क्या नहीं कर देता...अनंत दौड़...? लाला जी आँखों में आँसू छलछला आए!
लोग भाग रहे थे... गठरियां उठाए... किसी-न-किसी प्रकार अपनी बहू-बेटियों को छिपाए...फिर भी दरिन्दे कहीं-न-कहीं उन्हें आ घेरते थे...सारा देश जंगल हो गया था...सारे इन्सान हैवान हो गये थे.... सही और गलत की पहचान खो गयी थी... शायद नेताओं ने एक भ्रम पैदा कर दिया था...
लाला जी भी परिवार के साथ गिरते-पड़ते चले हुए थे...उनकी बहन रामदुलारी भी उनके साथ भी... खुदाबख्श उनका दोस्त था.... जो उन्हें सरहद तक छोड़ने आया था...सब एक खौफ के साय में चल रहे थे.... तभी तूफान आ गया था...उनका काफिला घिर गया था... मार काट होने लगी थी... रामदुलारी आहत हिरनी-सी भागने लगी थी...तभी खुदाबख्श ने लाला जी से कहा था- रामदुलारी मेरे हवाले कर दो... बच जायेगी... मैं निकाह रचा लूँगा.... लाला जी चुप हो गये थे...उनका निरीह आँखें... टपटप आँसू बरसा रही थीं... वह बोली भैया तुम चिन्ता न करो...मैंने अपना इन्तजाम कर लिया है...और वह वहीं ढेर हो गयी थी...
वह उनकी पहली मौत थी शायद...जीते जी मर जाना...अब तो उन्हें लगता है कि वह हर रोज़ मर रहे हैं...फिर उग पड़ते हैं...फिर मर जाते हैं... शायद उनका दाह-संस्कार ठीक से नहीं हो पाता... शायद इसीलिए...
जालंधर का सेंट्रल टाउन! गली नम्बर 7... यही तो है वह रण-स्थली जहाँ उन्होंने दादन खाँ से उखड़ कर फिर अपनी जड़ों को जमाने का प्रयत्न किया है... सारी जवानी पुनः जमने में लग गयी... और अब यह शहर मुर्दा हो गया है...बेटा कहता है... पापा...बस घर मे बन्द रहो... बाहर खतरा ही खतरा है... सायं पाँच बजते ही किवाड़ बन्द हो जाते हैं...... सड़कें मर जाती हैं.... बसें डर जाती हैं... तथा सड़कों पा उग आते हैं अधजली लाशों के भूतहा साये... अपने ही साय से भागता आदमी...
उन्होंने देखा घर के सब लोग सो गये थे.... वे धीमे से किवाड़ खोलकर गली में निकले.... अपनी खाँसी को दबाते हुए वे धीमे-धीमे नेहरू गार्डन की ओर चले.... बन्दूकें यत्र-यत्र खड़ी थीं!
काश! हरदयालसिंह ही इस समय मिल जाता..... तो चहलकदमी करते हुए विस्तार से बातचीत हो जाती..... बहुत दिनों से उससे मिलना ही नहीं हुआ... पता नहीं.... वह स्वस्थ है या नहीं- साठ के पार कर लिये कि घर वाले बाहर ही नहीं निकलने देते। हम कोई सरकारी नौकरी से रिटायर हुए हैं, हमने तो खुद मेहनत करके घर-बार दोबारा बनाया है...हरदयाल भी बेवकूफ ही है...चाहता था.... वह अपने बेटों को बुलन्दियों पर देखना अरे! कौन नहीं देखना चाहता..... सभी माँ-बाप ऐसा ही चाहते हैं... और उस दिन कैसे रो रहा था... गुरूमुख फरार हो गया... ये आज के नौजवान...पता नहीं क्या चाहते हैं.... एक ही दिन में धनवान हो जाना चाहते हैं.... अरे.... धन के लिए मेहनत भी तो करो..... डाके डकैती से क्या होता है...
उनके पीछे एक बन्दूक चलती रही.... वे बेखबर नेहरू-गार्डन की ऐसी बेंच पर जा बैठे जहाँ वे अक्सर हरदयालसिंह के साथ ग्यारह-बारह बजे तक बैठे रहते थे..... वे निश्चिन्त होकर बैठ गये.... अक्तूबर की ठण्ड में भी उन्हें वहाँ बैठने में मज़ा आया..... बहुत दिनों बाद वे खुले आकाश का आनन्द ले रहे थे.... वे ताज़ी हवा को अपने अन्दर भर लेना चाहते थे... आस-पास कोई चहल-पहल नहीं थी.... उनकी आँखें बन्द होने लगी थीं....
‘‘हरदयाल.....’’ ‘‘हूं....’’ मैं तो कैदी हो गया हूँ... पाँच बजे नहीं कि किवाड़ बन्द... मुझे घुटन महसूस होती हैं...’’ ‘‘हूँ....’’ तुम बोलते क्यों नहीं... बड़े चालाक हो न..... हूँ करके ही बात को टाल जाते हो.... और मैं बकवास करता रहता हूँ... लेकिन हरदयाल इन वर्षों में तो चुप ही रहा... लोग अर्थ का अनर्थ निकाल लेते हैं... व्यर्थ की दीवारें खड़ी कर देते हैं... हवा की दीवारों को लोहे की बना देते हैं...इसीलिए मैं तो आज ही किलेबन्दी से बाहर निकल आया... कौन घुटता रहे अन्दर-ही-अन्दर...’’
‘‘हूँ...’’ ‘‘अपने ही शहर में बन्द हो जाना... अपने ही घर में घुट जाना..... बहुत दिनों बाद नेहरू गार्डन में आया हूँ..... और देखो.... तुम भी कितने नखरे से निकले हो..... हालाँकि वे कहते हैं कि तुम रात को घूम सकते हो... लेकिन मैं नहीं... भाई.... भाई..... भाई में ही दीवार..... मैं तो दीवार गिरा दूँगा.... तुम भी..’’ ‘‘हूँ...’’
‘‘हूँ, क्या, तुम कभी नहीं बोलते.... मुझे अब मरने से कोई डर नहीं लगता..... रोज़ अन्दर मरने से एक बार बाहर मर जाना कहीं बेहतर है.....’’ एक बन्दूक उसके पास आ गयी थी.... फिर अनेक बन्दूके उसके इर्द-गिर्द तन गयी थीं....लाला जी की आँखें खुल गई थीं.... इजनी बन्दूकें तन जाने के बावजूद उन्हें कोई डर नहीं लगा... बचपन में कभी सिपाही भी देख लेते... तो काँप जाते थे... लेकिन आज ऐसे नहीं लगा... ‘‘ तुम किससे बात कर रहे थे...?’’ एक बन्दूक ने पूछा!
‘‘अपने दोस्त हरदयालसिंह से...’’ ‘‘कहाँ है वो?’’ बन्दूके फिर तन गयीं!
हरदयालसिंह उर्फ हिरदा... वहीं होगा... कहाँ गया वह...! बोलो... वह खतरनाक... कहीं भाग न जाए... बन्दूकें उनके शरीर के नजदीक आती जा रही थीं... लेकिन लाला जी तो ठहाके लगा रहे थे... सेंट्रल टाउन की गली नं. सात के घुटने भरे कमरे में मरने से नेहरू गार्डन में... या जी. टी. रोड़ पर... घूमना कितना प्यारा लगता है... वह ठहाके लगा रहे थे... कह रहे थे... क्यों रौब जमाते हो,.... मैं तो सैर-सपाटे के लिए निकला हूँ... और हरदयाल... और मैं... तो सदियों सं ऐसे ही रातों में घूमते रहे हैं.. घूमते रहेंगे... शहर फिर मर गया था! वे अकेले रात को जी. टी. रोड़ पर घूम रहे थे... और अधजली लाशों के भूत उसे घूमता देख... अब चिल्ला नहीं रहे थे... शायद यह सोचकर खुश थे कि उनकी रात गुजर जायेगी... मज़े से।
लाला जी हरदयाल के साथ प्रायः रात देर गये चाय पीने बाबे की दूकान पर जाया करते! लाला जी की आज भी वैसी ही इच्छा हुई! वे चौक की ओर बढ़ गये... अरे! सब सुनसान... बाबा वहाँ नहीं था...भट्ठी गर्म नहीं थी... लोग चाय की चुस्कियाँ नहीं ले रहे थे... शायद आज नौकर न आया हो... वे आगे बढ़े... तम्बू के नीचे लोग अलसाये से तनकर खड़े हो गये! लाला जी ठहाका लगाकर आगे बढ़ गये!