किल्लत की रोटी, जिल्लत की रोटी / जयप्रकाश चौकसे

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किल्लत की रोटी, जिल्लत की रोटी
प्रकाशन तिथि :19 फरवरी 2016


अगले शुक्रवार को लगने वाली फिल्मों के नामों पर गौर फरमाएं- 'लव शुद्ध,' 'डायरेक्ट इश्क, इश्क फॉरेवर,यह कैसा पल दो पल का प्यार।' इनके साथ ही सत्य घटना से प्रेरित 'नीरजा' का भी प्रदर्शन हो रहा है परंतु शेष सारी फिल्मों का केंद्र प्रेम है। इन नामों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भारत में प्राथमिकता प्रेम है। इससे ध्वनित होता है मानो प्रेम देश का स्थायी भाव है। यथार्थ तो यह है कि यह हर अर्थ में भारत की गरीबी व गंदगी का दौर है। महंगाई किसी के रोके रुक नहीं सकती। किसान व छात्र आत्महत्या कर रहे हैं। इन मौतों का भी राजनीतिक तमाशा बनाया जा रहा है। शिक्षा संस्थान अखाड़ों में बदले जा रहे हैं और अखाड़े पहलवानों के अभाव में वीरान हो रहे हैं। आज मध्यप्रदेश की अनेक शिक्षा संस्थाएं बंद हैं, क्योंकि छात्रों को लाए जाने वाली बसें श्रोताओं को सीहोर तक ढोने का काम कर रही हैं, जहां प्रधानमंत्री की सभा आयोजित की गई है और विशाल मंच के निर्माण व अन्य कार्यों के कारण अधपकी फसलें काट दी गई हैं। इस तरह की खबर सुर्खियों में हैं।

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दिनों मेें अंग्रेजों के आतंक के बावजूद असंख्य श्रोता अपने नेता को सुनने पहुंच जाते थे। आजादी के बाद भी लगभग दो दशकों तक जनता नेता को सुनने जाती थी परंतु विगत कुछ वर्षों से सारी सभाएं प्रायोजित हो गई हैं। नेताअों के अनगिनत वादों के पूरा नहीं होने के कारण अब अवाम में नेता को सुनने की इच्छा ही नहीं रही है। एक 'लॉन्ग प्ले रिकॉर्ड' दिल्ली में बजता है और उसके 'ई.पी.' पूरे देश में सुने जा सकते हैं। लॉन्ग प्ले रिकॉर्ड में अनेक गीत होते थे, ई.पी. में केवल चार गीत और सिंगल के एक साइड पर एक गीत होता था। डिजिटल टेक्नोलॉजी ने यह खेल बदल दिया है। नेताओं की घटती हुई लोकप्रियता हमारी गणतंत्र व्यवस्था के लिए चिंतनीय बात है। आज कुछ नेता चुनाव जीतने के तरीके जानते हैं। भारतीय चुनावों में जाति और धर्म के नाम पर वोट हासिल कर लिए जाते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में दहशत फैलाकर वोट हड़प लिए जाते हैं। चुनाव में क्षेत्रवाद का जहर हमेशा मौजूद रहा है परंतु कुछ समय पूर्व ही क्षेत्रवाद को जुनून तक पहुंचाया गया है। भारत की आंतरिक ऊर्जा इतनी सशक्त है कि वह इस घटियापन के दौर से भी उबर आएगी। यह ऊर्जा किस स्तर पर कितने प्रवाह से बहती है, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। इस ऊर्जा का उद्‌गम आम साधनहीन आदमी की आत्मा का बल है। उसने इस तरह के कई दौर झेले हैं और उसके इस अनुभव का कोई लिखित इतिहास नहीं है परंतु यह समानांतर इतिहास है।

बहरहाल, मुख्यमंत्री द्वारा सिहोर का चुुनाव अच्छा निर्णय रहा, क्योंकि सिहोर की जमीन बहुत उपजाऊ है। इस तरह की किसान सभाओं में इस बात पर जोर दिया जाना चाहिए कि जैविक खेती पर बल दिया जाए और उन भ्रांतियों को दूर करें कि जैविक खेती से कम अनाज पैदा होता है। कानून बनाने से समाज में परिवर्तन नहीं होते परंतु जैविक खेती के महत्व को स्थापित करना राष्ट्र की सेहत के लिए जरूरी है। हमने कभी अपने किसानों को उनकी फसल के जायज दाम नहीं चुकाए। अन्य क्षेत्रों में बढ़ती हुई कीमतों पर कोई अंकुश नहीं है। अनाज के दाम बढ़ते ही छाती-कूट शुरू हो जाता है परंतु अन्य क्षेत्रों में ऐसा नहीं होता। ये तमाम तथ्य अाम जनता को विस्तार से बताए जाने हैं कि भारत के कुल क्षेत्रफल की कितनी जमीन पर अनाज उगाया जाता है। कितनी और जमीन खेती योग्य की जा सकती है।

खेती-बाड़ी के लिए बनाए गए वैज्ञानिक केंद्र क्या कर रहे हैं, यह भी उजागर होना जरूरी है। दरअसल, सरकार के कृषि विभाग पर किए गए खर्च को कम करके उसका उपयोग जैविक खेती के प्रचार-प्रसार में लगना चाहिए। यह भी कहा जाता है कि हम खाद के नाम पर जो रसायन जमीन में मिला रहे हैं, वह कालांतर में जमीन की उर्वरक क्षमता ही कम कर देगी। यह भी विशेषज्ञों की राय है कि खेती के जिस बीमा की बातें कहीं जा रही है, उसका लाभ केवल बीमा कंपनियों को ही मिलेगा।

शायर इकबार की पंक्तियां हैं, 'जिस खेत पे बेहकां को मयस्सर न हो रोटी उस खेत के हर कोशिया गुंदम जला दो।' कभी कहीं कुछ पंक्तियां पढ़ीं थीं, आज या आ रही हैं, 'पहले किल्लत की रोटी थी, अब जिल्लत की रोटी है, किल्लत की रोटी ठंडी थी, जिल्लत की रोटी गर्म है पर उस पर रखी थोड़ी शर्म है।'