किशन सरोज: गीतों का चन्दन वन / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
कवि जितना सहज और सामान्य हो जाता है, उसकी कविता उतनी ही विशिष्ट हो जाती है। गीतकार किशन सरोज ने सहज अनुभूति की कोमल उँगलियों से श्रोताओं के अश्रु-भीगे हृदयों को अनायास ही छू लेने में महारत हासिल की है। 'चन्दन वन डूब गया' में सरोज जी के 45 सरस गीत हैं। यद्यपि इन गीतों का मुख्य विषय प्रेम ही है; परन्तु सरोज जी ने प्रेम का बहुआयामी चित्रण प्रस्तुत किया है। "किशन सरोज के पास फ़क़त आठ-दस गीत हैं और इन्हीं आठ-दस गीत के बल पर दूरदर्शन, आकाशवाणी औ मंच पर छाए हुअ हैं"-का अपलाप करने वाले ईर्ष्यालु भक्तों को यह संग्रह निराश करेगा। सम्भव है, इस तरह के आलोचक इस बहाने अपना ही अवमूल्यन करते रहे हों , इस संग्रह में लगभग दस गीत ऐसे ज़रूर हैं, जिन्हें राष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया है। किसी भी कवि के पास ऐसे आठ-दस गीत ही हों, तो क्या कम हैं? ज़ुबान पर चढ़ने वाले इतने गीत कम ही गीतकारों के पास होंगे।
प्रेम की अनुभूति संश्लिष्ट एवं विशद होकर गीतों को अपनी अनुगूँज से भर देती है। किशन सरोज के गीत एक सच्चे प्रेमी के संकल्पित मन की तीर्थ-यात्रा है। तीर्थयात्री, नदी, पर्वत, घाटी सभी बाधाओं को नंगे पैरों पार करके भी तृप्ति का अनुभव करता है। वही तृप्ति इन गीतों को प्राणशक्ति देती रही है। जीवन की यह तृप्ति स्व में नहीं है वरन् 'पर' में है। 'पर' ही जीवन का सबसे बड़ा विधायक तत्त्व है, मनुष्य के मानव होने की पहचान है। सह-अनुभूति के बिना प्रेम की यात्रा, तीर्थयात्रा नहीं बनती; क्योंकि यात्रा की सार्थकता हर यात्री से अपनत्व जोड़ने में है, उनका दर्द समझने में है- अपनी ही पीड़ा मत जानो मेरे मन।
आँगन का भी दु: ख पहचानो मेरे मन॥
यह आँगन का दु:ख वास्तव में निवृत्ति का सुख ही है, प्रवृत्ति की आपाधापी इसमें नहीं है। वैसे तो चाहे कोई योगी-यति हो या संसारी जीव, हर एक का मन किसी न किसी भटकाव में जी रहा है। यह भटकाव चाहे उसे मदिरालय ले जाए, चाहे काशी, चाहे सम्पत्ति का त्याग कर साधु बनने का अहंकार, चाहे मठ को निर्रथक बताकर शिष्य-मण्डली का परित्याग-ये सभी भटकाव हैं-
'राजपुरुष हो या बैरागी, सबके मन कोई कस्तूरी'-यह कस्तूरी ही जीवन की एषणा है। यही व्याकुलता साधारण और विशिष्ट सभी को अहर्निश दौड़ा रही है।
हम वर्त्तमान में ही जीते हैं-अतीत या भविष्य इसी के दो छोर हैं। हम अतीत को उतना ही अपने भीतर जीते हैं, जितना वह हमारी परम्परा को वहन करता है और उतना ही वर्त्तमान हर पल अपने आँचल में बाँधकर चलते हैं, जितना वह हमारा भविष्य बनने में समर्थ हो। कवि कहाँ तक इन पलों को सँभालकर रख सकता है, इन पंक्तियों में दो टूक सुझाव देता है-
मिल सको तो अब मिलो, अगले जनम की बात छोड़ो।
कवि ने वेदना को अपने भीतर जिया है। किताबी अनुभवों को अपने गीतों से सदैव दूर रखा है। मनुष्य सुखों के पलों को ज़्यादा सहेजकर नहीं रखता। दु:खों की सौगात उसके लिए अधिक प्रिय होती है। सच्चे प्रेमी को अपने आँचल में नागफनी बाँधनी ही पड़ती है। इस मधुर सत्य को अपने प्रसिद्ध गीत में सरोज जी ने सहज रूप में अभिव्यक्त किया है-
नागफनी आँचल में बाँध सको तो आना
धागों-बिंधे गुलाब हमारे पास नहीं।
प्रेम कितना भी प्रगाढ़ क्यों न हो, कर्त्तव्य के क्रूर चरण उसके कोमल अँखुओं को कुचल ही देते हैं। जीवन की इस सच्चाई से इन्कार नहीं किया जा सकता। प्रेम की पूजा करने वाला कवि अपने कर्त्तव्य एवं सामाजिक दायित्वबोध से विमुख नहीं होता है-
सुबह जगे ही बाँह पकड़ ले जाता दिन का काम
थके नयन हो जाते जब स्वय बन्द, घिरते ही शाम / पाती अब न भेजना।
पेट भरने की अनिवार्यता के लिए जिस-तिस को अनचाहे प्रणाम करना पड़ता है। इस यान्त्रिक औपचारिकता में स्वप्नों की मादकता दम तोड़ देती है, प्रेम-सन्देश बिसर जाते हैं। सूर्य जागने एवं जागकर दैनन्दिन कार्यों में जुट जाने का प्रतीक है। कवि ने इस यथार्थपरक अनिवार्यता का सार्थक बिम्ब प्रस्तुत किया है-
भोर ही निकलते हम / काँधे पर सूर्य लिये /
दफ़्तर से घर तक हम ढोते हैं शाम।
प्रेम की सार्थकता स्वार्थहीनता में है। निश्चिन्त रहने का आश्वासन वही प्रेमी दे सकता है, जो खण्डित व्यक्तित्व का न हो। खण्डित मूर्त्ति या खण्डित व्यक्तित्व किसी की पूजा का आधार नहीं बन सकता। कर्त्तव्यबोध की सुगन्ध से जिसका हृदय आप्लावित हो, वह केवल शुभकामनाएँ अपनी अँजुरी में भरे रहता है। वह स्वय भले ही अभिशप्त जीवन जी रहा हो, अपने प्रिय की हर अभिशाप से रक्षा करता है। सँजोकर रखी प्रिया की स्पर्शानुभूति से तरल हर वस्तु को सिरा देने को तत्पर हो जाता है। उस सिराने में कैसी हूक उठती होगी, केवल अनुभव किया जा सकता है-
कर दिए लो आज गंगा में प्रवाहित
सब तुम्हारे पत्र, सारे चित्र, तुम निश्चिन्त रहना।
सच्चा कवि भटका हुआ मेघ होता है। उसका मन अव्यक्त आकुलता से भरा होता है। न जाने क दु; खी आँगन में बरस पड़े। कवि सरोज के गीत किरनों की वल्गाएँ हैं, जो प्रमाता के हृदय को रस-रज्जु से बाँधने का बीड़ा उठाए हुए हैं। हृदय को किसी रीतिकाल या आधुनिक काल में नहीं बाँधा जा सकता। इसी तरह सरोज जी के गीतों का विभाजन करना भी बेनामी होगा। गीतों की सार्थकता उनकी स्पर्श-शक्ति में है और स्पर्श का काल विभाजन किसी दार्शनिक ने अभी तक नहीं किया।
कवि ने रागात्मक चेतना में प्रेम को वरीयता प्रदान की है। यही वरीयता काव्य का प्राण है। कैफ़े में बैठकर विश्व-समस्या पर बहस करने से कोई व्यक्ति साहित्यकार नहीं हो जाता, होता है सिर्फ़ जन-मन तक पहुँचने से। 'चन्दन वन डूब गया' में जीवन-मूल्यों एवं परीक्षित मूल्यों का द्वन्द्व है। जीवन-मूल्य, जहाँ कवि को सांस्कृतिक आस्था से जोड़ते हैं, परीक्षित मूल्य वहाँ कवि को भविष्य के लिए आशावान् बनाए रखते हैं।
जिन कवियों ने भाषा को परिमार्जित किया है, नए संस्कारों को संस्कारित किया है, उनमें किशन सरोज के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। गीतात्मकता के दायरे में भाषा को तोड़ने-मरोड़ने की छूट कवि ने नहीं ली है। शब्द-चयन माधुर्य-गुण से सम्पन्न है। भारी-भरकम शब्दों से कवि ने परहेज़ किया है। सरोज जी के प्रतीक, उपमान एवं बिम्ब नवीनता लिये हुए हैं। इनका चयन जीवन-अनुभवों से किया गया है। शिल्प की गरिमा के साथ भावों की तरलता भी बनी रही है। रेल और धुआँ ऐसे ही सफल प्रतीक हैं-
रेल छूटी, रह गया / केवल धुआँ।
शिल्प के लिए यद्यपि कवि का एक तरफ़ा आग्रह नहीं है, फिर भी नवीन उदभावनाओं से शिल्प को सँवारा है। विशेषण विपर्ययय के योग से हाव का रूप बिम्ब प्रभावशाली बन पड़ा है-
शाल-वृक्षों से लिपटकर। शीश धुनती-सी हवाएँ।
उपमान-योजना में कवि ने अमूर्त्त को मूर्त्त रूप में सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया है-
1-दूर मन्दिर में जगी फिर रागिनी। गन्ध की बहने लगी मन्दाकिनी।
2-साँझ घिरी किरनों की वल्गाएँ।
3-देर तक शैवाल-सा हिलता रहा मन
यह संग्रह कविता के रेगिस्तान में नखलिस्तान सिद्ध होगा, ऐसी आशा है।
चन्दन वन डूब गया: किशन सरोज। पृष्ठ: 96, सजिल्द मूल्य: 25 रुपये, वर्ष: 1986, प्रकाशक: सवेरा प्रकाशन, निकट कोतवाली, मुरादाबाद।