किसको मुजरिम समझें, किसको दोष लगाएं / जयप्रकाश चौकसे
किसको मुजरिम समझें, किसको दोष लगाएं
प्रकाशन तिथि : 15 सितम्बर 2012
कोई सत्तावन वर्ष पूर्व गुरुदत्त की अबरार अल्वी द्वारा लिखी एक फिल्म आई थी 'मि. एंड मिसेज ५५', जिसमें एक गरीब संघर्षरत कार्टूनिस्ट से एक अमीरजादी का इश्क हो जाता है और उसकी अकड़ू अम्मा गरीब कार्टूनिस्ट को धमकी देती है कि वह अपनी हद में रहे और उसके जैसे पुराने खानदानी रईसों का मखौल अपने कार्टून में प्रस्तुत न करे। कार्टूनिस्ट कहता है कि आजाद भारत में अभिव्यक्ति पर कोई पाबंदी नहीं है। अम्मा कहती है कि वह इतना उद्दंड है कि उससे कोई शरीफ आदमी बात नहीं कर सकता। वह यहां से चला जाए और अब अदालत में उनका वकील उससे बात करेगा। नायक निहायत ही मासूमियत से कहता है कि मैडम क्या आपका वकील शरीफ आदमी नहीं है।
इक्का दुक्का हिंदी फिल्में है, जिनमें कार्टून बनाने वाला नायक है। इस महान विधा के फनकारों को नायक लेकर फिल्में नहीं बनीं। शायद इसलिए कि अनेक फिल्में जिंदगी का कैरीकेचर मात्र होती हैं और सभी सफल सितारे दशकों बाद स्वयं का कैरीकेचर ही नजर आते हैं। कार्टून और कैरीकेचर में अंतर होता है। कार्टून मौलिक विचार है, कैरीकेचर भौंडापन है। कार्टून कम जगह घेरते हुए गहरी बात करता है और समाज में व्याप्त विसंगतियों और विरोधाभास को प्रस्तुत करता है। कार्टून में हास्य के साथ व्यंग्य निहित होता है और जिस पर निशाना साधा गया है, वह भी मुस्कराता है। भारत में कभी किसी महान नेता ने अपना मजाक बनाने वाले कार्टून का बुरा नहीं माना और इस विधा को कभी सेंसरशिप के दायरे में नहीं लिया। हमारे बाला साहेब ठाकरे ने लंबे समय तक कार्टून बनाए हैं और यही उनकी रोजी-रोटी रही है। इस विधा के महान पुरोधा रहे हैं आरके लक्ष्मण और उनके समकक्ष होना तो दूर की बात है, उनके निकट भी कोई नहीं पहुंचा। दशकों तक पाठकों ने 'टाइम्स ऑफ इंडिया' में पहले आरके लक्ष्मण की कला को सराहा है, फिर सुर्खियों पर नजर डाली है।
हाल ही में एक कार्टूनिस्ट को देशद्रोह का आरोप लगाकर गिरफ्तार किया गया और महाराष्ट्र सरकार को दोषी माना गया, जबकि सच यह है कि उनके कार्टून के खिलाफ एक नागरिक ने शिकायत की है। कहा जाता है कि इस विवादास्पद कृति में संसद को कमोड अर्थात पाखाने की तरह दिखाया गया था। यह सच है कि विगत कुछ वर्षों में संसद ने अपनी गरिमा खो दी है, परंतु पाखाने का बतौर प्रतीक भी इस्तेमाल किया जाना सुरुचिपूर्ण नहीं कहा जा सकता। यह भी सुनने में आया है कि अरविंद केजरीवाल अभिव्यक्ति की आजादी के हिमायती होते हुए भी इस कार्टून से प्रसन्न नहीं थे। यह सच है कि यह प्रकरण देशद्रोह का नहीं है और अगर इसकी शिकायत नागरिक नहीं करता और पुलिस त्वरित अतिरेकपूर्ण कार्रवाई नहीं करती तो इसका जिक्र भी नहीं होता। इस घटना ने कार्टूनिस्ट को नायक बना दिया है और वह बतर्ज गुरुदत्त कह सकता था कि क्या उससे जिरह करने वाला वकील शरीफ है? इस प्रकरण का भयावह पक्ष यह है कि सुर्खियों में आने के लिए नागरिक इस तरह की शिकायत के लिए प्रेरित हो सकते हैं। अदालत के इतिहास में आज तक अभिव्यक्ति की आजादी के मामले में कोई दोषी नहीं पाया गया। इस तरह के सारे मामले महज सनसनी और सुर्खियों को जन्म देते हैं।
'टाइम्स ऑफ इंडिया' में सिद्धार्थ भाटिया ने इस प्रकरण की तटस्थ और सार्थक समीक्षा की है। उनका आशय है कि टीम अन्ना ने मंच से जिस प्रकार के नारे लगाए हैं, जिस धमकी भरे लहजे में वक्तव्य दिए हैं और इस तरह की बात भी की है कि फलां नेता को पागलखाने भेज दिया जाए, इस तरह का कार्टून बनाया जाना इसी प्रकार के सोच का नतीजा है। अब अगर टीम अन्ना के नेताओं पर कोई कार्रवाई नहीं हुई तो इस फनकार के खिलाफ ही क्यों कार्रवाई की गई? इसी महान मंच पर एक सदस्य ने बेहूदी नौटंकी भी प्रस्तुत की थी। दरअसल जब हजारों की भीड़ आपकी हर बात पर तालियां पीटे, तो स्वाभाविक है कि कोई जोश में आकर नौटंकी करे। दरअसल देश की व्यवस्था चरमरा गई है और परिवर्तन के लिए लोग बेताब हैं। परंतु किस तरह की व्यवस्था लाई जाए, इस बारे में किसी के पास कोई ठोस योजना नहीं है। संसदीय गणतंत्र प्रणाली में भले ही दोष हों, परंतु अब तक आजमाई सारी व्यवस्थाओं में यह श्रेष्ठ है। विगत कुछ समय में जिस तरह की परिस्थितियां बनाई गई हैं, वे अराजकता को निमंत्रित करने के समान हैं। इसी संसदीय व्यवस्था में कार्टून बनाने वाले को मुक्त भी किया गया है। इस व्यवस्था को कैरीकेचर में बदलने के दोषी सभी हैं।