किसानों की तरह छात्र क्यों आत्महत्या कर रहे हैं? / जयप्रकाश चौकसे

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किसानों की तरह छात्र क्यों आत्महत्या कर रहे हैं?
प्रकाशन तिथि :29 दिसम्बर 2015


शिक्षा को केंद्रीय विचार बनाकर हमारे यहां बहुत कम फिल्में बनी हैं। शांताराम की 'बूंद जो बन जाए मोती' में गंभीर प्रयास किया गया था और गांव का एक आदर्श शिक्षक अपने सगे छोटे भाई को जघन्य अपराध के लिए स्वयं पुलिस के हवाले करता है। आज़ादी की अलसभोर के आलम में 'जागृति' और 'नास्तिक' जैसी कुछ फिल्में बनी थीं। आज़ादी के बाद नेहरू की प्रेरणा और प्रयास से अनेक शिक्षा संस्थान खुले और पहले के मुकाबले विश्वविद्यालयों की संख्या भी बढ़ी। कुछ तकनीकी कॉलेज भी खुले। ये सारे प्रयास सरकारी नियंत्रण में रहे परंतु प्राइवेट हाथों में जाकर शिक्षा आज सबसे अधिक मुनाफा कमाने वाला व्यवसाय हो गई है। इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि शिक्षा व्यवसाय बन चुकी है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि शिक्षक नामक संस्था को वीआईपी कल्चर खा गई। हमने शिक्षा में छात्रों के कान में सफलता का मंत्र फूंक दिया है। फिल्म्स डिवीजन द्वारा एक वृत्त चित्र में सत्य घटना का नाटकीयकरण प्रस्तुत किया गया था। एक मध्यम आयु वर्ग की विधवा अपने इकलौते बेटे को सर्वप्रथम आने की प्रेरणा ही नहीं देती वरन उस पर मनोवैज्ञानिक दबाव भी बनाती है। अगर वह देर रात तक पढ़ता है तो मां भी उसके साथ जागती है और समय-समय पर उसे चाय-नाश्ता भी देती है। पुत्र कक्षा अाठवीं तक सर्वप्रथम आता है परंतु नवीं कक्षा में पिता के तबादले के कारण एक नया छात्र आता है, जो अधिक प्रतिभाशाली होने के कारण सर्वप्रथम आता है। अब मां और अधिक दबाव बनाती है परंतु दसवीं में भी अन्य बालक ही सर्वप्रथम आता है। अब मां लगभग पागल हो जाती है। उसका पुत्र जानता है कि वह अस्सी प्रतिशत अंक पाता है परंतु प्रतियोगी उससे अधिक प्रतिभाशाली है। अत: सर्वप्रथम आने के दबाव में वह प्रतियोगी की हत्या कर देता है। मां-बेटे को पुलिस अरेस्ट कर लेती है। क्या इस सर्वप्रथम आने की बीमारी में कुछ हाथ उस विज्ञापन का भी है, जिसमें 'उसकी कमी मेरी कमीज से उजली क्यों,' का स्लोगन है? बाजार और विज्ञापन की ताकतों ने सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन ला दिया है और उनके अंधड़ से केवल परिवार ही टकरा सकता है, क्योंकि हर बच्चे का प्रथम स्कूल घर होता है और स्कूल को घर से दूर घर होना चाहिए परंतु धन कमाने के लोभ में स्कूल एक गोडाउन बन गया है, जहां माल (छात्र) ठूंस-ठूंसकर भरना है। स्कूलों में पढ़ाई का ढोंग होता है, इसीलिए प्राइवेट ट्यूशन आज कुटीर उद्योग हो गया है, जो आयकर विभाग की निगाह से भी बचा है। सबसे पहले देश के शिक्षाविदों की कमेटी बनाकर नया पाठ्यक्रम बनाया जाना चाहिए परंतु इसी तरह का काम सरकार केवल अपने दल के स्वार्थ के लिए करना चाहती है कि नए पाठ्यक्रम में वे उदात्त संस्कृति पर अपनी संकीर्णता को लागू करें। आज इतिहास फिर से धर्म के दृष्टिकोण से लिया रहा है और भूगोल में भी कुछ परिवर्तन करके यह साबित करने की चेष्टा की जा रही है कि बिहार ही नार्थ पोल था और आर्यन जाति वहीं से आई है। गांधीजी ने 1919 में कहा था कि वे सब शिक्षा संस्थाएं मृत समान हैं, जो जीवन की व्यावहारिकता को नैतिक मूल्यों से जोड़कर नहीं पढ़ातीं। इसी उद्‌देश्य से उन्होंने गुजरात विद्यापीठ की स्थापना की और सादरा में 1920 में प्रथम संस्था स्थापित की।

इस समय भारत के 1.35 करोड़ लोग विदेशों में बसे हैं और वे केवल भारतीय सुशिक्षित एवं संस्कारवान बहू पाने के लिए भारत आते हैं। इजराइल के शिक्षाविद डेविड ने वाशिंगटन को विश्वास दिला दिया था कि अमेरिकन शिक्षा संस्थानों में साहित्य, दर्शन व इतिहास विभागों का बजट कम कर दें और व्यवसाय प्रबंधन तथा गणित संकायों में स्कॉलरशिप बढ़ा दें। इजराइल का जन्म ही बाइबिल के अाधार पर हुआ और उस स्थान पर सदियों से रहने वाले लोगों को अपनी जमीन से खदेड़ दिया गया और उन्होंने इजराइल के खिलाफ आतंकवादी दस्ते बनाए। वर्तमान का आतंकवाद इसी घटना से जन्मा है और अब व्यवसाय का रूप ले चुका है, जो नशीले पदार्थ और टेक्नोलॉजी के गुरों की स्मगलिंग करके कमाए धन से कमसिन उम्र के बच्चों को मानव बम में बदल रहे हैं। भारतीय शिक्षा संस्थानों ने भी वाशिंगटन की नीति अपनाई। उन्हें भारतीय कन्याओं को आदर्श एनआईआर बहू मटेरियल जो बनाना था।

भारत में गुरु द्रोणाचार्य अपने 105 छात्रों के साथ जंगल पहुंचे और छात्रों से परिश्रम कराकर वहां अपना स्कूल बनाया तथा 12 वर्ष के अध्ययन के बाद जाते समय उन्होंने कौरव बंधुओं से कहा कि अब आश्रम में आग लगा दो। उन्होंने अपनी संपदा को आग नहीं लगाई परंतु पांडवों ने गुरु की आज्ञा का पालन किया। शिक्षा का उद्‌देश्य माया, मोह और लोभ को नष्ट करना है।