किसानों की माँगें / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
सन 1936 के अगस्त में आल इंडिया कांग्रेस कमिटी की बैठक बंबई में हुई। उसमें आगे के असेंबली चुनाव के लिए घोषणा-पत्र तैयार किया गया। बेशक चुनाव को दृष्टि में रख के जो बातें उसमें लिखी गईं, वह मुल्क के लिए बहुत कुछ प्रगतिशील थीं। मगर किसानों और मजदूरों के लिए जो कुछ और खास बातें रखी जाने का आग्रह प्रगतिशील विचारवालों ने किया वह न मानी गईं! फलत: सारा यत्न बेकार गया! फिर भी वही हमारी आल इंडिया किसान कमिटी की बैठक में विधान के सिवाय हमने भारत के किसानों की जो माँगें (Gharter of rights) तैयार कीं, वहमहत्त्वपूर्ण हैं और सदा हमारी सभा के इतिहास में चिरस्मरणीय रहेंगी। उस दृष्टि से वह बंबई की बैठक ऐतिहासिक है।
लेकिन जब फैजपुर में सन 1936 के दिसंबर में कांग्रेस हुई और पं. जवाहर लाल फिर सभापति चुने गए तो एक बार हमने फिर कोशिश की कि किसानों की बातें कांग्रेस खास तौर से उठाए। लखनऊ में एक प्रस्ताव के द्वारा कांग्रेस ने प्रांतीय कांग्रेस कमिटियों को हिदायत की थी कि अपने-अपने सूबे में किसानों की दशा की जाँच करके सिफारिशें आल इंडिया कांग्रेस को लिख भेजें, ताकि उसी के अनुसार कोई कार्यक्रम भारत भर के लिए तैयार किया जाए। यह लखनऊ कांग्रेस में हमारी लड़ाई और वहाँ पर आल इंडिया किसान-सभा करने का ही फल था और आल इंडिया सभा की यह पहली जीत थी। उसके अनुसार बिहार प्रांत में एक जाँच कमिटी बनी भी थी। और उसने हर जिले में जाँच भी की थी, मगर उसकी रिपोर्ट नहीं छापी गई थी! इसका विवरण आगे मिलेगा।
इसलिए ज्योंही आल इंडिया कमिटी का काम पूरा करके सभापति विषय समिति के आरंभ की घोषणा करने उठे त्योंही मैंने उनका ध्यान इस बात की ओर आकृष्ट किया कि फैजपुर के बाद ही असेंबली चुनाव होनेवाला है और ज्यादातर वोटर किसान ही हैं। मगर उनके बारे में कांग्रेस का कोई खास प्रोग्राम न होने के कारण हम क्या लेकर उनके पास वोट के लिए जाएगे?लखनऊ में जो प्रस्ताव हुआ था उसके अनुसार जाँच होने पर भी कम-से-कम बिहार में तो कोई रिपोर्ट न निकली और न वहाँ से सिफारिश ही आई कि किसानों की क्या माँगें हों और उनके लिए क्या किया जाए। अधिकांश प्रांतों की यही दशा है।
इस पर बिहार के कुछ नेता बिगड़ पड़े। मगर मैंने उनका मुँहतोड़ उत्तर दे दिया। फिर सभापति जी ने इस महत्त्व पूर्ण बात की ओर ध्यान दिलाने के लिए मुझे धन्यवाद देकर आश्वासन दिया कि हम लोग इस कांग्रेस में कुछ-न-कुछ प्रोग्राम किसानों के लिए खास तौर पर बनाएँगे। फलत: वर्किंग कमिटी की ही ओर से एक प्रस्ताव आया जिसमें लखनऊ के प्रस्ताव का हवाला देते हुए जिन प्रांतीय कमिटियों ने अब तक जाँच करके रिपोर्ट न तैयार की उनके काम पर खेद प्रकट किया गया और फौरन रिपोर्ट भेजने की ताकीद की गई। मर जब तक रिपोर्ट नहीं आ जाती तब तक के लिए उसी प्रस्ताव के अंत में एक विस्तृत कार्यक्रम किसानों के संबंध में जोड़ा गया वह 'फैजपुर किसान कार्यक्रम' के नाम से पीछे प्रसिध्द हो गया। बेशक उसमें अनेक महत्त्व पूर्ण बातें किसानों के हकों के संबंध में हैं। मगर पीछे कांग्रेस की मिनिस्ट्री बनने पर उन बातों के बारे में प्राय: लीपापोती ही की गई। उनके अनुसार ठीक-ठीक अमल न हुआ।
फैजपुर में आल इंडिया किसान-सभा का दूसरा वार्षिक अधिवेशन हुआ। प्रो. रंगा अध्यक्ष थे। अहमद नगर के श्री महादेव विनायक भुसकुटे स्वागताध्यक्ष थे। वहाँ महाराष्ट्र के कुछ जवान सोशलिस्टों की सरगर्मी के करते और डाक्टर भुनेकर की स्वभाव सिध्द स्पष्टवादिता के फलस्वरूप कुछ गड़बड़ी होते-होते बची और हमारा काम निर्विघ्न संपन्न हुआ। वहीं हमने तय कर लिया कि कांग्रेस का पुछल्ला बनाने से हमारी सभा शक्तिमती नहीं हो सकती। कांग्रेस के अधिवेशन के समय मुख्य काम उसी का होने के कारण न तो सभा के काम को महत्त्व ही मिलता है और न हम उसमें पर्याप्त समय ही दे सकते हैं। फलत: स्वतंत्र रूप से आल इंडिया किसान-सभा का वार्षिक अधिवेशन करना तय पाया गया।
फैजपुर में जो सबसे महत्त्व पूर्ण काम हुआ और जो उसके बाद बराबर कांग्रेस अधिवेशन के समय चालू है, वह था किसानों की लंबी पैदल यात्रा और प्रदर्शन (Kisan marchs and procession)। श्री भुसकुटे के अथक परिश्रम से दो और तीन सौ माइल से पैदल चलकर किसानों के जत्थे फौजी ढंग से मार्च करते हुए ठीक समय पर फैजपुर आ गए। श्री रंगा, श्री याज्ञिक आदि के साथ मैं तीन-चार मील आगे ही जाकर जत्थे से मिला। हमारे साथ स्त्री-पुरुषों का एक खास दल उन लोगों की अगवानी करने गया। वहाँ से पैदल ही सब लोग लौटे। गए भी पैदल ही थे। कांग्रेस नगर के झंडा चौक में बड़ी जबर्दस्त सभा हुई। उसके सभापति प्रो. रंगा थे। हम सभी ने अवसर के अनुसार ही भाषण दिया। अपार भीड़ थी। राष्ट्रपति पं. जवाहरलाल नेहरू भी थोड़ी देर के लिए वहाँ आए और शामिल हुए। दो-चार शब्द कह के चले भी गए।
लखनऊ में हमने कोशिश करके किसानों के लिए कांग्रेस में जो मुफ्त टिकट खुले अधिवेशन के लिए प्राप्त किएगए थे,वह बात यहाँ न हो सकी। लाख कोशिश करने पर भी हमें निराश होना पड़ा। देहात में यह पहली कांग्रेस थी। किसानों के ही बल पर कांग्रेस की ताकत बनी और बननेवाली थी। फैजपुर के बाद ही फौरन किसानों के ही वोट से कांग्रेस को विजयी होना भी था। कई सौ मील से पैदल चल के किसान आए भी थे। मगर उनकी कतई परवाह नहीं की गई! कांग्रेस और उसकी स्वागत समिति के नेताओं की मनोवृत्ति पर इससे अच्छा प्रकाश पड़ता है। देहात की कांग्रेस किसके लाभार्थ है, इस बात की कुंजी वहीं इस बात से मिल गई।