किसानों के प्रदर्शन / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
सन 1937 और सन 1938 में बिहार में किसानों के अनेक विराट प्रदर्शन पटना शहर में हुए, जिनमें प्रांत के कोने-कोने से लाखों किसान जमा हुए। तारीफ तो यह कि किसान कोष के लिए वे लोग पैसे भी साथ लेते आए। सिपाहियों की ही तरह कतार बाँध कर शहर में आए, जिससे रास्ता भी बंद न हुआ और लोग प्रभावित भी खूब हुए! यों तो दूसरे शहरों में भी प्रदर्शन हुए। गया के पहले विराट प्रदर्शन की बात सन 1933 ई. में ही कह चुके हैं। पटने के पहले प्रदर्शन की बात भी लिखी चुके हैं।
19 वीं नवंबर को ─ सन 1937 में ही किसान-माँग-दिवस प्रांत भर में शान से मनाया गया। हमने तय किया कि जितने चुनाव-क्षेत्र असेंबली के हैं, प्रत्येक में किसानों का जमाव एक ही दिन और एक ही समय हो। वहाँ से चुने गए कांग्रेसी प्रतिनिधि भी उसमें शामिल रहें। यों न आएँ तो किसान उन्हें खामख्वाह बुलाएँ और उन्हीं के सामने अपनी माँगें वे पेश करें। हमने सभी स्थानों के लिए एक सम्मिलित माँग तैयार की थी। एक ही दिन प्रांत के सैकड़ों स्थानों से उन्हें दुहरवाया। कोशिश यह रही कि चुनाव-क्षेत्र के कोने-कोने से लोग जमा हो जाए। गाजे बाजे, किसान गाने और नारों के साथ प्रदर्शन में आए। इसमें हमें पर्याप्त सफलता मिली। फिर 26-11-37 को पटने में एक लाख किसानों का दूसरा प्रदर्शन हुआ।
इसी प्रकार सन 1938 ई. में भी पटने में दो भारी प्रदर्शन हुए। पहला तो हुआ गर्मियों में बाँकीपुर के मैदान में। दूसरा भी वहीं हुआ, मगर बरसात में। गर्मियों में जो जमाव हुआ था उसका जुलूस भी सभा के बाद शहर में निकला बड़े ठाट के साथ। किसान-सभा के कार्यालय में आ के उसकी समाप्ति हुई। इसमें कांग्रेसी मिनिस्टर डॉ. महमूद आदि भी शामिल थे और कुछ बोले भी। उन्हीं के सामने हमने किसानों की माँगें पेश कीं और उन्हें मौका दिया कि वे क्या जवाब देते हैं। पीछे हमने उनकी बातों का जवाब दिया और किसानों से राय भी ली।
जब बरसात में हमने ता. 15-7-38 को प्रदर्शन की सूचना निकाली तो जमींदारों और सरकार ने बहुत विरोध किया। असल में मेरे संबंध की 'लट्ठ हमारा जिंदाबाद' वाली बात तब तक काफी फैलाई जा चुकी थी। फलत: जमींदारों के अखबार ने झूठे ही लिख के सरकार को उभाड़ा कि किसान लोग भाले, बर्छे और लाठी से लैस हो कर आ रहे हैं। हमने इसका खंडन तो कर दिया और किसानों को यह भी आदेश दिया कि रास्ते में कहीं कोई छेड़े भी तो न बोलें। क्योंकि पैदल ही आनेवाले थे। फिर भी सरकार ने पटने में पुलिस ऐक्ट और 144 धारा लगा ही तो दी। शहर से बाहर और देहातों में जमींदारों के आदमी और पुलिसवाले किसानों को भड़काते और डरवाते रहे कि मत जाओ, गोली चलेगी। ताहम कौन मानता है। खेती के दिन, बरसात और यह सभी कुचक्र होते हुए भी पचासों हजार किसान जमा हुए।
खड़ी फसल की जब्तीवाला कानून बन रहा था। हमें उसका तीव्र प्रतिवाद करना था। इसीलिए सारी शक्ति हमने लगा दी। हर प्रदर्शन के समय इसी तरह की खास बातें रहती थीं। इस बार तो कांग्रेसी लोग भी विरोध कर रहे थे। मिनिस्टरों के बँगलों के चारों ओर और असेंबली भवन को भी घेर कर लाल पगड़ीवाले खड़े थे। घुड़सवार और दूसरे हथियारबंद भी थे। मिनिस्टरों की यह हालत देख किसानों की आँखें खुल गईं!
खैर, सभा हुई। हसबमालूम मैं ही सभापति था। हर बार मैं ही होता था, सिवाय पहली बार के। क्योंकि था नहीं। उसी में यह भी तय पाया था कि इस बार असेंबली भवन, हाईकोर्ट, सेक्रेटेरियट की ओर जुलूस चलेगा और मैं ही आगे-आगे चलूँगा। किसी ऊँची सवारी पर चढ़ के, ताकि किसान इधर-उधर न जाए और असेंबली में न घुसें, जैसा कि पहली बार जा घुसे थे। वही हुआ। एक मील लंबा जुलूस था और खूबी यह कि बहुत ही चौड़ी खचाखच सड़क भरी थी। थोड़ा-थोड़ा पानी भी पड़ता था। कई घंटे लगे। मैंने इतने नारे लगाए कि मुझे भी ताज्जुब था कि क्या हो गया था। खूब मस्ती थी। हमने सरकारी महल्ले को उस दिन हिला दिया।
गत दोनों प्रदर्शनों में दानापुर के गोलेदार लोग भीगा चना, हरी मिर्च और नमक ला के बाँटते थे, ताकि दूर से आए और भूखे किसान जलपान कर लें।
मुझसे पीछे भेंट होने पर भी मुल्कराज आनंद ने कहा कि इन प्रदर्शनों के समय वे स्पेन में तथा दूसरे मुल्कों में थे। वहाँ वे इनका वर्णन पढ़ के उछलते थे। कहते थे कि एक-एक प्रदर्शन से स्पेन की लड़ाई में वहाँ की किसान मजदूर सरकार को काफी सहायता मिली। क्योंकि इनसे पता चलता था कि जब किसानों में असंतोष और बगावत के भाव भर रहे हैं तो अंग्रेजी सरकार कमजोर हो रही है और उसके कमजोर होने का मतलब ही था स्पेनवालों की हिम्मत का बढ़ना एवं उन्हें अधिक सहायता का मिलना! प्रदर्शनों का इतना बड़ा महत्व है!