किसानों में चेतना / सहजानन्द सरस्वती
गत वर्षों ने भारतीय किसानों के भीतर दर्शनीय जागृति एवं संगठन शक्ति की असाधारण बाढ़ देखी है। यही नहीं कि उसने देश के सभी सार्वजनिक तथा जनतांत्रिक आंदोलनों में पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा भाग लिया है; वरन एक श्रेणी की हैसियत से अपनी स्थिति को भी उसने समझा है। साथ ही, सामंत शाही और साम्राज्यशाही के सम्मिलित निर्दय शोषण के मुकाबले में अपनी हस्ती कायम रखने के लिए उसने अपने जानों की बाजी लगा दी। इसीलिए उनकी वर्ग संस्थाएँ बहुत बड़ी हैं और शोषण के विरुध्द उनके संघर्ष ऊँचे दर्जे को पहुँच गए हैं, जैसा कि उनकी देशव्यापी बहुतेरी फुटकर लड़ाइयों से स्पष्ट है। इस जागरण और इन संघर्षों के अनुभवों ने उसमें एक नवीन राजनीतिक चेतना ला दी है। वे किन ताकतों से लड़ रहे हैं इस असलियत का पता पा गए हैं। अपनी गरीबी एवं शोषण की वास्तविक दवा भी उसने जान ली है। उनकी दृष्टि अपनी प्रकृत्या अलग रहने की हालत एवं संकुचित स्थानीयता के साथ बँधी नहीं है। उनने जान लिया है कि अनेक गुप्त-प्रकट रूपों में उनके शोषण-दोहन के लिए ही जीवित तथा उसी के बल पर फलने-फूलनेवाले पूँजीवाद को मिटना होगा, सो भी प्रधानत: उन्हीं के प्रयत्नों एवं कामों से ही-ऐसे कामों से जिन्हें वे देश की पूँजीवाद-विरोधी अन्यान्य शक्तियों के साथ मिलकर करेंगे। उनने यह भी महसूस किया है कि कुछ तो भूतकालिक सामंत प्रथा के फलस्वरूप और कुछ साम्राज्यवाद एवं पूँजीवाद के गठबंधन के द्वारा जानबूझ कर किए गए प्रयत्नों के चलते दोहन की ऐसी प्रथा पैदा हो गई है जिसने उन्हें गुलाम एवं दरिद्र बना डाला है। उसे भी मिटाना होगा। फलत: वे इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि हमारी आए दिन की लड़ाइयों का लाजिमी तनीजा होगा स्वयं पूँजीवाद के ऊपर जबर्दस्त क्रांति कारी धावा तथा उसके फलस्वरूप उसका सत्यानाश। इस प्रकार के वे शासन-सत्ता को हथियाएँगे जिससे उन्हें जमीन मिलेगी, कर्ज के भार से फुर्सत होगी, शोषण उनका पिंड छोड़ेगा और उनके परिश्रम के फलों का पूर्ण उपभोग उनके लिए निरबाधा होगा। यह पहली बात है।
दूसरी यह है कि हाल के वर्षों में प्रांतीय सरकारों की ओर से किसानों को नाममात्र की सुविधाएँ देने का मायाजाल रचा गया है। इन सुविधाओं के ज्वलंत खोखलेपन ने, इन्हें प्राप्त करने में होनेवाली जबर्दस्त दिक्कतों ने और कृषि संबंधी किसी भी बुनियादी सवाल को हल करने में प्रांतीय सरकारों की प्रकट असमर्थता ने इस तथाकथित स्वराज्य का पर्दाफाश भलीभाँति कर दिया है। इससे किसानों की यह धारणा और भी जबर्दस्त हो गई है कि वर्तमान आर्थिक तथा राजनीतिक प्रथा को मिटा कर उसकी जगह ऐसी प्रणाली को ला बिठाना होगा जिसका विधान स्वयं जनता ऐसे प्रतिनिधियों के द्वारा तैयार करेगी जिनका चुनाव व्यापक बालिग मताधिकार के आधार पर होगा। यही तो किसान-मजदूरों का पंचायती राज्य होगा जिसमें सब कुछ करने-धरने की शक्ति संपत्ति को उत्पादन करनेवाली जनता के हाथों में होगी। इस प्रकार संयुक्त किसान-सभा को कहने का गर्व है कि जमींदारों एवं पूँजीपतियों के सम्मिलित शोषणों से अपने आप को मुक्त करने तथा उसके लिए अपेक्षित बलिदान के लिए आज भारतीय किसानों का दृढ़ संकल्प पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा है।