किसान आज / अशोक भाटिया

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1.रिपोर्ट

इस बार रामधन की सारी फसल ओलावृष्टि की भेंट चढ़ गयी। रामधन भयभीत आँखों से बरसात और ओलों की मार को देखता रहा। बीज, खाद, सिंचाई, गोड़ाई पर लगा सारा पैसा, सारी मेहनत बर्बाद हो गई ...

आढ़ती फसल कटने से भी पहले क़र्ज़ चुकता करने का तकाज़ा कर गया था। और इधर तबाही के मंज़र थे। सरकार ने गिरदावरी करवाई, तो उसके खेत को शामिल नहीं किया। यानी कि मुआवजा भी नहीं मिलेगा। वह पटवारी और सेक्टरी को कई बार कह चुका, पर वो लिखे तो ही....अब वह क़र्ज़ चुकता कहाँ से करे, घर में तो खाने के भी लाले पड़े हैं ...खेत की मेंड पर उकडूं बैठा वह सोचता रहा..इस बार बेड़ा कैसे पार होगा? कर्जा देने वाले भी हमारे हालात जानते हैं...वो भी मुंह फेरने लगे हैं...रामधन ने एक बार ऊपर देखा, फिर फौरन ही जमीन की तरफ देखने लगा...

अगली सुबह रामधन खेत किनारे ओंधे मुंह पड़ा मिला। वह मर चुका था। पोस्टमार्टम हुआ। शाम को रिपोर्ट आई कि जहरीला पदार्थ खाने से मौत हुई है। ’ उसकी घरवाली रामरती फिस पड़ी-ये रपट झुट्ठी है। इसमें उसकी मजबूरी, परेशान्नी ओर कर्जे के दबाव की बात तो बताई नहीं। यही तो पीता रहा वह पूरा बरस। थारी ये रपट एकदम झुट्ठी है..। ’

2.खबर

फैशन प्रतियोगिता चल रही थी। नई और पुरानी पीढ़ी लकदक अंदाज़ में कुर्सियों पर खचाखच भरी थी। स्टेज पर युवक-युवतियों का मादक कैटवाक जारी था, तो नीचे सॉफ्ट ड्रिंक्स वगैरा सर्व किये जा रहे थे...

इस मेगा-इवेंट को कवर करने के लिए खबरिया चेनलों में बेतरह मारा-मारी मची थी। कोई खास लम्हा छूटने न पाए, बेहतरीन एंगल से कवरेज हो-ऐसे स्पष्ट निर्देश थे। कई चेंनेल अपनी विशेष टिपण्णी के साथ इसे ‘लाइव’दिखा रहे थे।

यह वह समय था, जब प्रतियोगिता-स्थल से कुछ किलोमीटर दूर इस साल के पांच सोंवें किसान ने क़र्ज़ तले दबकर फांसी लगा ली थी। आज सुबह वह पेड़ पर टेंगा मिला, लेकिन अब तक किसी खबरिया चेनल ने उसकी खबर कवर नहीं की...

3.उससे पहले

रात का वक्त था। पूरे गाँव में सन्नाटा पसरा हुआ था। रामसिंह और उसकी बीवी जाग रहे थे। आकाश में तारे अंगारों की तरह जल रहे थे।

-इस बार फसल ठीक-ठाक हो गयी है। रामजी भला करें। ’रामसिंह ने कहा। उसकी बीवी कुछ न बोली।

-कई बार सोचता हूँ। हम दिन-रात जमीन पर इतनी मेहनत करते हैं। क्या कभी अपने दरवज्जे पर पुराना ही सही, एक ट्रेक्टर खड़ा करने लायक हो पाएंगे!’

-ये तो तारे तोड़ के लाने वाली बात हो गई। पहले घर की मरम्मत ही करवा लें। दीवारें कब से तड़की पड़ी हैं। ’बीवी ने कहा। उसने फ्रिज ओर टी.वी. की अपनी चाहत का कई साल पहले ही क़त्ल कर दिया था। उसकी बात सुनकर किसान चुप लगा गया।

-इस बार फ़सल ठीक-ठाक बिक जाए तो रज्जो की जैसे-कैसे शादी कर दें। सयानी हो गयी है।’ कहते-कहते उसकी खांसी छिड़ गयी।

-तेरी खांसी नहीं रुक रही। डरता हूँ, कहीं दमा या टी.बी न हो। फसल उतरने पर पहले इसका इलाज कराते हैं।’ किसान बोला।

-खांसी से मैं मरी नहीं जाती। सबसे पहले तो मानु के दाखले के पैसे भरने हैं। स्कूल से दो दफ़े संदेसा आ लिया। वो कई बार किताबें भी मांग चुका है।’ सुनकर किसान चुप रह गया। लिया हुआ क़र्ज़ उसके भीतर खलबली मचा रहा था।

-तुझे क्या लगता है? इस बार फसल ठीक-ठाक दे जाएगी?’ उसने डरकर पूछा। बीवी ने कुछ कहना ठीक न समझा।

-मैंने सारा हिसाब लगाया है। गेहूं का ठीक रेट मिल गया, तो कुछ कपड़े-लत्ते का ब्योंत भी हो जायेगा।

-और अगर ठीक रेट न मिला तो?’ बीवी की चिंता बोली।

-रामजी भला करेंगे। बस फसल ठीक-ठाक उतरकर मंडी में पहुँच जाए।’ किसान मानो गहरे में डूबकर बोला।

दोनों के बीच एक चुप्पी पसर गयी;सांय-सांय करती हुई। तभी बाहर से कुछ हिलजुल की आवाजें आयीं। किसान लपककर बाहर आया। देखा, नीलगायों का झुण्ड उसके खेत में घुसा हुआ था।

4.कीड़े

-अरे भाई देसी बीज अब कहाँ ढूंढते हो? वो तो अब चलन में ही नहीं रहे। यह बी.टी.कॉटन का बीज लो। हाई ब्रीड है। एकदम बम्पर फसल होगी। पुरखे तर जाएंगे।’ बनिये ने सधे लफ्जों में कहा।

-मेरे पास तो देसी के लिए ही पैसे नहीं हैं। ये बिट्टी वाला बीज कहाँ ते ल्यूँगा? इसनै तो कई गुना महंगा बतावें सें।’ किसान ने कहा।

-बई हम काहे को बैट्ठे हैं। यो देस्सी बैंक थारे जैस्याँ खात्तर ही खोल राख्य सें। बोलो कितना बीज चाहिए?’

क़र्ज़ लेकर किसान ने बीज खरीद लिया। ब्याज था हर महीने दस रूपये सैंकड़ा।

-अच्छे महंगे बीज लिए हैं तो खाद और कीड़े-मार दवा भी महंगी लेनी होगी, तभी ढंग की पैदावार होगी। देस्सी खाद काम कोनी आवेगी। कीड़े भी महंगी पेस्टीसाइड से ही मरेंगे।’

-पहले ब्योंत देख लेवें।’ किसान ने कहा।

-ब्योंत तो हम बणा देंगे। थम चिंता मत न करिये। इधर नुक्कड़ पर चूनीलाल की दूकान भी अपनी है, वहीँ ते ये सब मिल जायेगा। जद मरजी ले जइये।’

किसान ने सुना और चुपचाप चल दिया। पीछे से बनिए ने हांक लगाई-वो रामकिशन आली दारू की दूकान भी मन्ने ले ली है। वहीँ ते पव्वा लेते जइए। आखिर बीज बोणा सें, कोई मज़ाक थोड़े न है।’ कहते-कहते बनिया खतरनाक दांतों और थुलथुल पेट के साथ हंसने लगा।

किसान सोचता जा रहा था। पिछले साल रामफल ने इसी बनिये से क़र्ज़ बीज सब लिया था। वह क़र्ज़ तले दबकर ही कुँए में डूब मरा था। कहीं मैं भी तो उसी राह पर नहीं चल रहा? वैसे और रास्ता भी क्या है?’सोचते हुए किसान के कदम लड़खड़ाने लगे थे।

5.नक्सली

रग्घू के बाप के पास सूखाग्रस्त क्षेत्र में दस एकड़ जमीन थी। उसने महाजन से बुवाई के मौसम में क़र्ज़ उठा लिया था। सरकारी बैंक ने तो यह कहकर मना कर दिया था कि पहले पिछला क़र्ज़ चुकता करो। महाजन को भी फसल की आस न के बराबर थी’ पर वह वसूली के और भी तरीके जानता था।

रग्घू के बाप ने बोया तो सोयाबीन था, लेकिन भयंकर सूखे ने सारी जमीन दरका दी थी। ऐसे लगता था, मानो जमीन में लम्बे-लम्बे सांप उग आये हों। आसमान से पानी नहीं, सिर्फ आग बरस रही थी। चारों तरफ चिलचिलाती लू का साम्राज्य था। लगातार सूखे के कारण गाँव में लोग चलते-फिरते कंकाल लगते थे। जानवर तक मरने लगे थे। हालाँकि रग्घू के बाप ने खेत में बीज डालते वक्त हर देवी-देवता की पूजा की थी; फसल के लिए मन्नत भी मांगी थी। फिर भी छोटे बच्चों जैसे पौधे कुम्हलाकर धरती में समा गए। उधर क़र्ज़ था कि जिन्न की तरह बढ़ता जा रहा था। क़र्ज़ चुकाने को उनके पास कुछ भी नहीं था। चांदी के दो जेवरों से बनता भी क्या।

रग्घू का बाप जब भी सौदा-सुलुफ या ऐसे ही किसी काम से बड़े गाँव जाता, तो महाजन पीछे पड़ जाता–‘कूव्वत नहीं थी तो काहे उठाया दो लाख रुपया!’ दरअसल रग्घू की माँ पर भी महाजन की बुरी नज़र थी। सूखा पड़ जाने से उसे अब अपना यह लक्ष्य आसान लगने लगा था। रग्घू पढ़ा-लिखा नहीं था, लेकिन वह इन चीज़ों को अब कुछ-कुछ समझने लगा था। सोलह का हो चुका है। जानता है कि महाजन तुरत-फुरत क़र्ज़ थमा देता है। वह तो चाहता है कि सब उसके कर्ज़दार बने रहें।

इधर बैंक ने रग्घू के बाप पर पिछले साल की वसूली के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया था। महाजन ने भी दो के चार लाख बनाकर पाई-पाई का हिसाब चुकता करने को कह दिया। दोनों की नज़र इनकी जमीन रहन रखने पे टिकी थी। सरकार की तरफ से मुआवज़े की टालमटोल उसकी नीयत को ज़ाहिर कर रही थी। इतना पैसा राज्य सरकार कहाँ से देगी? केंद्र में दूसरी पार्टी की सरकार थी, सो मुआवजा बहुत कम और बहुत देरी से आएगा–यह तय था। बाँटने में भी बड़ी धांधली होती है।

रग्घू का बाप इन सब बातों से बड़ा परेशान था। क्या करे, कहाँ जाए? किस्से मदद मांगे? वह मानता था कि क़र्ज़ दिए बिना मुक्ति नहीं हो सकती-न यहाँ, न परलोक में। पर दे कहाँ से? घर की आबरू पर बन आयी थी। उसका तनाव उसके सर चढ़ता गया, फिर एक दिन वह कुँए में कूद गया।

गाँव में पहले ही आत्महत्याएं पसरी पड़ी थीं। तेरह दिन बीतते न बीतते बैंक अधिकारी और महाजन फिर घर आ धमके। रग्घू ने सोचा क्या करे! बहुत सोचा, पर कोई उपाय न सूझा। आखिर वह उठा। देवी-देवताओं की तमाम तस्वीरों को उसने घर से बाहर किया। ‘देख लूँगा आतताइयों को’ कहकर वह गाँव से निकला और नक्सलियों में शामिल हो गया।