किसान आत्महत्याएं और किसान केंद्रित फिल्में / जयप्रकाश चौकसे

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अधेड़ उम्र की किशोर प्रेम-कथाएं
प्रकाशन तिथि :06 जुलाई 2017


भारतीय फिल्में प्राय: महानगरीय होती हैं और छोटे शहरों और कस्बों में अधिक दिखाई जाती हैं परंतु किसानों के जीवन से प्रेरित कुछ फिल्में बनी हैं। सबसे पहले सआदत हसन मंटो की लिखी 'किसान कन्या' बनाई गई परंतु उसका व्यापक प्रदर्शन नहीं हो पाया। कुछ इतिहासकारों का विचार है कि 'किसान कन्या' पूरी ही नहीं हो पाई। मेहबूब खान ने 1939 में 'औरत' फिल्म का प्रदर्शन किया, जिसे उन्होंने 1956 में 'मदर इंडिया' के नाम से बनाया। दोनों ही फिल्मों में सूदखोर महाजन की भूमिका कन्हैयालाल ने अभिनीत की थी।

1951 में बिमल रॉय ने बलराज साहनी अभिनीत 'दो बीघा जमीन' बनाई थी। एक फिल्मकार ने 1961 में मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'दो बैलों की जोड़ी' को 'हीरा-मोती' के नाम से बनाया था। मनोज कुमार ने अपनी छद्‌म राष्ट्रप्रेम की फिल्म 'उपकार' बनाई थी। इसमें भी किसान की समस्याओं का सतही प्रस्तुतीकरण हुआ था। स्मिता पाटिल अभिनीत 'वारिस' में द्वंद्व तो उत्तराधिकार के लिए था परंतु केंद्र में जमीन-जायदाद का मसला ही था। इस समस्या पर पृथ्वीराज कपूर का नाटक 'किसान' अत्यंत प्रभावोत्पादक था। कुछ वर्ष पूर्व श्याम बेनेगल निर्देशित 'वेलडन अब्बा' में एक शहर में ड्राइवर की नौकरी करने वाला आदमी गांव में अपने खेत में बैंक से कर्ज लेकर कुंआ खुदवाने आता है और भ्रष्ट व्यवस्था का शिकार होकर कुंए की खातिर अपनी जमीन बेचने के लिए बाध्य हो जाता है। बोमन ईरानी अभिनीत यह फिल्म श्रीलाल शुक्ल की 'राग दरबारी' के पैने व्यंग्य की श्रेणी की रचना है। इंदौर की डॉ. सोनम शर्मा व साथियों की फिल्म 'कालीचार' भी ऐसी ही रचना है। ग्रामीण पृष्ठभूमि वाली आमिर खान की 'पीपली लाइव' भी महान रचना है। आमिर खान की 'लगान' तो किसान विषय के महाकाव्य की तरह की फिल्म है। डॉ. सुभाष खंडेलवाल के इंदौर से प्रकाशित रविवार के ताजे अंक में इस विषय पर अनेक सार्थक लेख हैं। यह पत्रिका सतत सामाजिक सौदेश्यता पर सामग्री देती है।

आज भारत में किसान आत्महत्या कर रहे हैं, जिसका एक कारण बैंक से कर्ज लेने की प्रक्रिया में बिचौलियों को भारी रिश्वत देने की मजबूरी है और हाथ में बमुश्किल कर्ज राशि का पच्चीस प्रतिशत धन ही आता है परंतु चुकानी पड़ती है पूरी धनराशि। बिचौलियों में अफसर और मंत्री शामिल हैं परंतु कर्ज अदाएगी का कोई भार उन पर नहीं होता। किसान आत्महत्या का एक यह कारण हो सकता है। यह सीधे हमारे नैतिक मूल्यों के पतन से जुड़ी बात है। हमने अपनी शिक्षा प्रणाली को केवल परीक्षा पास करने के हुनर में बदल दिया है। उसका ज्ञान व नैतिकता से कोई संबंध नहीं है। हमारी मायथोलॉजी भी इसके लिए कुछ हद तक जिम्मेदार हैं या यूं कहें कि वे मनमाने, तर्कहीन ढंग से परिभाषित की गई हैं।

आज प्रचार की ताकतें वैकल्पिक संसार रच रही हैं। हमें इतिहास की पृष्ठभूमि को निरस्त करके घटनाओं के मनमाने आकल्पन की आदत डाली जा रही है। मसलन दूसरे विश्वयुद्ध में हिटलर ने 6 लाख यहूदियों को कत्ल किया और यातना केंद्र में उन पर अमानवीय अत्याचार किए, जिसके परिणाम स्वरूप दूसरे विश्वयुद्ध के समाप्त होने पर यहूदियों ने अपने लिए एक स्वतंत्र राष्ट्र की मांग की। अमेरिका और ब्रिटेन ने इजरायल की स्थापना में यूहदियों की मदद की। जो जमीन सदियों से फिलिस्तीनियों की थी, उसके एक भाग पर इजराइल की स्थापना की गई। इस्लाम को मानने वाले फिलिस्तीनियों पर यहूदी देश थोप दिया गया। इसी कारण आतंकवाद प्रारंभ हुआ। उस दौर में इतिहास बोध के प्रति संवेदनशील पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इजरायल के निर्माण का विरोध किया था। भारत ने इजरायल के जन्म से जुड़ी अनैतिकता के कारण उसे कभी मान्यता नहीं दी। प्रचार की भूख से संचालित हुक्मरान इजरायल यात्रा को महत्व दे रहे हैं और इजरायल के नेता भी इतिहास बोध से वंचित हुक्मरान का स्वागत कर रहे हैं। दरअसल, अपनी आबादी के कारण हम इस समय विश्व की सबसे बड़ी मंडी हैं, जहां हर देश अपना सामान बेचना चाहता है। हमें अपने मंडी होने पर गर्व करना सिखाया जा रहा है और हम तोतों की तरह सिखाए गए वाक्य दोहराते रहते हैं। हम तो लुभावने मुखड़े से प्रभावित होकर अर्थीन अंतरे वाले गीतों को भी पसंद करने लगे हैं। खोखलापन और विचारहीनता का शिकार व्यक्ति तोते की तरह होता है। आप तोते को संस्कृत का श्लोक भी दोहराना सिखा सकते हैं परंतु इस कारण वह पंडित तो नहीं हो जाता।

अशिक्षा से अधिक काल्पनिक भय से ग्रस्त किसान कर्ज प्राप्त करने के लिए बिचौलियों को धन देता है और रुपए में मात्र बीस पैसे पाने के बाद उसे रुपया सूद सहित लौटाना होता है। उसके पास आत्महत्या के सिवा कोई रास्ता ही नहीं बचता। यह भी गौरतलब है कि विराट भारत में अत्यंत अल्प प्रतिशत जमीन पर खेती होती है, जबकि कृषि अनुसंधान पर करोड़ों रुपया नष्ट हो रहा है। तालाब की रचना करके मछली उद्योग के लिए भी विभाग है परंतु वहां भी कागजी काम ही हो रहा है। नर्मदा को इंदौर लाने के पुनीत कार्य के लिए भव्य विभाग रचा गया था और अाज भी अनेक लोग माहवारी वेतन-भत्ता पा रहे हैं, जबकि रखरखाव के लिए कम लोगों की आवश्यकता है।

'वेलडन अब्बा' में प्रस्तुत यथार्थ राष्ट्रीय महत्व का विषय है। सिताराविहीन परंतु अत्यंत सार्थक फिल्में अनदेखी ही रह जाती हैं। दूरदर्शन इन फिल्मों को दिखा रहा है। आज भी दूरदर्शन पर अपना शिकंजा कसने का विचार हुक्मरान को आया नहीं है। प्राइवेट चैनल तो मुनाफा कमाने के लिए दर्शक को अफीम ही चटाते रहते हैं।