किसान चेतना और प्रतिरोध (मदन कश्यप) / नागार्जुन
बीसवीं सदी की हिंदी कविता पर विचार करते वक़्त ऐसा लगा था कि इसके केंद्र में हैμकिसान चेतना और प्रतिरोध। दरअसल, प्रतिरोध भी किसान चेतना का ही विस्तार है। भारतीय किसान अपनी तरह से शुरू से ही प्रतिकूल परिस्थतियों से संघर्ष करता रहा है। कृषिकर्म यहां आदिकाल से ही इस विसंगति का शिकार रहा है कि श्रेष्ठजन हल नहीं छूते। यह अलग से विचारणीय है। फिलहाल प्रतिरोध तक ही सीमित रहें तो श्रेष्ठजन भले ही हार मान जाते हों, किसान हार नहीं मानता। वह प्रकृति का प्रकोप और राज का दमन झेलकर भी अपना काम करता रहता है। सूखा पड़ने और फसल के पूरी तरह नष्ट हो जाने के बाद भी, वह अगले वर्ष फिर बीज डालता है और फिर से उसी उपक्रम में जुट जाता है। यह है किसान का प्रतिरोध। हताशा किसान की प्रवृत्ति नहीं है, संघर्ष उसके जीवन का अनिवार्य हिस्सा है। आत्महत्या जैसी परिस्थिति और प्रवृत्ति तभी आती है, जब कृषि संस्कृति और व्यवस्था में कोई बड़ा दमनकारी बदलाव आता है, जैसा कि आज भूमंडलीकरण के बाद आया है। अंग्रेज़ीराज के शुरुआती दौर में भी उत्तर भारत विशेष रूप से अवध के क्षेत्रा में कृषि करों में बढ़ोत्तरी के चलते कुछ ऐसी निराशाजनक परिस्थितियां आयी थीं, लेकिन तब स्थिति इतनी भयानक नहीं थी। किसानों ने उन दिनों भी आत्महत्याएं की थीं, मगर इतनी बड़ी संख्या में नहीं। कह सकते हैं कि आज के सत्ताधारी और नीतिनिर्माता निलहों से कम क्रूर नहीं हैं। पता नहीं, इस तथ्य को किस रूप में दर्ज किया जाना चाहिए कि किसानों की आत्महत्याओं का यह दौर शुरू होने के पहले ही किसान चेतना और प्रतिरोध के सबसे बडे़ कवि बाबा नागार्जुन का निधन हो गया था। उन्होंने तो अपने अंतिम दिनों में ‘भूमिपुत्रा का संग्रामी तेवर’ ही देखा था, यह हताशा नहीं देखी थी। मिथिलांचल के जिस दूरदराज के तरौनी गांव में नागार्जुन का जन्म हुआ वह किसानों का ही गांव है। पुरोहिती वहां का मुख्य पेशा नहीं है, क्योंकि आसपास ज़मींदारों का कोई ऐसा बड़ा इलाका नहीं है जो पुरोहिती को संरक्षण दे सके। ज़्यादातर छोटी जोत के किसान हैं। इस तरह नागार्जुन बचपन में संस्कृत पढ़ने और गांव के ही एक संस्कृत पंडित से छंदरचना का ज्ञान पाकर संस्कृत में श्लोक रचने के बावजूद, अपनी चेतना के स्तर पर किसान ही थे। खेती-किसानी के प्रति उनके लगाव को उनके उपन्यासों के माध्यम से ज़्यादा विस्तार से समझा जा सकता है। उनकी मैथिली कविताओं में भी किसान के जीवन के संघर्ष, दुख और करुणा की मार्मिक अभिव्यक्तियां मिलती हैं। 300 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 नागार्जुन की किसान चेतना का विस्तार तीस के दशक में सहजानंद सरस्वती के किसान आंदोलन के दौरान हुआ। वे राहुल सांकृत्यायन के साथ किसान संघर्ष में शरीक हुए, बौद्ध धर्म अपनाकर नागार्जुन नाम रखा और हिंदी में इसी नाम से कविताएं लिखनी शुरू कीं। उसके पहले वे वैद्यनाथ मिश्र ‘यात्राी’ के नाम से लिख रहे थे और मैथिली में आगे भी ‘यात्राी’ उपनाम से ही लिखते रहे। ध्यान देने की बात है कि हिंदी की तुलना में उनकी मैथिली कविताओं में प्रतिरोध के स्वर ज़्यादा सूक्ष्म और सघन हैं, वहां ग्रामीण जीवन के दुख का वर्णन भी अधिक मार्मिक है। वहां वह मुखरता नहीं है, जिसके लिए हिंदी में वे जाने जाते हैं। हिंदी के मैथिलीभाषी युवा कवि मनोज कुमार झा ने टेलीफ़ोन पर उनकी मैथिली कविता की दो पंक्तियां उद्धृत की थीं, जो ग़ौरतलब हैं: बांसक ओड़ि उपाड़ि करइछी जारन हम्मर दिन नइ धूरत की जगतारन? (हम बांस की कटी जड़ें उखाड़कर जलावन का काम लेते हैं, हे जगतारण क्या हमारे दिन नहीं लौटेंगे?) इस कविता में गांव की ग़रीबी और दुख का वर्णन ही नहीं है, ‘जगतारण’ के सामने प्रश्न रखकर आस्था और उसके पूरे तंत्रा पर चोट भी है। उस विडंबना का उद्घाटन भी कि धर्म और ईश्वर ग़रीबों के काम नहीं आते। भले ही इसमें वह तल्ख़ी नहीं है, जो हीरा डोम की कविता ‘अछूत की पुकार’ की इस पंक्ति में है: ‘डोम जानी हमनी के छुए से डेरइल’; मगर यहां दुख इतना गहरा है कि वह एक प्रतिरोध में बदल जाता है और इस तरह यह कविता नागार्जुन की ही एक अतिप्रसिद्ध कविता ‘मंत्रा’ से कहीं ज़्यादा चोट करती है। दुख का उत्तर बिहार, ख़ासकर विदेह जनपद से गहरा रिश्ता रहा है। विद्यापति के वहां भी इसके मार्मिक वर्णन मिलते हैं। परंतु, विद्यापति के यहां दुख लगभग एक नियति की तरह है, जबकि नागार्जुन की कविताओं में प्रतिरोध और प्रतिकार का स्वर प्रमुख है। उनकी एक प्रसिद्ध कविता हैμ ‘अकाल और उसके बाद’। इस में शुरू की चार पंक्तियों में अकाल का वर्णन है, जबकि अगली चार पंक्तियों में घर में, दानों के आने की खुशी का: दाने आये घर के अंदर कई दिनों के बाद धुआं उठा आंगन के ऊपर कई दिनों के बाद चमक उठी घर भर की आंखें कई दिनों के बाद कौए ने खुजलायीं पांखें कई दिनों के बाद ग़ौरतलब है फिर नागार्जुन कई बार प्रतिरोधी विचारों के माध्यम से कंट्रास्ट पैदा करते हैं, और इस प्रकार नये सौंदर्यमूल्यों का सृजन करते हैं। उनकी किसान-चेतना को काव्यसौंदर्य के उनके उपादानों से भी पहचाना जा सकता है। नागार्जुन हिंदी के अकेले ऐसे कवि हैं जो प्रतिबद्धता और प्रतिहिंसा की खुली घोषणा करते हैं। ‘प्रतिबद्ध हूं’ (1975) उद्घोष का ही विस्तार है ‘प्रतिहिंसा ही स्थाई भाव है’ (1979) में। नफ़रत की अपनी भट्ठी में तुम्हें गलाने की कोशिश ही मेरे अंदर बार-बार ताक़त भरती है प्रतिहिंसा ही स्थायी भाव है अपने कवि का नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 301 ध्यान देने की बात है कि यह कविता हिंसा के विरुद्ध है: हिंसा मुझसे थर्रायेगी मैं तो उसका खून पियूंगा प्रतिहिंसा ही स्थाई भाव है मेरे कवि का जन-जन में जो उर्जा भर दे, उद्गाता हूं उस रवि का नागार्जुन की किसान चेतना को सीधे-सीधे खेती-किसानी से संबंधित अभिव्यक्तियों के माध्यम से पूरी तरह नहीं समझा जा सकता है। उनके शब्दचयन, प्रतीक-योजना और बिंब-विधान का भी इस दृष्टि से विश्लेषण ज़रूरी है। ‘बादल को घिरते देखा है’ जैसी उनकी कविता को प्रायः प्रकृति के सुंदर चित्रा के रूप में ही देखा जाता है। यह कविता 1938 की है और भाषा और शिल्प के स्तर पर छायावाद से पूरी तरह मुक्त नहीं है। हालांकि 1930 के दशक की भी उनकी कविताओं पर छायावाद का बहुत ही कम प्रभाव है, जबकि उस समय अज्ञेय जैसे उनके समकालीन कवि भी उस आंदोलनों के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाये थे। उस कविता में चकवा-चकई और फिर झंझानिल से महामेघ की भिड़ंत के जो प्रसंग आये हैं उनसे पता चलता है कि वे प्रेम और जीवन के संघर्ष और द्वंद्व को अपने शुरुआती दौर में ही समझने लगे थे। इसी तरह ‘कालिदास’ कविता में आया काव्य सिद्धांत भले ही सर्वथा नया नहीं हो (वैसे हिंदी में तो यह पहली ही बार आया था और आगे चलकर मोहन राकेश के प्रसिद्ध नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ में इसी सिद्धांत का विस्तार दिखायी देता है, ऐसा लगता है मानो कालिदास नागार्जुन द्वारा पूछे गये प्रश्न का उत्तर दे रहे हों, वह भी विस्तृत व्याख्या के साथ) मगर अभिव्यक्ति नयी है। 1930 के दशक में नागार्जुन की ऊपर उल्लिखित दो कविताएं, ‘बादल को घिरते देखा है’ और ‘कालिदास’, सबसे ज़्यादा चर्चित हुई थीं। मगर उन दिनों की उनकी जीवन स्थितियां बिल्कुल ही भिन्न तरह की थीं। 1932 में उनकी शादी हुई और उसके बाद सद्गृहस्थ बनने की जगह वे यायावर बन गये। 1934 से 1941 तक लगातार भटकते रहे। अखबारनवीसी की। अबोहर, पंजाब से प्रकाशित पत्रिका दीपक का संपादन किया। मैथिली से हिंदी में आये। बौद्ध धर्म अपनाया और वैद्यनाथ मिश्र ‘यात्राी’ से ‘नागार्जुन’ बन गये। उसके पहले 1933 में कोलकाता गये और वहां बांग्ला भाषा भी सीख ली। राहुल जी का साथ मिला। उनके साथ ही किसान आंदोलन की अगुवाई के चलते 1939 से 1941 के बीच कई बार जेल गये। इस कठिन और संघर्षपूर्ण दौर में लिखी गयी ‘बादल’ और ‘कालिदास’ जैसी कविता भी क्या प्रतिरोध का ही एक रूप नहीं है। कवि की खुद की जीवन स्थितियों का प्रतिरोध। नागार्जुन को इस रूप में भी समझे जाने की ज़रूरत है। वे काव्य-शिल्प और शब्द चयन के माध्यम से भी प्रतिरोध खड़ा कर सकते हैं। उनकी एक प्रसिद्ध कविता है ‘तीन दिन तीन रात’: बस-सर्विस बंद थी तीन दिन, तीन रात लगता था, जन जन की हृदय गति मंद थी तीन दिन तीन रात शहर में बस-सेवा बंद हो गयी है और उसके चलते पूरा जीवन ठप्प-सा हो गया है। जैसे पूर्णिया शहर में कर्फ़्यू लग गया हो। वैसे भी वह बंगाली प्रभाव वाला धीमी गति का छोटा-सा शहर है और बसों की 302 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 हड़ताल से और भी जड़ता फैल गयी है। बाबा ने इस कविता में गतिहीनता का चित्रा खींचा है लेकिन इसकी लय कुछ ऐसी है और भाषा को इस तरह बरता गया है कि पाठ में गति पैदा हो जाती है। जिन लोगों ने बाबा नागार्जुन को यह कविता पढ़ते सुना है, वे जानते हैं कि बाबा इसे पढ़ते हुए लगभग नाचने लगते थे। लय और पाठ की यह गतिशीलता असल में कविता में वर्णित जड़ता का प्रतिरोध है। निस्संदेह कथ्य की जड़ता के विरुद्ध शिल्प की गतिशीलता दुर्लभ है। ऐसा प्रतिरोध केवल नागार्जुन ही खड़ा कर सकते थे। केवल नागार्जुन ने ही किया है। 1940 का दशक नार्गाजुन की कविताई की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है। राहुल जी और स्वामी सहजनानंद का साथ, मार्क्सवाद से जुड़ाव, बौद्ध धर्म और दर्शन का गहन अध्ययन, कलकत्ता प्रवास के दौरान बांग्ला भाषा, साहित्य और संस्कृति से गहरा परिचय, किसान आंदोलनों की अगुआई और बार-बार जेल जाने के अनुभव ने उनकी काव्य-संवेदना को विस्तार और गहराई दी। उसी दौरान उन्होंने ‘सिंदूर तिलकित भाल’ और ‘यह दंतुरित मुस्कान’ जैसी कोमल कविताओं के साथ-साथ, ‘मन करता है’, ‘भिक्षुणी’, ‘कल्पना के पुत्रा हे भगवान’, ‘मनुष्य हूं’, ‘जनकवि’, और ‘तालाब की मछलियां’ जैसी कविताएं भी लिखीं। ‘सिंदूर तिलकित भाल’ उनकी चर्चित कविता है। यह 1943 में लिखी गयी, तब तक नागार्जुन पक्के घुमक्कड़ हो चुके थे और 1941 में ‘विलाप’ और ‘बूढ़वर’ नाम से मैथिली कविताओं की दो पुस्तिकाएं छपवाकर, ट्रेन में घूम-घूमकर बेच चुके थे। फिर भी एक गंवई किसान उनके भीतर बचा था जो पत्नी के ’सिंदूर तिलकिल भाल’ के साथ अपने गांव को भी याद कर रहा था। लेकिन, उन दिनों की सबसे उल्लेखनीय कविता है: ‘तालाब की मछलियां’। तालाब के बांध टूट जाने से मछलियां बह चली हैं। लेकिन बूढ़े मथुरा पाठक की तीसरी युवा पत्नी अब भी दीवारों के बीच क़ैद है। वह मछलियां तल रही है कि सहसा तली जाती मछलियां उससे संवाद करने लगती हैंः हम भी मछली, तुम भी मछली दोनों ही उपभोग वस्तु हैं लेता स्वाद सुधीजन, सजनी हम दोनों को अनुपम बतलाते हैं वनिता घर पल्लव में किंवा जंबीरी रस-सिक्त मत्स्य खंडों में कहीं नहीं अन्यत्रा इन्हीं में मिलती आयी है अमृत द्रव की अशेष परिवृति उन लोगों को इसीलिए तो हम तुम दोनों युग-युग से पाती आयी हैं विपुल प्रशंसा रसिकों की गोष्ठी में बहुशः इसीलिए तो हमें इन्होंने क़ैद कर लिया तालाबों में इसीलिए तो नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 303 तुम्हें इन्होंने क़ैद कर लिया सात-सात डेवढ़ियों वाली हवेलियों में यह 1944 की कविता है, जबकि आज के स्त्राी-विमर्श की दृष्टि से भी इसका महत्व है। आज़ादी के बाद नागार्जुन नये यथार्थ को पहचानने के साथ-साथ अपनी काव्यभाषा में भी बदलाव लाते हैं और छायावाद के भाषिक अवशिष्टों से पूरी तरह मुक्त हो जाते हैं। वे रूपवाद के नये हमले को भी समझते हैं और ‘मांजो और माजो’ कविता में प्रयोगवादियों पर व्यंग्य करते हुए लिखते हैंः मत करो पर्वाहμक्या है कहना कैसे कहोगे इसी पर ध्यान रहे चुस्त हो सेंटेंस, दुरुस्त हों कड़ियां पकें इत्मीनान से गीत की बड़ियां ऐसी जल्दी भी क्या है? उस्ताद पुराना, भले शागिर्द नया है। नागार्जुन मूलतः जनांदोलनों के कवि हैं। आज़ादी के पहले तो लगभग पूरी हिंदी कविता मुक्ति-आंदोलन से जुड़ी थी, मगर आज़ादी के बाद आ रहे परिवर्तनों पर सबसे पहले और जल्दी उनका ध्यान गया। 1949 में एक तरफ़ ‘मांजो और मांजो’ जैसी कविता लिखी, तो दूसरी तरफ़ तेलंगाना के जनांदोलन से प्रेरित होकर ‘लाल भवानी’ लिखी। लेकिन उसके बाद के दो दशक लगभग आंदोलन विहीन थे। भारतीय लोकतंत्रा के लिए भी वे बेहद कठिन दिन थे और हिंदी कविता के लिए तो थे ही। हालांकि उसी संक्रमण को भेदकर मुक्तिबोध जैसे कवि सामने आये, लेकिन उन्हें भी जीवनपर्यंत उपेक्षा झेलनी पड़ी। अन्य प्रगतिशील कवियों के साथ नागार्जुन की भी उपेक्षा हुई। लेकिन बाबा चुप नहीं बैठे। उन्हेांने विपर्ययग्रस्त भारतीय समाज की विडंबनाओं को उजागर करने और उस पर चोट करने की ऐसी व्यंग्य शैली विकसित की, जिससे हिंदी कविता में एक नया आयाम जुड़ गया और नागार्जुन कविता के आम पाठकों के बीच सबसे लोकप्रिय कवि बन गये। उसी दौरान उन्होंने ‘बाक़ी बच गया अंडा’, ‘अकाल और उसके बाद, ‘मास्टर।’, ‘आओ रानी हम ढोयेंगे पालकी’, ‘तुम रह जाते दस साल और’, ‘शासन की बंदूक,’ ‘गेहूं दो चावल दो’, ‘मंत्रा कविता’ और ‘तीन बंदर बापू के’ आदि जैसी लोकप्रिय और दूर तक मार करने वाली कविताएं लिखीं। लेकिन हम यहां उनकी एक अन्य चर्चित कविता ‘मेरी भी आभा है इसमें’ को उद्धृत करना चाहेंगे: नये गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है मेरी भी आभा है इसमें यह एक व्यक्तिवादी कविता भी हो सकती थी, मगर नागार्जुन की किसान-चेतना इसे एक भिन्न धरातल दे देती है: पकी सुनहली फसलों से जो अब की यह खलिहान भर गया मेरी रग-रग के शोणित की बूंदे इसमें मुस्काती हैं। 304 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 1970 के आसपास नक्सलवादी आंदोलन का प्रभाव हिंदी मध्यवर्ग पर पड़ा और युवा कवियों की एक ऐसी पीढ़ी आयी जिसने नयी कविता और अकविता के कवियों द्वारा निर्वासित किये जा चुके नागार्जुन, केदार और त्रिलोचन जैसे कवियों को पुनसर््थापित किया। हालांकि उस दौरान भी नागार्जुन ने किसी भी अन्य कवि की तुलना में अपने समय के संकट, संघर्ष और विडंबना को अपनी कविता में ज़्यादा दर्ज किया था। इतना ज़्यादा कि केवल उनकी कविता को साक्ष्य बनाकर इतिहास लिखा जा सकता है। ठीक इसके विपरीत, स्वतंत्रा भारत के सामाजिक सांस्कृतिक इतिहास के लेखन में आधार सामग्री के रूप में अज्ञेय की कोई एक भी कविता शायद ही काम आये। उन दिनों तब के युवा कवि कुमार विकल ने बाबा नागार्जुन पर एक कविता भी लिखी थी जो काफ़ी चर्चित हुई थी। बाबा ने भी उस नये किसान आंदोलन को नैतिक समर्थन दिया और ‘मैं तुम्हें अपना चुंबन दूंगा’ जैसी कविता लिखी। इस आंदोलन के प्रभाव से कविता की अंतर्वस्तु ही नहीं सौंदर्य मूल्यों में भी बदलाव आ रहा था जिसका संकेत ‘पैनी दातों वाली’ कविता में मिलता है। उस दौर की एक लोकप्रिय कविता ‘अन्न पचीसी’ भी अलग से विचार करने की मांग करती है। 1974 के बिहार आंदोलन ने नागार्जुन की कविता को एक बड़ी ऊंचाई दी और उनकी लोकप्रियता का भी विस्तार हुआ। ‘नये देश की नयी दुर्गा है नये खून की प्यासी/नौ मन जले कपूर, रात दिन फिर भी वही उदासी’ जैसी उनकी पंक्तियां नारों में बदल गयी। ‘बाघिन’, ‘इंदुजी’, ‘जय प्रकाश पर पड़ी लाठियां लोकतंत्रा की’ जैसी रचनाएं गांव-गांव तक फैल गयीं। बाबा सक्रिय रूप से आंदोलन में कूद पड़े और जेल भी गये। उन दिनों जड़ पार्टीबद्धता से ग्रस्त बुद्धिजीवियों-आलोचकों ने बाबा पर हमला भी किया। उनके विरुद्ध पुस्तिका निकाली गयी। मगर वह नागार्जुन की किसान चेतना थी जिसने जनता के मनोभावों को पकड़ा और आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। और उसी किसान चेतना की बदौलत वे आजीवन कम्युनिस्ट बने रहे, जबकि उन्हें पानी पी-पीकर कोसने वाले क्रांतिकारी सबके सब उत्तरआधुनिक हो गये। 1977 में नालंदा (बिहार) के बेलछी गांव के कुर्मी ज़मींदारों ने दिन दहाड़े 12 दलितों को जिंदा जला दिया था। यह घटना विश्व के स्तर पर चर्चित हुई थी और पूरी मनुष्यता शर्मशार हुई थी। मगर कविता लिखी इस पर केवल नागार्जुन ने। ‘हरिजन गाथा’ उस त्रासदी का वर्णन नहीं करती बल्कि उस शिशु प्रतिरोध को रेखांकित करती है जो आगे चलकर भोजपुर और जहानाबाद के जनांदोलनों में विस्तार पाता है। तभी तो नागार्जुन भोजपुर के संग्राम का स्वागत इन शब्दों में करते हैं: मुन्ना मुझको मत जाने दो दिल्ली-पटना मत जाने दो भूमिपुत्रा का संग्रामी तेवर लखने दो पुलिस जुल्म का स्वाद मुझे भी चखने दो। मो.: 09999154822