किसान : कितने आंसू कितनी मुस्कान / जयप्रकाश चौकसे
किसान : कितने आंसू कितनी मुस्कान
प्रकाशन तिथि : 27 अगस्त 2009
गुलामी के बेहिसाब मुखौटे हैं और स्वतंत्रता को पाकर भी हम इन्हें पहचान नहीं पाते, परंतु इस मामले में मोतियाबिंद हमें ही हो गया है। हर अमीर घराने में कुछ बाहरी लोगों को ‘घर जैसा’ संबोधित करते हुए उनका शोषण होता है। यह भी गुलामी का एक मुखौटा है। नौकरों से सदव्यवहार भी कम वेतन देने का आजमाया हुआ नुस्खा है। अंग्रेजों ने कई रियासतें यह कहकर हडपीं कि हमें थोडी सी जमीद दो और हमारी फौजें आपकी रक्षा करेंगी। जैसे ही आप अपनी सुरक्षा के लिए दूसरों पर आश्रित होते हैं, कालान्तर में अपनी स्वतन्त्रता खो देते हैं।
बहरहाल, आजकल बाजार की ताकतों ने गुलामी को नया मुखौटा पहनाया है और उद्योग स्थापित करने के नाम पर किसानों से जमीन खरीद ली जाती है, जहां कालांतर में वे अपनी जमीन पर मजदूर हो जाते हैं। जहां किसान जमीन बेचने से इंकार करता है, वहां उसके घर में फूट डाल देते हैं। सोहेल खान ने ‘किसान’ के रूप में इन समस्याओं को लेकर एक घोर व्यवसायिक फिल्म की रचना की है। इसमें द्वंद्व है, परिवार का टूटना-जुडना है और हिंसा भी है। परिवर्तन का स्पर्श लिए यह एक पारंपरिक फिल्म है और निर्देशक ने हर दृश्य को जमाने का प्रयास किया है। नायक के स्वरूप में जैकी श्रॉफ ने कभी बढिया काम नहीं किया, परंतु इस फिल्म की चरित्र भूमिका में वे खूब चमके हैं। सोहेल और अरबाज को आमिर की एक फिल्म में खूब सराहा गया था और इस फिल्म में उन्होनें अच्छा प्रयास किया है। व्यवसायिक सिनेमा की यह अजीब परंपरा है है कि एक बार असफल होने पर आपको लोग गंभीरता से नहीं लेता, जबकि अन्य तमाम क्षेत्रों में गिरकर उठने की तारीफ की जाती है।
विगत दशकों में आर्थिक उदारवाद और बाजार ताकतों के उभरने के दौर में हिंदुस्तानी फिल्मकारों ने ग्रामीण परिवेश पर फिल्में बनाना बंद कर दिया। सैटेलाइट चैनल को भी असली और पुराने भारत के प्रदर्शन पर एतराज था। फिल्मकार लेखकों को आगाह करते रहे हैं कि ग्रामीण पात्र नहीं चाहिए, होली, दीवाली के दृश्य नहीं चाहिए। नए त्योहार जैसे कि 31 दिसम्बर की रात और वैलेटांईन डे को पटकथा में स्थान दो। इसके परिणामस्वरूप महानगरीय मल्टीप्ल्ैक्स सिनेमा का दबदबा कायत हो गया। इस लहर ने अनेक भ्रांतियों को जन्म दिया कि मल्टीप्लैक्स और विदेशी क्षेत्रों में सफलता ही ज्यादा धन देती है। इस तरह हमारे सिनेगा को गैर-हिदुंस्तानी बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई।
इस दौर में आमिर खान की फिल्म ‘लगान’ की सफलता को भी ब्रिटिश विरोधी भावना की सफलता माना गया। इन सब कारणों से सोहेल खान की ‘किसान’ साहसी माना जा सकता है। किसानों की आत्महत्या पर कोई शोध प्रकाशित नहीं हुआ है और कोई फिल्मकार भी रूचि नहीं ले रहा है। कभी-कभी यह लगता है कि हमारी संवेदनाओं का भी विभाजन हो गया है। माइकल जैक्सन की मौत हिला देती है और सिंगूर में निहत्थों पर प्रहार की खबर हम पढते भी नहीं। सितारों की छींक से शीतलहर पैदा होती है और कुपोषण के कारण हुई मौतें हमें छूती भी नहीं। आजकल लोग अपनी संवेदनाओं पर नियन्त्रण करते हैं गोयाकि स्वस्फूर्त और स्वाभाविक कुछ नहीं रह गया है। हम सीख गए हैं कि मुस्कान नापकर दी जा सकती है और आंसू तौलकर टपकाए जा सकते हैं।