किसी एक समीक्षक का नाम दो / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 18 फरवरी 2013
'हंस' का फरवरी अंक हिंदी सिनेमा के सौ साल पर केंद्रित है और इस अंक के संपादक हैं संजय सहाय। ओम थानवी ने सत्यजीत राय की लघु फिल्म 'दो' या टू पर लेख लिखा है, जिससे सभी समालोचकों को सीखना चाहिए कि फिल्म को कैसे पढ़ा और लिखा जाता है। सिनेमा का स्तर उतना नहीं गिरा है, जितना फिल्म समीक्षा का। अमेरिकी प्रतिष्ठान एसोसिएटेड वल्र्ड थिएटर के आग्रह पर सत्यजीत राय ने तेरह मिनट की 'दो' बनाई। निर्माता की इच्छा थी कि बंगाल की ग्रामीण पृष्ठभूमि पर अंग्रेजी भाषा में लघु फिल्म बनाई जाए। राय महोदय को अंग्रेजी भाषा बोलते ग्रामीण बंगाली पात्रों की फिल्म बनाना पसंद नहीं आया। उन्होंने संवादहीन फिल्म रची, जिसका उप शीर्षक रखा 'एक नीतिकथा।' राय महोदय के हृदय में संवादहीन फिल्मों के प्रति गहरा सम्मान भी था, अत: 'दो' उनकी आदरांजलि भी है।
निर्माण के बीस वर्ष पश्चात १९८५ में सत्यजीत राय को निर्माता ने 'दो' का एक प्रिंट भेजा। संभवत: वह वीडियो कैसेट के रूप में था। कैलिफोर्निया में राय अध्ययन कक्ष में एक प्रिंट है। भारत में इस फिल्म का कोई प्रदर्शन नहीं हुआ है और बहुत ही कम लोगों को इस फिल्म के विषय में कोई जानकारी है। सत्यजीत राय ने इस फिल्म का पाश्र्व संगीत भी स्वयं ही रचा है। उनकी प्रारंभिक फिल्मों में रविशंकर और उस्ताद विलायत अली खान का संगीत था, परंतु बाद में उन्होंने स्वयं पाश्र्व संगीत दिया है। आइवरी-मर्चेंट की 'हाउस होल्डर' का पाश्र्व संगीत उन्होंने रचा था। उनकी मान्यता थी कि पाश्र्व संगीत एक पात्र की हैसियत रखता है।
इस लघु फिल्म के दो पात्र हैं- एक, अमीर घर का बालक, दूसरा- गरीब। अमीर बालक के भव्य कमरे में भांति-भांति के खिलौने रखे हैं और सजावट से आभास होता है कि अमीरजादे का जन्मदिन मनाया गया है। घर में सभी साधन हैं, खिलौने हैं परंतु बच्चा एकाकी है और बेचैन भी है। गुब्बारे फोड़ता है, च्युइंगम मुंह में रखता है। बांसुरी की आवाज आती है तो वह खिड़की से देखता है कि एक गरीब बच्चा अपनी झोपड़ी के बाहर टहलते हुए बांसुरी बजा रहा है। यह एक खिलौनानुमा बांसुरी है, जिसे बेतरतीब ढंग से बजाया जा रहा है। अमीर लड़का अकारण ही स्वयं को आहत महसूस करता है और बांसुरी का जवाब अपने खिलौना ट्रम्फेट से देता है तो गरीब बच्चा ढोल बजाने लगता है। इस तरह दोनों के बीच एक प्रतिस्पद्र्धा-सी हो जाती है। वे एक-दूसरे को जानते नहीं और उनके पास परस्पर शत्रुता के लिए कोई कारण भी नहीं है। शायद राय महोदय का संकेत है कि सारे युद्ध अकारण और अनावश्यक होते हैं। किसी वामपंथी द्वारा बनाए जाने पर यह फिल्म वर्ग संघर्ष में बदल सकती थी, परंतु मनुष्य की करुणा के गायक सत्यजीत राय इसे दो तन्हा बच्चों की अपने-अपने अकेलेपन को तोडऩे के बचपन के खेल तक ही सीमित रखते हैं। उसे वे मात्र दो परिवेशों के बीच की तकरार की तरह प्रस्तुत करते हैं। यह राय महोदय का कमाल है कि वे 'ध्वनि या अध्वनि के जरिये उस लय को हासिल करना चाहते हैं, जो बच्चों को अंतत: बच्चा ही रहने दे।' व्यावसायिक सिनेमा में बच्चे वयस्कों-सा आचरण करते हैं और वयस्क बच्चों-सा। गरीब बच्चे की पतंग को छर्रे वाली टॉय गन से नष्ट करके अमीर बच्चा अपनी विजय पर खुश है। गरीब बच्चा फिर बांसुरी बजाने लगता है। इसका उसके पास कोई जवाब नहीं है।
ओम थानवी लिखते हैं 'यह एक बड़ी फिल्म है, इस अर्थ में कि वह हमारे समाज के दुराव को बड़ी सहजता से उठाती है, वह दो अकेले बच्चों की तकरार नहीं है, उसमें बच्चों का मनोविज्ञान है, आधुनिक खिलौनों का समाजशास्त्र है, टूटे हुए परिवारों की झलक है, अकेलेपन की पीड़ा और उसका असर भी है, वह वर्ग भेद को उजागर करने वाली फिल्म भी है। साधनों के बीच पलती नाखुशी और गरीबी में निश्छल मुस्कान किसी तरह का सामाजिक सरलीकरण नहीं है, सिनेमा की भाषा में वह यथार्थ का सरल चित्रांकन जरूर है।'
इस फिल्म में अमीर बच्चा पराजय की झुंझलाहट में चाबी से चलने वाले अपने सारे खिलौने एक साथ चला देता है और उसके द्वारा अपने रोबो टॉय के माथे पर च्युइंगगम चिपकाने के बाद रोबो का टकरा जाने का दृश्य बच्चे के उपेक्षित मन की यातना अभिव्यक्त करता है, परंतु रामगोपाल वर्मा इस तरह के दृश्य को हॉरर मं बदल सकते हैं और किशोर कुमार इसे प्यारे पागलपन में बदल सकते थे। सत्यजीत राय तो संकेत देते हैं कि उस अमीर परिवार में बच्चे को भी खिलौनों में शुमार कर दिया है और साधनहीन परिवार का गरीब बच्चा दूसरे बच्चे से अधिक स्वतंत्र है। उसके मन में कोई ग्रंथि भी नहीं है। यहां तक कि अपने गरीब होने की भी कोई शिकायत नहीं है।
इस महान रचना में प्रतीकों की भरमार है। अमीर बच्चे के पास भांति-भांति के मुखौटे हैं और दूसरा बच्चा तो अपनी गरीबी को भी मुखौटा नहीं बनाता। वह अपने स्वाभाविक चेहरे से ही संतुष्ट है। अमीर और सफल समृद्ध लोगों को मुखौटों की आवश्यकता इतनी अधिक होती है कि कालांतर में वे अपना चेहरा ही भूल जाते हैं। यह राय महोदय का कमाल है कि उन्होंने इन दोनों बच्चों को नायक व खलनायक की तरह प्रस्तुत नहीं किया है। वे अपने परिवेश का स्वाभाविक हिस्सा हैं।
जिस तरह सत्यजीत राय संवादहीन फिल्मों के प्रति आदरांजलि प्रस्तुत करते हैं, उसी तरह यह लेख ओम थानवी की फिल्म पढऩे और लिखने के ढंग को सलाम करता है।